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काम पर विजय श्रेयस्कर है


संयम स्वर्ण महोत्सव

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काम पर विजय श्रेयस्कर है

 

काम पर संस्कृत भाषा में इच्छा का पर्यायवाची माना गया है। वैसे तो मनुष्य नाना प्रकार की इच्छाओं का केन्द्र होता है किन्तु उन इच्छाओं में तीन तरह की इच्छायें प्रसिद्ध हैं। खाने की, सोने की, और स्त्री प्रसंग की। इसमें से दो इच्छायें बालकपन से ही प्रादुर्भूत होती हैं तो स्त्री प्रसंग की इच्छा युवावस्था में विकसित हुआ करती है। पहले वाली दोनों इच्छाओं को सम्पोषण देना एक प्रकार से शरीर के सम्पोषण के लिये होता है किन्तु स्त्री प्रसंग को कार्यान्वित करना केवल शरीर के शोषण का ही हेतु होता है। अतः पूर्व की दो इच्छाओं को हमारे महर्षियों ने काम न कहकर आवश्यकता कहा है एवं कुछ हद तक उन्हें पूर्ण करना भी अभीष्ट बताया है इसलिये गृहस्थ की तो बात ही क्या साधुओं तक को उनकी पूर्ति के लिये यथोचित आज्ञा प्रदान की है।

 

परन्तु स्त्रीप्रसंग की इच्छा को तो सर्वथा नियंत्रण योग्य ही कहा है, यह बात दूसरी है कि हरेक आदमी उसका पूर्ण नियन्त्रण करने में समर्थ न हो सके एवं कामेच्छा को नियन्त्रण करने में समर्थ न हो सके। एवं, कामेच्छा को नियंत्रण करना इसलिये आवश्यक कहा गया है कि कोई भी मरना नहीं चाहता, हर समय अमर रहने के लिये ही अपनी बुद्धि से सोचता है। काम को जीतना सो बुद्धि के विकास का हेतु और मृत्यु को जीतना है परन्तु काम सेवन करना बुद्धि के विध्वंस के लिए होकर मृत्यु को निमंत्रण देना है। अपने आप मरण मार्ग का निर्माण करना है।

 

हमारे हित चिन्तक महात्माओं ने उपर्युक्त सिद्धान्त को लक्ष्य में रखकर ही हम लोगों के लिए ब्रह्मचर्य का विधान किया है। बतलाया है कि मनुष्य अपने विचारों में स्त्री को स्त्री ही नहीं समझना, चित्त में उसकी कभी याद भी नहीं आने देना, ऐसे पूर्ण ब्रह्मचर्य को यदि धारण नहीं कर सके तो एकदेश ब्रह्मचर्य का पालन तो अवश्य ही करें। स्पष्ट युवावस्था आने से पूर्व कुमार काल में कभी स्त्री प्रसंग का नाम न ले। वहां जो अपना भावी जीवन सुन्दर से सुन्दर बने इसकी साधन सामग्री बटोरने में ही समय बीतना चाहिये और वृद्धावस्था आ जाने पर यदि स्त्री विद्यमान भी हो तो उसका त्याग कर सिर्फ परमात्म स्मरण में अपने समय को बिताने लगे। रही मध्य की युवावस्था, सो वहां पर भी स्त्री को आराम देने की मशीन न मानकर अपने शरीर में आ प्राप्त हुए अवस्थोचित विकार को दबाने के लिये मधुर दवा के रूप में उसका सेवन किया जा सकता है।

 

हमारे पूर्वातार्यों ने इसे पशु कर्म बतलाया है। इसका मतलब यह कि पशु ऋतुकाल में एक बार ही ऐसा करता है फिर नहीं। अब अगर हम यदि मनुष्य कहलाते हैं तो हमें उससे अधिक संयमित होना चाहिये। परन्तु यदि उस नियम को भी भंग करके मनमाना करते हैं तो मनुष्य तो क्या पशु भी नहीं बल्कि महर्षियों की निगाह में पशु से भी हीन कोटि पर आ जाते हैं। परन्तु खेद है कि इस बात का विचार रखने वाला कोई बिरला ही महानुभाव होगा। हर एक मनुष्य के लिए तो पर्वादि के दिन भी ब्रह्मचर्य पूर्वक रह जाना बहुत बड़ी बात हो जाती है, कितने ही तो ऐसे भी निकल आयेंगे जिनको अपनी पराई का भी विचार शायद ही हो।

 

कुछ लोग तो बेहूदेपन से भी अपने ब्रह्मचर्य को बरबाद कर डालते हैं। आज इस विज्ञान की तरक्की के जमाने में तो एक और कुप्रथा चल पड़ी है वह यह कि जहां दो चार बच्चे हो लें तो फिर बच्चे दानी निकलवा डालनी चाहिए, ताकि बच्चा होने का तो कुछ भी भय न रहे एवं निडर होकर संसार का मजा लूटा जावे। कोई कोई तो शादी संबंध होते ही ऑपरेशन करवा डालते हैं। ताकि बच्चे की आमदनी होकर उनकी गृहदेवी का नूर न बिगड़ने पाये। भला सोचो तो सही इस विलासिता की भी क्या कोई हद है? जहां कि अपनी क्षणिक घृणित स्वार्थापूर्ति के लिए प्राकृतिक नियम पर भी कुठाराघात किया जाता है। भले आदमी, अपने लंगोट को ही कस कर क्यों न रखें ताकि उनका परमात्मा प्रसन्न हो एवं उन्हें वास्तविक शांति मिले।

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