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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

परिग्रह ही सब पापों का मूल है


परिग्रह ही सब पापों का मूल है

 

मनुष्य अपने पतनशील शरीर को स्थायी बनाये रखने के लिये इसे हष्टपुष्ट कर रखना चाहता है। अत: जिन चीजों को इस शरीर को पोषण के लिए साधकस्वरूप समझता है उन्हें अधिक से अधिक मात्रा में संग्रह कर रखने का और जिनको उसके बाधक समझता है उन्हें दूर हटाने के लिए एडी से चोटी तक का पसीना बहा देने में संलग्न हो रहने का अथक प्रयत्न करता है। इसी दुर्भाव का नाम ही परिग्रह है।

 

अर्थात् इस शरीर के साथ मोह और शरीर की सहायक सामग्री के साथ ममत्व होने का नाम परिग्रह है। जिसके कि वश में हुआ यह शरीरधारी सब कुछ करता है, व्यभिचार मैं फंसता है। चोरी करता है। झूठ बोलता है और अपने पराये को कष्ट देने में प्रवृत्त हो रहता है। पुरातनकाल में लोग अपने जीवन निर्वाह के योग्य वस्तुओं को अपने शारीरिक परिश्रम से सम्पादित करते थे, उन्हीं से अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति कर लेते थे। एक आदमी एक काम करता तो दूसरा आदमी किसी दूसरे काम में दिलचस्पी लेता था। इस प्रकार अपनी आवश्यक चीजों को अपने वर्ग से प्राप्त करते रह कर परस्पर प्रेम और संतोषपूर्वक एक परिवार का सा जीवन बिताया जाया करता था जिसमें स्वार्थपूर्ति के साथ-साथ परमार्थ की भावना भी जीवित रहती थी। यदि कहीं विभिन्न वर्ग के व्यक्ति से भी कोई चीज लेनी होती थी तो चीज के बदले चीज लेकर ली जाती थी। जेसे एक जूतों की जोड़ी का मूल्य पांच सेर अनाज, एक गेहूं की बोरी का मूल्य दो बकरियां, एक चादर का दाम के भेड़ किन्तु आवश्यकता प्रधान थी, विनियम गौण। धीरे-धीरे विनियम के लाभ को पहचानकर अधिक उत्पादन का प्रयत्न होने लगा।

 

विनियम आगे बढ़ा, नाना परिवारों की भांति गाँवों, शहरों, प्रान्तों और देशों में परस्पर व्यवसाय होने लगा। एवं फिर उत्पादन का ध्येय ही व्यवसाय हो गया। उसमें सहूलियत पाने के लिये मुद्राओं को जन्म दिया गया। हर प्रकार के व्यवसाय का मूल सूत्र अब मुद्रा बन गई । सुगमता यहां तक बढ़ी कि जेब में एक पैसा भी न होकर लाखों करोड़ों का व्यापार सिर्फ जबान पर होने लगा।

 

मनुष्य ने जिस एक साधन के रूप में स्वीकार किया था वही साध्य होकर आज उसके सिर पर चढ़ बैठा है। जिसके पास पैसा, वही दर्शनीय जैसा, बाकी तो कोई वैसा न ऐसा, जैसी बातें कही जाने लगी हैं। प्रायः सभी के दिल में यही समायी हुयी है कि उचित या अनुचित किसी भी मार्ग से पैसा प्राप्त किया जावे। सोचने का विषय यह है कि वह अर्थ है क्या चीज जिसको मनुष्य ने इतना महत्व दे रखा है? वह है मनुष्य की अपनी कल्पना का विषय। इसके सिवाय और कुछ भी नहीं। मनुष्य ने पहले अपने सोने को मान्यता दी तो उसके सिक्के बने, फिर चांदी के, उसके बाद चमड़े के किन्तु अब कागज का नम्बर आ गया है। यदि मनुष्य अपने विचारों में लोहे को उतना महत्व देने लगे जितना कि वह सोने को दे रहा है तो लोहा सोना बन जावे और सोने को मिट्टी जितना महत्व दे तो सोना मिट्टी के बराबर बन जाता है। खैर! 

