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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. शाकाहारी बनना चाहिये जिससे शरीर पुष्टि को प्राप्त हो या भूख मिटे उसे आहार कहते हैं। वह मुख्यतया दो भागों में विभक्त होता है। शाकपात और मांस। जब हम पशुओं की ओर निगाह डालते हैं तो दोनों ही तरह के जीव उनमें पाते हैं। गाय, बैल, भैंस, ऊँट, घोड़ा, हाथी, हिरण आदि पशु शाकाहारी हैं जो कि उपयोगी तथा शान्त होते हैं परन्तु सिंह, चीता, भालू, भेड़िया आदि पशु मांसाहारी होते हैं जो कि क्रूर एवं अनुपयोगी होते हैं। इनसे मनुष्य सहज में ही दूर रहना चाहता है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि मांसाहार क्रूरता को उत्पन्न करने वाला है किन्तु शाकाहार सौम्यता का सम्पादक। मनुष्य जबकि स्वयं शान्तिप्रिय है अतः उसे मांसाहार से दूर रहकर शाकाहार से ही अपना निर्वाह करना चाहिये। आज हम देख रहे हैं कि हमारे देशवासियों की प्रवृत्ति शाकाहार से उपेक्षित होकर मांसाहार की ओर बढ़ती जा रही है। आज से कुछ दिन पहले जिन जातियों में मांसाहारी व्यक्ति देखने को नहीं मिल रहा था वहीं पर आज बीस पच्चीस फीसदी आदमी मांस के आने वाले मिल जावेंगे। यह भी हमारे देश के लिए दुर्भाग्य का चिन्ह है जिससे कि लोग अन्नोत्पादन की तरफ विशेष ध्यान न देकर मछलियों के तथा मुर्गियों के अण्डों के उत्पादन की ही कोशिश में लगे हुए हैं। आश्चर्य तो इस बात का है कि जो देश अन्नोत्पादन का नाम नहीं जानते थे उन देशों में तो अन्न अब कसरत के साथ में उत्पन्न होने लग गया है। तो जो भारत सदा से अन्नोत्पादन का अभ्यासी रहा है उसी देश के वासी आज यह कहने लगे हैं कि खाने के लिये अन्न की कमी है अत: मछलियां पैदा की जावें । मैं तो कहता हूं कि इस बेढंगे प्रचार से कहीं ऐसा न हो जावे कि हम लोग अन्नोत्पादन का रहा सहा महत्व भी भूल जावें। सुना जाता है कि एक बार अरब देश में बहुत भयंकर दुष्काल पड़ा। अन्न मिलना दुर्लभ हो गया अत: वहां के उस समय के देश नेता मुहम्मद साहब ने अपनी प्रजा को आपात्काल में मांस खाने के आदी बन गये तो उनकी निगाह में अब वह मांस खाना एक सिद्धान्त सा ही हो गया। मतलब यह कि एक बार मांस खाने की लत पड़ जाने से मनुष्य उसे छोड़ने के लिये लाचार हो रहता है। और अपनी आदतवश वह धीरे-धीरे मनुष्य के मांस को भी खाने लगा सकता है। एवं इस दुर्व्यसन का परिणाम बहुत विप्लवकारक हो रहता है। मानव को ही घोर दानवता पर पहुँचा देता है। अतः समझदार को चाहिये कि वह शुरू से ही इससे दूर रहे, केवल शाकाहार पर ही अपना जीवन निर्वाह करे।
  2. मानवपन नपा तुला होना चाहिये मनुष्य जीवन पानी की तरह होता है। पानी बहता न होकर अगर एक ही जगह पड़ा रहे तो सड़ जाये। हां, वही बहता होकर भी बगल के दोनों तटों को तोड़-फोड़ कर इधर-उधर तितर बितर हो जाये तो भी शीघ्र ही नष्ट हो रहे। मनुष्य भी निकम्मा हो कर पड़ा रहे तो शोभा नहीं पा सकता। उसे भी कुछ न कुछ करते ही रहना चाहिये। उचितार्जन और त्यागरूप दोनों तटों के बीच में होकर नदी की भांति बहते रहना चाहिये। यह तो मानी हुई बात है कि खाने के लिये कमाना भी पड़ता ही है परन्तु कोई यदि विष ही कमाने लगे और उसे ही खाने लगे तो मरेगा ही, जीवित कैसे रह सकेगा। अत: विष का कमाना और खाना छोड़कर इस तरह से कमाया खाया जाय जिससे कि जीवित रहा जा सके। मतलब यह कि कमाते खाते हुए मनुष्य को भी कम से कम इस बात का ध्यान तो रखना ही चाहिये कि ऐसा करने में उसकी आत्मा प्रत्युत तामसता की ओर तो नहीं लुढ़कती जा रही है? बल्कि प्रशंसा योग्य बात तो यही कही जावेगी कि कमाना खाना आदि हमारे सभी काम हमें सात्विकता की ओर बढ़ा ले जाने वाले होने चाहिये। हमारे भारत देश के वर्तमान समय के नेता श्रीमान बिनोबा भावे महाशय अपनी बुढापे की अवस्था में भी लोगों को खेती का महत्व बताने के लिये स्वयं कार्य करते थे, उसमें उत्पन्न हुए अन्न से निर्वाह करना कर्तव्य समझ कर सादगी से अपना जीवन बिता रहे थे। अगर वे बैठना चाहते तो उनके लिये मोटरों पर मोटरें आकर खड़ी हो सकती थीं मगर फिर भी उनहें जहां जाना होता है पैदल ही जाते थे। वल्लभ भाई पटेल एक रोज अपने कमरे में बैठे हुए कुछ आगन्तुक लोगों से आवश्यक बातें कर रहे थे। इतने में समय हो जाने पर वल्लभ भाई पटेल साहब की लड़की चाय लेकर आई जिसकी कि साड़ी कई जगह से फटी और सिली हुयी थी। अतः उन आगन्तुकों में से एक बोल उठा कि बहिन जी आप इस प्रकार फटी हुई साड़ी कैसे पहन रही हैं? जवाब मिला नई साड़ी किसकी कहां से ले आऊँ? आगन्तुक ने कहा कि बहिनजी! आप यह क्या कह रही हैं? कुछ समझ में नहीं आता। आप कहें तो कि साड़ी क्या आवे बल्कि यहां आकर साड़ियों की टाल लग सकती है। इस पर बहिनजी तो क्या बोलती ! सुना अनसुना कर चली गयी। पीछे से पटेल साहब ने कहा कि हमारे यहां हाथ से सूत काता जाता है और उसका हाथ से बुना हुआ कपड़ा ही काम में लिया जाता है। वह इतना ही बन पाता है जिससे कि सारे कटम्ब का काम किफायतसारी के साथ में चला लिया जासके। ऐसा सनकर आगन्तुक महाशय दंग रह गया। सोचने लगा कि ओह। ऐसा रईस घराने का ऐसा रहन रहन। घर में मनचाही चीजें होते हुए भी सिर्फ सादा खाना और सादा पहिनना और सब कांग्रेस के लिये, पदार्थ जनता की सेवा के लिये। इसी को कहते हैं अमीरी में गरीबी का अनुभव करते हुए रहना। मानव जीवन हो तो ऐसा ही संतोषमय नपा-तुला होना चाहिये। फैशनबाजी में फंसकर मानव जीवन को बरबाद करना तो अमृत को पैर धाने में खोना है।
  3. अनर्थदण्ड के प्रकार बात ही बात में यदि ऐसा कहा जाता है कि देखो हमारे भारत वर्ष में गेहूं बीस रुपये मन है और सोना सौ रुपये तोले से बिक रहा है परन्तु हम से पन्द्रह बीस कोस दूर पर ही पाकिस्तान आ जाता है जहां कि गेहूं तीस रुपये मन में बिक रहे हैं तो सोना पचहत्तर रुपये तोला पर मिल जाता है। यदि कोई भी व्यक्ति यहां से वहां तक यातायात की दक्षता प्राप्त कर ले तो उसे कितना लाभ हो। इस बात को सुनते ही कार-व्यापार करने वाले का या किसान को सहसा अनुचित प्रोत्साहन मिल जाता है जिससे कि वह ऐसा करने में प्रवृत्त होकर दोनों देशों में परस्पर विप्लव करने वाला बन सकता है, अत: कथन पापोदश नाम के अनर्थदण्ड में गिना जाता है। सट्टा फटका करने वालों को लक्ष्य करके तेजी, मन्दी बताना भी इसी में सम्मिलित होता है। । छुरी, कटारी, बरछी, तलवार वगैरह हथियार बना कर हिंसक पारधी सांसी, बावरिया आदिको देना सो हिंसा दान नाम का अनर्थदण्ड है। क्योंकि ऐसा करने से वे लोग सहज में ही प्राणियों को मारने लग जा सकते हैं। कसाई, खटीक, कलार, जुवारी आदि को उधार देना भी इसी में गिना जा सकता है। | बेमतलब के बुरे विचारों को अपने मन में स्थान देना, किसी की हार और किसी की जीत हो जाने आदि के बार में सोचते रहना; मान लो कि आप की जीत हो जाने आदि के बारे में सोचते रहना; मान लो कि आप घूमने को निकले, रास्ते में दो मल्लो की परस्पर कुस्ती होती देख कर खड़े रह गये और मन में कहने लगे कि इसमें से यह लाल लंगोट वाला जीतेगा और पीली लंगोटी वाला हारेगा। अब संयोगवश पीली लंगोटी वाले ने उसे पछाड़ लगा दी तो आपके मन को आघात पहुंचेगा। कहोगे कि अरे यह तो उल्टा होने लग रहा है। इत्यादि रूप से व्यर्थ की मन की चपलनता का नाम अपध्यान अनर्थदण्ड है। जिन बातों में फंस कर मन खुदगर्जी को अपना सकता हो, ऐसी बातों के पढ़ने-सुनने में दिलचस्पी लेना दु:क्षुति नाम का अनर्थ दण्ड है। जल वगैरह किसी भी चीज को व्यर्थ बरबाद करना प्रमादचर्या नाम का अनर्थदण्ड है। जैसे कि आप जा रहे हैं, चलते-चलते पानी की जरूरत हो गई तो सड़क पर की नल को खोल कर जितना पानी चाहिये ले लिया किन्तु जाते समय नल को खुला छोड़ गये जिससे पानी बिखरता ही रहा। गर्मी का मौसम है, रेलगाड़ी में सफर कर रहे हैं बिजली का पंखा लगा हुआ है, हवा खाने के लिये खोल लिया, स्टेशन आया, आप लापरवाही से उतर पड़े, पंखे को खुला रहने दिया यद्यपि डिब्बे में और कोई भी नहीं बैठा है तो पंखा व्यर्थ ही चलता रहेगा इसका कुछ विचार नहीं किया। आप एक गांव से दूसरे गांव को जारहे हैं। रास्ते के इधर उधर घास खड़ी है किन्तु रास्ता साफ है फिर भी आप घास के ऊपर से उसे कुचलते हुए जा रहे हैं, इसका अर्थ है कि आप लापरवाही से पशुओं की खुराक को बरबाद कर रहे हैं। इत्यादि सब प्रमोदचर्या नाम का अनर्थदण्ड कहलाता है।
  4. व्यर्थ का पाप पाखण्ड कहते हुए सुना जाता है कि पेट पापी है इसी के लिए अनेक तरह के अनर्थ करने पड़ते हैं। जब हाथ-पैर हिला डुला कर भी मनुष्य पेट नहीं भरपाता है तो वह चोरी-चकोरी करके भी अपने पेट की ज्वाला को शान्त करना चाहता है, यह ठीक हे। इसी बात को लक्ष्य में रखकर हमारे महर्षियों ने स्थितिकरण अंग का निर्देश किया है। यानी समर्थ धर्मात्माओं को चाहिये कि आजीविका भ्रष्ट लोगों को उनके योग्य आजीविका बताकर उन्हें उत्पथ में जाने से रोकें ताकि देश में विप्लव न होने पावे। कुछ लोग ऐसे भी होते हैं कि अपने पास में खाने के लिये अन्न तथा पहनने के लिए कपड़ा अच्छी तादाद में होने पर भी धनवान कहलाना चाहते हैं अतः धन के बटोरने के लिए अनेक प्रकार का पापारम्भ करते हुए देखे जा रहे हैं। इस रोग की दवा संतोष है, जो कि परिग्रह परिणाम रूप दवाखाने से प्राप्त होती है, परन्तु अधिकांश पाप पाखण्ड तो प्रजा में ऐसे फैले हुए हैं जिनका हेतु सिर्फ मनोविनोद के और कुछ नहीं है अतः उन्हें हमारे महर्षियों की भाषा में अनर्थदण्ड कहा गया है। जिनको कि रोकने के लिये मन पर थोड़ा सा अंकुश लगाने की जरूरत है एवं उनके रोकने से देश को हानि के बदले बड़ा भारी लाभ है। उन अनर्थदण्डों का न करना और न होने देना भी उपासक का कर्तव्य है।
