यह सब प्रभाव समता के धनी श्रमण का है जो हम पर पड़ा, अन्त में इतना कहकर सेठ भोजन प्रारम्भ करता है कि पुनः कलश की ओर से व्यंग्यात्मक भाषा का प्रयोग प्रारम्भ होता है। जिसे आप समता के धनी कह रहे हैं, हमें तो नहीं लगता, कोष में रहने वाले ‘श्रमण' शब्दधारी श्रमण तो बहुत बार मिले हैं किन्तु होश के वास्तविक श्रमण कोई विरले ही होते हैं। और ऐसी कैसी समता जिसमें इतनी भी क्षमता नहीं है कि वक्त पर भयभीत को अभयदान दे सके, आश्रय से रहित को आश्रय दे सके।
संसार से भयभीत हुए बिना श्रमण भेष धारण कर अभय का हाथ उठा आशीष देने की अपेक्षा अन्यायमार्गी रावण जैसे-शत्रुओं पर राम जैसे श्रमशील बन हाथ उठाना ही कलियुग में सतयुग ला सकता है धरती पर स्वर्ग का अवतार किया जा सकता है। श्रम करे सो ‘श्रमण', कुछ काम-धाम न करने वाले ऐसे श्रमण के लाल-लाल गाल को तो पागल से पागल शृगाल भी खाने की बात तो दूर, छूना भी नहीं चाहेगा।
इतना सुनाने के बाद भी स्वर्ण-कलश का उबाल शान्त नहीं हुआ और खिचड़ी की भाँति खदबद-खदबद उबलता ही रहा। सन्त के नाम पर पुनः आक्रोश व्यक्त करता हुआ कहता है-कौन कहता है कि आगत सन्त में समता थी, हमें तो दश-प्रतिशत भी समता दिखी नहीं उसमें, पक्षपात की मूर्ति है वह, जिसकी दृष्टि में अभी भी ऊँच-नीच का भेद-भाव है। स्वर्ण और माटी का पात्र एक रूप नहीं है वह समता का धनी कैसे हो सकता है? और फिर
"एक के प्रति राग करना ही
दूसरों के प्रति द्वेष सिद्ध करता है,
जो रागी है और द्वेषी भी
सन्त हो नहीं सकता वह ।"(पृ. 363)
किसी एक से राग करना ही स्वयमेव दूसरों के प्रति मन में द्वेष भावों को व्यक्त करता है। जो रागी भी है और द्वेषी भी, सन्त हो नहीं सकता और ऐसे नामधारी ‘सन्त' की उपासना से संसार का अन्त हो नहीं सकता। ऐसे सन्त को श्रमण कहने से सही सन्त का उपहास और होगा। ये वचन कटु हैं पर हैं सत्य, इसीलिए निष्पक्ष होकर सत्य का स्वागत हो।
फिर सेठ को हँसी की दृष्टि से देखता हुआ कलश कहता है- गृहस्थ अवस्था में नामधारी सन्त यह, अकाल में पला हुआ, अभाव के भूत से घिरा, बहुमूल्य वस्तुओं का भोक्ता कैसे हो सकता है? तभी तो भिखारियों के समान स्वर्णादि पात्रों की उपेक्षा कर माटी के पात्र का स्वागत किया है सेठ ने।