सुनो ! सुनो ! कुछ और सुनो कलिकाल की महिमा, चाँदनी रात में चन्द्रकान्त मणि से झरा उज्ज्वल जल ले, मलयाचल का चन्दन घिसकर ललाट तल और नाभि पर किया गया लेप, दाह रोग के उपशमन हेतु वरदान माना गया है। यह सुना भी है और अनुभव भी है कि तुरन्त निकाले गये ताजे सुगन्धित घी में अनुपात से कपूर मिलाकर, उसे घुलाकर हल्की-हल्की अंगुलियों से मस्तक के मध्यभाग ब्रह्मरन्ध पर और मालिश की कला में कुशलों द्वारा रोगन आदि गुणकारी बादाम तेल का रीढ़ में मलना दाह के उपशमन में रामबाण (अचूक) उपचार माना गया है किन्तु विद्वानों द्वारा सम्मत इन उचित उपचारों को उपेक्षित कर माटी के कीचड़ का लेप करना बुद्धि की कमी ही मानी जायेगी।
भोजन पान के विषय में भी ऐसा ही कुछ घटित हो रहा है। स्वादिष्ट बलवर्द्धक दूध का सेवन, ओज और तेज को देने वाले घी का भोजन, अकाल मरण को दूर करने वाला, भावों का सात्त्विक शान्त बनाने वाले दही से निर्मित अनेक पकवान और व्यञ्जनों की उपेक्षा की गई उसी का यह फल निकला कि सेठजी भी ज्वर रोग से घिर गए और सत्त्व-शक्ति से रहित ज्वार के दलिए के साथ, सार रहित नीरस छाछ का सेवन करना दरिद्रता को निमन्त्रण देना है, एक बात और कहना है कि -
"धन का मितव्यय करो, अतिव्यय नहीं
अपव्यय हो तो कभी नहीं,
भूलकर स्वप्न में भी नहीं।
और
अव्यय तो.....सर्वोत्तम!" (पृ. 414)
पुण्योदय से यदि धन सम्पदा मिली है तो उसको खर्च करते समय इतना ध्यान रखना चाहिए की सीमित मात्रा में खर्च हो अत्यधिक नहीं, व्यर्थ का खर्चा तो कभी भी नहीं, स्वप्न में भी नहीं और बिल्कुल भी खर्च न हो तो सबसे ज्यादा श्रेष्ठ ऐसी धारणा वस्तु तत्त्व को छूती नहीं अर्थात् वास्तविक ज्ञान का अभाव प्रदर्शित करती है। क्योंकि निश्चय दृष्टि से देखा जाए तो प्रत्येक पदार्थ में उतना ही व्यय होता है, जितनी आय और उतनी ही आय होती है जितना व्यय|
विशेष - जैसे संसार में स्थित असंख्यात त्रस जीवों में से 6 माह और 8 समय में 608 जीव मुक्त होते हैं तो उतने ही जीव निगोद पर्याय को छोड़कर त्रस पर्याय को धारण कर लेते हैं, अतः त्रस राशि हमेशा एक जैसी बनी रहती है, कम ज्यादा नहीं होती इसी प्रकार आय और व्यय की यह व्यवस्था ही शाश्वत सत्य है फिर ऐसी स्थिति में अतिव्यय और अपव्यय का प्रश्न ही शेष नहीं रहता।
वस्तुतः देखा जावे तो हमारे पुरुषार्थ से वस्तु स्वरूप में कभी भी परिवर्तन आ ही नहीं सकता फिर भी राग-द्वेष से लिप्त हमारे मन में परिवर्तन का भाव आ सकता, आता है और यही तो संसार का मूल कारण है अहंभाव। इससे यही फलित हुआ कि-
"सिद्धान्त अपना नहीं हो सकता
सिद्धान्त को अपना सकते हम।" (पृ. 415)
हमारे अपने विचार, अपना चिन्तन सो सिद्धान्त या आगम वाक्य नहीं हो सकता किन्तु हम चाहें तो जिनोपदिष्ट सिद्धान्त वचनों को स्वीकार कर अपना हित कर सकते हैं।