  5. साधक का कार्य क्षेत्र भूमितल बहुत विशाल है और इसमें नाना विचारों के आदमी निवास करते हैं, कोई बुरी आदत वाला आदमी है तो कोई कुछ अच्छी आदत वाला। एवं मनुष्य का हिसाब ही कुछ ऐसा है कि यह जैसे की संगति में रहता है तो प्रायः आप भी वैसा ही हो रहता है जिसमें भी अच्छे के पास में रह कर अच्छाई को बहुत कम पकड़ पाता है किन्तु बुरे के पास में होकर बुराई को बहुत शीघ्र ले लेता है जैसे कि उजला कपड़ा कोयलों पर गिरते ही मैला हो जाता है परन्तु फिर वही साबुन पर गिर कर उजला बन जाता है, सो बात नहीं कर्तव्य पथ प्रदर्शन उसे उजला बनाने के लिए उसके ऊपर साबुन चुपड़ना होगा और फिर पानी से उसे धोना होगा फिर कहीं वह उजला बन सकेगा। अत: अपने आपको बुराइयों से बचाये रखने के लिए और भलाई को प्राप्त करने के लिए मनुष्य को चाहिये कि वह अपना निवास भले आदमियों के सहवास में बनावे। उन्हीं के साथ में अपने लेन-देन का संसगई स्थापित करे। ऐसे ही स्थानों में अपना आना-जाना भी रखे जहां पर कि अधिकतर भले आदमी निवास करते हों नशेबाज, मांसखोर, व्यसनी, दुराचारी आदमियों का अधिपत्य होने से जहां जाने पर अपने भले आचार-विचार में शिथिलता आती दीखे ऐस स्थानों में जाने आने पर परित्याग कर दें।
  6. कर्त्तव्य और कार्य शरीर के भरण-पोषण के लिये जो किया जाता है ऐसा खाना पीना, सोना, उठना वगैरह कार्य कहलाता है जिससे संसारी प्राणी चाह पूर्वक अनायास रूप से किया करता है। जो आत्मोन्नति के लिए प्रयत्नपूर्वक किया जाता है ऐसा भगवद्भजन, परोपकार आदि कर्तव्य होता है। कार्य तो इतर प्राणियों की भांति नामधारी मानव भी लगन के साथ करता है मगर वह कर्त्तव्य को सर्वथा भूले हुये रहता है। उसके विचार में कर्तव्य का कोई मूल्य नहीं होता परन्तु वही जब मानवता की ओर ढलता है तो कर्तव्य को भी पहिचानने लगता है। यद्यपि उसका चंचल मन कर्तव्यों की ओर न जाकर उसे कार्यों में लगे रहने के लिए बाध्य करता है फिर भी वह समय निकालकर हठात् अपने मन को कर्तव्य के साथ में जोड़ता है। भले ही उसका मन रस्से से बन्धे हुए भूखे बैल की तरह छटपटाता है और वहां से भागना चाहता है तो भी उसे रोक कर रखता है। इस तरह धीरे-धीरे अभ्यास करके वह अपने मन को कर्तव्यों पर जमाता है तो फिर कर्तव्य तो उसके लिए कार्यरूप हो जाते हैं और कार्य कहलाने वाली बातें कर्तव्य समझ कर करने योग्य ठहरती हैं। मान लीजिये कि एक चिरकाल का बना हुआ सच्चा साधु है। वह समता वन्दना स्तवनादि आवश्यकों के नित्य ठीक समय पर सरलता के साथ करता रहता है, दिन में एक बार खाना और ऊपर रात्रि में जमीन पर सो लेना भी उसके लिए बताया गया है। किन्तु वह तो कभी उपवास, कभी बेला, कभी तेला आदि कर जाया करता है। जब देखता है। कि अब तो शरीर बिना भोजनादि दिये काम नहीं देता, इसे अब भोजन देना ही होगा, तब कभी देता है। शयन का भी यही हाल होता है कभी कुछ देर के लिए नींद ली तो ली, नहीं तो फिर सारी ही रात्रि भजन-भाव में बिता दी गयी। मतलब कहने का यह कि भोजनादि के बिना भले ही रहा जा सकता है परन्तु भगवद्भजन के बिना रहना किसी भी देश में ठीक नहीं। इस प्रकार इन्द्रिय एवं मनोनिग्रह रूप वृत्ति जहां हो रहती है वहां फिर खाना, पीना, सोना, उठना, चलना फिरना आदि सभी क्रियाएं आत्मोन्नति के पथ में साधनरूप से स्वीकार्य होकर आदर्शरूप बन जाती हैं।
  7. अन्याय के धन का दुष्परिणाम एक दर्जी के दो लड़के थे जो कि एक-एक टोपी रोजाना बनाया करते थे, उनमें से एक जो संतोषी था वह तो अपनी टोपी के दो पैसों में से एक पैसा तो खुद खाता था और एक पैसा किसी गरीब को दे देता था। एक रोज दो दिन का भूखा एक आदमी उसके आगे आ खड़ा हुआ उस दर्जी ने जो टोपी तैयार की थी उसके दो पैसे उसके पास आये तो उनमें के एक पैसा उसने उस पास में खड़े गरीब को दे दिया। गरीब ने उस पैसे के चने लेकर खा लिये और पानी पी लिया। अब उसके दिल में विचार आया कि देखों यह दर्जी का लड़का एक टोपी रोज बना लेता है जिससे दो पैसे रोजाना लेकर अपनी जीवन बड़े आनन्द से बिता रहा है। मैं भी ऐसा ही करने लगें तो क्यों भूखा मरूंगा ऐसा सोचकर उसके पास टोपी बनाना सीख गया और फिर अपना गुजर अपने आप करने लगा। उसके दिन अच्छी तरह से कटने लगे। इधर उसी दर्जी का दूसरा लड़का टोपी तैयार कर रोजाना जो दो पैसे कमाता था उनमें से एक पैसा तो खुद खा जाता और एक पैसा रोज बचाकर रखता था उससे चौसठ दिन में उसके पास एक रुपया जुड़ गया। उसने उसे चिट्ठी खेल में लगा दिया। संयोगवश चिट्ठी उसी के नाम से उठ गयी जिससे उसके एक लाख रुपये ही आमद हुई। अब तो उसने सोचा दिन भर परिश्रम करना और दो पैसे रोजाना कमाना इस दर्जी के मनहूस धन्धे में क्या धरा है। छोड़ो इसे और आराम से जीवन बीतने दो। उसके पड़ोस की जमीन में एक गरीब भाई झोंपड़ी बना कर रह रहा था। इसने सरकार से उसे खरीद कर वहां एक सुन्दर कमरा बनाया और अपने बाप-भाई से अलहदा रहने लगा, शराब पीने लगा, वेश्यायें नचाने लगा, अपने आप घमण्ड में चूर होकर औरों को तुच्छ समझने लगा। एक रोज वह अपने भाई दर्जी के पास खड़ा था तो उसे अपनी टोपी के दो पैसों में से एक पैसा किसी गरीब को देते देख कर इसके विचार आया कि देखो इसने अपने दो पैसों में से ही एक पैसा दे दिया किन्तु मेरे पास इतना पैसा होकर भी मैं किसी को कुछ नहीं दे रहा हूं। मुझे भी कुछ तो दान करना चाहिए। इतने में इसके सम्मुख एक मस्टण्डा आ खड़ा हुआ जिसे इसने अपने पाकेट में से निकाल कर पांच असर्फियां दे दीं। उन्हें लेकर वह फूल गया कि देखो आज मेरी बड़ी तकदीर चेती। चलो आज तो शराब पीयेंगे और सिनेमा में चलेंगे। वहां जाते समय रास्ते में किसी की बहू-बेटी से मजाक करने लगा तो पुलिस ने पकड़ लिया और थाने भेज दिया जिससे कि कैद कर लिया गया। ठीक है जैसी कमाई का पैसा होता है वैसे ही रास्ते में लगा करता है और उससे मनुष्य की बुद्धि भी वैसी ही हो जाया करती है।
  8. पशु पालन सुना जाता है कि एक न्यायालय में न्यायाधीश के आगे पशुओं में और मनुष्यों में परस्पर में विवाद छिड़ गया। मनुष्यों का दावा था कि पशुओं की अपेक्षा से हम लोगों का जीवन बहुमूल्य है। पशुओं ने कहा कि ऐसा कैसे माना जा सकता है बल्कि कितनी ही बातों को लेकर हम सब पशुओं का जीवन ही तुम्हारी अपेक्षा से अच्छा है। देखो कि गजमुक्ता सरीखी कितनी ही बेशकीमती चीजें, तुम्हें पशुओं से ही प्राप्त होती है। इसी तरह कवि लोग जब कभी तुम्हारी प्रेयसी के रूप का वर्णन करते हैं तो मृगनयनी, गजगामिनी इत्यादि रूप से पशुओं की ही उपमा देकर बताते हैं। बल पराक्रम भी तुम्हारी अपेक्षा से हम पशुओं में ही प्रशंसा योग्य माना गया हुआ है। इसीलिये जब तुम्हें बलवान बताया जाता है तो पुरुषसिंह नरशार्दूल वगैरह कह कर पुकारा जाया करता है। और तो क्या, पशु का मृत शरीर भी प्राय: कुछ न कुछ तुम्हारे काम में आता ही है। जैसे कि मृतक पशु के चमड़े के जूते बनते हैं जिन्हें पहन कर तुम आसानी से अपना मार्ग तय कर पाते हो। तुम्हारा शरीर तो किसी के कुछ भी काम नहीं आता बल्कि साथ में दस बारह मन लक्कड़ और दस बारह गज कपड़ा और ले जाता है। इस पर मनुष्य लोग बहुत झेपे और अपना दावा वापिस उठाने को तैयार हो गये। तब न्यायाधीश बोला कि भाई ! तुम कहते हो सो तो सब ठीक है परन्तु एक बात खास है जिसकी वजह से मनुष्य बड़ा और भला गिना जाता है और वह यह कि पशुवर्ग परिश्रमशील होकर भी वह अपने आपकी रक्षा का प्रबन्ध खुद नहीं कर सकता किन्तु मनुष्य में इस प्रकार की विचारशीलता है कि वह अपनी रक्षा का तथा पशु की रक्षा का भी प्रबन्ध करने में समर्थ होता है। देखो एक बुढ़िया थी, जिसके पास एक गाय भी रहती थी। चौमासे के दिन आये तो वर्षा होना शुरू हुई । एक दिन वर्षा ऐसी हुई कि मूसलाधार पानी पड़ने लगा । झड़ी लग गयी जिससे लोग घर के बाहर निकलने में असमर्थ थे। रोज बाजार में हरी घास आया करती थी जिसे कि मोल लेकर बुढ़िया अपनी गाय को चरा लिया करती थी। मगर उस दिन बाजार में जब घास ही नहीं आई। तो क्या हो? पशु को क्या डाला जावे? बुढ़िया के पास दैव गति से सूखी घास, भूसा भी न थी ताकि वही डाल कर पशु को थोड़ा संतोष दे लिया जावे। अतः गाय भूखी ही खड़ी रही। उसे भूखी खड़ी देखकर बुढ़िया सोच में पड़ गई। कहने लगी कि हे भगवान! क्या करू? गौ भूखी है, यह भी तो मेरे ही भरोसे पर है। यह पहले खाले तो बाद में मैं खाऊंगी ऐसा संकल्प कर वह भगवन् भवगन् करने लगी। इतने में ही एक घसियारा आया उस बरसते हुए मेंह में, और बोला कि मांजी ! क्या तुम्हे अपनी गाय के लिए घास चाहिए? अगर हां तो यह लो, इतना कहकर घास गाय के आगे डाल दी। बुढ़िया बहुत खुश हुई और बोली बेटा। बहुत अच्छा किया, ले अपने घास के पैसे ले जा। माजी पैसे फिर कभी ले जाऊंगा ऐसा कहते हुऐ घसियारा दौड़ गया तो आज तक नहीं आया। आता भी भी कैसे? वह कोई घसियारा थोड़े ही था वह तो उस बुढ़िया की पवित्र भावना का ही रूप था। मतलब यह कि आश्रित के खान-पान का प्रबन्ध करके स्वयं भोजन करना ही मनुष्य का कर्तव्य जिसमें भी वह आश्रित भी यदि मनुष्य हैं तो वह तो अपना खाना आप कह कर भी हम से ले सकता है, पशु तो बेचारा स्वयं मूक होता है उसकी तो फिक्र हमें ही करना चाहिए तभी हम मनुष्य कहलाने के अधिकारी हो सकते है। उसके करने योग्य परिश्रम तो उससे हम करा लेवें और खाना खिलाने के समय उसे हम भूल जावें यह तो घोर अपराध है।
