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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. परिस्थिति की विषमता किसी भी देश और प्रान्त में ही नहीं किन्तु प्रत्येक गांव तथा घर में भी आज तो प्राय: कलह, विसंवाद, ईर्षा, द्वेष आदि का आतंक छाया हुआ पाया जा रहा है। इधर से उधर चारों तरफ बुराइयों का वातावरण ही जोर पकड़ता जा रहा है, इसलिये मनुष्य अपने जीवन के चौराहे पर किकर्त्तव्यविमूढ़ हुआ खड़ा है। वह किधर जावे और क्या करे? सभी तरफ से हिंसा की भीषण ज्वालायें आकर इसे भस्म कर देना चाहती हैं। असत्य के खारे पानी से सन कर इसका कलेजा पुराने कपड़े की तरह चीर-चीर होता हुआ दीख रहा है। लूट-खसोट के विचार ने इसके लिए हिलने को भी जगह नहीं छोड़ी है। व्यभिचार की बदबू ने इसके नाक में दम कर रखा है। असन्तोष के जाल में तो बुरी तरह जकड़ा हुआ पड़ा है। घर में ओर बाहर में कहीं भी इसे शान्ति नहीं है। क्योंकि भौतिकता की चकाचौंध में आकर इसने अपना विश्वास गला डाला है। अपनी चपलता के वश में होकर यह किसी के लिये भी विश्वास का कर्तव्य पथ प्रदर्शन पात्र नहीं रहा है। और न इसे ही कोई ऐसा दीखता है जिसके कि भरोसे पर यह धैर्य धारण कर रह सके। साँप से सबको डर लगता है कि वह कहीं किसी को काट न खाये, तो सांप भी हर समय यो भयभीत बना ही रहता है कि कोई मुझे मार न डाले। बस यही हाल आज मनुष्य का मनुष्य के साथ में हो रहा है। एक को दूसरा हड़प जाने वाला प्रतीत होता है। अतएव मनुष्य, मनुष्य के पास जाने में संकोच करता है। हां, किसी भी वृक्ष के पास वह खुशी से जा सकता है, क्योंकि उसे विश्वास है वह भूखे को खाने के लिये फल, परिश्रान्त को ठहरने के लिये छाय, शयन करना चाहने वालों को फूल पत्तों की सेज ओर टेककर चलने आदि के लिए लतड़ियां देगा। वह मनुष्य की भांति धोखे में डालने वाला नहीं है अपितु सहज रूप से ही परोपकारी है। बस इसी विचार को लेकर मनुष्य वृक्ष के पास जाने में संकोच नहीं करता। परन्तु मनुष्य मनुष्य के पास न जाकर उससे दूर रहना चाहता है। क्योंकि वह सोचता है कि आज मनुष्य दूसरे का बुरा करने का आदी बना हुआ है। उसके पास जाने पर मेरा बिगाड़ के सिवाय सुधार होने वाला नहीं है, मेरी कुछ न कुछ हानि ही होगी अपितु कुछ लाभ होने वाला नहीं है। बस इसीलिये वह उससे दूर भागता है। परन्तु गाड़ी का एक पहिया जिस प्रकार दूसरे पहिये के सहयोग बिना खड़ा नहीं रह सकता उसी प्रकार दुनियादारी का मानव भी किसी दूसरे मानव के सहयोग से रहित होकर कैसे जीवित रह सकता है? अतः मानव को अपना जीवन भी आज दूभर बना हुआ है।
  2. अभिमान का दुष्परिणाम कुछ भी न कर सकने वाला होकर भी अपने आपको करने वाला मानना अभिमान है। वस्तुतः मनुष्य कुछ नहीं कर सकता, जो कुछ होता है वह अपने-अपने कारण कलाप के द्वारा होता है। हां संसार के कितने ही कार्य ऐसे होते हैं जिनमें इतर कारणों के ही समान मनुष्य का भी उनमें हाथ होता है। एवं जिस कार्य में मनुष्य का हाथ होता है तो वह उसे अपनी विचार शक्ति के द्वारा प्रजा के लिए हानिकारक न होने देकर लाभप्रद बनाने की सोचता है, बस इसीलिये उसे उसका कर्ता कहा जाता है। फिर भी उस काम को होना, न होना या अन्यथा होना यह उसके वश की बात नहीं है। मान लीजिये कि एक किसान ने खेती का काम किया - जमीन को अच्छी तरह जोता, खाद भी अच्छी लगाई, बीज अच्छी तरह से बोया, सिंचाई ठीक तौर से की, और भी सब सार सम्भाल की और फसल अच्छी तरह पककर तैयार हो गयी। किन्तु एकाएक ओला पड़ा जिस से कि किया कराया सब कुछ बर्बाद। सारी खेती टूट कुचलकर मिट्टी में मिल जाती है। ऐसी हालत में अगर किसान यह कहे कि मैं ही खेती करने वाला हूं, अन्न को उपजाता हूं तो यह उसका अभिमान गलत विचार है। इस गलत विचार के पीछे स्वार्थ की बदबू रहती है यानि जब कि खेती करने वाला हूं तो मैं ही उसका अधिकारी हूं, भोक्ता हूं, किसी दूसरे का इस पर क्या अधिकार है? इस प्रकार का संकीर्ण भाव उसके हृदय में स्थान किये रहता है। इस संकीर्ण भाव के कारण से ही प्रकृति भी उसका साथ देना छोड़कर उसके विरुद्ध ही रहती है, ताकि जी-तोड़ परिश्रम करने पर भी सफलता के बदले में प्रायः असफलता ही उसके हाथ लगा करती है। हां, जो निरभिमानी होता है, वह तो मानता है कि यह मेरा कर्तव्य है अत: मैं करता हूं। मुझे करना चाहिये। इसका फल किसको कैसा क्या होगा, इसकी उसे चिन्ता ही नहीं होती। एक समय की बात है कि किसी नगर का राजा घोड़े पर चढ़कर वायु सेवन के लिये रवाना हुआ, नगर के बाहर आया तो एक बूढ़ा माली अपने बगीचे में नूतन पेड़ लगा रहा था। यह देखकर राजा बोला कि बूढ़े तू जो ये पेड़ लगा रहा है तो कब जाकर बड़े होंगे? क्या तू इनके फल खाने के लिए तब तक बैठा ही रहेगा? बूढ़े ने उत्तर दिया कि प्रभो इसमें फल खाने की कौन-सी बात है? यह तो मेरा कर्तव्य है, अत: मैं कर रहा हूँ मैंने भी तो बुजुर्गों के लगाये हुए पेड़ों के फल खाये हैं, अत: इन मेरे लगाए हुये पेड़ों के फल मेरे से आगे वाले लोग खावें यही प्रकृति की मांग है। इस पर राजा बड़ा प्रसन्न हुआ और पारितोषक रूप में एक मुहर उसे देते हुये धन्यवाद दिया। मतलब यह कि कर्तव्यशील निरभिमानी आदमी जो कुछ करता है उसे कर्तव्य समझकर विवेकपूर्वक करता है, उसे फल की कुछ चिन्ता नहीं रहती। इसी उदारता को लेकर उसे उसमें सफलता भी आशीतीत प्राप्त होती है। श्री रामचन्द्रजी को पता लगा कि सीता रावण के घर पर है तो बोले कि चलो उनको लाने के लिए। इस पर सुग्रीव आदि ने कहा कि प्रभो! रावण