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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • 42. लाल हुआ : अनार का रस

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    झारी को पाप की पुतली संज्ञा मिलते ही उसमें भरा अनार का रस और अधिक लाल हो उठा सो ठीक ही है, सच्चा सेवक क्या अपने स्वामी का अपमान देख तिलमिलाता नहीं, बैचेन नहीं होता? होता ही है। आधार के हिलने से उसमें रखा पदार्थ, आधेय भी हिलता ही है और उत्तेजित हुआ अनार का रस कहता है- सेठ में शालीनता की मात्रा, श्रमण की श्रमणता, समता की बात किसमें कितनी है सब हमें ज्ञात है, पानी की गहराई किनारों को छूकर, तट-स्पर्श से भी जानी जा सकती है।

     

    और इधर सीसम के श्यामल आसन पर रखी चाँदी की चमकती तश्तरी में पड़ा-पड़ा केशरिया हलवा और हलवे में एक चम्मच जो कि शीर्षासन के बहाने अपनी निरुपयोगिता सिद्ध होने पर लज्जित हुआ मुख छुपा रहा था। अनार का समर्थन करता हुआ कहता है कि-श्रमण की सही समीक्षा की तुमने और सन्त से उपेक्षित होने के कारण घी की अधिकता के बहाने डबडबाती आँखों से रोता-सा लगा।

     

    इधर घी की सुगंध को भी श्रमण की नासा ने नहीं स्वीकारा तो वह भागती-भागती घृत के पास वापस आई और कहती है-संत की शरण बिना आधार की है, उसके भीतर तो डरावना-सा वातावरण दिखता है। सन्त की नासिका सुख को नष्ट करने वाली है, मुझे यहीं रहने दो वहाँ मत भेजो। इधर केशर ने भी सिर हिलाते हुए आश्चर्य प्रकट किया कि अशरण को शरण देना तो दूर मुस्कान की दृष्टि तक नहीं मिली। श्रमण हुए वर्षों हो गये, काले बाल सब सफेद हो गये, पर अभी भी श्रामण्य (साधुपना) का अभाव ही लगता है।

     

    बुद्धि होते हुए भी अपने कर्तव्य को भूल चुका है वह, सर-दार का जीवन अब असरदार यानि प्रभावशाली नहीं रहा। उसके तन-मन और चेतन में सरलता नहीं दिखती कहीं भी। समय बीत चुका है, अतीत के अनन्तकाल में खो चुका है। इस बात को मैं भी मानता हूँ कि सदा-सदा से -

     

    "ज्ञान ज्ञान में ही रहता,

    ज्ञेय ज्ञेय में ही,

    तथापि

    ज्ञान का जानना ही नहीं

    ज्ञेयाकार होना भी स्वभाव है|" (पृ. 381)

     

    अर्थात् ज्ञान कभी ज्ञेय रूप में अथवा ज्ञेय कभी ज्ञान रूप में परिवर्तित नहीं होता दोनों का लक्षण भिन्न-भिन्न है, फिर भी ज्ञान के द्वारा पदार्थ का जानना ही  नहीं किन्तु ज्ञान में ज्ञेय का आकार झलक आना भी ज्ञान का स्वभाव है अतः हमारी ओर देखने में सन्त को क्या हानि थी?

     

    लगता है नामधारी सन्त को ज्ञान के ज्ञेयों से भय लगता है, ऐसी स्थिति में वह स्वभाव, समता से दूर हुआ देवत्व को नहीं किन्तु संघर्ष, संग्राम को प्राप्त हुआ, मरणपने को ही प्राप्त होता लगता है। और सुनो पुनः उच्च स्वर में केशर कहता है- जीवन को मात्र गुजारना ही नहीं किन्तु कुछ नया करना ही नयापन है और नाव के समान उस पार उतारने वाला नैयापन है।



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