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न्यायोपात्त धन


संयम स्वर्ण महोत्सव

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न्यायोपात्त धन

 

ऊपर बताया गया है कि परिग्रह अनर्थ का मूल है और धन है वह परिग्रह है। अतः वह त्याज्य है परन्तु याद रहे कि इसमें अपवाद है क्योंकि पारिवारिक जीवन बिताने वाले गृहस्थों को अभी रहने दिया जाय, उनका तो निर्वाह बिना धन के हो ही नहीं सकता परन्तु मैं तो कहता हूं कि परिवार से दूर रहने वाले त्यागी तपस्वियों के लिए भी किसी न किसी रूप में वह अपेक्षित ठहरता है क्योंकि उनको भी जब तक यह शरीर है तब तक इसे टिका रखने के लिए भोजन तो लेना पड़ता ही है जो कि धन के आधार पर निर्धारित है। यह बात दूसरी है कि उनका देश-काल उन्हें स्वयं धनोपार्जन करने को नहीं कहता है। उन्हें तो गृहस्थ अपने परिश्रम से उपार्जन किये हुए धन के द्वारा सम्पादित अन्न में से श्रद्धापूर्वक जो जितना कुछ दे उसी पर निर्वाह करना होता है। परन्तु गृहस्थ जीवन उससे विपरीत होता है। उसे उसके अपने परिवार के एवं अपने आपके भी निर्वाह को ध्यान में रखकर चलना पड़ता है। अत: उसे लिए धन को आवश्यक मानकर न्यायपूर्वक कमाई करने की आज्ञा है। न्यायवृत्ति का सीधा सा अर्थ होता है उचित रीति से शारीरिक परिश्रम करना। उससे जो भी लाभ हो उसमें से कुछ एक भाग से बाल, वृद्ध, रोगी, त्यागी और प्राधूर्णिक की सेवा करके शेष बचे हुए से अपना निर्वाह करना एवं आय से अधिक व्यय कभी नहीं करना।

 

धन्यकुमार चरित्र में किसान हल जोत कर अपने विश्राम स्थल पर आता है और उसकी घरवाली उसके लिये भोजन लाकर देती है तो वह कृषक धन्यकुमार को भी खाने के लिए कहता है कि आइये कुमार ! भोजन कीजिये? जवाब मिलता है कि आप ही खाइये, मैं तो मेहनत किये बिना नहीं खा सकता। यदि आप मुझे खिलाना ही चाहते हैं तो मुझसे अपना कुछ काम ले लीजिये। इस पर लाचार होकर किसान को धन्यकुमार से हल जोतने का काम लेना पड़ा। क्योंकि उसे खिलाये बिना वह भी खा नहीं सकता था और धन्यकुमार उसका काम किये बगैर कैसे खाये। अत: धन्यकुमार ने प्रसन्नतापूर्वक हल जोतने का कार्य किया। मतलब यह कि न्यायवृत्ति वाला मनुष्य किसी से मांगना तो दूर रहा वह तो किसी का दिया हुआ भी लेना ठीक नहीं समझता। वह तो स्वयं पर भरोसा रखता है।

 

इसी धन्यकुमार की स्त्री सुभद्रा जब इसे ढूंढ़ने के लिये अपने सास-सुसर के साथ निकलती है और मार्ग में लुटेरों से पाला पड़ जाता है, लुट जाते हैं तो फिर जाकर जहां तालाब खुद रहा था वहां पर मिट्टी खोद कर डालने के काम में लगते हैं। मालिक जाकर देखता है तो कहता है कि ये लोग इतना परिश्रम क्यों कर रहे हैं? मिट्टी खोद कर क्यों फेंक रहे हैं? ये सब लोग तो हमारे अतिथि हैं। मेरे घर पर चलें और आराम से रहें। ऐसा भी न करें तो भी कम से कम इतना तो आवश्यक करें कि जिन-जिन चीजों की आवश्यकता हो मेरे यहां से मंगा लेवें। इस पर सुभद्रा ने कहा कि मिट्टी खोद कर डालना तो हमारा कर्तव्य है, श्रम कर खाना यह तो मनुष्य की मनुष्यता है किन्तु किसी के यहां से यों ही ले आना यह तो गृहस्थ जीव का कलंक है, घोर अपराध है। हम लोग ऐसा कैसे कर सकते हैं?

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