कोई साधारण आदमी नहीं है। उससे प्रतिद्वन्दिता करना आग में हाथ डालना है। श्री रामचन्द्र जी ने कहा, कोई बात नहीं। परन्तु सीता को आपत्ति में पड़ी देखकर भी हम चुप बैठे रहे, यह कभी नहीं हो सकता है। हमें अपना कर्तव्य अवश्य पालन करना चाहिये। फिर होगा तो वही जो कि प्रकृति को मंजूर है। श्री रामचन्द्रजी की सहज सरलता के द्वारा उनके लिये सभी तरह का प्रक्रम अपने आप अनुकूल होता चला गया। उधर उनके विपक्ष में रावण यद्यपि वस्तुत: बहुत बलवान और शक्तिशाली भी था, परन्तु वह समझता था कि मुझे किसकी क्या परवाह है, मैं अपने भुजबल और बुद्धि कौशल से जैसा चाहूं वैसा कर सकता हूं। बस इसी घमण्ड की वजह से उसकी खुद की ही ताकत उसका नाश करने वाली बन गयी। इस बात का पता हमें रामायण पढ़ने से लगता है अतः मानना ही चाहिये कि अभिमान के बराबर और कोई दुर्गुण नहीं है, जिसके पीछे अन्धा होकर यह मनुष्य अपने आपको ही खो बैठता है।
  3. दया का सहयोग विवेक हाँ यह बात भी याद रखने योग्य है कि दया के साथ में भी विवेक का पुट अवश्य चाहिए। दया होगी और विवेक न होगा प्रत्युत उसके ही स्थान पर मोह होगा तो वह उस विश्व संजीवनी दया को भी संहारकारिणी बना डालेगा। मान लीजिये कि आपको बच्चे को कफ, खांसी का रोग हो गया, आप उसको आराम कराना चाहते हैं और वैद्य के पास से दवा भी दिला रहे हैं, मगर बच्चे को दही खाने का अभ्यास है, वह दही मांगता है, नहीं देते हैं तो रोता है, छटपटाता है, मानता नहीं है, तो आप उसे दही खाने को दे देंगे? अपितु नहीं देंगे, क्योंकि दही खिला देने से उसका रोग बढेगा यह आप जानते ही हैं। फिर भी आपको उस बच्चे के प्रति कहीं मोह आ गया तो सम्भव है कि आप उसे छटपटाता हुआ देखकर उपर्युक्त बात को भूल जावें तथा उसे दही खाने को देखें तो यह आपकी दया के बदले उस बच्चे के प्रति दुर्दया ही कही जायेगी, जो कि उसके स्वास्थ्य को बिगाड़ने वाली ही होगी। रावण को मार कर श्री रामचन्द्रजी महाराज जब सीता महाराणी को वापिस लाये और घर में रखने लगे तो लोगों ने इस पर आपत्ति की। श्री रामचन्द्रजी यह जानते अवश्य थे कि सीता निर्दोष है इसमें कोई भी शक नहीं, फिर भी वनवास का आदेश दिया ताकि वन के अनेक संकट सहकर भी अन्त में उसे परीक्षोत्तीर्ण होना ही पड़ा। अगर श्री रामचन्द्रजी महाराज ऐसा न करते तो क्या आज लोगों के दिल में सीता महाराणी के लिए यह स्थान हो सकता था? श्री रामचन्द्रजी की गौरव कथा जिस महत्ता से आज गायी जा रही है वह कभी भी संम्भव थी? कि एक साधारण आदमी की आवाज पर श्री रामचन्द्र जी ने अपने प्राणों से प्यारी सीता का परित्याग कर दिया, ओह कितना ऊँचा स्वार्थत्याग है परन्तु बात वहां ऐसी थी, श्री रामचन्द्रजी महापुरुष थे, उनकी निगाह में सभी प्राणी अपने समान थे। बस इसीलिए तो सब लोग आज भी उन्हें याद करते हैं।
  4. जहां दया है वहां कोई दुर्गुण नहीं जिन बातों के होने से प्राणी, प्रजा का विप्लवकारी साबित हो ऐसी हिंसा, असत्यभाषण चोरी, व्यभिचार, असन्तोष आदि को दुर्गुण समझना चाहिए। जहां दया होती है वहां पर इन दुर्गुणों का लेश मात्रा भी नहीं होता परन्तु जहां इनमें से कोई भी एक तो वहां पर फिर दया नहीं रह सकती है। हमारे यहां एक कथा आती है कि एक राजा था उस के दो लड़के थे। तो राजा के मरने पर बड़े लड़के को राजा और छोटे को युवराज बनाया गया। दोनों का समय परस्पर बड़े प्रेम से कटने लगा। परन्तु संयोगवश ऐसा हुआ कि एक रोज राजा ने युवराज्ञी को नजर भर देख लिया। युवराज्ञी युवती थी और बड़ी सुन्दर थी। अत: उसे देखते ही राजा का विचार बदल गया। वह उसके साथ अपनी बुरी वासना को पूरी करने की सोचने लगा। अत: उसने युवराज को तो किसी सीमान्त दुष्ट राजा पर आक्रमण करने के लिए भेज दिया और युवराज्ञी को फुसलाने के लिए उसने अपनी दूतों द्वारा पारितोषक भेजा किन्तु वह राजी न हुयी। राजा ने सोचा भाई को मार दिया जाए, फिर तो वह लाचार होकर अपने आप मेरा कहना करेगी। वसन्तोत्सव का षडयंत्र रचाया गया, सब लोग अपनी-अपनी पत्नियों को लेकर वन-विहार को गये। युवराज भी युवराज्ञी के साथ अपने बगीचे में पहुंच गया और सोचा कि आज की रात यहां ही आराम से काटी जाये। उसे क्या पता था कि रंग में भंग होने वाला है। राजा के मनचाही बात हुई, अत: वह घोड़े पर चढ़ कर युवराज के विश्राम स्थान की ओर रवाना हुआ। पहरा लग रहा था, परहेदारों ने राजा को आगे बढ़ने से रोककर युवराज को सूचना दी कि महाराज आपके पास आना चाहते हैं। युवराज बोले, आने दो। युवराज्ञी समझ गई और बोली प्रभो। आप क्या कर रहे हैं? होशियार रहिये, आपके भाई साहब का विचार मुझे आपके प्रति ठीक प्रतीत नहीं हो रहा है। युवराज ने उसके कहने पर भी ध्यान नहीं दिया। राजा साहब आये और उचित स्थान पर युवराज के पास बैठ गये। युवराज बोला भाई साहब! आज इस समय कैसे आना हो गया, ऐसा क्या काम आ पड़ा? आपने आने का कष्ट क्यों किया, मुझे सूचित कर देते तो मैं ही आपके पास आ सकता था। राजा बोला- बताऊँगा, परन्तु मुझे बड़ी जोर से प्यास लग रही है अतः पहले पानी पिलाओ। युवराज को क्या पता था कि इनके अन्तरंग में क्या है? वह तो एकान्त भ्रातृ-स्नेह को लिए हुए था अत: बड़े भाई को पानी पिलाने के लिए गिलास-उठाने को लपका कि पीछे से राजा ने उसकी गरदन पर कटार मार दिया, और उन्हीं पैरों उलटा लौट चला। सिपाहियों से हल्ला मचा कर उसे पकडना चाहा, मगर युवराज्ञी ने सोचा कि स्वामी मरणासन्न हैं अगर हम लोग इसी धर पकड़ में लगे रहे तो संभव है कि स्वामी का अन्त समय बिगड़ जाये अतः उसने सिपाहियों को ऐसा करने से रोका और अपने दिल को कड़ा करके समयोचित अन्तिम संदेश - “हे स्वामिन इस संसार में अनादिकाल से जन्म-मरण करते रहने वाले इस शरीरधारी की अपनी भूल ही इसका शत्रु है। और स्वयं संभल कर चलना ही इसका मित्र है, बाकी ये सब दुनिया के लोग तो परिस्थिति के वश होकर जो आज शत्रु हैं वे ही कल मित्र, और मित्र से फिर शत्रु होते दिखाई देते हैं। जो भाई साहब आपके लिए जान तक देने को हर समय तैयार रहते थे वे ही आज आपकी जान के ग्राहक बन गये, ऐसा होने से यदि विचार कर देखा जावे तो प्रधान निमित्त मैं ही हूं, मेरे ही रूप के पीछे पागल होकर उन्होंने ऐसा किया, अत: एक तरह से देखा जावे तो मैं ही आपकी शत्रु हूँ, जिसको आप अपनी समझ रहे हैं। वस्तुत: कोई किसी का शत्रु या मित्र नहीं है न कोई अपना है और न कोई पराया। सब लोग अपने-अपने कर्मों के प्रेरे हुए यहां से वहां चक्कर काट रहे हैं। कोई किसी का साथ देने वाला नहीं है, ओरों की तो बात ही क्या, इस मनुष्य का शरीर भी यहां का यहीं रहा जाता है जबकि वह परलोकगमन की सोचता है। हां, उस समय यदि भगवान का स्मरण करता है तो वह स्मरण अवश्य उसके साथ रहता है एवं गड्ढे में गिरने से बचाता है। अतः आप तो क्या अच्छे और क्या बुरे सभी प्रकार के संकल्पों को त्याग कर परमात्मा के स्मरण में मन को लगाइये और इन नश्वर शरीर का प्रसन्नता पूर्वक त्याग कर जाइये। जैसे कि सर्प कांचली को छोड़ जाता है, इस प्रकार कह कर अन्तिम श्वास तक नमस्कार मंत्र उसे सुनाती रही उसने भी भगवान् के चरणों में मन लगाकर इस पामर शरीर का परित्याक किया, एवं वह दिव्य देहधारी देव बना ओर उसी युवराज के रूप में पानी लेकर राजा के पास आया तथा बोला कि लो पानी पी लो- चले क्यों आये, तुम तो प्यासे थे? परन्तु वस्तुत: तुम पानी के प्यासे न होकर जिस बात के प्यासे हो वह तुम्हारी प्यास, जो मार्ग तुमने अपना रखा है उससे नहीं मिट सकती देखों तुमने मेरे कटार मार दी थी, वह भी उस सती के सन्देश मंत्र से ठीक हो गयी है। जिस महासती को लक्ष्य कर तुम बुरी वासना के शिकार बन रहे हो। अत: अब तुमको चाहिए कि तुम सन्तोष धारण करो, उस सती के चरण छुओं एवं भगवान् का नाम जपो, बस इसी में तुम्हारा कल्याण है। इस पर होश में आकर राजा ने भी अपने दुष्कृत्य का पश्चाताप करके ठीक मार्ग स्वीकार किया।'' मतलब यह कि दया के द्वारा ही मनुष्य मानवीय बनता है। दया ही परम धर्म है, जिसको अपनाकर यह शरीरधारी ऊपर को उठता है। परन्तु जो कोई भी दया को भूल जाता है या अहंकार के वश में होकर उसकी अवहेलना करता है वह जीव इस दुनियां में घृणा का पात्र बन जाता है जैसा कि गोस्वामी तुलसीदासजी भी कहते हैं दया धर्म का मूल है, पाप मूल अभिमान। तुलसी दया न छोड़िये, जब लग घट में प्राण॥
  5. दया की महत्ता किसी भी प्राणी का कोई भी तरह का कुछ भी बिगाड़ न होने पावे, सब लोग कुशलतापूर्वक अपना-अपना जीवन व्यतीत करें ऐसी रीति का नाम दया है। दयावान का दिल विशाल होता है, उसके मन में सबके लिये जगह होती है। वह किसी को भी वस्तुतः छोटा या बड़ा नहीं मानता, अपने पराये का भी भेदभाव उसके दिल से दूर रहता है। वह सब आत्माओं को समान समझता है। तभी तो वह दूसरे का दु:ख दूर करने के लिए अपने आपका बलिदान करने में भी नहीं हिचकिचाता है। एक बार की बात है कि हाई कोर्ट के एक जज साहब अपनी मोटर में सवार होकर कचहरी को जा रहे थे। रास्ते में जाते हुए देखते हैं कि कीचड़ में एक सूअर फंसा हुआ है जो कि निकलने के लिय छटपटा रहा है। जज साहब ने अपनी मोटर रुकवाई और खुद अपने हाथों से उस सूअर को निकाल कर बाहर किया। सूअर ने अपने अंग फड़फड़ाये जिससे जब साहिब के कपड़े छींटाछींट हो गये। कचहरी को देर हो रही थी। अत: उन्हीं कपड़ों को पहने हुए मोटर में बैठ कर फिर कचहरी को रवाना हो लिए। लोगों ने जब जज साहब का यह हाल देखा तो लोग आश्चर्य में डूब गये कि आज उनका ऐसा ढंग क्यों है। ड्राईवर ने बीती हुई बात बताई तो सब लोग वाह-वाह कहने लगे। जज साहिब बोले कि इसमें मैंने बड़ी बात कौनसी की है। मैंने सूअर का दु:ख दूर नहीं किया बल्कि मैंने तो मेरा ही दु:ख दूर किया है। मुझसे उसका वह दृश्य देखा नहीं गया तब मैं फिर और क्या करता? ठीक ही है किसी को भी कष्ट में पड़ा देखकर दयालु पुरुष का दिल द्रवित हो उठता है इसमें संदेह नहीं है। वह अमरता का वरदाता होता है। जो कि अज्ञानी और असमर्थ बालकों को मातृ-भाव से उनके हित की बात कहते हैं, वे जो कुछ भूल कर रहे हों उसे हृदयग्राही मधुर शब्दों में उन्हें समझाकर उत्पथ में न जाने देते हुए प्रेम-पूर्वक सही रास्ते पर लाने की चेष्टा करता है। ऐसा करने में कोई व्यक्ति अपनी आदत के वश होकर आभार न मानते हुए प्रत्युत उसके साथ में विरोध दिखलाते हुए उसकी किसी प्रकार की हानि भी करता है तो दयालु पुरुष उसे भी सहन करता है परन्तु उसे मार्ग पर लाने की ही सोचता है। सुनते हैं कि इंग्लैंड में होमरलेन नाम का एक विद्वान था। वह जब भी किसी असहाय, दुःखी पुरुष को देखता था तो उसका दिल पिघल जाया करता था। कोई बालक किसी भी प्रकार की बुरी आदत में पड़ रहा हो तो उसे देखकर वह विचारने लगता कि इसकी तो सारी जिन्दगी ही बरबाद हो जायेगी। किसी भी तरह से इसकी यह कुटेव दूर होकर इसका भविष्य उज्जवल होना चाहिए। बस इस विचार के वश होकर उसने एक रिपब्लिकन नाम का आश्रम खोला, जिसमें बुरी आदत वाले बालक लाना और धीरे-धीरे उनके जीवन को सुधारना ही उसका उद्देश्य था। एक दिन कोर्ट में एक ऐसा