कलश के उबाल को शान्ति के साथ सेठ जी ने सुना, फिर बदले में स्वर्ण कलश की कुशलता की कामना करते हुए, शान्ति के लिए कुछ बिन्दु प्रदान करते हैं-आँखें ऊपर होती हैं चरण नीचे, सत्पुरुषों के चरणों का सम्पर्क पाते ही धूल भी पूज्य बन जाती है। वे चरण जो अपने लक्ष्य तक पहुँचाते हैं, ऐसे चरणों की पूजा आँखें करती हैं। सही आँखें वे ही मानी जाती हैं, जो चरणों का सही-सही मूल्य आँकती हैं। चरणों की उपेक्षा करने वाली स्वच्छन्द आँखें दुख ही पाती हैं।
स्वयं ‘चरण' शब्द ही हितकारी, हित चाहने वाली आँखों को आदेश और उपदेश दे रहा है कि चरण को छोड़कर अन्यत्र कहीं भी, कभी भी चर न! चर न! इतना ही नहीं विलोम रूप से भी ऐसा ही भाव निकलता है यानि च..र..ण न..र..च..। चरणों को छोड़कर अन्यत्र कहीं कभी भी न..रच! न...रच ! न...रच ! हे भगवन् ! मैं समझना चाहता हूँ कि इन आँखों की रचना ऐसे कौन से परमाणुओं से हुई है -
"जब आँखें आती हैं ..... तो
दुःख देती हैं,
जब आँखें जाती हैं..... तो
दुःख देती हैं।
कहाँ तक और कब तक कहूँ,
जब आँखें लगती हैं.....तो
दुःख देती हैं।
आँखों में सुख है कहाँ?" (पृ. 360)
जब आँखें आती हैं (Eye Flue आता है) तो कष्ट देती हैं, जब आँखें चली जाती अर्थात् फूट जाती हैं तब दुःख देती हैं तथा जब नजर लग जाती है तो भी दुख देती हैं, इन आँखों में कहीं भी तो सुख नजर नहीं आता। ये आँखें दुख की खान है और सुख को नष्ट करने वाली हैं।
इसलिए सन्त पुरुष इन आँखों पर विश्वास नहीं करते/रखते और सदा नीचे आँखें कर चरणों को देख विनम्र हो चलते हैं। पूज्य बनने हेतु अज्ञानता वश ऊपर वालों का आश्रय लेना श्रेष्ठ है, ऐसा विचार कर कुछ धूल-कण आँखों में पहुँच जाते हैं। परिणाम यह निकला, पूज्य बनना तो दूर रहा उनका स्वतन्त्र घूमना भी नष्ट हुआ। आँखों के बन्धन में बंधे, भीतर ही भीतर संघर्ष करते अपने अस्तित्त्व को ही खो देते हैं और घृणास्पद दुर्गन्ध गीड़ ( आँखों का मल) का रूप धारण कर बाहर निकलते हैं, वे धूल के कण । फिर भी खेद की बात है कि आँखें ऊपर होती हैं और चरण नीचे।