  9. उदारता का फल सुमधुर होता है रामपुर नाम के नगर में एक रधुवरदयाल नाम के बोहराजी रहते थे। जिनके यहां कृषकों को अन्न देना, जिसे खाकर वे खेती का काम करें और फसल पककर तैयार होने मन भर अन्न के बदले में पांच सेर, मन अन्न के हिसाब से बोहराजी को दे दिया करें बस यही धन्धा होता है। बोहराजी के दो 107 लड़के थे, एक गौरीशंकर दूसरा राधाकृष्ण बोहराजी के मरने पर दोनों भाई पृथक-पृथक हो गये और अपने-अपने कृषकों को उसी प्रकार अन्न देकर रहने लगे। विक्रम सम्वत् उन्नीस सौ छप्पन की साल में भयंकर दुष्काल पड़ा। बिल्कुल पानी नहीं बरसा। जिससे अन्न का भाव जो बाहर आने या दस आने मन का था वह बढ़ कर पांच रुपये मन हो गया। गौरीशंकर ने सोचा अब किसानों को बाढ़ी पर अन्न देकर क्यों खोया जावे? बेच कर रुपये कर लिए जावें। किसानों ने कहा बोहराजी ऐसा न कीजिये, इस दुष्काल के समय में हम लोग खाने के लिये दूसरी जगह कहां से लावेंगे? परन्तु गौरी शंकर ने इस पर कोई विचार नहीं किया। इधर राधाकृष्ण ने विचार किया कि यह अकाल का समय है, लोग अन्न के बिना भूखे मर रहे हैं, मेरे पास अन्न है यह फिर किस काम में आवेगा? अतः उसे ढिंढोरा पिटवा दिया कि चाहे वह मेरा किसान हो या कोई और हो, जिसको भी खाने के लिए अन्न चाहिए मेरे यहां से ले जावे। यह देखकर गौरीशंकर ने कहा कि राधाकृष्ण बेसमझ है जो कि इस समय अपने बेशकीमती अन्न को इस तरह लुटा रहा है। गौरीशंकर ने अपने अन्न को बेच कर रुपये खड़े करना शुरू किया। किन्तु उसके यहां एक दिन चोरी हो गई तो उसने अपने रुपयों को जमीन में गाड़ रखा। छपनिया अकाल धीरे-धीरे समाप्त हो लिया। सत्तावन की साल में प्रकृति की कुछ ऐसी कृपा हुई कि समय-समय पर उचित वर्षा होकर खेती में अनाप-सनाप अन्न पैदा हुआ, जिससे आठ सेर के भाव से बढ़ते-बढ़ते अन्न का भाव रुपये का डेढ़मन हो लिया। गौरीशंकर ने इस समय अन्न खरीद कर रखने का मौका यह सोचकर जमीन में से अपने रुपयों को निकालकर देखा तो रुपयों के पैसे बन गये हुए थे। तब क्या करे अपने भाग्य पर रोने लगा। उधर राधाकृष्ण का अन्न जिन्होंने खाया था, प्रसन्न मन से मन की एवज में दो मन अन्न ले जाकर उसके यहां जमा कराने लगे जिससे अन्न की टाल लग गई।
  10. व्यापार व्यापार शब्द का अर्थ होता है किसी चीज को व्यापकता देना यानी आवश्यकताओं से अधिक होने वाली एक जगह की चीज को जहां पर उसकी आवश्यकता हो वहां पर पहुंचा देना एवं सब जगह के लोगों के लिए सब चीजों की सहूलियत कर देना ही व्यापार कहलाता है। व्यापार का मतलब जैसा कि आजकल लिया जाने लगा है धन बटोरना, सो कभी नहीं हो सकता है। किन्तु जनसाधारण के सम्मुख उसकी आवश्यक चीज को एक सरीखी दर पर उपस्थिति करना और उसमें जो कुछ उचित कमीशन कटौती मिले उस पर अपना निर्वाह करना ही व्यापार का सच्चा प्रयोजन है। उदाहरण के लिए जैसे हिन्दुस्तान टाईम्स वगैरह दैनिक समाचार-पत्रों के बेचने वाले लोग घूम-घूम कर बेचते हैं। डेढ़ आना या पांच पैसे जो उन पत्रों का मूल्य निश्चित किया हुआ है ठीक उसी मूल्य पर सबको देते हैं। शाम तक जितने पत्र उनके द्वारा बिके, प्रति पत्र एक पैसे के हिसाब से उनका कमीशन मिल जाया करता है। जिससे उन बेचने वालों का गुजारा हो जाता है और पढ़ने वालों को घर बैठे पढ़ने के लिए पत्र मिल जाता है। सीधा पत्रालय से भी पत्र लिया जावे तो भी उन्हें उतने में ही मिलेगा। अत: उसकी विशेष हानि नहीं होती ताकि लेने वाले और बेचने वाले दोनों का सुभीता होता है। आढ़तिया अपने साहूकार के माल को बाजार भाव से बेचता है या अपने ग्राहक को बाजार से परिश्रम कर माल दिलवाता हैं एवं लेने वाले और मालदार के बीच में विश्वास का सूत्रधार बनकर रहता है तथा उसने उचित आढ़तिया लेकर उस पर अपना निर्वाह करता है तो यह व्यापार है। मगर वही आढ़तिया कहलाने वाला व्यक्ति लोभवश होकर किसी प्रकार का बीच बचाव कर खाने लगता है तो ऐसा करना पाप है, और फिर वह व्यापारी न रह कर चोर कहलाने लायक हो जाता है। बाजार के माल को हठात् अधिक दर में खरीद कर अपने यहां ही इकट्ठा कर खाना, किसी प्रकार की धौंस दिखा कर अपने माल को ऊँची दर से बेचना एवं दूसरे के माल को नीची दर से खरीदने की विचारधारा रखना, किसी एक को वही माल कम दर पर देना, किन्तु भोले भाई से उसी के अधिक दाम ले लेना इत्यादि चोरबाजारी पर व्यापार का कलंक है। हां, बाजार में जो माल बिकते-बिकते शेष बच रहा है और माल मालिक उसे बेचकर अपना पल्ला खलास करना चाहता है ऐसे माल को कुछ साधारण से कम दर में खरीद कर अपने पास संग्रह कर रखना बुरा नहीं बल्कि अच्छा ही है, ताकि यदि कोई कल को भी उस माल को लेने वाला आवे तो उसे भी आसानी से वह माल उसी साधारण दर पर दिया जा सके। इस प्रकार बाजार की सम्पन्नता बनी रहे।
  11. शिल्प कला यद्यपि खाने पीने और पहनने ओढ़ने वगैरह की, हमारे जीवन निर्वाह योग्य चीजें सब खेती करने से प्राप्त होती हैं, जमीन जोतकर पैदा कर ली जाती है, फिर भी इतने मात्र से ही वे सब हमारे काम में आने लायक हो रहती हों सो बात नहीं, किन्तु उन्हें रूपान्तर करने से उपयोग में लाई जाती हैं, जैसे कि खेत मैं उत्पन्न हुए अन्न को पीसकर उसकी रोटियां बनाकर खाई जाती हैं अथवा उसे भूनकर चबाया जाता है। कपास को चरखी में से निकालकर उसे पींजकर फिर उसे चरखें से कातकर सूत बनाया जाता है और बाद में उसका कर्मे के द्वारा वस्त्र बुनकर पहिना जाता है। तिलों को पीसकर तेल बनाया जाता है। इत्यादि सब शिल्पकला कहलाते है जो कि अनेक प्रकार की होती है। इस शिल्पकला के विकास में भी हमारे पूर्वजों ने तो अहिंसा की पुट रखी थी। एक कोल्हू में दिन भर में एक मन तिल पिलते थे, जिसमें कम से कम एक बैल और एक आदमी लगाकर उनके निर्वाह का ध्यान होता था, आज की दशा उसके बिल्कुल विपरीत है। आज इसके लिए पशु की तो कोई जरूरत ही नहीं समझी जाती, मिलों में लोगों को मशीन से कई मन तिले के ही आदमी के द्वारा फोड़ डाले जाते हैं। आजः प्रायः हर एक बात में हर जगह ऐसा होता हआ देखा जाता है जहां पैसे से पैसा बटोरा जाता है जो कि एक श्रीमान के यहां आकर इकट्ठा हो जाता है और सब भाई बहिन बेकार होकर भूखे मरने लग रहे हैं। इस प्रकार आज का शिल्प आम प्रजा के लिए जीवनोपाय न रहकर जीवन घातक बनता जा रहा है। शिल्प को बोलचाल की भाषा में दस्तकारी कहते है। जिसका अर्थ होता है हाथ से काम करना। परन्तु आज तो वही सारा काम हाथ से न किया जाकर लोह यंत्रों से किया जा रहा है। जिससे विकिरण तो अधिक मात्रा में होता है और आवश्यक वस्तुएं भी सुलभ से दुर्लभतर होती चली जा रहा हैं एवं इसी प्रलोभनवश आज के लोग प्रसन्नतापूर्वक इसी मार्ग को अपना रहे है। फिर भी जरा गहराई से सोचकर देखा जावे तो इसमें देश की महत क्षति हो रही है। उदाहरण के तौर पर, जब कि मुद्रणालय नहीं थे, लोग हस्तलिखित पुस्तकों से काम लेते थे तो प्राय: आदमी लिखने का अभ्यासी था और पुस्तक का बड़ी सावधानी के साथ रखता था। एक पुस्तक से ही वर्ष दो वर्ष तक ही नहीं सकैड़ो हजारो वर्षों तक काम निकलता था तथा जिस विद्या को पढ़ लेता था उसे अवश्य याद रखता था। आज स्वयं लिखने का तो काम ही उठ गया, जब जरूरत हुई मुद्रणालय से पुस्तक खरीद ली जाती हैं। प्रत्येक विद्यार्थी के पढ़ने के लिए जब तक कि वह पुस्तक को पढ़कर समाप्त करता है। उतने समय में उसकी अनेक प्रतियां फटकर रद्दी बन जाती है एवं उसकी वह विद्या फिर भी पुस्तकस्थ ही रह जाती है। एये एयकस बहुत कम अंश याद हो पाता है सो भी बहुत स्वल्पकालीन परीक्षा पास कर लेने तक के लिये । क्यों कि विचारधारा यह रहती है कि पुस्तक तो है ही, फिर याद रखने की क्या आवश्यकता है? जब जरूरत होंगी पुस्तक को देख लिया जावेगा। पहले जब रेल मोटर जैसा कोई आम साधन नहीं था तो लोग पैदल चलना जानते थे। हमारे देखने में भी बाज-बाज आदमी ऐसा था कि सुबह से शाम तक साठ पैंसठ मील तक की यात्रा कर लिया करता था। परन्तु जब रेल और मोटरों का आविष्कार हुआ तो लोग पैदल चलना भूल गये। जहां भी जाना हुआ कि बैठे रेल में या मोटर से और चल दिये। पैदल चलना एक प्रकार का अपराध समझा जाने लगा। अपने यहां से कहीं पांच मील की दूरी पर दूसरे गांव जाना हआ, अपने गांव से रेल स्टेशन से एक डेढ़ मील दूर है, उधर जिस गांव को जाना है। वह भी स्टेशन से एक-डेढ़ मील की दूरी पर है फिर भी रेल में बैठकर कर चलना। भले ही रेल के आने में एक-डेढ़ घण्टे की देर हो तो मुसाफिर खाने में बैठकर उसकी प्रतीक्षा में लगा देना मगर पैदल चलकर उस गाँव नहीं पहुंचना। भले ही रेल में बैठने की जगह न हो तो हैण्डिल पकड़कर लटकते हुए ही चलना पड़े। जब से साईकिलों का प्रदुभाव हुआ तब से तो और भी शोचनीय परिस्थिति हो गयी शौच को भी जाना हुआ तो साईकिल लेकर चले, मानो चलने के लिए प्रकृति ने पैर दिये ही न हों। मतलब जैसे-जैसे साधन सामग्री की सुलभता होती चली गई वैसे-वैसे मनुष्य अकर्मण्य होता जाकर प्रत्युत आवश्यकताओं से घिरता जा रहा है और जीवन शांति के बदले अशांतिमय हो गया है।