बालक पकड़ा गया जो कई बार चोरी कर चुका था। होमरलेन को जब पता लगा तो वह उसे वहां से अपने पास आश्रम में ले आया परन्तु उसने आते ही ऊधम मचाना शुरू कर दिया। वहां के लड़कों से लड़ने लगा और उनकी पुस्तकें फाड़ने लगा तो वहां के प्रबन्धक लोग घबराये और होमरलेन से बोले कि साब यह लड़का तो नटखट है। सारे बालकों को ही बिगाड़ देगा अतः इसे यहां रखना ठीक नहीं है। होमर लेन बोला- भाई मुझे इस पर दया आती है, अगर यहाँ आकर भी नहीं सुधरा तो फिर कहां सुधरेगा? इसका तो फिर सारा जीवन ही बरबाद हो जायेगा। खैर, इसे तुम यहां नहीं रखते तो मुझे दो, मैं इसे अपने पास रखूँगा। ऐसा कहकर जब उसे वह घर लाया तो वहां पर भी उसका तो वही हाल। उनके कमरे की बहुमूल्य चीजों को भी वह तो वैसे ही तोड़ने फोड़ने लगा। फिर भी होमरलेन ने बिल्कुल मन मैला नहीं किया बल्कि हंसते हुए बोला, कि बेटा यह घड़ी और बची है इसे भी तोड़ डालो। बस यह सुनते ही उस लड़के के दिल में एकाएक परिवर्तन आ गया। वह सोचने लगा कि देखों मैंने इनका कितना नुकसान कर दिया, फिर भी मेरे प्रति इनके मन में कुछ भी मलाल नहीं आया, देखो ये कितने गंभीर हृदयी हैं और मैं कितना तूफानी! ये भी आदमी हैं तथा कहने के लिए तो मैं भी तो एक आदमी ही हूँ, मुझे कुछ सोचना तो चाहिए। ऐसा विचार अपने मन में करते हुए वह लड़का होमरलेन के पैरों में पड़ गया और अपने अपराध की क्षमायाचना करने लगा। बोला कि बस मैं अब आगे किसी भी प्रकार की बदमाशी नहीं करूंगा। होमरलेन बड़ा खुश हुआ और कहने लगा कि कोई बात नहीं, बल्कि मुझे तो इस बात की बड़ी प्रसन्नता है कि अब तुम समझ गये हो। मतलब यही कि जिसका दिल दया से भीगा हुआ होता है वह किसी से भी मुँह मोड़ना नहीं जानता। वह तो अपना सब कुछ खोकर भी दुनिया के दु:ख को दूर करना चाहता है। क्योंकि उसका प्राणी मात्र के प्रति सहज स्वाभाविक प्रेम होता है, अत: वह तो सबको गुणवान देखना चाहता है एवं किसी भी गुणवान को जब वह देखता है तो उसका दिन प्रसन्नता से उमड़ उठता है, जैसा कि तत्वार्थसूत्र में है- ‘मेत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थयानिच सत्वगुणाधिक किल्श्यंमाना विनयेषु ।'
  6. बाल जीवन की विशेषता एक नवजात बालक भी अपने जीवन में खाना पीना सो जाना आदि अपनी अवस्थोचित बात तो करता ही है परन्तु वह अपने सरल भाव से जो करता है और जब तक करता है फिर उसे छोड़ दूसरी बात करने लगता हो तो उसी में संलग्न हो जाता है। उसे उस समय फिर पहले वाली बात के बारे की कुछ भी चिन्ता नहीं रहा करती। जब भूख लगी कि माता के स्तनों को पकड़कर खुशी से चूसने लगता है, किन्तु जहां पेट भरा कि उन्हें छोड़कर खेलने लगता है या सो जाता है, फिर भूख लगी कि उठकर दूध पीहने लगता है एवं पेट भरा कि फिर मस्त। इसे इस बात की भी चिन्ता नहीं कि यहां पर क्या हो रहा है और आगे क्या होने वाला है। वह तो सिर्फ दो ही बातें जानता है खुद करना एवं बुजुर्ग लोगों का अनुकरण करना। अत: चोरी, जारी, झूठ पाखण्ड आदि बुरी बातों से प्राकृतिक रूप से वह परे रहता है। आप किसी बच्चे, से पूछिये कि आज क्या खाया था, तो वह जैसा खाया है कहता है कि सिर्फ मट्ठे के साथ रूखी जुबार की रोटी खाई थी। क्योंकि वह इस बात से परे है कि उसे ऐसा कहने से मेरे कुटुम्ब वालों की बेइज्जती होवेगी। वह तो अपने सरल भाव से जैसा कुछ खाया है तो बतायेगा। फिर उसकी अम्मा भले ही इस बात की मरम्मत करती हो कि क्या करूं, बच्चे को पेचिश हो रही है इसलिये मुझे भी यही खानी पड़ी और इसे भी यही खिलाई। अस्तु, बच्चा उपर्युक्त रूप से सरल और स्पष्ट बातें करता है इसीलिये उसकी बोली सबको मीठी लगती है। जो भी सुनता है उसका चित्त बड़ा प्रसन्न हो उठता है। अगर उसका हिसाब सदा के लिये ऐसा ही बना रहे तो वह मनुष्यता का सौभाग्य समझना चाहिए। किन्तु वह जब अपने जीवन क्षेत्र में आगे बढ़ता है और अपने माता-पिता आदि को या अड़ोसी-पड़ोसी को नाना प्रकार की बहानेबाजी की चालाकी भरी बातें करते हुए देखता है तो अनुकरणशीलता के कारण आप भी वैसा ही या उनसे भी कहीं अधिक चालाक हो लेता है। भारत माता की गोद में पला हुआ होने के नाते से समाज का स्वयं सेवक होकर रहने के बदले, इन इन्द्रियों का दास बनकर जनता के जीवन पथ में कण्टक स्थानीय प्रमाणित होता है, औरों को घोर कष्ट पहुंचाकर भी अपने स्वार्थ की पूर्ति करने ही तत्पर रहना, हर एक के साथ पेचीदा बातें करके केवल अपना मतलब गांठना, दूसरे के हक को हड़प करने में कुछ भी संकोच न करना, अश्लील भद्दी चेष्टायें कर के अपने आपको धन्य समझना और गुरुजनों की बातों को भी ठुकरा कर अपना उल्लू सीधा करना, किसी को भी अपनी चालाकी के आगे कुछ भी नहीं समझना इत्यादि रूप से एकान्त कठोरता को अपना कर प्रत्युत मानवता के बदले दानवता को स्वीकार कर बैठता है। हां यदि उसको शुरू से ही तुली हुई प्रमाणित बात करने वाले महापुरुषों का संसर्ग प्राप्त होता रहे तो बहुत कुछ संभव है कि उपर्युक्त बुराईयों से सर्वथा अछूता रहकर दया क्षमाशील सन्तोषादि सद्दगुणों का भण्डार बनते हुए वही बालक से पुरुषोत्तम भी बन सकता है।
