जल का साहस इससे आगे कुछ कहने का नहीं होता देख, लेखनी स्वयं कुछ कहने को उद्यमशील होती है कि-गुणियों का गुणगान करना तो दूर निर्दोषों को सदोष बताकर अपने दोषों को छुपाना चाहते हो तुम । सन्त पर आक्रोश व्यक्त करना, समता का उपहास करना, सेठ का अपमान करना आदि ये सब तुम्हारे अक्षम्य अपराध हैं, फिर भी उन्हें गौण कर तुम्हारे सम्मुख माटी की महिमा ही नहीं किन्तु तुम्हारा भी कितना मूल्य, मूल्यांकन है दो उदाहरणों के द्वारा प्रस्तुत करती हूँ -
दीपक और मशाल सामान्य रूप से दोनों प्रकाश के साधन हैं पर दोनों के स्वभाव भिन्न-भिन्न हैं। बाँस के एक छोर पर कुछ चिन्दियाँ बाँधी जाती हैं, नीचे पकड़ने हेतु स्थान होता है, यही है मशाल। मशाल के मुख पर माटी मली जाती है कारण की वह असंयत होता है इसीलिए। मशाल से प्रकाश तो कम मिलता है किन्तु राक्षस की लाल-लाल जिह्वा-सी अग्नि की लपटें उठती हैं उससे। और वह अपव्ययी भी है क्योंकि उसके मुख पर बार-बार तेल डालना पड़ता है वह भी मीठा मूल्यवान।
कभी-कभी मनोरंजन के समय हाथ में मशाल ले चलने वाला पुरुष मुख में मिट्टी का तेल भर, मशाल के मुख पर फेंकता है। क्षण भर में सारा तेल जलकर शून्य में विलीन हो जाता है, थोड़ी-सी असावधानी होने पर हा-हा कार मच सकता है, हानि ही हानि । फेंक मारने वाले का जीवन भी बुझ सकता है, किन्तु मशाल नहीं। साधना के समय मशाल को देखकर कोई ध्यान-धारणा नहीं कर सकता, इसमें कारण मशाल की चंचलता ही है, ध्येय (लक्ष्य) चंचल होगा तो ध्याता का मन भी चंचल होगा ही और भी बहुत सारे दुर्गुण हैं इस मशाल में, कितनी मिशाल अर्थात् उदाहरण हूँ तुम्हें ।
अब दूसरे उदाहरण की बात सुनो-दीपक संयमशील होता है बढ़ाने से बढ़ता है और घटाने से घटता है। कम मूल्य वाले मिट्टी के तेल से पूरा भरा दीपक (डिब्बी) भी थोड़ा-थोड़ा कर जलता है, आदर्श गृहस्थ के समान सीमित व्यय करने वाला संयमित और निरीह होता है वह। छोटा-सा बालक भी अपने हाथों में दीपक ले चल सकता है प्रेम से किन्तु मशाल को देखते ही भयभीत होता है। मशाल की अपेक्षा दीपक अधिक प्रकाश देता है। दीपक की संगति पा उच्श्रृंखल, प्रलय स्वभावी मिट्टी का तेल भी ऊर्ध्वगामी बनता है अन्धकार से डरा हुआ एकाकी-पथिक भी दीपक को देखते ही भय रहित हो जाता है।
सुनते हैं भूतों के हाथ में मशाल होती है, जिसे देखते ही निर्भय की आँखें भी बन्द हो जाती हैं। जबकि दीपक की लाल लौं स्व-पर प्रकाशिनी ज्योति है जो चंचलता से रहित हो, साधक के उपयोग को स्थूलता से सूक्ष्मता की ओर ले जाने में कारण बनती है अर्थात् स्पन्दन-हीन दीपक की लौं को अपलक देखने से -
"साधक का उपयोग वह
नियोग रूप से,
स्थूलता से सूक्ष्मता की ओर
बढ़ता-बढ़ता, शनैः शनैः
व्यग्रता से रहित हो
एकाग्र होता है कुछ ही पलों में।
फिर, फिर क्या?
समग्रता से साक्षात्कार !" (पृ. 370)
नियम रूप से साधक का उपयोग धीरे-धीरे सूक्ष्मता की ओर बढ़ता हुआ कुछ ही क्षणों में पूर्णतः निश्चलता को प्राप्त हो जाता है। फलस्वरूप साधक पूर्ण आत्मस्वरूप का अनुभव करता हुआ पूर्ण दिव्यज्ञान, केवलज्ञान का स्वामी बन जाता है। दीपक की और भी कई विशेषताएँ हैं, कहाँ तक कहूँ ओर-छोर भी तो हो उसका।
अस्तु, हे स्वर्ण! तुम मशाल के समान मलिन अभिप्राय, इच्छा रखने वाले हो तो मिट्टी का कुम्भ दीपक के समान पथ प्रदर्शक, अंधकार नाशी, साहसी और हंस के समान क्षीर-नीर विवेक वाला, उज्ज्वल है।