  12. हमारी आँखों देखी बात एक बहिनजी थीं जिनके विचार बड़े उदार थे। उनके यहां खेती का। धंधा होता था। सभी आवश्यक चीजें प्रायः खेती से प्राप्त हो जाया करती थीं। अतः प्रथम तो किसी सो चीज लेने की वहां जरूरत ही नहीं होती थी, फिर भी कोई चीज किसी से लेनी हो तो बदले में उससे भी अधिक परिणाम की कोई दूसरी चीज अपने यहां की उसे दिये बिना नहीं लेती थी। वह सोचती थी कि मेरी यहां की चीज मुझे जिस तरह से प्यारी है उसी प्रकार दूसरे को भी उसकी अपनी चीज मुझसे भी कहीं अधिक प्यारी लगती है। हां, जब कोई भी भाई आकर उसके पास मांगता था कि बहिनजी क्या आपके पास गेहूं हैं? यदि हो तो दे रुपये के मुझे दे दीजिये, इस पर बड़ी प्रसन्नता के साथ गेहूं उसे दे देती मगर रुपये नहीं लेती थी। कहती थी भाईजी रुपये देने की क्या जरूरत है, ये गेहूं आपके और मैं आपकी बहिन। आज आप मुझसे ले जाते हैं तो कभी यदि मुझे जरूरत हुई तो मैं आप से ले आ सकती हूं। मैं रुपये तो आप से नहीं लेऊंगी आप गेहूं ले जाइये और अपना काम निकालिये। आप मुझे रुपये दे रहे हैं इसका तो मतलब यह कि अपना आपस का भाईचारा ही आज से समाप्त करना चाहते हैं, मैं इसको अच्छी बात नहीं समझती, इत्यादि रूप से वह सभी के साथ वात्सल्यपूर्ण व्यवहार रखती थी। अब एक बार माघ के महीने की बात है कि बादल होकर वर्षा होने लगी। आसपास के सब खेत बरबाद हो गये मगर उपर्युक्त बहिन जी के चार खेत थे उनमें किसी में कुछ भी नुकसान नहीं हुआ, इसलिये मानना पड़ता है कि हमें जो कुछ भला या बुरा भोगना पड़ रहा है, वह सब हमारी ही करनी का फल है।
  13. न्यायोचित वृत्ति सबसे पहले तो वह है कि जमीन में हल जोतकर अन्न पैदा किया जाय, वह इसी विचार से कि मैंने जिसका अन्न कर्ज लेकर खाया है वह ब्याज बाढ़ी सुदा चुका दिया जावे एवं बाल बच्चों सहित मेरा उदर पोषण हो जावे और द्वार पर आये हुये अतिथि का स्वागत भी हो जावे। हां कहीं- मैं खेती तो करता हूं परन्तु इसमें उत्पन्न हो गया हुआ अन्न यदि अधिकांश उसी के यहां चला जावेगा जिसके यहां का अन्न मैंने पहले से लेकर रखा है, ठीक तो जब हो कि वह मर जावे ताकि मुझे उसे न देना पड़े और सारा अन्न मेरे ही पास में रह जावे जिससे कि मैं अन्नधिपति बन कर भूतल पर प्रतिष्ठा पाऊँ, इस तरह का विचार आ गया तो वह खेती करना अन्यायपूर्ण हो जाता है। खेती दुनिया के लोगों की परमावश्यक वस्तुओं को उत्पन्न करने वाली है। अतएव खेती करना अपना कर्तव्य समझकर उसे तरक्की देना, अच्छी से अच्छी हो, ज्यादा से ज्यादा अन्न और भूसा पैदा हो इसकी कोशिश करना, उसे हर तरह की विघ्न बाधाओं से बचाये रखने की चेष्टा करना यह तो एक भले किसान का कर्तव्य होता है। मगर मेरी खेती को चर जाने वाले ये बन्दर हिरण बगैरह पैदा ही क्यों हुए? ये अगर नष्ट हो जावे, दुनिया में इनकी सत्ता ही न रहे तो अच्छा हो- इस प्रकार की संकीर्ण भावना रखना सो कृषकता का दूषण है। क्योंकि दुनिया तो प्राणियों के समूह का नाम है जिसमें सभी प्राणी अपनाअपना हक रखते हैं। अपनी-अपनी जगह सभी सार्थक हैं। फिर भला यह कौनसी समझदारी है कि मनुष्य अपने स्वार्थ के वश होकर औरों का सत्यानाश चाहे। मनुष्य को तो चाहिये कि अपने कर्तव्य का पालन करे, होगा तो वही जो कि प्रकृति को मंजूर है। यहां पर हमें एक बात का स्मरण हो आता है जो कि चरित्र चक्रवर्ती शूरी 108 आचार्य श्री शान्तिसागर महाराज के गृहस्थ जीवन की है। श्री शान्तिसागर महाराज का जन्म पटेल घराने में हुआ था जिसका परम्परागत धन्धा खेती करना था। उनके पिता ने उन्हें खेती की रखवाली करने पर नियत किया। अत: पिता की आज्ञा से आप रोज खेत पर जाया करते थे। एक दिन एक बिजार आया और उनके खेत में चरने लगा। कुछ देर में उन्होंने उसे निकालकर दबर हटा दिया मगर थोड़ी देर बाद फिर उन्हीं के खेत में चरने लगा। एवं वह अभ्यासानुसार रोज वहीं आकर चरने लगा कुछ दिन बाद उनके पिता खेत पर आये और देखा तो बिजार चर रहा है खेत में ! देखकर पिता बोले भैया तुम क्या रखवाली करते हो? देखो! बिजार खेज को बिगाड़ रहा है। जवाब मिला कि पिताजी ! पिताजी मैं क्या करूं? मैं तो इसे बहुत निकालता हूं मगर यह बार-बार यहीं पर आ जाता है। क्या बात है? दुनिया में धन सीर का है इसके हिस्से का यह भी खा जावेगा, अपना है सो रह जावेगा। पिता ने अपने मन में कहा बड़ा अजीब लड़का है! खैर, सुना जाता है कि वहां और सालों से भी अधिक अन्न उत्पन्न हुआ। ठीक है नेक नीयत का फल सदा अच्छा ही होता है। मगर कच्चे दूध से पोषण पये हुये इस मानव को विश्वास भी कैसे हो। यह तो समझता है कि मेरी मेहनत से जो कुछ भी कमाता हूं वह सब मेरा है। उसमें दूसरे का क्या हक है? मैं किसी दूसरे के धन को न हड़प जाऊँ यही बहुत है। परन्तु मेरे धन में से दूसरा कोई एक दाना भी कैसे खा सकता है? बस इस खुदगर्जी की वजह से ही यह अपने कार्यों में पूर्णरूप से सफल नहीं हो पाता है। प्रत्युत कभी-कभी तो इसको लाभ के स्थान पर नुकसान भुगतना पड़ता है।
  14. दूसरे की कमाई खाना गृहस्थ के लिए कंलक है। यह बात है कि ठीक क्योंकि कमाई करने के योग्य होकर भी जो दूसरों की ही कमाई खाता है वह औरों को भी ऐसा ही करने का पाठ सिखाता है एवं जब और सब लोग भी ऐसा ही करने लग जावें तो फिर कमाने वाला कौन रहे? ऐसी हालत में फिर सभी भूखे मरें, निर्वाह कैसे हो? इसीलिये न्यायवृत्ति वाला महानुभाव औरों की कमाई की तो बात ही क्या खुद अपने पिता की कमाई पर भी निर्भर होकर रहना अपने लिये कलंक की बात मानता है। जैसा कि उत्तमं स्वार्जित वित्त मध्यमम् पितुरर्जितं । अधर्म भ्रातवित्तं स्यात्स्त्रीवित्तं चाधमाधमं॥ १॥ इस नीति वाक्य से स्पष्ट होता है और इस विषय में उदाहरण हमारे पुरातन साहित्य में बहुतायत से मिलते हैं। एक शाहजहां नाम का मुसलमान बादशाह हो गया है। उसकी बेगम नूरजहां अपने हाथों से खाना बनाया रखती थी। एक रोज रोटिया बनाते समय उसके हाथ जल गये। फिर भी वह उसी प्रकार रोज खाना बनाती रही। किन्तु एक दिन उसके हाथों में पीड़ा अधिक बढ़ गयी जिससे रोटी भी बनाने में वह बहुत कष्ट अनुभव करने लगी। बादशाह जब खाना खाने के लिये आया तो वह रो पड़ी, बादशाह ने पूछा क्या बात है? रोती क्यों हो? बेगम बोली आप ही देख रहे हो मेरे हाथों में पीड़ा बहुत है। कर्तव्य पथ प्रदर्शन जिससे रोटियां बनाने में अड़चन पड़ती है। कम से कम जब तक मेरे हाथ ठीक न हो जाये तब तक एक बान्दी का प्रबन्ध कर दें ताकि वह खाना बना दिया करे। जवाब मिला कि बात तो ठीक है परन्तु अगर बान्दी रखी जाय तो उसे उसका वेतन कहां से कैसे दिया जावे? बेगम ने आश्चर्य से कहा बादशाह सलामत यह आप क्या कर रहे हैं जब कि आपके अधिकार में दिल्ली की बादशाहत है फिर भला आपके पास पैसों की क्या कमी है? खजाने भरे पड़े हैं। बादशाह बोला कि खजाने में जो पैसा है वह पिता की दी हुई धरोवर है जो कि प्रजा के उपयोग की चीज है, उस पर मेरा जाती अधिकार क्या हो सकता है? मैं तो रूमाल रोजमर्रा तैयार कर लेता हूं, उसकी आय से मेरा और तुम्हारा गुजर बसर होता है वही मेरी सम्पत्ति है।
  15. न्यायोपात्त धन ऊपर बताया गया है कि परिग्रह अनर्थ का मूल है और धन है वह परिग्रह है। अतः वह त्याज्य है परन्तु याद रहे कि इसमें अपवाद है क्योंकि पारिवारिक जीवन बिताने वाले गृहस्थों को अभी रहने दिया जाय, उनका तो निर्वाह बिना धन के हो ही नहीं सकता परन्तु मैं तो कहता हूं कि परिवार से दूर रहने वाले त्यागी तपस्वियों के लिए भी किसी न किसी रूप में वह अपेक्षित ठहरता है क्योंकि उनको भी जब तक यह शरीर है तब तक इसे टिका रखने के लिए भोजन तो लेना पड़ता ही है जो कि धन के आधार पर निर्धारित है। यह बात दूसरी है कि उनका देश-काल उन्हें स्वयं धनोपार्जन करने को नहीं कहता है। उन्हें तो गृहस्थ अपने परिश्रम से उपार्जन किये हुए धन के द्वारा सम्पादित अन्न में से श्रद्धापूर्वक जो जितना कुछ दे उसी पर निर्वाह करना होता है। परन्तु गृहस्थ जीवन उससे विपरीत होता है। उसे उसके अपने परिवार के एवं अपने आपके भी निर्वाह को ध्यान में रखकर चलना पड़ता है। अत: उसे लिए धन को आवश्यक मानकर न्यायपूर्वक कमाई करने की आज्ञा है। न्यायवृत्ति का सीधा सा अर्थ होता है उचित रीति से शारीरिक परिश्रम करना। उससे जो भी लाभ हो उसमें से कुछ एक भाग से बाल, वृद्ध, रोगी, त्यागी और प्राधूर्णिक की सेवा करके शेष बचे हुए से अपना निर्वाह करना एवं आय से अधिक व्यय कभी नहीं करना। धन्यकुमार चरित्र में किसान हल जोत कर अपने विश्राम स्थल पर आता है और उसकी घरवाली उसके लिये भोजन लाकर देती है तो वह कृषक धन्यकुमार को भी खाने के लिए कहता है कि आइये कुमार ! भोजन कीजिये? जवाब मिलता है कि आप ही खाइये, मैं तो मेहनत किये बिना नहीं खा सकता। यदि आप मुझे खिलाना ही चाहते हैं तो मुझसे अपना कुछ काम ले लीजिये। इस पर लाचार होकर किसान को धन्यकुमार से हल जोतने का काम लेना पड़ा। क्योंकि उसे खिलाये बिना वह भी खा नहीं सकता था और धन्यकुमार उसका काम किये बगैर कैसे खाये। अत: धन्यकुमार ने प्रसन्नतापूर्वक हल जोतने का कार्य किया। मतलब यह कि न्यायवृत्ति वाला मनुष्य किसी से मांगना तो दूर रहा वह तो किसी का दिया हुआ भी लेना ठीक नहीं समझता। वह तो स्वयं पर भरोसा रखता है। इसी धन्यकुमार की स्त्री सुभद्रा जब इसे ढूंढ़ने के लिये अपने सास-सुसर के साथ निकलती है और मार्ग में लुटेरों से पाला पड़ जाता है, लुट जाते हैं तो फिर जाकर जहां तालाब खुद रहा था वहां पर मिट्टी खोद कर डालने के काम में लगते हैं। मालिक जाकर देखता है तो कहता है कि ये लोग इतना परिश्रम क्यों कर रहे हैं? मिट्टी खोद कर क्यों फेंक रहे हैं? ये सब लोग तो हमारे अतिथि हैं। मेरे घर पर चलें और आराम से रहें। ऐसा भी न करें तो भी कम से कम इतना तो आवश्यक करें कि जिन-जिन चीजों की आवश्यकता हो मेरे यहां से मंगा लेवें। इस पर सुभद्रा ने कहा कि मिट्टी खोद कर डालना तो हमारा कर्तव्य है, श्रम कर खाना यह तो मनुष्य की मनुष्यता है किन्तु किसी के यहां से यों ही ले आना यह तो गृहस्थ जीव का कलंक है, घोर अपराध है। हम लोग ऐसा कैसे कर सकते हैं?
