विवाह का मूल उद्देश्य
विवाह का मूल उद्देश्य
सामाजिकता को अक्षुण्ण बनाये रखना है और दुराचार से दूर रहकर भी वैषयिक सुख की मिठास को चखते रहना है जैसे कि हमारे पूर्व विद्वान् श्रीमदाशाधर के ‘‘रति वृत कलोन्नति'' इस वाक्य से स्पष्ट हो जाता है। यह जभी बन सकता है कि विवाहित दम्पतियों में परस्पर सौहार्दपूर्ण प्रेमभाव हो। इसके लिए दोनों के सौहार्द रहन-सहन, शील-स्वभाव में प्रायः हरबात में समकक्षता होनी चाहिए। अन्यथा तो वह दाम्पत्य पथ कण्टकाकीर्ण होकर सदा के लिए क्लेश का कारण हो जाता है। जैसा कि सोमा सती आदि में आख्यानों से जान लिया जा सकता है। एवं इस अनबन को दूर हटाने के लिए हमारे पूर्वजों ने एक स्वयंवर प्रथा को जन्म दिया था, जिसमें कि कन्या अपनी बुद्धिमता से अपने योग्य पति को स्वयं ढूंढ़ निकालती थी। उदाहरणार्थ गीतकला ने अपनी संगीतज्ञता के द्वारा धन्यकाकर को स्वीकार किया था।
परन्तु ऐसा किसी गरीब भाई को दे देनी थीं, सांयकाल तक जिन्दगी रही तो और रोटियां बना कर खाली जा सकती हैं। यदि ऐसी संग्रहकारिता हो मुझे पसन्द होती, जो किसी शाहजादे के साथ ही मेरा नाता जोड़ती, आपके पीछे क्यों लगती? यह सुनकर युवक बहुत खुश हुआ। मतलब इस सब लिखने का यह है कि जैसी के साथ में वैसे का संबंध ही प्रशंसा योग्य होता है। मगर आज ऐसा संबंध कोई बिरला ही होता होगा। आज तो यदि देखा जाता है या तो रूप सौन्दर्य या वित्तकोष। बस, इन दो के पीछे ही आज की जनता बंधी हुई है। इसीलिये आजकल का दाम्पत्य जीवन प्रेमोदऊभावक न होकर प्रायः कलह का स्थान ही रहता है। स्वर्ग का संदेश मिलने के बदले वहां पर नरक का दृश्य देखने को मिलता है।
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