  7. मन की एकाग्रता कैसे प्राप्त हो? मन को एकाग्र करना, शान्त बनाना बड़े महत्त्व की बात है, यह तो समझ में आता है परन्तु विचारों का गुब्बार हमारे इस पोले मन में भरा हुआ है उसे निकाल बाहर किये बिना मन की एकाग्रता हो कैसे? प्रथम तो इसके पास मैं यह खा लें, यह पी लें, फिर टहल लें और सो लू इत्यादि इतने विचार उपसंग्रहीत हैं कि उनका दूर करना सरल बात नहीं है और अगर कहीं प्रयास करके इन ऊपरी विचारों को दूर कर भी दिया तो यह तो मकड़े की भांति प्रतिक्षण नये विचारों को जन्म देता ही रहता है। सो उन भीतरी विचारों पर रोक लग जाने का तो कोई भी उपाय नहीं दीख पड़ता है। बल्कि जहां ऊपरी विचार चक्र को दूर करने के लिए प्रयत्न करो तो भीतरी विचार परम्परा बड़े वेग के साथ उमड़ पड़ती है। ऐसी दशा में मन को यदि शान्त, एकाग्र किया जाय तो कैसे? बात यह है कि इस बाह्य अपार संसारचक्र को हम अपनी मनोभावना के द्वारा अपने पीछे लगाये हुए ही रहते हैं। दिव्य ज्ञान-शक्ति को परमात्मा परमेश्वर के साथ तन्मय होकर रखने के बदले हम उसको दुनिया की क्षुद्र बातों में ही व्यर्थ खर्च करते रहते हैं आज यह रोटी मोटी हो गई और एक जगह से जल भी गई, यह साग भी अच्छा नहीं बना, इसमें नमक कम पड़ा इत्यादि जरा-जरा सी बातों की चर्चा में ही हम रस लेते हैं और अपने ज्ञान का दुरुपयोग करते हैं एवं मन की दौड़ निरन्तर बाहर ही होते रहने से यह निरंकुश बन गया है। अगर किसी के कहने सुनने से भगवान का भजन भी किया तो सिर्फ दिखाऊ। ऐसी दशा में यहां आसन जमा कर बैठना और आंखें मूंद लेना आदि सब व्यर्थ है। जैसा कि कहा है :- दर्भासन पर बैठ कर माला ली कर माहि, मन डोले बाजार में तो यह सुमिरण नाही।। प्रायः लोगों का यही हाल है। कथा सुनने बैठे तो नींद सताती है और बिस्तर पर जाकर लेटते हैं तो चिन्ता आ घेरती है। यह कर लिया तो यह बाकी है और वह उजड़ रहा है इत्यादि विचार उठ खड़े होते हैं। नींद आ जाने पर भी स्वप्न में भी ये ही सब बातें याद आती रहती हैं। क्यों कि हम इन्द्रियों की वासनाओं के गुलाम बने बैठे हैं तो एकाग्रता कहा? एकाग्रता के लिये तो जीवन में परिमितता आनी चाहिए। हमारा सारा कार्यक्रम नपा, तुला समुचित होना चाहिए। औषधि जैसे नाप तोल की ली जाती है वैसे ही हमारा खाना सोना आदि सभी बाते नपी तुली होनी चाहिए। प्रत्येक इन्द्रिय पर नियन्त्रण होना चाहिए। एक महाशय बोले कि मैं जहाँ जाता हूं वहां उस कमरे की तमाम चीजों को देख सकता हूँ। मैंने कहा भगवन् मनुष्य ऐसा क्यों करे, क्या वह किसी का पहरेदार है या चोर, ताकि उसे ऐसा करना चाहिए? यह तो अपनी आंखों का दुरुपयोग करना है। मनुष्य की आंखें तो इसलिये हैं कि वह अपना आवश्यकीय कार्य देखभाल कर सावधानी से करे। यही हिसाब कानों के लिए भी होना चाहिए, यदि श्री सद्दगुरु का आदेश उपदेश हो तो उसे मनुष्य ध्यानपूर्वक सुने और याद रखे किन्तु किसी की भी निन्दा को सुनने के लिए कभी भी तैयार न हो। मिट्टी के तेल की बदबू से नाक नहीं सड़ सकती परन्तु मनुष्य के दुश्चरित्र की बदबू फैल जाने से उसका खुद का जीवन बर्बाद हो जायेगा और धरातल को भी गन्दा बनाने में अग्रसर होगा। अत: बुरी बातों से हमें सदा बचते रहना चाहिए। मद्य मांस सरीखी सदोष चीजों को तो कभी याद भी नहीं करना चाहिए किन्तु निर्दोष वस्तुओं को भी आवश्यकता से अधिक प्रयोग में लाने से परहेज होना चाहिए। इस प्रकार अपने इन इन्द्रिय-रूपी घोड़ों को बे-लगाम न दौड़ने देकर इनके लगाम रखना ही मनोनिग्रह का मूल मंत्र है। जो कि संत महन्तों की संगति से प्राप्त हो सकता है अत: सत्संगी बनना ही मनुष्य का आद्य कर्तव्य माना गया है। हाँ एक बालक के पास से भी इसी विषय का सबक सीखा जा सकता है। आप किसी भी बच्चे को लीजिये वह जिस चीज की तरफ देखता है, टकटकी लगाकर देखता है। अगर उधर हीन आप भी देखते हैं तो आपकी आँखों की पलकें दस बार झपकें किन्तु उसकी एक बार भी नहीं ! क्यों कि बच्चे के सम्मुख जो चीज आती है तो वह उसी को अपने उपयोग में पकड़ना चाहता है कि यह क्या है और कैसी। और किसी बात की उसे चिन्ता नहीं होती। बस इसीलिये वह उसे गौर से देखता है ताकि उसके दिल पर उसका प्रभाव पड़े, जो कि घर कर लेता है, फिर अनेक प्रयत्न करने पर भी उसका दूर हटाना कठिन हो जाता है, इसी का नाम संस्कार है। लड़के को शुरू के दो चार सालों में जो शिक्षा मिलती है जिसे कि वह अपनी स्वाभाविक सरलता से ग्रहण करता है, बाद में वैसी सुदृढ़ होकर रहने वाली शिक्षा अनेक वर्षों में भी उसे नहीं दी जा सकती। बाद की शिक्षा सब कृत्रिमपने को लिए हुए होती है। और इसलिये आप लोगों को चाहिए कि आप अपने बच्चों के आगे कभी भूलकर भी चेष्टा और बुरी बात न करें क्यों कि बच्चे का दिल एक प्रकार का कैमरा होता है जो कि आपकी की हुई चेष्टाओं के प्रतिबिम्ब को ग्रहण करता है। बच्चे के मन में विश्वास भी नैसर्गिक होता है। उसकी मां उसे जो भी कहे वहीं उसके लिए प्रमाण है। जो कुछ कहानियां जिस रूप से उसे कही जाती हैं वे सब उसे अक्षरशः सच मालूम होती हैं। वह तो अपनी माता को ही अपना हित करने वाली मानकर उसके कहने में चलना जानता है, अपनी माता पर उसकी अटल श्रद्धा रहती है। वह उसे जैसा कहे वैसा करना जानता है। और कुछ भी नहीं, बस इसीलिये उसके चित्त में व्यग्रता न होकर एकाग्रता अधिक होती है।
