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सन्तोष ही सच्चा धन है


संयम स्वर्ण महोत्सव

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सन्तोष ही सच्चा धन है

 

जिस चीज से हमें आराम मिले, जिस किसी चीज की मदद से हम अपनी जीवन यात्रा के उस छोर तक आसानी से पहुंच सकें उसे धन समझना चाहिए। इस दुनिया के लोगों ने कपड़ा-लत्ता, रुपया पैसा आदि बाह्य चीजों में ही आराम समझा अत: इन्हीं के जुटाने में अपनी प्रज्ञा का परिचय देना शुरू किया। कपड़े के लिए सबसे पहले लोगों ने अपने हाथों से अपने खेत में कपास पैदा की, उसे पींज कर अपने हाथ के चरखे से सूत कातकर अपने हाथ से उसका कपड़ा बुनकर अपना तन ढकना शुरू किया फिर जब और आगे बढ़ा तो मिलों को जन्म दिया। जिसमें शुरू में मारकीन, फिर नयनसुख मलमल, अबरवा सरीखे बारीक से बारीक वस्त्र तैयार होने लगे। शुरू में लोग पैदल चलते थे और दूर जाना होता तो बैलगाड़ी या घोड़ा गाड़ी में बैठकर चले जाते थे। मगर आज तो मोटर गाड़ी, रेलगाड़ी और हवाई जाहज तक चल पड़े जिससे घण्टे भर में हजारों मील चला जा सके। बल्कि चार-छ: फर्लाग भी चलना हो तो बाइसिकल के आधार से चला जाता है। पैदल चलना एक प्रकार से अपराध-सा समझा जाने लगा है।

 

पैदल चलते समय पैरों में कांटे न गड़ पावें इसलिये पहले काठ की खड़ाऊ पहनकर निर्वाह किया जाने लगा, फिर मुर्दा चमड़े के जूते बनने लगे परन्तु आज तो निर्दयतयापूर्वक बिचारे जिन्दा पुशओं का चमड़ा उधेड़कर उसके जूते बनने लगे हैं। जिनको कि पहन लेने के बाद वापिस खोलना असभ्य आँवारू लोगों का काम समझा जाता है। जूता पहिले ही सो रहना चाहिए और जूता पहिले ही खाना भी खा लेना चाहिए। इसी में अपनी शान समझी जाने लगी है। गर्मी से बचने के लिये पहले तो दरख्तों की हवा ली जाती थी फिर ताड़ व खजूर वगैरह के पत्तों के पंखे बनाकर उनसे अपना काम निकाला जाने लगा। परन्तु अब तो बिजली के पंखों का आविष्कार हो लिया है जिससे कि बटन दबाया और मनमानी हवा ले ली जावे।

 

पीने के लिए पानी भी पहले तालाब या नदियों से लिया जाता था। फिर कुएं, बावड़िया, बनने लगीं परन्तु अब तो हैण्ड पम्प और नल आदि से मनमाना पानी मिलने लगा। मतलब यह कि मनुष्य अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये अधिक से अधिक सुविधा प्राप्त करता जा रहा है। फिर भी किसी को शांति के दर्शन नहीं हो रहे हैं प्रत्युत विषमता होती जा रही है। क्योंकि प्रत्येक मनुष्य स्पर्धा की सड़क पर दौड़ लगाते हुए अपने आपको सबसे अगाड़ी देखना चाहता है। बस इसी चिन्ता में इसका सारा समय बीतता है। यहां पर हमें एक बात की याद आ जाती है। एक अच्छे करोड़पति सेठ थे जिनकी कई दुकानें चलती थीं जिनकी उलझन में सेठ जी खाना खाने को भी दौड़ते से आते थे तथा रात को सोने के लिए भी बारह बजे तक आते थे तो सो जाते थे। परन्तु स्वप्न में भी उन्हें व्यापार कारोबार की बात ही सूझती थी।

 

एक रोज सेठानी बोली- हे पतिदेव! आप इतने बड़े सेठ हैं फिर भी आपके चित्त पर हर समय बड़ी व्यग्रता देखती हूं। मेरे देखने से आपसे तो यह अपना पड़ोसी फूसिया ही सुखी मालूम पड़ा है। जो समय पर मजदूरी करने जाता है और परिश्रम करके समय पर आ जाता है। सांयकाल के समय सितार पर दो घड़ी भगवान का भजन कर लेता है। सेठ ने कहा- ठीक बात है! एक काम कर! यह कुछ रुपयों की थैली है सो जाकर उसके आंगन में गिरा कर आ जा। सेठानी ने ऐसा ही किया। सबेरा होते ही जब फूसिया ने अपने यहां थैली पड़ी देखी तो विचार किया मैं भगवान का भगत हूं अत: भगवान ने खुश होकर मेरे लिए भेजी है। परन्तु जब उसके रुपये गिने गये तो एक कम सौ थे। सोचा भगवान ने एक कम सौ क्यों रहने दिया? 

