चिकित्सकों के मुख से प्रकृति और पुरुष का सही-सही परिचय मिला और समीचीन ज्ञान मिला और यह रहस्य भी खुला कि -
"प्रकृति का प्रेम पाये बिना
पुरुष का पुरुषार्थ फलता नहीं।" (पृ. 395)
पुरुष का पुरुषार्थ तभी सफल हो, लक्ष्य को प्राप्त कर पाता है जबकि प्रकृति (पुण्य कर्म) का प्रेम अर्थात् सहयोग उसे मिलता है। पुरुष के जीवन में प्रकृति का मूल्य सुन परिवार ने सविनय निवेदन किया वैद्यों से - सेठ जी शीघ्र ही आरोग्य-स्वस्थ हो, ऐसा उपचार करें। आपके निर्देशानुसार ही पथ्य का शत-प्रतिशत पालन किया जावेगा आप जैसा कहें, जो कहें सो सब स्वीकार है, रोग का प्रतिकार हो बस !
राशि की चिन्ता न करें, मान-सम्मान के साथ वह तो प्रदान की ही जावेगी, वह तो पुरुष की सेवा में तत्पर ही है दासी के समान, पड़ने वाली प्रतिकृति (छाया) की मनोहारी शोभा-सी और वैसे भी-
"चिकित्सकों की दृष्टि वह
राशि की ओर कभी मुड़ती ही नहीं,
मुड़नी भी नहीं चाहिए,
मर्यादा में जीती-सुशीला
कुलीन-कन्या की मति-सी|" (पृ. 395)
वैद्यों-उपचारकों की दृष्टि मान-मर्यादा में जीने वाली, सुन्दर चारित्र वाली कुलवन्ती नारी, कन्या की बुद्धि के समान ही धन की ओर जानी ही नहीं चाहिए।
फिर भी कलियुग का अपना प्रभाव है कि - सेवा का संकल्प लेने वाले वैद्यों (डाक्टरों) की दृष्टि सही चिकित्सा की ओर न जाकर, धन प्राप्त करने की ओर जा रही है। जीवन में लिया गया संकल्प, सही लक्ष्य की ओर बढ़ भी जाए तो मन में दृढ़ता नहीं रह पाती, यह आज सुन भी रहे हैं और आँखों से देखा भी तो जा रहा है।
समस्त कलाओं, शिक्षा का लक्ष्य बस एक ही बना है मात्र धन कमाना, पैसा इकट्ठा करना ऐसी आजीविका से जीभिका (जीभ साफ करने की पट्टी) जैसी गन्ध आती है किन्तु सबकी नाक इतनी अभ्यस्त हो चुकी है कि उन्हें दुर्गन्ध, दुर्गन्ध-सी नहीं लगती।
खेद की बात है कि इस विषय में आँखें भी जानती देखती हुई कुछ कहती नहीं, किस शब्द का क्या अर्थ है, यह कुछ प्रयोजन नहीं रखता अब। क्योंकि कला शब्द स्वयं ही कह रहा है कि-
" ‘क' यानी आत्मा-सुख है
‘ला' यानी लाना-देता है
कोई भी कला हो
कला मात्र से जीवन में
सुख-शान्ति-सम्पन्नता आती है
न अर्थ में सुख है
न अर्थ से सुख है!" (पृ. 396)
जो आत्मा अर्थात् जीव को सुख दे, जीवन को सुख, शान्ति और सम्पन्नता से पूर्ण कर देती है कला कहलाती है। वह कोई भी कला (गायन, वाद्य, नृत्य, चित्र, लेखन, नाट्य, इन्द्रजाल, शिल्प, काव्य, रचना इत्यादि) हो सकती है। वास्तव में न तो धन में सुख है और न ही धन से सुख है, कारण की धन तो सुख में निमित्त मात्र बन सकता है, वह भी जब भीतरी परिणति, साता वेदनीय आदि पुण्य प्रकृति का उदय हो, मन स्वस्थ हो तब।