इस प्रकार कुम्भ और अन्य पात्रों के बीच वाद-विवाद-संवाद की बात गौण हुई। क्रम-क्रम से सभी पात्रों ने प्रायः माटी के पात्र (कुम्भ) को उपहास का पात्र बना मूल्यहीन समझा। प्रायः बहुमत का यही परिणाम होता है कि पात्र भी अपात्र की श्रेणी में आ जाता है फिर अपात्र की पूजा में पाप नहीं लगता। दुर्जन और व्यसनी व्यक्ति के समान भाँति-भाँति के सभी व्यञ्जनों ने भी श्रमण की समता को एक नाटक के रूप में देखा और खुलकर सेठ और श्रमण की अविनय की।
इधर परिवार का भोजन पूर्ण हुआ। आज यथार्थ में भोजन का प्रयोजन ज्ञात हुआ। स्वाद से दूर रह साधु बन, साध्य-प्रभु की पूजा में डूबने से बहुत दूर खड़ी मुक्ति रूपी अंगना भी, कमल की ओर सूर्य किरणों के समान साधक की ओर दौड़ती-सी लगती है। कुछ और दिनों तक बिजली की चमक-सी वाद-विवाद की स्थिति बनती रही, पर अब वाद-विवाद की बाहरी स्थिति पूर्णतः समाप्त हो गई। भीतरी बात दूसरी है वह तो प्रायः तन-धारकों में भट्ट की ऊष्मा - सी बनी ही रहती है।
एक पक्ष का संकल्प था सो पूर्ण हुआ सानन्द और कृष्ण पक्ष का आगमन हुआ। सारा परिवार गहरी निद्रा में सोया हुआ है पर सेठ जी को नींद नहीं आ रही, बार-बार करवटें ले रहा है वह। एड़ी से लेकर चोटी तक सेठ जी का पूरा शरीर गरम तवे के समान तप रहा है। जलांश लगभग सूख चुका है तभी आँखों से आँसू भी नहीं निकल रहे हैं और अन्दर की पीड़ा अन्दर ही रुकी घुट रही है। धीमी-धीमी हवा से पहले अग्नि सुलगती है फिर और तेज हो जाती है, उसी प्रकार पलकों की बार-बार टिमकार से आँखों की जलन भी बढ़ती जा रही है।
यद्यपि सेठजी के शयन कक्ष में खिड़कियों से शीतल वायु प्रवेश कर रही है किन्तु सेठ जी के मुख से निकलने वाली गरम-गरम श्वाँसों की लपटों से पूरा माहौल ही धगधगाहट में बदल गया है। इसी समय लाल-लाल बने सेठ के माथे पर एक मच्छर बैठने का प्रयास कर रहा है किन्तु बैठ नहीं पा रहा है कारण, माथे तक पहुँचते ही उसकी प्यास दुगुणी हो उठी। अंग तप गया, कण्ठ सूख गया, पंख शिथिल हुए और रक्त-पान की इच्छा कहीं उड़-सी गई और गुनगुनाहट के बहाने मच्छर कुछ कहता हुआ उड़ जाता है-
"अरे, धनिकों का धर्म दमदार होता है,
उनकी कृपा कृपणता पर होती है,
उनके मिलन से कुछ मिलता नहीं,
काकतालीय-न्याय से
कुछ मिल भी जाय
वह मिलन लवण-मिश्रित होता है
पल में प्यास दुगुणी हो उठती है।" (पृ. 385)
प्रायः धनवान कंजूस ही हुआ करते हैं जोड़-जोड़ कर धन रखना ही उनका धर्म, स्वभाव हुआ करता है। इनके सम्पर्क से हमें कुछ धन मिल जाए, ऐसी आशा कभी नहीं रखना चाहिए। काकतालीय-न्याय से कुछ मिल भी जाए तो वह भी खारे नमक से मिले हुए जल के समान प्यास को बढ़ाने वाला ही होता है। अर्थात् कंजूस का धन पचाना भी कठिन हो जाता है।