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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • 35. उबलता : स्वर्ण कलश

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    इस घटना से अपने आपको अपमानित-सा महसूस करता हुआ शीतल जल से भरा पीतल का कलश भीतर ही भीतर उबलने लगा। स्वर्ण के द्वार पर श्याम वर्ण (माटी) का स्वागत देख स्वर्ण-कलश क्रोधित हो आपे से बाहर हुआ। आक्रोश के साथ कुछ कहता है वह कि-एक दिन भी पूर्ण नहीं हुआ और आगत माटी के कलश का इतना स्वागत ! माटी को सिर-माथे पर लगाना और मुकुट को पैरों में पटकना, यह सब सभ्यता पूर्ण व्यवहार-सा नहीं लगता। अपनों के प्रति लोक-व्यवहार का भी यहाँ अभाव-सा लग रहा है और इस बात को मैं भी मानता हैं कि-

     

    "अपनाना-

    अपनत्व प्रदान करना

    और

    अपने से भी प्रथम समझना पर को

    यह सभ्यता है, प्राणी-मात्र का धर्म।" (पृ. 357)

     

    निम्न से निम्न व्यक्ति को भी स्वीकार कर अपनापन देना और अपने से पहले उसके हित के बारे में सोचना यह प्राणिमात्र का कर्तव्य है, सभ्यता है। परन्तु यह कार्य उचित क्रम से, उचित तरीके से किया जावे तो ठीक लगता है इससे उसका हित भी संभव है।

     

    इस विषय को और स्पष्ट करूं तो उच्चकुलीन, उच्च ही रहता है नीचकुलीन नीच ही रहता है, ऐसी भी मेरी धारणा नहीं है। नीच कुल वालों को भी उच्चकुलीन बनाया जा सकता है। योग्य और अयोग्य सम्पर्क से सबमें परिवर्तन हो सकता है, किन्तु इतना भी ध्यान रखना होगा, मात्र शारीरिक विकास (स्वास्थ्य, भोजन, पानी), आर्थिक तथा शैक्षणिक (पुस्तक, शिष्यवृत्ति) सहयोग मात्र से नीच कुल वाला उच्च नहीं बन सकता।

     

    उच्च बनाने का कार्य सात्त्विक संस्कार, मद्य-माँस आदि व्यसनों के त्याग से ही संभव है। यदि मठे में जीरे आदि का छौंक दिया जाए तो वह स्वादिष्ट के साथ-साथ पाचक भी बनता है, दूध में मिश्री मिला दी जाए तो दूध स्वादिष्ट के साथ-साथ बलवर्द्धक भी बन जाता है। इसके विपरीत मठे में मिश्री मिलाना कथंचित् थोड़ी मात्रा में लाभकारी भले हो जाए किन्तु दूध में जीरे आदि का छौंक लगाना तो बुद्धि का विकार ही माना जायेगा। यूँ कहकर धीरे-धीरे कलश शान्त हो जाता है। 



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