स्वर्ण कलश की उबाल भरी बातें सुन, मन को कलुषित किए बिना ही माटी के कुम्भ में भरे पायस यानि जल ने (जिसने पात्र -दान में सहयोगी बनने से यश प्राप्त किया था) शान्त भाव से स्वर्ण कलश से कहा कि-तुम में पायस जैसी पवित्रता नहीं है, तुम्हारा पैर पूरा का पूरा पाप रूपी कीचड़ में लिप्त है। पुण्य (धर्म) का तो परिचय भी नहीं है तुम्हें, इसलिए पावन की भक्ति, प्रशंसा तुम्हें अच्छी नहीं लगती। पावन को पाखण्ड (झूठा,गंदा) कहते हो । लगता है तुम्हारी पापिन आँखों ने पीलिया रोग को पी लिया है इसीलिए तुम्हारी काया भी पीली हो गई है।
पर की प्रशंसा तुम्हें काँटे-सी चुभती है, लगता है इसीलिए कुम्भ के स्वागत-सत्कार से आग-बबूला हो गए हो। फिर ठीक भी है जिसने स्वयं मठा पिया है वो भले ही दूसरों को मीठे दूध का भोजन करावे, किन्तु जब कभी उसे डकार आयेगी तो खट्टी ही आयेगी। और सुनो तुम स्वर्ण हो जल्दी से उबलते हो, माटी स्वर्ण नहीं है किन्तु स्वर्ण को उगलती अवश्य है (माटी से ही स्वर्ण निकलता है) और तुम उसी के उगाल हो।
आज तक न सुना, न देखा और न ही पढ़ने में आया कि स्वर्ण में बोया गया बीज अंकुरित होकर पौधा बन फूला-फला लहलहाया हो। हे स्वर्ण कलश-
"दुखी-दरिद्र जीवन को देखकर
जो द्रवीभूत होता है
वही द्रव्य अनमोल माना है
दया से दरिद्र द्रव्य किस काम का?" (पृ. 365)
जो दया से भींगता है, वहीं द्रव्य अनमोल माना जाता है दया से रहित द्रव्य किस काम का। माटी स्वयं दया से भीगती है और औरों को भिगोती भी है तभी तो माटी में बोया गया बीज समुचित हवा-पानी पा, पोषक तत्वों से भरा, हजार गुणित हो फलता है।
थोड़े से समय के लिए भी माटी के स्वभाव में अन्तर आना यानि संसार ही समाप्त, प्रलयकाल का आना सिद्ध होगा। एक बात और है, हे स्वर्ण कलश- यदि वास्तव में तुम सवर्ण (अच्छी कुल परम्परा वाले) होते तो सूर्य का दुर्लभ दर्शन प्रतिदिन क्यों न होता तुम्हें । हो सकता उल्लू के समान तुम्हें प्रकाश से भय लगता हो, इसीलिए तो तुम धरती में बहुत गहरे गाड़े जाते हो अथवा लोहे की तिजोरियों में बंद कर रखे जाते हो, लगता है नरकों में ही तुम्हें आनन्द आता है। तुम्हारी संगति करने वाला भी दुर्गति को प्राप्त होता है यह बात गलत नहीं कही जा सकती।
तुम्हें देखने मात्र से बन्धन की अनुभूति होती है, तुम स्वयं बंधते हो और औरों को बाँधते भी हो । परतन्त्र जीवन के मूल आधार हो तुम, पूँजीवाद के अभेद्य, दुर्गम आवास और सदा अशान्ति को देने वाले हो। अतः हे स्वर्ण कलश! एक बार तो मेरी बात मान लो और माँ माटी के उपकारों को समझो उसके उपकार का बदला चुकाने का मन बनाओ, माँ माटी को अमाप (जिसे कोई नाप न सके) मान-सम्मान दो और मात्र माँ ही माँ नाम लो अब!