  8. मनोबल ही प्रधान बल है वैसे तो मनुष्य के पास में ज्ञानबल, धनबल, सेनाबल, अधिकार बल और तपोबल आदि अनेक तरह के बल होते हैं, जिनके सहयोग से मनुष्य अपने कर्तव्य कार्य से इस पार से उस पार पहुंच पाता है, परन्तु उन सब बलों में शरीरबल, वचनबल और मनोबल ये तीनों बल उल्लेखनीय बल हैं। मनुष्य को अपने सभी तरह के कार्य सम्पादन करने के लिए उसे शारीरिक बल तो अनिवार्य है। जितना भी हष्ट-पुष्ट और स्वस्थ होगा वह उतना ही प्रत्येक कार्य को सुन्दरता के साथ सम्पादित कर सकेगा, यह एक साधारण नियम है। अत: उसको प्रगतिशील बनाये रखने के लिए समुचित आहार की जरूरत समझी जाया करती है और उसकी चिन्ता सभी को रहा करती है एवं अपनी बुद्धि, विवेक तथा वित्त-वैभव के अनुसार हर कोई ही उसकी अच्छी से अच्छी योजना करने में कुछ कसर नहीं रखता है। यह तो ठीक है, परन्तु वचन का अधिकार तो उस शरीर से कहीं अधिक होता है। शरीर द्वारा जिस काम को हम वर्षों से भी सम्पादित नहीं कर पाते, उसे अपनी वचनपटुता से बात की बात में हल कर बता सकते हैं। बच्चे को जब प्यास लगती है, या उसका पेट दुखता है तो वह रोता है, छटपटाता है, हाथ पैर पटकता है। माता भी उसके दु:ख को मिटाना चाहती है, किन्तु उस की अंतवृत्ति को नहीं पहचान पाती, अत: कभी-कभी विपरीत प्रतिकार हो जाता है तो प्रत्येक वेदना बढ़ती है। बाकी वहां वश भी क्या चले, बच्चे के पास वचन तो नहीं है ताकि वह कह सुनावे और उसका समुचित उपाय कर बताया जावे। इसी प्रकार संसार का सारा व्यवहार प्राय: वचन के भरोसे पर ही अवलम्बित है, जिसकी कि खुराक स्पष्ट सत्यवादिता है, सो क्या इसकी तरफ भी सब लोगों को ध्यान कभी गया है? किन्तु नहीं। बल्कि अधिकांश लोग तो अपने वचन को कूटत्व नाम क्षय रोग से उपयुक्त बनाकर ही अपने आपको धन्य मानते हैं। उनके ऐसा करने में उनकी एक मानसिक दुर्बलता ही हेतु है। मानसिक कमजोरी से ही उनकी यह धारणा बनी हुई है कि एकान्त सत्य सरल या स्पष्ट वाक्य प्रयोग से मनुष्य का कभी निर्वाह नहीं हो सकता। उनको अपनी आवश्यकता की पूर्ति के लिये उसमें कुछ-कुछ बनावटीपन जरूर ले आना चाहिए। बस इसकी इस मानसिक दुर्बलता ने सम्पूर्ण व्यवहार को दूषित बना दिया, ताकि सर्वत्र अविश्वास के आतंक ने अपना अधिकार जमा लिया, एवं जीवन-पथ कष्टप्रद हो गया। मनुष्य की जीवन यात्रा में उसका मन सईस का काम करता है, वचन घोड़े का और शरीर गाड़ी का। अगर गाड़ी मजबूत भी हो और घोड़ा भी चुस्त हो किन्तु उसको हांकने वाला सईस निकम्मा हो तो वह उसे ठीक न चला कर उत्पथ में ले जावेगा एवं बरबादी कर देगा। वैसे ही मनुष्य का मन भी चंचल रहने पर किसी भी कार्य को करके भी उसमें सफलता प्राप्त नहीं कर सकता। एक समय की बात है कि एक भट्टारकजी का शिष्य था, जो कि एक मंत्र लेकर जपने को बैठ गया। उसको जप करते हुए जब कई रोज हो गये तो भट्टारकजी ने उससे पूछा कि तू क्या कर रहा है? उसने कहा कि महाराजजी मैं अमुक रूप में यह मंत्र जप रहा हूं, फिर भी यह सिद्ध नहीं हो रहा है। क्या मेरे विधि विधान में कुछ कसर है? गुरुजी बोले- कमी तो कुछ भी नहीं दिखती है परन्तु ला देखें, जरा मुझे दे। यों कहकर भट्टारक गुरुजी ने उस मंत्र को जपना प्रारंभ किया और एक जप पूरा होते ही मंत्र सिद्ध हो गया। मंत्र का अधिष्ठाता देव आ उपस्थित हुआ। गुरुजी बोले- भाई इस लड़के को मंत्र जपते हुए आज कई रोज हो गये सो क्या बात है? देव बोला महाराज। मैं क्या करूं- इसका अपना मन ही इसके वश में नहीं है। मंत्र को जपते हुए भी यह क्षण में तो कुछ सोचता है और फिर क्षण में कुछ और ही सोचने लगता है। मतलब यह है कि हरेक कार्य को सम्पन्न करने के लिये सबसे पहले हमें अपने मन को एकाग्र करने की आवश्यकता है, भले ही वह कार्य लौकिक हो, चाहे पारमार्थिक। मन की एकाग्रता के बिना वह कभी ठीक नहीं हो सकाता। व्यापार, व्यवहार, शास्त्रशोधन, भगवद् भजन आदि कोई भी कार्य हो, उनको हम जैसी मानसिक लगन से करेंगे उतना वह सुन्दर सुचारु होकर यशप्रद होगा। नेपोलियन के लिये कहा जाता है कि वह एक बाद युद्ध की व्यवस्था ठीक ठीक कर देता था और फिर आप युद्ध भूमि में ही गणित के सवाल किया करता था। डेरों, तम्बुओं पर गोले बरसते, धड़ाधड़ सैनिक मरते किन्तु नेपोलियन का मन गणित के सवाल हल करने में ही लगा रहा था। खलीफा उमर की भी ऐसी ही बात सुनी जाती है। लड़ाई के मैदान में भी जब नमाज का वक्त हो जाता, वह निडर होकर युद्धस्थल के बीच ही घुटने टेक कर नमाज पढ़ने लगता था, फिर उसे यह पता नहीं रहता था कि कहां क्या हो रहा है। एक फकीर के शरीर में तीर चुभ गया, जिससे उसे बड़ी पीड़ा हो रही थी। तीर को वापिस खींचने के लिए हाथ लगाने से वेदना दूनी हो जाती थी। अब क्या किया जावे। बड़ी कठिन समस्या हो गई। उसको देखकर लोग घबराये तो एक आदमी बोला अभी रहने दो, जब यह नमाज पढ़ने बैठेगा तब निकाल लेंगे। सांय का समय हुआ फकीर नमाज पढ़ने लगा, पल भर में ही उसका चित्त इतना एकाग्र हुआ कि उसके शरीर में से तीर खेंचकर निकाल लिया गया, और उसे पता भी नहीं चला। जम्बूप्रसाद ही रईस सहारनपुर वालों के शरीर में एक भयंकर फोड़ा हो गया, डॉक्टर बोला ऑपरेशन होगा, क्लोरोफार्म सूंघना पड़ेगा। लालाजी बोले क्या जरूरत है? मैं नमस्कार मंत्र जपने लगता हूं, तुम अपना काम नि:शंक होकर करलो। सो यह सब मन को एकाग्र कर लेने की महिमा है। मन को एकाग्र कर लेने पर मनुष्य में अपूर्व बल आ जाता है। हमारे पूर्व साहित्य में हमें ऐसे अनेक उदाहरण देखने को मिल रहे हैं, जिनमें न होने जैसी बातें भी होती हुई बताई गई हैं। जैसे - द्रोपदी को नग्न करने के लिए उसकी साड़ी पकड़ कर दु:शासन खींचता है तो साड़ी बढ़ती चली जाती है। मगर द्रोपदी नग्न नहीं होने पाती, यह सब महासती के चित्त की एकाग्रता का ही प्रभाव तो है। हम लोग ऐसी बातों को सुनकर आश्चर्य करते हैं, किन्तु जिस चित्त की एकाग्रता द्वारा यह आत्मा अपनी अनादिकालीन कर्म-कालिमा को भी क्षण भर में हटा कर परमात्मा बनता हुआ जन्म-मरण से भी रहित हो लेता है उस मन की एकाग्रता की सामर्थ्य के आगे फिर से सब बातें क्या दुष्कर कही जा सकती है?
