माटी के उपचार द्वारा सेठजी को आरोग्य का लाभ मिलना, चिकित्सक दलों से माटी की प्रशंसा सुन एक बार और अपने सामने आत्म ग्लानि, मान हानि की बात पैदा हो गई यूँ कहता हुआ आत्मा की श्रद्धा से च्युत निष्कर्मा वनवासी के समान विवश हो उदासी में डूब जाता है, स्वर्ण कलश।
इन उच्चकुलीन कर्णो को अब कुलहीनों की प्रशंसा सुननी है वह भी धन के लोभी सज्जनों के मुख से, अब झूठी प्रशंसा सुनी नहीं जाती लगता है कानों में कील ठोक लूँ। सत्य धुंधला-धुंधला-सा होता जा रहा है, पतितों को पावन समझ, सम्मान के साथ ऊँचे सिंहासन पर बिठाया जा रहा है और पाप को खण्डित नष्ट करने वालों को पाखण्डी छली कहा जा रहा है।
ना ही कभी सोचा था और ना ही विश्वास था कि एक बार और मानवता के पतन की दुर्गन्ध इस नासा को मुर्च्छित करेगी, पीड़ा देगी मन को। इतना कहने के बाद भी स्वर्ण-कलश का गुस्सा शान्त नहीं हुआ और चिन्ता से घिरी गम्भीर मुद्रा लिए हुए वह कुछ और कहता है
"इसे कलिकाल का प्रभाव ही कहना होगा
किंवा
अन्धकार-मय भविष्य की आभा,
जो
मौलिक वस्तुओं के उपभोग से
विमुख हो रहा है संसार!
और
लौकिक वस्तुओं के उपभोग में
प्रमुख हो रहा है, धिक्कार।" (पृ. 411)
इसे कलियुग का ही असर कहा जा सकता है अथवा आने वाले अंधकारमय काल का संकेत कि यह संसार मूल्यवान वस्तुओं के उपभोग से दूर रह रहा है और साधारण वस्तुओं के उपभोग को ही स्वीकार कर रहा है।
चमचमाती मणियों की मालाएँ, सुन्दर मोतियों की लड़ियाँ, हीरों के हार, तोते की चोंच को भी लजाने वाले मुंगे, मयूर कण्ठ की नीलिमा सम नीले नीलम, केसरिया पुखराज, पारदर्शी स्फटिक, अग्नि के समान लाल होते हुए भी शान्त किरणों के समूह माणिक इन सबके उपयोग से यह संसार दूर हो रहा है। जबकि इनमें केवल शीतलता ही नहीं मिलती अपितु मधुमेह, खाँसी, श्वांस, क्षय रोग आदि-आदि राज रोग भी दूर होते हैं तथा इनको धारण करने से प्रायः प्रतिकूल ग्रहों का प्रभाव भी नहीं पड़ता, किन्तु आज इन्हें छोड़ काँच-कचरे का ही सम्मान हो रहा है, उसे ही स्वीकारा जा रहा है।
सोने के घट, कलश, चाँदी के लोटे, प्याले, तांबे के कुम्भ, कढ़ाई, बड़ी परात - भगोनिया आदि-आदि मौलिक बर्तनों को बेचकर जघन्य सदोष स्टील (लोहे) के बर्तनों को धनी और बुद्धिमान भी खरीद रहे हैं। सर्वत्र इस्पात का ही स्वागत देखा जा रहा है, जेल में अपराधी के हाथ-पैरों में लोहे की बेड़ियाँ हैं तो नव युवक-युवतियों के हाथ में भी लोहे के कड़े मिलते हैं। समझ नहीं आता क्या यही विज्ञान है यही विकास है! लगता है सोना सो गया यानि समाप्त हो गया अब लोहे से ही लोहा लेना होगा अर्थात् काम चलाना पड़ेगा।