देखो मैंने सर्वप्रथम नमस्कार के साथ, सेठ की पाद-पूजन की, फिर कानों पर जा गुनगुना कर उनका गुणगान किया फिर भी मेरी यह दुर्दशा हुई। अपने मित्र मच्छर से सेठ की निन्दा सुन, खून की बूंद का प्यासा, सेठ की परिक्रमा लगाता खटमल कहता है कि-हे मित्र, सही समय पर सही दिशा बोध दिया तुमने, इन लोभियों से हमें कुछ मिलेगा ऐसे भ्रम की रात्रि मिटा दी तुमने।ठीक ही है मानव के सिवा अन्य प्राणी समूह अपने जीवन में परिग्रह का संग्रह करते भी कब हैं।
इस बात को मैं भी मानता हूँ कि जीवन में आवश्यक कुछ पदार्थ होते हैं| घर, पत्नी, घी, घट इत्यादि उनका ग्रहण होता ही है इसीलिए सन्तों ने-
"पाणिग्रहण संस्कार को
धार्मिक संस्कृति का
संरक्षक एवं उन्नायक माना है।
परन्तु खेद है कि
लोभी पापी मानव
पाणिग्रहण को भी
प्राण-ग्रहण का रूप देते हैं।" (पृ. 386)
कन्या के कर-ग्रहण संस्कार को, धार्मिक संस्कृति को सुरक्षित रखने वाला एवं उसे ऊपर उठाने वाला माना है। परन्तु दुख की बात है कि लोभ रूपी पाप से ग्रसित मानव पाणिग्रहण के यथार्थ स्वरूप को न जानते हुए दहेज की चाह में कन्या के प्राणों को ही ग्रहण कर रहे हैं। अर्थात् दहेज के कारण कन्या को प्रताड़ित करना, आग में जलाना इत्यादि दुर्घटनाएँ हो रही हैं।
ये सेठ लोग सेवकों को वेतन तो कम देते हैं, काम ज्यादा लेते हैं और अपने को आदि ब्रह्मा ऋषभदेव की सन्तान, महामानव बताते हैं। देने के नाम पर इनके हाथों में लकवा- सा लग जाता है, फिर भी यदि कभी जबरदस्ती एकाध बूँद देनी पड़ जाये तो पाने वाला भी उसे पचा न पाता, तभी तो हमारा रुधिर इतना लाल होकर भी दुर्गन्ध युक्त बना है। और बिना रूठे ही मत्कुण कुछ मिलेगा, इस आशा को त्याग कर, परिक्रमा के कार्य को छोड़ सेठ से कहता है कि- बातों ही बातों का लोभ मत दिया करो, छल, कपट और मायाचार को त्याग कर, स्वाश्रित जीवन जिया करो। बड़प्पन को जन्म देने वाली नम्र वृत्ति को अंगीकार करो, जीवन को अच्छा और उदार बनाओ। बिना अपेक्षा के सदा ही पर के दुख दूर किया करो। अन्त में अपने विचार और रखता है मत्कुण वह, कि-मैं कण अर्थात् छोटा-सा, हल्का-सा हूँ, मन यानि बहुत भारी नहीं। मैं धन-वैभव भी नहीं हूँ अतः किसी के मरण का कारण युद्ध भी नहीं हूँ, मैं किसी का ऋणी भी नहीं हूँ और न ही बली- बलवान। न किसी के बल पर जी रहा हूँ न जीना चाहता हूँ, मैं बस हूँ और ऐसा ही रहना चाहता हूँ, मेरे पास कोई मन्त्र, यन्त्र, षड्यन्त्र नहीं हैं, मैं छली भी नहीं हूँ और किसी के छिद्र (दोष) भी नहीं देखता हूँ, छिद्र में रहता अवश्य हूँ। इतना कहता हुआ खटमल छोटे से छिद्र में प्रवेश कर जाता है। मत्कुण के मुख से निकली माध्यस्थ बात सुनकर सेठ का मन प्रसन्न हुआ और प्रशिक्षित भी।
1. काकतालीय - न्याय - कौओं का डाल पर बैठना और उसी समय डाल का टूट जाना।