 

आज का मानव केवल पैसे का उपसक बना हुआ है। मानता है कि पैसे से ही सब कुछ चलता है अत: किसी भी उपाय से पैसा प्राप्त किया जावे। वह भी इतना हो तो बहुत ठीक जिससे कि मैं सबसे अधिक पैसे वाला कहलाऊँ, बस इसी विचार से अनेकों की आजीविका के ऊपर कुठाराघात करके भी अपने आपका ही खजाना भरना चाहता है। आज अनेक मिल और फैक्ट्रियां खुलती हैं। उनमें क्या होता है? लाखों आदमियों का काम एक मशीन से ले लिया जाता है। उसकी आय एक श्रीमान के यहां आकर जमा हो जाती है। हां, उनमें हजार पांच सौ आदमी जरूर काम पर लगते हैं। वह भी जहां लाखों का पेट भर सकता था वहां सिर्फ इन गिने आदमियों की पेटपूर्ति का कारण हो रहता है एवं उन काम करने वालों का भी स्वास्थ्य उस मशीन के अथक परिश्रम से खराब होता रहता है। परन्तु जो लोग स्वयं उससे धन कमाकर इकट्ठा करना चाहते हैं उन्हें इस बात की चिन्ता नहीं। इसीलिये तो आज बेकारी बढ़ती चली जा रही है। जो विधवा बहिनें कपास की चरखियां चलाकर चरखे के द्वारा सूत कातकर अपना पेट पालती थी या किसी श्रीमान का पसीना पीस कर अपनी भूख मिटाती थी, वे सब आज बिना धन्धे के भूखों मर रही हैं।

 

कई सेठ साहूकार किसी को नौकर भी रखता है कि इसीलिये कि इसके द्वारा मेरा कारोबार चलेगा, जो इसको वेतन दूंगा मुझे इसके द्वारा अधिक आमदनी होगी। नौकर भी यही सोचता है कि चलो ये मुझे जो नौकरी देते हैं मैं अभी किसी भी दूसरे रास्ते से उतनी प्राप्ति नहीं कर सकता हूँ इसीलिये अभी तो यहीं रहना चाहिये और किसी भी दूसरे काम की निगाह करते रहना चाहिये जहां कोई इससे भी अधिक प्राप्ति का मार्ग हाथ आया कि इसको छोड़ दूंगा। ‘गुरू चेला लालची दोनों खेलें दाव' वाली कहावत चलती है। स्वामी और सेवकपन का आदर्श बिल्कुल लुप्त हो गया है, सिर्फ पैसे से यारी है। जिधर देखे उधर यही हाल है। अपनी धन संग्रह की भावना को पोषण देते हुए परपरिशोषण ही जगाया जा रहा है। पैसे के द्वारा जो चाहे सो कर लिया जाता है। और अपनी शान बतायी जाती है। इधर सब बाते तो रहने दीजिये आज को शासन सत्ता भी पैसे के आधार पर ही चलती देखी जा रही है। जब मतदान का अवसर आया और आपके पास नौट हों उनको बखेर दीजिये और अपने पक्ष में वोट ले लीजिये। फिर क्या? सत्ताधीश हो रहिये एवं फिर जो नोट आपने फेंके थे। उससे कई गुने नोट थोड़े ही दिनों में बटोर लीजिये।

 