  16. ब्रह्मचारी विद्याधर को जिन पावन करकमलों ने मुनि - आचार्य विद्यासागर बनाया ऐसे दादागुरु महाकवि आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज का आज 46वां समाधि दिवस पर शत शत नमन नमन.mp4
  17. अहिंसा में अपवाद पीछे बताया गया है कि त्रसों की हिंसा कभी नहीं करना चाहिए, फिर भी साधक के सम्मुख ऐसी विषम परिस्थिति कभी-कभी आ उपस्थित होती है। कि वह उसे हिंसा करने के लिए बाध्य करती है। मान लीजिये कि आप यात्रा को जा रहे हैं। एक कुलीन बहिन भी आपके भरोसे पर आपके साथ चल रही है। रास्ते में कोई लुटेरा आकर उस पर बलात्कार करना चाहता है। क्या आप उसे ऐसा करने देंगे? कभी नहीं। जहां तक हो सकेगा उसका हाथ भी उस बहिन को नहीं लगने देने के लिए आप डटकर उस डाकू का मुकाबला करेंगे और उसे मार लगायेंगे। एक जच्चा है जिसके बच्चा होने वाला है। बहुत देर हो गई वह परेशान हो रही है। बच्चा और किसी भी उपाय से बाहर नहीं आता है तो फिर डॉक्टर उस बच्चे को खण्ड-खण्ड करके बाहर निकालता है क्या करे लाचार है। बच्चे को मार कर भी जच्चा को बचाता है। अपने जीवन में ऐसे और भी अनेकानेक प्रसंग उपस्थित होते हैं जहां पर गृहस्थ को अपने अभीष्ट को बचाये रखने के लिए तद्विरोधी अनिष्ट का परिहार करना ही पड़ता है। इस पर आज हमें ऐतिहासिक घटना का स्मरण हो आता है। विश्वशांति के अग्रदूत श्री वर्द्धमान स्वामी नाम की पुस्तक जो कि श्री दिगम्बरदास जैन मुख्यार सहारनपुर की लिखी हुई है, उसके तीसरे भाग पृष्ठ 426 में लेखक लिखता है-
  18. परिग्रह ही सब पापों का मूल है मनुष्य अपने पतनशील शरीर को स्थायी बनाये रखने के लिये इसे हष्टपुष्ट कर रखना चाहता है। अत: जिन चीजों को इस शरीर को पोषण के लिए साधकस्वरूप समझता है उन्हें अधिक से अधिक मात्रा में संग्रह कर रखने का और जिनको उसके बाधक समझता है उन्हें दूर हटाने के लिए एडी से चोटी तक का पसीना बहा देने में संलग्न हो रहने का अथक प्रयत्न करता है। इसी दुर्भाव का नाम ही परिग्रह है। अर्थात् इस शरीर के साथ मोह और शरीर की सहायक सामग्री के साथ ममत्व होने का नाम परिग्रह है। जिसके कि वश में हुआ यह शरीरधारी सब कुछ करता है, व्यभिचार मैं फंसता है। चोरी करता है। झूठ बोलता है और अपने पराये को कष्ट देने में प्रवृत्त हो रहता है। पुरातनकाल में लोग अपने जीवन निर्वाह के योग्य वस्तुओं को अपने शारीरिक परिश्रम से सम्पादित करते थे, उन्हीं से अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति कर लेते थे। एक आदमी एक काम करता तो दूसरा आदमी किसी दूसरे काम में दिलचस्पी लेता था। इस प्रकार अपनी आवश्यक चीजों को अपने वर्ग से प्राप्त करते रह कर परस्पर प्रेम और संतोषपूर्वक एक परिवार का सा जीवन बिताया जाया करता था जिसमें स्वार्थपूर्ति के साथ-साथ परमार्थ की भावना भी जीवित रहती थी। यदि कहीं विभिन्न वर्ग के व्यक्ति से भी कोई चीज लेनी होती थी तो चीज के बदले चीज लेकर ली जाती थी। जेसे एक जूतों की जोड़ी का मूल्य पांच सेर अनाज, एक गेहूं की बोरी का मूल्य दो बकरियां, एक चादर का दाम के भेड़ किन्तु आवश्यकता प्रधान थी, विनियम गौण। धीरे-धीरे विनियम के लाभ को पहचानकर अधिक उत्पादन का प्रयत्न होने लगा। विनियम आगे बढ़ा, नाना परिवारों की भांति गाँवों, शहरों, प्रान्तों और देशों में परस्पर व्यवसाय होने लगा। एवं फिर उत्पादन का ध्येय ही व्यवसाय हो गया। उसमें सहूलियत पाने के लिये मुद्राओं को जन्म दिया गया। हर प्रकार के व्यवसाय का मूल सूत्र अब मुद्रा बन गई । सुगमता यहां तक बढ़ी कि जेब में एक पैसा भी न होकर लाखों करोड़ों का व्यापार सिर्फ जबान पर होने लगा। मनुष्य ने जिस एक साधन के रूप में स्वीकार किया था वही साध्य होकर आज उसके सिर पर चढ़ बैठा है। जिसके पास पैसा, वही दर्शनीय जैसा, बाकी तो कोई वैसा न ऐसा, जैसी बातें कही जाने लगी हैं। प्रायः सभी के दिल में यही समायी हुयी है कि उचित या अनुचित किसी भी मार्ग से पैसा प्राप्त किया जावे। सोचने का विषय यह है कि वह अर्थ है क्या चीज जिसको मनुष्य ने इतना महत्व दे रखा है? वह है मनुष्य की अपनी कल्पना का विषय। इसके सिवाय और कुछ भी नहीं। मनुष्य ने पहले अपने सोने को मान्यता दी तो उसके सिक्के बने, फिर चांदी के, उसके बाद चमड़े के किन्तु अब कागज का नम्बर आ गया है। यदि मनुष्य अपने विचारों में लोहे को उतना महत्व देने लगे जितना कि वह सोने को दे रहा है तो लोहा सोना बन जावे और सोने को मिट्टी जितना महत्व दे तो सोना मिट्टी के बराबर बन जाता है। खैर! आज का मानव केवल पैसे का उपसक बना हुआ है। मानता है कि पैसे से ही सब कुछ चलता है अत: किसी भी उपाय से पैसा प्राप्त किया जावे। वह भी इतना हो तो बहुत ठीक जिससे कि मैं सबसे अधिक पैसे वाला कहलाऊँ, बस इसी विचार से अनेकों की आजीविका के ऊपर कुठाराघात करके भी अपने आपका ही खजाना भरना चाहता है। आज अनेक मिल और फैक्ट्रियां खुलती हैं। उनमें क्या होता है? लाखों आदमियों का काम एक मशीन से ले लिया जाता है। उसकी आय एक श्रीमान के यहां आकर जमा हो जाती है। हां, उनमें हजार पांच सौ आदमी जरूर काम पर लगते हैं। वह भी जहां लाखों का पेट भर सकता था वहां सिर्फ इन गिने आदमियों की पेटपूर्ति का कारण हो रहता है एवं उन काम करने वालों का भी स्वास्थ्य उस मशीन के अथक परिश्रम से खराब होता रहता है। परन्तु जो लोग स्वयं उससे धन कमाकर इकट्ठा करना चाहते हैं उन्हें इस बात की चिन्ता नहीं। इसीलिये तो आज बेकारी बढ़ती चली जा रही है। जो विधवा बहिनें कपास की चरखियां चलाकर चरखे के द्वारा सूत कातकर अपना पेट पालती थी या किसी श्रीमान का पसीना पीस कर अपनी भूख मिटाती थी, वे सब आज बिना धन्धे के भूखों मर रही हैं। कई सेठ साहूकार किसी को नौकर भी रखता है कि इसीलिये कि इसके द्वारा मेरा कारोबार चलेगा, जो इसको वेतन दूंगा मुझे इसके द्वारा अधिक आमदनी होगी। नौकर भी यही सोचता है कि चलो ये मुझे जो नौकरी देते हैं मैं अभी किसी भी दूसरे रास्ते से उतनी प्राप्ति नहीं कर सकता हूँ इसीलिये अभी तो यहीं रहना चाहिये और किसी भी दूसरे काम की निगाह करते रहना चाहिये जहां कोई इससे भी अधिक प्राप्ति का मार्ग हाथ आया कि इसको छोड़ दूंगा। ‘गुरू चेला लालची दोनों खेलें दाव' वाली कहावत चलती है। स्वामी और सेवकपन का आदर्श बिल्कुल लुप्त हो गया है, सिर्फ पैसे से यारी है। जिधर देखे उधर यही हाल है। अपनी धन संग्रह की भावना को पोषण देते हुए परपरिशोषण ही जगाया जा रहा है। पैसे के द्वारा जो चाहे सो कर लिया जाता है। और अपनी शान बतायी जाती है। इधर सब बाते तो रहने दीजिये आज को शासन सत्ता भी पैसे के आधार पर ही चलती देखी जा रही है। जब मतदान का अवसर आया और आपके पास नौट हों उनको बखेर दीजिये और अपने पक्ष में वोट ले लीजिये। फिर क्या? सत्ताधीश हो रहिये एवं फिर जो नोट आपने फेंके थे। उससे कई गुने नोट थोड़े ही दिनों में बटोर लीजिये। हाय भारत माता। तेरी सन्तान की आज क्या दशा हो गयी है। जहां राजा और प्रजा में पिता-पुत्रवत् सोहार्द भाव था वहां आज यह दशा देखने को मिल रही है इस पैसे के प्रलोभन में आकर। राज्य-शासक प्रजा का सर्वस्व हड़प जाना चाहते हैं तो प्रजा राज्य को नष्ट कर देने के लिए कमर कस रही है। आज से करीब बाइस सौ वर्ष पूर्व ईरान से आकर सिकन्दर महान ने भारत पर आक्रमण किया था तो पौरूष राजा से उसकी मुठभेड़ हुयी। यद्यपि विजय सिकन्दर के हाथ ली फिर भी पौरूष की वीरता को देखकर सिकन्दर को बड़ी प्रसन्नता हुई। दोनों एक जगह बैठ कर परस्पर बातें कर रहे थे। इतने में ही दो आदमी और आये जो बोले कि आप दोनों महानुभाव विराज रहे हो हम दोनों का एक झगड़ा मिटा दीजिये। उन आगन्तुकों में से एक ने कहा कि मैंने इनसे कुछ जमीन मोल ली थी। उसे खोदते हुए वहीं पर कुछ स्वर्ण निकला है, मैंने इससे कहा यह सब स्वर्ण तो आपका है आप लीजिये मैंन तो सिर्फ आप से जमीन खरीदी है ना कि यह स्वर्ण तो आपका है इस पर यह कहते है कि वाह ! जब मैंने तुम्हें जमीन दी तो फिर यह स्वर्ण जो कि उस जमीन में से निकला है उससे पृथक थोड़े ही रह गया। यह सुनकर सिकन्दर से पौरुष बोला इसका इंसाफ आप करें। किन्तु सिकन्दर ने कहा- नहीं, यह सब प्रजा आपकी है। यह प्रान्त भी आपका है। आप ही यहां के राजा हैं। मैंने सिर्फ आपको अपने दो हाथ दिखाये हैं। मेरा यहां कुछ नहीं, है तो सब आपका है। इसलिए आप ही इसका निपटारा कीजिये। क्षण भर विश्राम लेकर पौरूष ने उस प्रार्थना करने वाले से कहा कि भाई क्या आपके कोई संतान नहीं हैं? तो जवाब मिला कि मेरे एक लड़की है और इनके एक लड़का पौरूष ने कहा कि उन दोनों का आपस में विवाह कर दो और यह सोना उनको दहेज में दे दो। इससे वे दोनों तो बड़े खुश हुए किन्तु सिकन्दर ने कहा आपने यह क्या किया? यह सब माल तो सरकार के योग्य था। पौरूष ने कहा- 'अब भी तो वह सरकार का ही है। प्रजा भी सारी सरकार की ही है। सरकार उससे जब जो चाहे ले सकती है। मेरी समझ में प्रजा उसके देने में कछ आगा पीछा नहीं सोचेगी। सिकन्दर को इस पर विश्वास नहीं हुआ। वह बोला कि मैं इसको देखना चाहता हूं। पौरूष ने ढिंढोरा पीटवा दिया कि सरकार को जरूरत है, जिसके पास जितना सोना हो यहां लाकर रख देवे। शाम तक अपने-अपने नाम की चिट लगाकर जिसके पास जो सोना था वहां लाकर डाला गया। बहुत बड़ा ढेर लग गया। सबेरा होते ही जो सोने का पर्वत सरीखा ढेर और राजा तथा प्रजा में इस प्रकार का उदारतापूर्वक व्यवहार देखा तो सिकन्दर अचम्भे में आ गया और बोला कि धन्यवाद है आपको तथा आपकी प्रजा को। मैंने ऐसे संतोषपूर्ण लोगों को कष्ट दिया इसका मुझे पूर्ण पश्चाताप है। लोगों को यह कह दिया गया कि अभी कोई जरूरत नहीं है अत: अपना -अपना सोना वापिस ले जाओ तो सबने ठीक अपने-अपने नाम का सोना बड़ी शांति के साथ ले लिया। विचार का विषय है कि उस समय की बात और आज की बात में कितना अन्तर है, कहां वह प्रकाशमय दिन था जो कि लोगों को सन्मार्ग पर स्थिर किये हुए था और कहां आज अन्धकारपूर्ण रात्रि है जिसमें कि लोग दिग्भ्रान्त होकर इधर-उधर टक्कर खा रहे हैं।
