आतंकवाद के आने का दिन और समय निश्चित हुआ। आज आधी रात को आपत्ति की आँधी ले आयेगा वह, किन्तु स्वर्ण कलश के सामने एक समस्या आ खड़ी हुई। उसी के दल में से एक असंतुष्ट दल का निर्माण हुआ जिसने इस कार्य को अन्याय, असभ्यता कहकर नकारा है, अपने सहयोग की स्वीकृति प्रदान नहीं की। उस दल की संचालिका स्फटिक झारी ने कहा कि न्याय के वेदी पर अन्याय का ताण्डव नृत्य मत करो, धीरे-धीरे झारी का पक्ष मजबूत होता चला गया और पूर्व में जिन के मन में कुम्भ के प्रति द्वेष और पक्षपात का भाव था, ऐसे लगभग सभी बर्तन, चाँदी के कलश-कलशियाँ, चमचियाँ, ताँबे के बर्तन, कटोरे- कटोरियाँ आदि बर्तनों ने स्वर्ण कलश के पक्ष को ठुकरा कर झारी को अपना समर्थन दिया है। इन परिस्थितियों को देख पुनः समझाने का भाव ले झारी स्वर्ण-कलश से कहती है-
"जो माँ-सत्ता की ओर बढ़ रहा है
समता की सीढ़ियाँ चढ़ रहा है
उसकी दृष्टि में
सोने की गिट्टी और मिट्टी
एक है
और है ऐसा ही तत्त्व !" (पृ. 420 )
जो माँ सत्ता यानि शाश्वत सत्य की खोज में बढ़ रहा है, समता का जिसने आश्रय लिया और अपने भीतर समता का विकास कर रहा है, ऐसे साधक की दृष्टि में सोने का टुकड़ा और पत्थर दोनों समान ही हैं, यही तत्त्व दृष्टि है कि दोनों पुद्गल की पर्याय हैं निज से भिन्न हैं। अतः अवसर का लाभ लो, मान को कम कर हठाग्रह को छोड़, जो वर्धमान होकर मान से रहित हैं उनके चरणों को नमस्कार करो, तुम भी इस अपार पाप-सागर से पार हो जाओगे।
मन्दोदरी द्वारा सीता को छोड़ देने की बात समझाने पर भी रावण को कुछ समझ ना आया उसी प्रकार झारी की बातों का स्वर्ण कलश पर कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा। अपितु उबलते तेल के कड़ाव में जल की चार-पाँच बूंदें गिरी सी अनियन्त्रित दशा, क्षोभ का दर्शन ही हुआ, स्वर्ण-कलश के मुख पर। फिर उत्तेजित हुआ स्वर्ण- कलश कहने लगा-एक को भी नहीं छोडूंगा, तुम्हारे ऊपर दया करना अब सम्भव नहीं, प्रलयकाल का ही दर्शन तुम्हें करना होगा|
55. पलायित हुआ परिवार
फिर निर्धारित समय से पूर्व ही दुर्घटना घटने की सम्भावना देख झारी ने माटी के कुम्भ को संकेत दिया-अड़ोस पड़ोस की जनता भी इस दुर्घटना का शिकार न हो बस इस आशय से। कुम्भ ने भी सेठ से कहा कि-तुरन्त परिवार सहित यहाँ से दूर निकलना चाहिए देरी करने से अनर्थ हो सकता है और भवन के पिछले पथ से पूरा परिवार निकल गया किसी को पता भी नहीं चला, यहाँ तक की झारी को भी नहीं क्योंकि बताने जैसी परिस्थिति भी तो नहीं थी। और फिर-
"विश्वस्त भले ही हुआ हो
सद्यः परिचित के कानों तक
गहरी-बात पूरी-बात
अभी नहीं पहुँचनी चाहिए।" (पृ. 422)
भले ही उस पर विश्वास है फिर भी तुरन्त परिचित हुए से रहस्य की गंभीर बातें, पूरी बातें नहीं बताना चाहिए यह ही उचित है।सेठ के हाथ में कुम्भ है पीछे-पीछे पूरा का पूरा पापभीरू परिवार चल रहा है, बीच-बीच में पीछे-पीछे मुड़कर देखते हैं सब।तथा नगर के द्वार आदि को पार कर घने जंगल में पहुँच जाते हैं।
ऊँचे-ऊँचे, हरे-भरे वृक्ष खड़े हैं, जिनकी छाया रूपी दरी धरती पर बिछी है। अतिथि को बुलाती-सी विश्राम करने को कह रही है सो पूरा परिवार अभयता महसूस करता जीव-जन्तु रहित प्रासुक भूमि पर कुछ समय के लिए बैठ जाता है। परिवार का पसीने से लथपथ शरीर, खेद से आहत मन शीतल हवा का स्पर्श पा शान्ति का वेदन करता है। युगों-युगों की वंश परम्परा से बंशीधर के अधरों का प्यार भरा अमृत मिला जिन्हें, अमंगल को दूर कर मंगल करने वाले, तोरण द्वारों का अनुकरण करते, मांसल बाहों के समान भरे हुए पुष्ट, पास में ही खड़े हुए बांस के वृक्षों की पंक्तियों ने कुम्भ के चरणों में नमन किया और आँसुओं के बहाने परमात्मा के समान अत्यधिक निर्मल वंश-मुक्ता की वर्षा की।
इसी बीच सिंह से भयभीत अभय स्थान की खोज करता हुआ हाथियों के झुण्ड को अपनी ओर आता देख सेठ परिवार ने प्रेम भरी आँखों से उन्हें बुलाया, कहा डरो मत आओ इधर आओ भाई। फिर क्या परिवार की चरण - शरण में आ गज दलों ने माँ की गोद में शिशु-सम निशंक हो अपूर्व शान्ति का अनुभव किया। इस अवसर पर हाथियों ने भी विनीत भाव से कुम्भ के सम्मुख मुक्ता राशि को चढ़ाया। सो इसी कारण यह मुक्ता गजमुक्ता के नाम से विख्यात है। धरती पर पड़े वंशमुक्ता और गजमुक्ता एक-दूसरे से मिले दूर-दूर तक अपनी आभा फैलाने लगे, मुक्ताओं के बीच आत्मीयता का दर्शन हो रहा है और स्व-पर का भेद दूर-सा हुआ, बस चारों ओर रह गई है आभा...आभा......!