हाय भारत माता। तेरी सन्तान की आज क्या दशा हो गयी है। जहां राजा और प्रजा में पिता-पुत्रवत् सोहार्द भाव था वहां आज यह दशा देखने को मिल रही है इस पैसे के प्रलोभन में आकर। राज्य-शासक प्रजा का सर्वस्व हड़प जाना चाहते हैं तो प्रजा राज्य को नष्ट कर देने के लिए कमर कस रही है। आज से करीब बाइस सौ वर्ष पूर्व ईरान से आकर सिकन्दर महान ने भारत पर आक्रमण किया था तो पौरूष राजा से उसकी मुठभेड़ हुयी। यद्यपि विजय सिकन्दर के हाथ ली फिर भी पौरूष की वीरता को देखकर सिकन्दर को बड़ी प्रसन्नता हुई। दोनों एक जगह बैठ कर परस्पर बातें कर रहे थे। इतने में ही दो आदमी और आये जो बोले कि आप दोनों महानुभाव विराज रहे हो हम दोनों का एक झगड़ा मिटा दीजिये। उन आगन्तुकों में से एक ने कहा कि मैंने इनसे कुछ जमीन मोल ली थी। उसे खोदते हुए वहीं पर कुछ स्वर्ण निकला है, मैंने इससे कहा यह सब स्वर्ण तो आपका है आप लीजिये मैंन तो सिर्फ आप से जमीन खरीदी है ना कि यह स्वर्ण तो आपका है इस पर यह कहते है कि वाह ! जब मैंने तुम्हें जमीन दी तो फिर यह स्वर्ण जो कि उस जमीन में से निकला है उससे पृथक थोड़े ही रह गया। यह सुनकर सिकन्दर से पौरुष बोला इसका इंसाफ आप करें। किन्तु सिकन्दर ने कहा- नहीं, यह सब प्रजा आपकी है। यह प्रान्त भी आपका है। आप ही यहां के राजा हैं। मैंने सिर्फ आपको अपने दो हाथ दिखाये हैं। 

 

मेरा यहां कुछ नहीं, है तो सब आपका है। इसलिए आप ही इसका निपटारा कीजिये। क्षण भर विश्राम लेकर पौरूष ने उस प्रार्थना करने वाले से कहा कि भाई क्या आपके कोई संतान नहीं हैं? तो जवाब मिला कि मेरे एक लड़की है और इनके एक लड़का पौरूष ने कहा कि उन दोनों का आपस में विवाह कर दो और यह सोना उनको दहेज में दे दो। इससे वे दोनों तो बड़े खुश हुए किन्तु सिकन्दर ने कहा आपने यह क्या किया? यह सब माल तो सरकार के योग्य था। पौरूष ने कहा- 'अब भी तो वह सरकार का ही है। प्रजा भी सारी सरकार की ही है। सरकार उससे जब जो चाहे ले सकती है। मेरी समझ में प्रजा उसके देने में कछ आगा पीछा नहीं सोचेगी। सिकन्दर को इस पर विश्वास नहीं हुआ। वह बोला कि मैं इसको देखना चाहता हूं। पौरूष ने ढिंढोरा पीटवा दिया कि सरकार को जरूरत है, जिसके पास जितना सोना हो यहां लाकर रख देवे। शाम तक अपने-अपने नाम की चिट लगाकर जिसके पास जो सोना था वहां लाकर डाला गया। बहुत बड़ा ढेर लग गया। सबेरा होते ही जो सोने का पर्वत सरीखा ढेर और राजा तथा प्रजा में इस प्रकार का उदारतापूर्वक व्यवहार देखा तो सिकन्दर अचम्भे में आ गया और बोला कि धन्यवाद है आपको तथा आपकी प्रजा को। मैंने ऐसे संतोषपूर्ण लोगों को कष्ट दिया इसका मुझे पूर्ण पश्चाताप है।

 

लोगों को यह कह दिया गया कि अभी कोई जरूरत नहीं है अत: अपना -अपना सोना वापिस ले जाओ तो सबने ठीक अपने-अपने नाम का सोना बड़ी शांति के साथ ले लिया। विचार का विषय है कि उस समय की बात और आज की बात में कितना अन्तर है, कहां वह प्रकाशमय दिन था जो कि लोगों को सन्मार्ग पर स्थिर किये हुए था और कहां आज अन्धकारपूर्ण रात्रि है जिसमें कि लोग दिग्भ्रान्त होकर इधर-उधर टक्कर खा रहे हैं।

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