  19. गरीब कौन है जिसके पास कुछ नहीं है वह। ऐसा कहना भूल से खाली नहीं है। जिसके पास भले ही कुछ न हो परन्तु उसे किसी बात की चाह भी न हो तो वह गरीब नहीं, वह तो अटूट धन का धनी है। गरीब तो वही है जिसके पास में अपने निर्वाह से भी अधिक सामग्री मौजूद है फिर भी उसकी चाह पूरी नहीं हुई है। जिसके पास खाने को कुछ भी नहीं है और उसने खाया भी नहीं मगर भूख बिल्कुल नहीं है तो क्या उसे भूखा कहां जावे? नहीं। हां जिसने दो लडडू तो खा लिए हैं और चार लडडू उसकी पत्तल में धरे हैं जिसको कि वह खाने लग रहा है किन्तु फिर भी कह रहा है मुझे और चाहिये, इतने ही से मुझे क्या होगा? क्या इनसे मेरा पेट भर सकता है? तो कहना होगा वही भूखा है। एक समय किसी वृक्ष के नीचे एक परमहंस महात्मा बैठे हुए थे? उनके पास होकर के भोला गृहस्थ निकला तो-ओह ! वह बड़ा गरीब है, इसके तन पर कपड़ा नहीं, खाने को एक समय का खाना नहीं। ऐसा सोचकर कहने लगा स्वामिन् ! ये दो लडडू हैं, खा लीजिये। यह धोती है इसे पहन लीजिये और यह चार पैसे आपके हाथ खर्चे के लिए देता हूं सो भी ले लीजिये एवं आराम से रहिये। साधुजी बोले- भाई ! लडडू किसी भूखे को, धोती किसी नंगे को और पैसे किसी गरीब को दे दो। यह सुनकर आश्चर्यपूर्वक गृहस्थ बोला-प्रभो ! आपके सिवा दूसरा ऐसा कौन मिलेगा? तब फिर साधुजी बोले, भाई ! मैं तो भगवान का भजन कर रहा हूं जिससे मेरा पेट भरा रहता है। कुदरत ने मुझे बहुत लम्बी आसमान की चादर दे रखी है और चलने फिरने के लिए मेरे पैर हैं, अब मुझे किसी चीज की जरूरत नहीं है। यदि तुझे देना ही है तो मेरे पास बैठ जा- मैं बताऊंगा उसे दे देना। थोड़ी देर में मोटर में बैठा हुआ एक महाशय आया जिसे देखकर साधु ने उस गृहस्थ को इशारा किया कि इसको दे दो। गृहस्थ - मैं मेरी ये चीजें किसी गरीब को दे देना चाहता था। स्वामी जी ने कहा, वह मोटर में बैठा जा रहा है। सो गरीब है इसे दे दो। इसलिये आपको दे रहा हूं- ऐसा कहकर उसकी गोद में रखने लगा तो वह चौंक उठा और नीचे उतरकर साधुजी के पास आ, नमस्कार पूर्वक बोला-स्वामिन् ! आपने मुझे गरीब कैसे समझा? देखिये मेरे पास यह मोटर ही नहीं और भी कई मोटरे हैं। घोड़ा गाड़ी, टम-टम भी है, दस खत्तियां अनाज की भरकर रखता हूं जो कि फसल पर भी ली जाती है और फिर तेजी होने पर बेच कर खलास कर ली जाती है। एक सराफे की दुकान चलती है जिसमें पाकिस्तान से ले आया हुआ सोना खरीदकर रखा जाता है। और वह दो रुपये तोला सस्ते में अपने ग्राहकों को दिया जाता है ताकि दुकान खूब अच्छी चलती है। लोग समझते हैं कि पाकिस्तान का सोना खरीदना और बेचना बुरी बात है। परन्तु मैं जानता हूं कि इसमें कौनसी बुराई है? गैर देश का माल अपने देश में आता है एवं यहां के लोगों को सस्ते में मिल जाता है सो यह तो बहुत अच्छी बात है। अगर कोई सरकारी निरीक्षक आया तो उसकी जेब गरम कर दी जाती है, काम बेखटके चलता है। एक कपड़े की दुकान है जिसमें खादी वगैरह मोटा कपड़ा न बेचा जाकर फैशनी बारीक कपड़ा बेचा जाता है। ताकि मुनाफा अच्छा बैठता है। अब एक कपड़े की मिल खोलना चाहता हूं जिसमें दो करोड़ रुपये लगेंगे। सो एक करोड़ रुपये तो मेरे दानेश्वरसिंह की तरफ हैं। यद्यपि वह इस समय देना नहीं चाह रहा है परन्तु मेरा नाम भी शोषणसिंह है। उसने महाविद्यालय, अनाथालय आदि संस्थायें खोल रखी हैं। जो कि उसके नाम से चलती हैं। मैं कचहरी जाता हूं नालिस करके उसकी संस्थाओं की इमारत को कुड़क करवाकर वसूल कर लूंगा। बाकी एक करोड़ रुपयों के शेयर बेचकर लिए जावेंगे। इस पर साधुजी ने कहा कि इसलिये मैं तुमको गरीब बतला रहा हूं। तुम्हें पैसा प्राप्त करने की बहुत ज्यादा जरूरत है, ताकि किसी सज्जन के द्वारा स्थापित की हुई पारमार्थिक संस्थाओं को नष्ट-भ्रष्ट करके भी अपनी हवस पूरी करना चाहते हो, एवं अन्नादि का अनुचित संग्रह करके भी पैसा बटोरने की धुन रखते हो।
  20. सन्तोष ही सच्चा धन है जिस चीज से हमें आराम मिले, जिस किसी चीज की मदद से हम अपनी जीवन यात्रा के उस छोर तक आसानी से पहुंच सकें उसे धन समझना चाहिए। इस दुनिया के लोगों ने कपड़ा-लत्ता, रुपया पैसा आदि बाह्य चीजों में ही आराम समझा अत: इन्हीं के जुटाने में अपनी प्रज्ञा का परिचय देना शुरू किया। कपड़े के लिए सबसे पहले लोगों ने अपने हाथों से अपने खेत में कपास पैदा की, उसे पींज कर अपने हाथ के चरखे से सूत कातकर अपने हाथ से उसका कपड़ा बुनकर अपना तन ढकना शुरू किया फिर जब और आगे बढ़ा तो मिलों को जन्म दिया। जिसमें शुरू में मारकीन, फिर नयनसुख मलमल, अबरवा सरीखे बारीक से बारीक वस्त्र तैयार होने लगे। शुरू में लोग पैदल चलते थे और दूर जाना होता तो बैलगाड़ी या घोड़ा गाड़ी में बैठकर चले जाते थे। मगर आज तो मोटर गाड़ी, रेलगाड़ी और हवाई जाहज तक चल पड़े जिससे घण्टे भर में हजारों मील चला जा सके। बल्कि चार-छ: फर्लाग भी चलना हो तो बाइसिकल के आधार से चला जाता है। पैदल चलना एक प्रकार से अपराध-सा समझा जाने लगा है। पैदल चलते समय पैरों में कांटे न गड़ पावें इसलिये पहले काठ की खड़ाऊ पहनकर निर्वाह किया जाने लगा, फिर मुर्दा चमड़े के जूते बनने लगे परन्तु आज तो निर्दयतयापूर्वक बिचारे जिन्दा पुशओं का चमड़ा उधेड़कर उसके जूते बनने लगे हैं। जिनको कि पहन लेने के बाद वापिस खोलना असभ्य आँवारू लोगों का काम समझा जाता है। जूता पहिले ही सो रहना चाहिए और जूता पहिले ही खाना भी खा लेना चाहिए। इसी में अपनी शान समझी जाने लगी है। गर्मी से बचने के लिये पहले तो दरख्तों की हवा ली जाती थी फिर ताड़ व खजूर वगैरह के पत्तों के पंखे बनाकर उनसे अपना काम निकाला जाने लगा। परन्तु अब तो बिजली के पंखों का आविष्कार हो लिया है जिससे कि बटन दबाया और मनमानी हवा ले ली जावे। पीने के लिए पानी भी पहले तालाब या नदियों से लिया जाता था। फिर कुएं, बावड़िया, बनने लगीं परन्तु अब तो हैण्ड पम्प और नल आदि से मनमाना पानी मिलने लगा। मतलब यह कि मनुष्य अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये अधिक से अधिक सुविधा प्राप्त करता जा रहा है। फिर भी किसी को शांति के दर्शन नहीं हो रहे हैं प्रत्युत विषमता होती जा रही है। क्योंकि प्रत्येक मनुष्य स्पर्धा की सड़क पर दौड़ लगाते हुए अपने आपको सबसे अगाड़ी देखना चाहता है। बस इसी चिन्ता में इसका सारा समय बीतता है। यहां पर हमें एक बात की याद आ जाती है। एक अच्छे करोड़पति सेठ थे जिनकी कई दुकानें चलती थीं जिनकी उलझन में सेठ जी खाना खाने को भी दौड़ते से आते थे तथा रात को सोने के लिए भी बारह बजे तक आते थे तो सो जाते थे। परन्तु स्वप्न में भी उन्हें व्यापार कारोबार की बात ही सूझती थी। एक रोज सेठानी बोली- हे पतिदेव! आप इतने बड़े सेठ हैं फिर भी आपके चित्त पर हर समय बड़ी व्यग्रता देखती हूं। मेरे देखने से आपसे तो यह अपना पड़ोसी फूसिया ही सुखी मालूम पड़ा है। जो समय पर मजदूरी करने जाता है और परिश्रम करके समय पर आ जाता है। सांयकाल के समय सितार पर दो घड़ी भगवान का भजन कर लेता है। सेठ ने कहा- ठीक बात है! एक काम कर! यह कुछ रुपयों की थैली है सो जाकर उसके आंगन में गिरा कर आ जा। सेठानी ने ऐसा ही किया। सबेरा होते ही जब फूसिया ने अपने यहां थैली पड़ी देखी तो विचार किया मैं भगवान का भगत हूं अत: भगवान ने खुश होकर मेरे लिए भेजी है। परन्तु जब उसके रुपये गिने गये तो एक कम सौ थे। सोचा भगवान ने एक कम सौ क्यों रहने दिया? खैर कोई बात नहीं इसे मैं पूरा कर लूंगा अब वह उस रुपये को पूरा करने की फिकर में कुछ अधिक परिश्रम करने लगा। धीरे-धीरे रुपया पूरा हुआ तो अब उनको रखने के लिए एक सन्दूक और एक ताला की भी जरूरत हुयी। धीरेधीरे परिश्रम करके उनकी भी पूर्ति की। परन्तु जब वह सन्दूक उन रुपयों से भरी नहीं कुछ खाली रह गयी तो फिर उसे भर लेने की फिकर रही, इसी उधेड़बुन और परिश्रम में पड़कर उसने वह सितारा बजाना छोड़ दिया। बस यही हाल आज की सारी जनता का हो रहा है। एक घटे एक बड़े वह पूरा हो जावे, कहीं से बिना कमाया हुआ पैसा आ जावे और मैं धनवान हो जाऊ। इसी दौड़ धूप में सभी तरह की समुचित साधन सामग्री होने पर भी बिना संतोष भाव के सुख कहां हो सकता है? सुख का मुख्य साधन तो संतोष है अतः वही वास्तविक धन है। उसके सामने और सब बेकार हैं जैसा कहा हैं कि - गो धन गजधन वाजिधन, कंचन और मकान। जब आवे संतोष धन, सब धन धूल समान॥ भगवान महावीर स्वामी के समय में उनका भगत एक गृहस्थी हो गया है जिसकी कि धर्मपत्नी भी उसके समान स्वभाव वाली थी। दोनों मेहनत मजदूरी कर पेट पालते थे। उस गृहस्थ का नियम था कि अपने पास बारह आने से अधिक नहीं रखूगा। इसलिये लोग उसे पूर्णियां श्रावक कहते थे। एक रोज दोनों स्त्री-पुरुष सुबह की सामायिक करने को बैठे थे। इधर आकाश मार्ग से होकर देवता लोग भगवान की वन्दना के लिए जा रहे थे। सो उनके ऊपर आकर उन देवताओं का विमान अटक गया। देवों ने सोचा ये दोनों भगवान के भक्त होकर भी इतने गरीब हैं। हम लोगों को इनकी कुछ सहायता करनी चाहिये। अतः उनके तवा, बेलन, चकलादि को सोना बनाकर आगे को रवाना हुए। उधर सामायिक का समय पूर्ण होने पर पुर्णियां की स्त्री बोली हे प्रभो ! आज यह क्या बात हुई? मेरे चकला बेलन कहां गये? और उनकी एवज में ये चकला बेलन आदि कौन किसके, यहां रख गया है? हे भगवान! मैं अब रोटियां बनाऊँ तो कैसे बनाऊँ? इनको हाथ भी कैसे लगाऊँ? इतने में देव लोग वापस लौटकर आये और बोले कि आप लोगों की धर्म भावना से प्रसन्न होकर यह ऐसा तो हम लोगों ने किया है। हम लोगों की तरफ से आपको यह सब भेंट है, आप ले लेवें। पूर्णियां की स्त्री ने कहा प्रभो ! हमारे ये किस काम के? हमारे लिये तो वे सब ही भले हैं जोकि मिट्टी व पत्थर के थे। इन सबका हम क्या करें? इन सबके पीछे तो हम लोग बंध जावेंगे, इनको कहां रखेंगे? हमें यह सब नहीं चाहिये, आप अपने वापस लीजिये हमें तो अपने वे ही देने की कृपा कीजिये। इस पर आनन्दित होकर देवता लोग बोले- ओह ! कितना बड़ा त्याग है और जय जयकार पूर्वक उन पर फूल वर्षाये।
  21. विवाह का मूल उद्देश्य सामाजिकता को अक्षुण्ण बनाये रखना है और दुराचार से दूर रहकर भी वैषयिक सुख की मिठास को चखते रहना है जैसे कि हमारे पूर्व विद्वान् श्रीमदाशाधर के ‘‘रति वृत कलोन्नति'' इस वाक्य से स्पष्ट हो जाता है। यह जभी बन सकता है कि विवाहित दम्पतियों में परस्पर सौहार्दपूर्ण प्रेमभाव हो। इसके लिए दोनों के सौहार्द रहन-सहन, शील-स्वभाव में प्रायः हरबात में समकक्षता होनी चाहिए। अन्यथा तो वह दाम्पत्य पथ कण्टकाकीर्ण होकर सदा के लिए क्लेश का कारण हो जाता है। जैसा कि सोमा सती आदि में आख्यानों से जान लिया जा सकता है। एवं इस अनबन को दूर हटाने के लिए हमारे पूर्वजों ने एक स्वयंवर प्रथा को जन्म दिया था, जिसमें कि कन्या अपनी बुद्धिमता से अपने योग्य पति को स्वयं ढूंढ़ निकालती थी। उदाहरणार्थ गीतकला ने अपनी संगीतज्ञता के द्वारा धन्यकाकर को स्वीकार किया था। परन्तु ऐसा किसी गरीब भाई को दे देनी थीं, सांयकाल तक जिन्दगी रही तो और रोटियां बना कर खाली जा सकती हैं। यदि ऐसी संग्रहकारिता हो मुझे पसन्द होती, जो किसी शाहजादे के साथ ही मेरा नाता जोड़ती, आपके पीछे क्यों लगती? यह सुनकर युवक बहुत खुश हुआ। मतलब इस सब लिखने का यह है कि जैसी के साथ में वैसे का संबंध ही प्रशंसा योग्य होता है। मगर आज ऐसा संबंध कोई बिरला ही होता होगा। आज तो यदि देखा जाता है या तो रूप सौन्दर्य या वित्तकोष। बस, इन दो के पीछे ही आज की जनता बंधी हुई है। इसीलिये आजकल का दाम्पत्य जीवन प्रेमोदऊभावक न होकर प्रायः कलह का स्थान ही रहता है। स्वर्ग का संदेश मिलने के बदले वहां पर नरक का दृश्य देखने को मिलता है।
  22. विवाह का मूल उद्देश्य आजकल के नव विचारक लोगों का कहना है कि विवाह की क्या आवश्यकता है वह भी तो एक बन्धन ही तो है। बन्धन से मुक्त हो रहना मानवता का ध्येय है। फिर जानबूझकर बन्धन में पड़ा रहना कहां की समझदारी है। स्त्री और पुरुष दोनों को दाम्पत्य जीवन में विहीन होकर सर्वथा स्वतंत्र रहना चाहिए। ठीक है, विवाह वास्तव में बन्धन है परन्तु विचार यह है कि उससे मुक्त हो रहने वाला जावेगा कौन से मार्ग से? अगर वह ब्रह्मचर्य से ही रहता है जब तो ठीक है, उसे विवाह करने के लिए कौन बाध्य करता है? मगर ऐसा तो सभी स्त्री पुरुष कर नहीं सकते हैं। जिसने अपनी वासना के ऊपर नियंत्रण पा लिया हो ऐसा कोई बिरला व्यक्ति सही कर सकता है। बाकी स्त्री पुरुष तो अपनी वासनातृप्ति के लिए दौड़ लगाएंगे। फिर उनमें और पशुओं में अन्तर ही क्या रह जायेगा? बल्कि पशुओं का एक तरह से निर्वाह भी है। क्योंकि वे लोग विवाह बन्धन से नहीं तो प्राकृतिक बन्धन से तो बधे हुए रहते हैं। इस बारे में वे अपनी सीमा से बाहर कभी नहीं होते, परन्तु मनुष्य में ऐसी बात नहीं है तथा वह एकान्त सौन्दर्य का उपासक होता है, जब तक सौन्दर्य है। तब तक की एक दूसरे को याद करता है, फिर कौन किसी को क्यों पूछेगा तो कैसे निर्वाह होगा? किन्तु मनुष्य एक सामाजिक जीवन बिताने वाला प्राणी है। सामाजिकता का मूल आधार विवाह संबंध का होना ही है। अत: उसे सुचारू रखना समझदारों का कर्तव्य है। हां, वर्तमान में उसमें जो खराबियां आ घुसी है उनको दूर करना परमावश्यक है।
  23. काम पर विजय श्रेयस्कर है काम पर संस्कृत भाषा में इच्छा का पर्यायवाची माना गया है। वैसे तो मनुष्य नाना प्रकार की इच्छाओं का केन्द्र होता है किन्तु उन इच्छाओं में तीन तरह की इच्छायें प्रसिद्ध हैं। खाने की, सोने की, और स्त्री प्रसंग की। इसमें से दो इच्छायें बालकपन से ही प्रादुर्भूत होती हैं तो स्त्री प्रसंग की इच्छा युवावस्था में विकसित हुआ करती है। पहले वाली दोनों इच्छाओं को सम्पोषण देना एक प्रकार से शरीर के सम्पोषण के लिये होता है किन्तु स्त्री प्रसंग को कार्यान्वित करना केवल शरीर के शोषण का ही हेतु होता है। अतः पूर्व की दो इच्छाओं को हमारे महर्षियों ने काम न कहकर आवश्यकता कहा है एवं कुछ हद तक उन्हें पूर्ण करना भी अभीष्ट बताया है इसलिये गृहस्थ की तो बात ही क्या साधुओं तक को उनकी पूर्ति के लिये यथोचित आज्ञा प्रदान की है। परन्तु स्त्रीप्रसंग की इच्छा को तो सर्वथा नियंत्रण योग्य ही कहा है, यह बात दूसरी है कि हरेक आदमी उसका पूर्ण नियन्त्रण करने में समर्थ न हो सके एवं कामेच्छा को नियन्त्रण करने में समर्थ न हो सके। एवं, कामेच्छा को नियंत्रण करना इसलिये आवश्यक कहा गया है कि कोई भी मरना नहीं चाहता, हर समय अमर रहने के लिये ही अपनी बुद्धि से सोचता है। काम को जीतना सो बुद्धि के विकास का हेतु और मृत्यु को जीतना है परन्तु काम सेवन करना बुद्धि के विध्वंस के लिए होकर मृत्यु को निमंत्रण देना है। अपने आप मरण मार्ग का निर्माण करना है। हमारे हित चिन्तक महात्माओं ने उपर्युक्त सिद्धान्त को लक्ष्य में रखकर ही हम लोगों के लिए ब्रह्मचर्य का विधान किया है। बतलाया है कि मनुष्य अपने विचारों में स्त्री को स्त्री ही नहीं समझना, चित्त में उसकी कभी याद भी नहीं आने देना, ऐसे पूर्ण ब्रह्मचर्य को यदि धारण नहीं कर सके तो एकदेश ब्रह्मचर्य का पालन तो अवश्य ही करें। स्पष्ट युवावस्था आने से पूर्व कुमार काल में कभी स्त्री प्रसंग का नाम न ले। वहां जो अपना भावी जीवन सुन्दर से सुन्दर बने इसकी साधन सामग्री बटोरने में ही समय बीतना चाहिये और वृद्धावस्था आ जाने पर यदि स्त्री विद्यमान भी हो तो उसका त्याग कर सिर्फ परमात्म स्मरण में अपने समय को बिताने लगे। रही मध्य की युवावस्था, सो वहां पर भी स्त्री को आराम देने की मशीन न मानकर अपने शरीर में आ प्राप्त हुए अवस्थोचित विकार को दबाने के लिये मधुर दवा के रूप में उसका सेवन किया जा सकता है। हमारे पूर्वातार्यों ने इसे पशु कर्म बतलाया है। इसका मतलब यह कि पशु ऋतुकाल में एक बार ही ऐसा करता है फिर नहीं। अब अगर हम यदि मनुष्य कहलाते हैं तो हमें उससे अधिक संयमित होना चाहिये। परन्तु यदि उस नियम को भी भंग करके मनमाना करते हैं तो मनुष्य तो क्या पशु भी नहीं बल्कि महर्षियों की निगाह में पशु से भी हीन कोटि पर आ जाते हैं। परन्तु खेद है कि इस बात का विचार रखने वाला कोई बिरला ही महानुभाव होगा। हर एक मनुष्य के लिए तो पर्वादि के दिन भी ब्रह्मचर्य पूर्वक रह जाना बहुत बड़ी बात हो जाती है, कितने ही तो ऐसे भी निकल आयेंगे जिनको अपनी पराई का भी विचार शायद ही हो। कुछ लोग तो बेहूदेपन से भी अपने ब्रह्मचर्य को बरबाद कर डालते हैं। आज इस विज्ञान की तरक्की के जमाने में तो एक और कुप्रथा चल पड़ी है वह यह कि जहां दो चार बच्चे हो लें तो फिर बच्चे दानी निकलवा डालनी चाहिए, ताकि बच्चा होने का तो कुछ भी भय न रहे एवं निडर होकर संसार का मजा लूटा जावे। कोई कोई तो शादी संबंध होते ही ऑपरेशन करवा डालते हैं। ताकि बच्चे की आमदनी होकर उनकी गृहदेवी का नूर न बिगड़ने पाये। भला सोचो तो सही इस विलासिता की भी क्या कोई हद है? जहां कि अपनी क्षणिक घृणित स्वार्थापूर्ति के लिए प्राकृतिक नियम पर भी कुठाराघात किया जाता है। भले आदमी, अपने लंगोट को ही कस कर क्यों न रखें ताकि उनका परमात्मा प्रसन्न हो एवं उन्हें वास्तविक शांति मिले।