 

खैर कोई बात नहीं इसे मैं पूरा कर लूंगा अब वह उस रुपये को पूरा करने की फिकर में कुछ अधिक परिश्रम करने लगा। धीरे-धीरे रुपया पूरा हुआ तो अब उनको रखने के लिए एक सन्दूक और एक ताला की भी जरूरत हुयी। धीरेधीरे परिश्रम करके उनकी भी पूर्ति की। परन्तु जब वह सन्दूक उन रुपयों से भरी नहीं कुछ खाली रह गयी तो फिर उसे भर लेने की फिकर रही, इसी उधेड़बुन और परिश्रम में पड़कर उसने वह सितारा बजाना छोड़ दिया। बस यही हाल आज की सारी जनता का हो रहा है।

 

एक घटे एक बड़े वह पूरा हो जावे, कहीं से बिना कमाया हुआ पैसा आ जावे और मैं धनवान हो जाऊ। इसी दौड़ धूप में सभी तरह की समुचित साधन सामग्री होने पर भी बिना संतोष भाव के सुख कहां हो सकता है? सुख का मुख्य साधन तो संतोष है अतः वही वास्तविक धन है। उसके सामने और सब बेकार हैं जैसा कहा हैं कि -

 

गो धन गजधन वाजिधन, कंचन और मकान।

जब आवे संतोष धन, सब धन धूल समान॥

 

भगवान महावीर स्वामी के समय में उनका भगत एक गृहस्थी हो गया है जिसकी कि धर्मपत्नी भी उसके समान स्वभाव वाली थी। दोनों मेहनत मजदूरी कर पेट पालते थे। उस गृहस्थ का नियम था कि अपने पास बारह आने से अधिक नहीं रखूगा। इसलिये लोग उसे पूर्णियां श्रावक कहते थे। एक रोज दोनों स्त्री-पुरुष सुबह की सामायिक करने को बैठे थे। इधर आकाश मार्ग से होकर देवता लोग भगवान की वन्दना के लिए जा रहे थे। सो उनके ऊपर आकर उन देवताओं का विमान अटक गया। देवों ने सोचा ये दोनों भगवान के भक्त होकर भी इतने गरीब हैं। हम लोगों को इनकी कुछ सहायता करनी चाहिये। अतः उनके तवा, बेलन, चकलादि को सोना बनाकर आगे को रवाना हुए। उधर सामायिक का समय पूर्ण होने पर  पुर्णियां की स्त्री बोली हे प्रभो ! आज यह क्या बात हुई? मेरे चकला बेलन कहां गये? और उनकी एवज में ये चकला बेलन आदि कौन किसके, यहां रख गया है? हे भगवान! मैं अब रोटियां बनाऊँ तो कैसे बनाऊँ? इनको हाथ भी कैसे लगाऊँ? इतने में देव लोग वापस लौटकर आये और बोले कि आप लोगों की धर्म भावना से प्रसन्न होकर यह ऐसा तो हम लोगों ने किया है। हम लोगों की तरफ से आपको यह सब भेंट है, आप ले लेवें। पूर्णियां की स्त्री ने कहा प्रभो ! हमारे ये किस काम के? हमारे लिये तो वे सब ही भले हैं जोकि मिट्टी व पत्थर के थे। इन सबका हम क्या करें? इन सबके पीछे तो हम लोग बंध जावेंगे, इनको कहां रखेंगे? हमें यह सब नहीं चाहिये, आप अपने वापस लीजिये हमें तो अपने वे ही देने की कृपा कीजिये। इस पर आनन्दित होकर देवता लोग बोले- ओह ! कितना बड़ा त्याग है और जय जयकार पूर्वक उन पर फूल वर्षाये।

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