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आज कल के लोगों का दृष्टिकोण


संयम स्वर्ण महोत्सव

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आज कल के लोगों का दृष्टिकोण

 

भूतल पर दो चीजें मुख्य हैं, शरीर और आत्मा। शरीर नश्वर और जड़ है। तो आत्मा शाश्वत और चेतन। इन दोनों का समायोग विशेष मानव-जीवन है। अत: शरीर को पोषण देने के लिए धन की जरूरत होती है तो आत्मा के लिए धर्म की, एवं साधक दशा में मनुष्य के लिए यद्यपि दोनों ही अपेक्षणीय हैं फिर भी हमारे बुजुर्गों की निगाह में धर्म का प्रथम स्थान था। हां, उसके सहायक साधन रूप में धन को भी स्वीकार किया जाता था। परन्तु जहां पर वह धन या उसके अर्जन करने की तरकीब यदि धर्म की घातक हुई तो उस ऐसे धन को लात मारकर धर्म का संरक्षण किया करते थे, किन्तु आज के लोगों का दृष्टिकोण सर्वथा इसके विपरीत है।

 

आज तो धर्म को ढकोसला कहकर धन को ही सब कुछ समझा जाता है। येन केन रूपेण पैसा बटोरने का ही लक्ष्य रह गया है। कहीं कोई बिरला ही मिलेगा जो कि अपनी मेहनत की कमाई पर गुजर बसर कर रहा हो, प्रायः प्रत्येक का यही विचार रहता है कि कहीं से लूट खसोंट का माल हाथ लग जाये। कहीं पाकेटमारी का हल्ला सुनाई देता है तो कहीं जुआ-चोरी का। कोई खुद चोरी करता है तो कोई उसके लाये हुए माल को लेकर उसे प्रोत्साहन देता है। आयात निर्यात की चोरियों का तो कुछ ठिकाना ही नहीं रहा है।

 

सुना गया है दूसरे देशों से सोना लाने वाले लोग जाँघ फाड़कर वहां रख लाते हैं। कोई सोने की गोलियां बनाकर मुंह में रख लेते है। बिना टिकट रेलगाड़ी में जाना आना तो भले-भले लोगों के मुंह से सुना जाता है, मानो वह तो कोई अपराध ही नहीं। मैं तो यह कहता हूं कि व्यक्तिगत चोरी की अपेक्षा से भी स्वार्थवश होकर कानून भंग करना और सरकारी चोरी करना तो और भी घोर पाप है, अपराध है। क्योंकि उसका प्रभाव तो सारे समाज पर जा पड़ता है। परन्तु जो कोई सिर्फ अपनी हवस पूरी करना जानता है उसे यह विचार कहां? वह तो किसी भी तरह से अपना मतलब सिद्ध करना चाहता है। सरकार तो क्या, लोग तो धर्मायतनों से भी धोखा करने में नहीं चूकते हैं।

 

गौशाला सरीखी सार्वजनिक धार्मिक संस्थाओं में भी आये दिन गड़बड़ी होती हुई सुनी जाती है। प्रामाणिकता का कही दर्शन होना ही दुर्लभ हो रहा है। सरकार प्रबन्ध करते-करते थक गई है और अपराध दिन पर दिन बढ़ते जा रहे हैं। लोग कहते हैं कि सिंह बड़ा क्रूर जानवर होता है परन्तु मैं तो कहता हूं कि ये बिना मार्का के सिंह उससे भी अधिक क्रूर हैं जो कि देश भर में विप्लव करते चले जा रहे हैं।

 