  24. आज कल के लोगों का दृष्टिकोण भूतल पर दो चीजें मुख्य हैं, शरीर और आत्मा। शरीर नश्वर और जड़ है। तो आत्मा शाश्वत और चेतन। इन दोनों का समायोग विशेष मानव-जीवन है। अत: शरीर को पोषण देने के लिए धन की जरूरत होती है तो आत्मा के लिए धर्म की, एवं साधक दशा में मनुष्य के लिए यद्यपि दोनों ही अपेक्षणीय हैं फिर भी हमारे बुजुर्गों की निगाह में धर्म का प्रथम स्थान था। हां, उसके सहायक साधन रूप में धन को भी स्वीकार किया जाता था। परन्तु जहां पर वह धन या उसके अर्जन करने की तरकीब यदि धर्म की घातक हुई तो उस ऐसे धन को लात मारकर धर्म का संरक्षण किया करते थे, किन्तु आज के लोगों का दृष्टिकोण सर्वथा इसके विपरीत है। आज तो धर्म को ढकोसला कहकर धन को ही सब कुछ समझा जाता है। येन केन रूपेण पैसा बटोरने का ही लक्ष्य रह गया है। कहीं कोई बिरला ही मिलेगा जो कि अपनी मेहनत की कमाई पर गुजर बसर कर रहा हो, प्रायः प्रत्येक का यही विचार रहता है कि कहीं से लूट खसोंट का माल हाथ लग जाये। कहीं पाकेटमारी का हल्ला सुनाई देता है तो कहीं जुआ-चोरी का। कोई खुद चोरी करता है तो कोई उसके लाये हुए माल को लेकर उसे प्रोत्साहन देता है। आयात निर्यात की चोरियों का तो कुछ ठिकाना ही नहीं रहा है। सुना गया है दूसरे देशों से सोना लाने वाले लोग जाँघ फाड़कर वहां रख लाते हैं। कोई सोने की गोलियां बनाकर मुंह में रख लेते है। बिना टिकट रेलगाड़ी में जाना आना तो भले-भले लोगों के मुंह से सुना जाता है, मानो वह तो कोई अपराध ही नहीं। मैं तो यह कहता हूं कि व्यक्तिगत चोरी की अपेक्षा से भी स्वार्थवश होकर कानून भंग करना और सरकारी चोरी करना तो और भी घोर पाप है, अपराध है। क्योंकि उसका प्रभाव तो सारे समाज पर जा पड़ता है। परन्तु जो कोई सिर्फ अपनी हवस पूरी करना जानता है उसे यह विचार कहां? वह तो किसी भी तरह से अपना मतलब सिद्ध करना चाहता है। सरकार तो क्या, लोग तो धर्मायतनों से भी धोखा करने में नहीं चूकते हैं। गौशाला सरीखी सार्वजनिक धार्मिक संस्थाओं में भी आये दिन गड़बड़ी होती हुई सुनी जाती है। प्रामाणिकता का कही दर्शन होना ही दुर्लभ हो रहा है। सरकार प्रबन्ध करते-करते थक गई है और अपराध दिन पर दिन बढ़ते जा रहे हैं। लोग कहते हैं कि सिंह बड़ा क्रूर जानवर होता है परन्तु मैं तो कहता हूं कि ये बिना मार्का के सिंह उससे भी अधिक क्रूर हैं जो कि देश भर में विप्लव करते चले जा रहे हैं। एक रोज एक निशानेबाज आदमी घोड़े पर चढ़कर जंगल की ओर चल दिया, कुछ दूर जाने पर उसे एक बाघ दीख पड़ा तो उसने अपना घोड़ा उसी बाघ के पीछे कर दिया। थोड़ी देर बाद वह बाघ तो अदृश्य हो गया और उसकी एवज में उसकी एक साधु से भेंट हुई। तब वह साधु के पैरों पड़ा। साधु ने कहा तुम कौन हो? तो वह बोला प्रभो ! एक तीरन्दाज हूं और क्रूर प्राणियों का शिकार किया करता हूं। आज एक बाघ मेरे आगे आया था परन्तु न मालूम अब वह कहां गायब हो गया और अब तो रात होने को आ गई है। साधु ने कहा कोई हर्ज नहीं, रात को शिकार और भी अच्छा मिलता है, चलो मैं भी तुम्हारे साथ चलता हूं। चलते-चलते मदन बाजार में एक वेश्या के घर पहुंच जाते हैं तो क्या देखते हो कि एक महाशय वेश्या के साथ बैठे-बैठे शराब पीते जाते है और कहते जाते हैं कि हे प्रिय, इस दुनिया में मेरी तो उपास्य देवता एक तु ही है। दिन में साधु बनकर सड़क पर बैठ जाता हूं और किसी भगत को फीचर के आंक, तो किसी को सट्टे फाटके की तेजी मन्दी देता हूं, एवं कोई पक्का जुआरी मिल गया तो उसे विजयकारक यन्त्र देने का ढोंग रचकर माल ऐंठता हूं। दिन भर में जो कुछ पाया वह रात को आकर तेरी भेंट चढ़ा जाता हूं। आगत साधु अपने तीरन्दाज से बोला कि कहो कैसा शिकार है? मगर थोड़ी दूर आगे चलो। चल कर चीफ जज के मकान पर पहुंचे तो वहां पर जज साहेब के सामने एक वकील महाशय खड़े है जो कि एक हजार मोहरों की थैली देते हुये उन्हें कह रहे हैं कि श्रीमान जी मेरे मुवक्किल का मुकदमा आपके पास विचारार्थ आया हुआ है जिसमें उसके लिये बलात्कार के अभियोग स्वरूप कारागार का हुक्म अदालत ने निश्चित किया है, प्रार्थना है कि विचार करते समय आप उसे उन्मुक्त रहने देने की कृपा करें और बाल बच्चों के लिये यह तुच्छ भेंट स्वीकार करें। यह देखकर तीरन्दाज बोला, ओह! बड़ा अनर्थ है! यहां पर तो स्वार्थवश होकर न्याय का ही गला घोंटा जा रहा है, किन्तु साधु बोला अभी थोड़ा और आगे चलना है। चलकर एक इन्सपेक्टर (निरीक्षक) के कमरे के पास पहुंच जाते हैं। वहां क्या देखते हैं कि उनके सम्मुख मेज पर तीन चार बन्द बोतले रखी हैं जिनमें शुद्ध पानी भरा हुआ है और आरोग्य सुधा का लेबिल चिपका हुआ है, आगे एक आदमी खड़ा है और कह रहा है महाशय! अपराध क्षमा कीजिये, यह दो हजार मोहरों की थैली लीजिये और इन बोतलों के बदले में आरोग्य सुधा की यह असली बोतले अब तो तीरन्दाज के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। वह कहने लगा कि हे भगवान! यहां तो जिधर देखों उधर ही यही हाल हैं, किस-किस को तीर का निशाना बनाया जाय? वस्तुत: विचार कर देखा जाये तो जिस प्रकार ये लोग अपने जीवन के लिये औरों के खून के प्यासे बने हुये हैं, अन्याय करते हैं तो मैं क्या इन सबसे कम हूं? ये लोग तो स्वार्थवश अन्धे होकर ऐसा करते हैं, मैं तो व्यर्थ इनके प्राणों का ग्राहक हो रहा हूं ! अगर कहूं कि क्रूरता का अन्त करना है तो भला कहीं क्रूरता के द्वारा क्रूरता का अन्त थोड़े ही होने वाला है। क्रूरता को मारने के लिये शान्ति की जरूरत है तो स्वार्थ को मारने के लिये त्याग की और दूसरों को सुधारने के लिये अपने आप सुधर कर रहने की, एवं अपने आप सुधर कर रहने के लिये सबसे पहले काम पर विजय प्राप्त करना आवश्यक है।
  25. अदत्तादान का विवेचन बलात्कार या धोखेबाजी से किसी दूसरे के धन को हड़प जाना सो अदत्तादान है। बलात्कार से दूसरे के धन को छीन लेने वाला डाकू कहलाता है, तो बहानाबाजी से किसी के धन को ले लेने वाला चोर कहलाता है। चोरी या डकैती करना किसी का जातीय धन्धा नहीं है, जो ऐसा करता है वही वैसा बना रहता है। डाकू को तो प्रायः लोग जान जाते हैं अतः उससे सावधान होकर भी रह सकते हैं मगर चोर की कोई पहचान नहीं है। अत: उससे बचना कठिन है। जो कि चोर अनेक तरह का होता है जिसके प्रचलन को चोर्य कहना चाहिये। वह भी डाका डालने की तरह से अदत्तादान है, बिना दिये ही ले लेना है। जैसे किसी सुनार को जेवर बना देने के लिए सोना दिया गया तो वह जेवर बना देता है और उसकी उचित मजूरी लेता है वह तो ठीक, किन्तु उसमें थोड़ी बहुत खाद अपनी तरफ से मिला देता है और उसकी एवज में सोना जो रख लेता है वह उसका अदत्तादान हुआ, बिना दिये लेना हुआ, अत: चोर ठहरता है। दर्जी कोट वगैरह बनाकर देता है और उसकी उचित सिलाई लेता है, ठीक है; किन्तु जहाँ तीन गज कपड़ा लगता हो वहाँ बहाना बनाकर साढ़े तीन गज ले लेवे तो वह अदत्तादान है। ऐसे ही और भी समझ लेना चाहिये | और जैसा कि प्रायः यहां पर देखने में आ रहा है। कोई भी आदमी पूर्ण विश्वास के साथ में यह नहीं कह सकता कि बाजार में वह एक चीज तो ठीक मूल्य पर और सही सलामत मिल जायेगी। जीरे में गाजर का बीज, काली मिरचीं में एरण्ड ककड़ी के बीज, घी में डालड़ा इत्यादि हर एक चीज में कोई न कोई तत्सदृश अल्प मूल्य की चीज का सम्मिश्रण करके देना तो साधारण बात है। और तो क्या शरीर को स्वस्थ बनाने के लिए ली जाने वाली दवाओं तक में बनावटीपन होता है जिससे कि देश की परिस्थिति दिन पर दिन भयंकर से भयंकर बनती चली जा रही है। मैंने एक किताब में पढ़ा था कि एक हिन्दुस्तानी भाई विलायत में घूम रहा था सो क्या देखता है कि एक बहिन जिसके आगे दूध का बर्तन रखा हुआ है, फिकर में खड़ी है, अत: उसने पूछा कि बहिन तुम क्या सोच रही हो? उसने कहा भाई साहेब ! मैंने एक महाशय को 5 सेर दूध देना कह दिया और, और मेरी गाय ने आज जो दूध दिया वह पाँच कम पांच सेर है, अत: मैं सोच रही हूं कि क्या करूं? इसे पूरा कैसे किया जा सकता है? इस पर उसी हिन्दुस्तानी भाई ने तपाक से कहा कि वाह यह भी कोई फिकर की बात है क्या? इसका उपाय तो बहुत आसान है, इसमें से भले ही तुम पाव भर दूध और भी निकाल लो तथा इसमें आधासेर पानी मिलाकर दे आओ। उसने तो शाबाशी पाने के लिए ऐसा कहा था मगर उस बहिन ने कहा,छी! छी! यह तो बहुत बुरी बात है, ऐसा करने से हमारे देश के बाल बच्चे पोषण कैसे पा सकेंगे? खैर ! कहने का मतलब यह है कि मिलावट बाजी ने बहुत तरक्की पाई है, जिससे हमारे देश का भारी नुकसान हो रहा है। सरसों के तेल में सियालकांटी का तेल मिलाकर दिया जाता है जिसको उपयोग में लाने वाले, उसको शरीर पर लगाने वालों के शरीर में फोड़े-फुन्सी हो जाते हैं, परन्तु देने वाले को इसकी कोई चिन्ता नहीं, उसे तो सिर्फ पैसा प्राप्त कर लेने की सूझती है। आज पैसा परमेश्वर बन रहा है किन्तु मनुष्य-मनुष्य भी नहीं रहा, कैसी दयनीय दशा है कहा नहीं जाता। मैं सोच ही रहा था कि एक आदमी बोला महाराज क्या आश्चर्य है? मिलावट में तो थोड़ी बहुत चीज रहती है। यहां तो चाय के बदले सर्वेसर्वा चनों के छिलके होते हैं और लेने वाले को पता भी नहीं पड़ता, हद हो गई।
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