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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • 50. अतुलनीय उपचार : माटी का

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    आँखें खोलकर सेठ शुद्ध तत्त्व, परमात्मा की स्तुति करता है, पश्चात् परिवार के साथ चर्चा हुई, वैद्यों का परिचय मिला, वेदना का अनुभव बताया गया किन्तु निरन्तर जलन के कारण अभी भी आँखें पूरी तरह नहीं खुल पा रही हैं, प्रकाश को देखने की क्षमता अभी उनमें नहीं आई है। रत्नों की कोमल किरणें तक अग्नि की चिनगारी-सी लग रही हैं। अनखुली आँखों को देख कुम्भ ने पुनः कहा-चिन्ता की कोई बात नहीं मात्र हृदय स्थल को छोड़कर शरीर के किसी भी अवयव पर माटी का प्रयोग किया जा सकता है।

     

    अधपका रुधिर से भरा घाव हो, भीतरी या बाहरी चोट हो, असहनीय कर्ण पीड़ा हो, बुखार से सिर फट रहा हो, नासा की नासूर ठंड से बह रही हो अथवा उष्णता से फूट गई हो और आधा सिरदर्द देता हो या पूरा सभी अवस्थाओं में मिट्टी का प्रयोग लाभदायी होगा। यहाँ तक की हाथ-पैर की टूटी हड्डी भी माटी के योग से शीघ्र ही जुड़ जाती है और फिर कुछ ही दिनों में कार्य पूर्ववत् प्रारम्भ हो सकता है। गुणों में अतुलनीय माटी की तुलना किससे करें और कहाँ तक माटी की महिमा का वर्णन करें।

     

    कुम्भ का इतना कहना ही पर्याप्त था कि-माटी की दो-दो तोले (10 ग्राम) की दो-दो गोलियाँ बना, उन्हें पूड़ियों-सा आकार दे सेठजी की दोनों आँखों पर रखी गईं और कुछ ही पलों में वैद्यों को सफलता के लक्षण दिखे। सो घड़ी-घड़ी (24 मिनट) का अन्तराल देकर नाभि के निचले भाग पर भी योग्य विधि के अनुसार दिन व रात में छह-सात बार, छह-सात बार यह प्रयोग चलता रहा। माटी के उपचार की सफलता को देख वैद्यों ने भोजन-पान के विषय में भी कुम्भ के अनुरूप अपना अभिप्राय बताया।

     

    माटी के पात्र में तपा-तपाकर, दूध को पूरा शीतल बना पेय के रूप में रोगी को देना है। और भी सुनों उसी माटी के पात्र में अनुपात से जामन डाल, दूध को जमाकर दही बना, फिर मथानी से अच्छी तरह मथकर पूरा नवनीत निकाल शेष बचे निर्विकार तक्र (छाँछ) का सेवन कराना है। तथा मोती जैसी उजली, मधुर-पाचक-सात्त्विक कर्नाटकी ज्वार का हल्का-सा पतला रवेदार दलिया भी तक्र के साथ देना है किन्तु दिन में संध्या-काल टालकर, क्योंकि सन्धिकाल में सूर्य तत्त्व का अवसान देखा जाता है और सुषुम्ना यानि उभय तत्त्व (चन्द्र-सूर्य) का उदय होता है जो ध्यान-साधना का उपयुक्त समय माना गया है कहा भी है-

     

    "योग के काल में भोग का होना

    रोग का कारण है,

    और

    भोग के काल में रोग का होना

    शोक का कारण है।" (पृ. 407)

     

    ध्यान आदि के काल में पञ्चेन्द्रियों के विषयों का भोग, सोना-खाना आदि रोग उत्पत्ति का कारण होता है तथा भोग के काल (युवावस्था) में रोग का होना ही दुख का कारण बनता है फिर यह शोक की परम्परा का अन्त दीर्घ काल व्यतीत होने पर ही संभव होगा।

     

    माटी के सफल प्रयोग से कुछ ही दिनों में सेठ जी पूर्णतः स्वस्थ हो गए। जैसे तरह-तरह के छन्दों में मात्रा आदि के बन्धन के कारण कवि के अपने निर्मल भावों की स्वच्छन्दता, स्वतन्त्रता मिट जाती है, उसी प्रकार उपरिल कथित माटी के उपचार से दाह रोग की स्वच्छन्दता भी दूर हुई अपने आप।

     

    औषधि की उपयोगिता उसके कम-ज्यादा मूल्य से नहीं अपितु रोग के शमन से होती है ऐसा ही शास्त्र भी कहते हैं फिर भी धनवानों और बुद्धिमानों की आस्था इससे विपरीत होती है अर्थात् बहुमूल्य औषधि ही रोग निवारक होतीहै, अल्प मूल्य वाली नहीं किन्तु सेठ जी इसके अपवाद हैं।

     

    चिकित्सक दल को सेवा के अनुरूप पुरुस्कृत किया गया और अहिंसक पद्धति जीवित रहे दीर्घकाल तक इसी सत् उद्देश्य से हर्ष से भीगी आँखों के साथ, विनय-अनुनय से झुके हुए सेठ ने स्वयं अपने हाथों से शाश्वत नौ अंक वाली राशि (90 या 900 या 9000 अथवा 108, 1008,10008) भेंट की और दल की प्रसन्नता पर अपने को कृत-कृत्य माना। जाते-जाते चिकित्सक दल ने मुड़कर सेठ जी से कहा- यह सब उपकार तो माटी के कुम्भ का है हम तो निमित्त मात्र उपचारक रहे सही धन्यवाद-पुरुस्कार का अधिकारी तो कुम्भ ही है और धन्यवाद देते, कुम्भ का आभार मानते हुए प्रस्थान करते हैं सभी।



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