  9. लक्ष्मी का पति सुना जाता है कि एक बार लक्ष्मी का स्वयंवर हो रहा था। उसमें सभी लोग अपनी शान और शौरत के साथ आ सम्मिलित हुए थे। जब स्वयंवर का समय हुआ तो लक्ष्मी आयी और बोली कि मैं उसी पुरुष को वरूँगी जो कि स्वप्न में भी मेरी इच्छा न रखता हो। इस पर सब लोग बड़े निराश और हतप्रभ हो रहे। लक्ष्मी चलते-चलते अन्त में वहां पर आयी जहां पर शेषनाग की शैय्या पर विष्णु महाराज बेफिकर सोये हुए थे। आकर उसने उनके गले में वरमाला डाल दी। विष्णु बोले कौन है? तो जवाब मिला कि लक्ष्मी हूं। फिर कहा गया कि चली जाओं यहां से, तुम क्यों आयी हो, यहां पर मुझे तुम्हारी कोई जरूरत नहीं है। लक्ष्मी बोली, प्रभो, मुझे मत ठुकराईयें मैं सिर्फ आपकी पगचम्पी करती रहूंगी। बन्धुओ ! यह सब अलंकारिक कथन है, इसका मतलब तो इतना ही है कि जो विपत्ति से डरता है और सम्पत्ति चाहता है उससे सम्पत्ति स्वयं दूर हो जाती है। परन्तु जो सम्पत्ति को याद भी नहीं करता एवं विपत्ति आ पड़ने पर उससे घबराता नहीं है, उस पुरुष के चरणों को सम्पत्ति स्वयं चूमती है। प्रभव को भी इससे आज प्रतिबोध प्राप्त हुआ, वह विचारने लगा कि जब ऐसी बात है तो फिर मैं भी इस बोझे को अपने सिर पर लादे क्यों फिरूं? बल्कि जिस मार्ग को यह सेठ का लड़का अपना रहा है, उसी पथ का पथिक मैं भी क्यों न बन रहूँ? जिसमें सबका हित हो ऐसा सोचकर वह जम्बूकुमार के चरणों में गिर पड़ा और बोला कि प्रभो ! अब मुझे किसी की भी भूख नहीं रही, आपके वचनामृत से ही मैं तो तृप्त हो गया हूँ, अतः अब मैं सिर्फ यह चाहता हूँ कि मुझे भी आप अपने चरणों में ही जगह दें, न कि मुझे अब भी इस कीचड़ में ही फँसा रहने दे। इससे हमें यह सीख लेनी चाहिए कि एक साधुसेवी के संसर्ग में आकर भी जब प्रभव सरीखा दुरहंकारी जीव साधु समागम की महिमा का तो कहना ही क्या? उसके तो गीत, वेद और पुराणों में जगह-जगह गाये हुए हैं। अतः अपने आपको सुधारने के लिए साधु की संगति करनी ही चाहिए, जिससे कि मनुष्य का मन धैर्य क्षमादि गुणों को पाकर बलवान बने।
  10. सकामता के साथ निष्कामता का संघर्ष माता-पिता ने सोचा इसे छोटी-सी बात कहकर मनवा लेना चाहिए, फिर तो यह खुद ही अपने दिल में आई हुई बात को भूल जावेगा। सब यही सोचकर उन्होंने कहा था कि विवाह तो करलो। इस पर जम्बू ने विचार किया कि ये माता-पिता हैं। इनका इस मेरे शरीर पर अधिकार है अतः इस साधारण सी बात के लिये नाराज करना ठीक नहीं है। वैरागी का अर्थ किसी को नाराज करना या किसी पर नाराज होना नहीं है। वह तो स्वयं आत्मावत् परमात्मा के समझा करता है। उसकी निगाहों में तो जितनी अपने आप की कीमत होती है। उतनी ही दूसरे की भी। फिर तो ये मेरे इस जन्म के माता-पिता हैं, इनका तो इस शरीर की ओर निगाह करते हुए बहुत ऊँचा स्थान है। फिर कहा कि - "ठीक है, आप कहते हैं तो मैं विवाह कर लूंगा किन्तु दूसरे ही राज गुरु के चरणों में जा प्राप्त होऊँगा।" जिन आठ लड़कियों के साथ जम्बू का विवाह होना निश्चित हुआ था उन्हें भी सावधान कर दिया गया। उन सबने जवाब दिया हम तो प्रतिज्ञा कर चुकी हैं कि इस जन्म में तो हमारे ये ही पति हैं, इनके अतिरिक्त और सब नर तो हमारे बाप, भाई समान हैं अतः बेखटके शादी रचा दी जावे, फिर या तो हम उन्हें लुभा लेगीं या हम सब भी उन्हीं के मार्ग का अनुसरण कर लेंगी। विवाह हो गया और सुना जाता है कि उसमें इन्हें 99 करोड़ सोने का दहेज मिला। परन्तु जहां वैराग्य है वहां चक्रवर्ती की सम्पदा भी तिनके के समान है निस्सार है, वह उसकी नहीं, अगर है भी तो दुनिया की है। असतु, रात हुयी और रंगमहल में जहां कि विषयानुराग वर्द्धक सभी तरह का परिकर संभव से भी अधिक संख्या में जुटाया गया था वहां एक तरफ तो दिल से समता को संभाले हुए स्वयं जम्बूकुमार विराज रहे थे, उधर दूसरी तरफ उनकी नव विवहिता आठों पत्नियां वस्त्राभूषणों से सुसज्जित होकर ममता की मोहक महक लिए हुए आकर खड़ी थीं। जो कि अपना रंग उन पर जमाना चाह रही थीं, परन्तु वहां उनके चित्त पर तो साधु सुधर्माचार्य की चरण सेवा का अमिट रंग लगा हुआ था वहां दूसरा रंग कैसे चढ़ सकता था? इधर एक ओर घटना घटी। एक प्रभव नाम का प्रख्यात चोर था, जो कि पांच सौ चोरों का सरदार था, उसने सुना कि जम्बू को दहेज में खूब धन मिला है, चलो आज उसी पर हाथ साफ किया जावे। इस चोर की यह विशेषता थी कि जहां भी वह जाता था वहां के लोगों नींद लिवा देता था ओर अपना काम बड़ी आसानी से कर लिया करता था। वह आया और धन की गठरियां बांध कर चलने को तैयार हुआ तो उसके पैर चिपक गये और चोर आश्चर्य में पड़ा और इधर-उधर देखने लगा तो बगल के कमरे में औरत मर्द आपस में बात कर रहे थे। चोरों की फिक्र छोड़कर कर प्रभव पहुंचा और जम्बू को उसे जुहार किया जम्बूकुमार बोले कौन है? प्रभव! तुम आज यहां इस समय कैसे आये? प्रभव ने कहा प्रभो! अपराध क्षमा कीजिये, मैं चोरी करने के लिए आया था। आज तक मैं मेरे काम में कहीं भी असफल नहीं हुआ किन्तु आज आपने मुझे हरा दिया आपके पास ऐसा कौन-सा मंत्र बल है कि जिससे धन लेकर जाते हुए मेरे पैर चिपक गये। जम्बूकुमार बोले प्रभव! मुझे तो पता ही नहीं कि तुम कब आये और क्या कर रहे थे, में तो सिर्फ गुरुचरणों की सेवा का मंत्र जपता हूं और अपने मन में उसी की टेर लिए हुए हूं प्रभात होते ही मैं उनके पास जाकर निर्ग्रन्थव्रत ग्रहण करने वाला हूं। तब फिर इस सारी सम्पत्ति को तुम ले जाना। मैं स्वेच्छा से इसका अधिकारी तुम्हें बनाता हूं, फिर इसमें चोरी करने की बात कौनसी है? ऐसा सुनकर प्रभव बहुत प्रभावित हुआ, उसने मन में सोचा कि- यह भी तो पुरुष ही है जो प्राप्त हुई सम्पत्ति (लक्ष्मी) को इस तरह से ठुकरा रहा है। और कहने के लिए तो मैं भी पुरुष ही हूं जो कि एक पागल की तरह इसके पीछे फिर रहा हूं फिर भी यह मुझे प्राप्त नहीं होती, तथा हो भी जाती है तो ठहरती नहीं है।