एक रोज एक निशानेबाज आदमी घोड़े पर चढ़कर जंगल की ओर चल दिया, कुछ दूर जाने पर उसे एक बाघ दीख पड़ा तो उसने अपना घोड़ा उसी बाघ के पीछे कर दिया। थोड़ी देर बाद वह बाघ तो अदृश्य हो गया और उसकी एवज में उसकी एक साधु से भेंट हुई। तब वह साधु के पैरों पड़ा। साधु ने कहा तुम कौन हो? तो वह बोला प्रभो ! एक तीरन्दाज हूं और क्रूर प्राणियों का शिकार किया करता हूं। आज एक बाघ मेरे आगे आया था परन्तु न मालूम अब वह कहां गायब हो गया और अब तो रात होने को आ गई है। साधु ने कहा कोई हर्ज नहीं, रात को शिकार और भी अच्छा मिलता है, चलो मैं भी तुम्हारे साथ चलता हूं। चलते-चलते मदन बाजार में एक वेश्या के घर पहुंच जाते हैं तो क्या देखते हो कि एक महाशय वेश्या के साथ बैठे-बैठे शराब पीते जाते है और कहते जाते हैं कि हे प्रिय, इस दुनिया में मेरी तो उपास्य देवता एक तु ही है। दिन में साधु बनकर सड़क पर बैठ जाता हूं और किसी भगत को फीचर के आंक, तो किसी को सट्टे फाटके की तेजी मन्दी देता हूं, एवं कोई पक्का जुआरी मिल गया तो उसे विजयकारक यन्त्र देने का ढोंग रचकर माल ऐंठता हूं।

 

दिन भर में जो कुछ पाया वह रात को आकर तेरी भेंट चढ़ा जाता हूं। आगत साधु अपने तीरन्दाज से बोला कि कहो कैसा शिकार है? मगर थोड़ी दूर आगे चलो। चल कर चीफ जज के मकान पर पहुंचे तो वहां पर जज साहेब के सामने एक वकील महाशय खड़े है जो कि एक हजार मोहरों की थैली देते हुये उन्हें कह रहे हैं कि श्रीमान जी मेरे मुवक्किल का मुकदमा आपके पास विचारार्थ आया हुआ है जिसमें उसके लिये बलात्कार के अभियोग स्वरूप कारागार का हुक्म अदालत ने निश्चित किया है, प्रार्थना है कि विचार करते समय आप उसे उन्मुक्त रहने देने की कृपा करें और बाल बच्चों के लिये यह तुच्छ भेंट स्वीकार करें।

 

यह देखकर तीरन्दाज बोला, ओह! बड़ा अनर्थ है! यहां पर तो स्वार्थवश होकर न्याय का ही गला घोंटा जा रहा है, किन्तु साधु बोला अभी थोड़ा और आगे चलना है। चलकर एक इन्सपेक्टर (निरीक्षक) के कमरे के पास पहुंच जाते हैं। वहां क्या देखते हैं कि उनके सम्मुख मेज पर तीन चार बन्द बोतले रखी हैं जिनमें शुद्ध पानी भरा हुआ है और आरोग्य सुधा का लेबिल चिपका हुआ है, आगे एक आदमी खड़ा है और कह रहा है महाशय! अपराध क्षमा कीजिये, यह दो हजार मोहरों की थैली लीजिये और इन बोतलों के बदले में आरोग्य सुधा की यह असली बोतले अब तो तीरन्दाज के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। वह कहने लगा कि हे भगवान! यहां तो जिधर देखों उधर ही यही हाल हैं, किस-किस को तीर का निशाना बनाया जाय?

 

वस्तुत: विचार कर देखा जाये तो जिस प्रकार ये लोग अपने जीवन के लिये औरों के खून के प्यासे बने हुये हैं, अन्याय करते हैं तो मैं क्या इन सबसे कम हूं? ये लोग तो स्वार्थवश अन्धे होकर ऐसा करते हैं, मैं तो व्यर्थ इनके प्राणों का ग्राहक हो रहा हूं ! अगर कहूं कि क्रूरता का अन्त करना है तो भला कहीं क्रूरता के द्वारा क्रूरता का अन्त थोड़े ही होने वाला है। क्रूरता को मारने के लिये शान्ति की जरूरत है तो स्वार्थ को मारने के लिये त्याग की और दूसरों को सुधारने के लिये अपने आप सुधर कर रहने की, एवं अपने आप सुधर कर रहने के लिये सबसे पहले काम पर विजय प्राप्त करना आवश्यक है।

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