  11. साधु समागम अपने विचारों को निर्मल बनाने के लिए जिस प्रकार से सत्साहित्य का अध्ययन जरूरी है उसी प्रकार अपने जीवन को सुधारने के लिए मनुष्य को समीचीन साधुओं का संसर्ग प्राप्त करना उससे भी कहीं अधिक उपयोगी होता है। मनुष्य के मन के मैल को धोने के लिए उत्तम साहित्य का पठन पाठन, जल और साबुन का काम करता है। परन्तु पुनीत साधुओं का समागम तो इसके जीवन में चमत्कार लाने के लिए वह जादू का सा कार्य करता है जैसा कि लोहे के टुकड़े के लिए पारस का संसर्ग। अत: विचारशील मनुष्य को चाहिए कि साधुओं का सम्पर्क प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील रहे और प्राप्त हो जाने पर यथाशक्य उससे लाभ उठाने में न चूके। ऐसा करने से ही मनुष्य अपने जीवन को सफल और सार्थक बना सकता है। आज से लगभग अढाई हजार वर्ष पहले की बात है कि भगवान महावीर के शिष्य सुधर्म स्वामी देश देशान्तर में भ्रमण करते हुए और अपने सदोपदेशामृत से जनता का कल्याण करते हुए आकर राजगृह नगर के उपवन में ठहरे। उनके आने का समाचार सुनकर राजगृह की जनता उनके दर्शन को आयी और उनके धर्मोपदेश को सुनकर एवं अपनी योग्यतानुसार मनुष्योचित नियम व्रत लेकर अपने-अपने घर को गयी। उन्हीं में एक जम्बूकुमार नाम का साहूकार का लड़का था, उसने सोचा स्वामीजी जब यह फरमा रहे हैं कि मनुष्य जन्म को पाकर इसे एकान्त क्षणिक विषय वासना के चक्कर में ही नहीं बिता देना चाहिए किन्तु कुछ परमार्थिक कार्य तो करना ही चाहिए अहो! यह भोला मनुष्य जिस भौतिक विभूति के पीछे लगकर चल रहा है, एक न एक दिन तो इसको उसे छोड़ना ही होगा। अगर यह उसे न छोड़ेगा तो अन्त में वह इसे अवश्य छोड़ ही देगी। परन्तु यह उसे छोड़ दे और वह इसे छोड़े इन दोनों बातों में उतना अन्तर तो कम से कम अवश्य है जितना मनुष्य के टट्टी जाने में तथा उल्टी हो जाने में हुआ करता है। अर्थात् आप जब प्रातः जंगल होकर आते हैं तो आपका चित्त प्रसन्न होता है। किन्तु समुचित भोजन करें और भोजन करने अनन्तर ही किसी कारण से कै हो जावे तो आपका जी मिचलावेगा, बस यही हिसाब सम्पत्ति के छोड़ देने और छूट जाने में है, अत: प्राप्त सम्पत्ति को छोड़कर दूर होना ही मनुष्य के लिये श्रेयस्कर है एवं जिस दलदल से निकलना दुष्कर होकर भी आवश्यक है, तो फिर अधिक समझदारी तो इसी में है कि उसमें फँसना ही क्यों चाहिए। बस मैं तो अब चलू और माता-पिता से आज्ञा लेकर आकर इन गुरुदेव के चरणों की सेवा में ही अपने आपको लगा दें, ऐसा सोचकर जम्बूकुमार घर पर गया ही था कि माता-पिता ने पूछा कि इतनी देर कहाँ रहे? जम्बू कुमार बोला कि “एक साधु महात्मा के पास बैठ गया था और मैं अब सदा के लिए उन्हीं के पास रहना चाहता हूँ।'' माता-पिता यह सुनकर आवाक् हो रहे। कुछ देर सोच कर फिर बोले कि - ‘बेटा तू यह क्या कह रहा है? देखो हम तो तेरी शादी की तैयारियां कर रहे हैं और तू ऐसी बात सुना रहा है जिससे कि हमारा कलेजा कांप उठता है, कम से कम तुझे शादी तो कर लेनी चाहिए तू खुद समझदार है, तुझे हमारी इस प्रसन्नता में तो गड़बड़ी नहीं मचानी चाहिए।'
  12. सत्साहित्य का प्रभाव सुना जाता है कि महात्मा गांधी अपनी बैरिस्ट्री की दशा में एक रोज रेल से मुसाफिरी कर रहे थे। सफर पूरे बारह घण्टों का था। उनके एक अंग्रेज मित्र ने उन्हें एक पुस्तक देते हुए कहा कि आप अपने इस सफर को इस पुस्तक के पढ़ने से सफल कीजियेगा। उसको गांधीजी ने शुरू से आखिरी तक बड़े ध्यान से पढ़ा। उस पुस्तक को पढ़ने से गांधीजी के चित्त पर ऐसा असर हुआ कि उन्होंने अपनी बैरिस्ट्री छोड़कर उसी समय से सादा जीवन बिताना प्रारम्भ कर दिया। आजकल पुस्तक पढ़ने का प्रचार आम जनता में भी बड़े वेग से बढ़ रहा है और वह बुरा भी नहीं है, परन्तु प्रत्येक व्यक्ति को पढ़ने के लिये पुस्तक ऐसी चुननी चाहिये जिसमें कि मानवता का झरना बह रहा हो। जिसके प्रत्येक वाक्यों में निरामिष-भोजिता, परोपकार, सेवा भाव आदि सदगुणों का पुट लगा हुआ हो। विलासिला, अविवेक, डरपोकपन आदि दुर्गुणों का निर्मूलन करना ही जिसका ध्येय हो। फिर चाहे वह किसी की भी लिखी हुई हो और किसी भी भाषा में हो उसके पढ़ने में कोई हानि नहीं। कुछ लोग समझते हैं कि अपनी साम्प्रदायिक पुस्तकों के सिवाय दूसरी पुस्तकों का पढ़ना सर्वथा बुरी बात है, परन्तु यह उनका समझना ठीक नहीं। क्योंकि समझदार के लिये तो बुराइयों से बचना एवं भलाई की ओर बढ़ना यह एक ही सम्प्रदाय होना चाहिये। अत: जिन पुस्तकों के पढ़ने से हमारे मन पर बुरा असर पड़ता हो, जिनमें अश्लील, उद्दण्डतापूर्ण अहंकारदि दुर्गुणों को अंकुरित करने वाली बातें अंकित हों ऐसी पुस्तकों से अवश्य दूर रहना चाहिये। पुस्तकों से ही नहीं बल्कि ऐसे वातावरण से भी हर समय बचते ही रहना चाहिये क्योंकि मनुष्य के हृदय में भले और बुरे दोनों ही तरह के संस्कार हुआ करते हैं जो कि समय और कारण को पाकर उदित हो जाया करते हैं। व्यापार करते समय मनुष्य का मन इतना कठोर हो जाता है कि वह किसी गरीब को भी एक पैसे की रियायत नहीं करता, परन्तु भोजन करने के समय में कोई भूखा, अपाहिज आ खड़ा हो तो उसे झट ही दो रोटी दे देता है। मतलब यही कि उस उस स्थान का वातावरण भी उस-उस प्रकार का होता है, अतः मनुष्य का मन भी वहां पर परिणमन कर जाया करता है। आप जब सिनेमा हॉल में जावेंगे तो आपका दिल वहां की चहल-पहल देखने में लालायित होगा परन्तु जब आप चलकर श्री भगवान् के मन्दिरजी में जावेंगे तो वहां यथाशक्ति नमस्कार मंत्र का जाप देना और भजन करना जैसे कामों में आपका मन प्रवृत होगा। हाँ, यह बात दूसरी है कि अच्छे वातावरण में रहने का मौका इस दुनियादारी के मनुष्य को बहुत कम मिलता है, इसका अधिकांश समय तो बुरे वातावरण में ही बीतता है। अत: अच्छे विचार प्रयास करने पर भी कठिनता से प्राप्त होते हैं और प्राप्त होकर भी बहुत कम समय तक ही ठहर पाते हैं। किन्तु बुरे विचार तो अनायास ही आ जाया करते हैं तथा देर तक टिकाऊ होते हैं। अतः बुरे विचारों से बचने के लिए और अच्छे विचारों को बनाये रखने के लिए सत्साहित्य का अवलोकन, चिन्तन अवश्य करते रहना चाहिए।
  13. व्यर्थवादी की दुर्दशा जंगल में एक तालाब था, उसका जल ज्येष्ठ माह की प्रखर धूप से सूखकर नाम मात्र रह गया। उनके किनारे पर रहने वाले दो हंसों ने आपस में सलाह की कि अब यहां से किसी भी अन्य जलाशय पर चलना चाहिए, जिसको सुनकर उनके मित्र कछुवे ने कहा कि, “तुम लोग तो आकाश मार्ग से उड़कर चले जाओगे, परन्तु मैं कैसे चल सकता हूँ?" हंसों ने सोचा बात तो ठीक ही है और एक अपने मित्र को इस प्रकार विपत्ति में छोड़कर जाना भी भलमनसाहत नहीं है, अतः अपनी बुद्धिमता से एक उपाय सोच निकाला। एक लम्बी सरल लकड़ी लाये ओर कछुवे से कहा कि तुम अपने मुँह से इसे बीच में पकड़ लो, हम दोनों इसके इधर-उधर के अन्त भागों को अपनी चोंचो से पकड़ कर ले उड़ते हैं, यह ठीक होगा।'' इस प्रकार तीनों आसमान में चलने लगे। चलते-चलते धरातल पर मध्य में एक गांव आया। गाँव के लोग नया दृश्य देखकर अचम्भे में पड़े और आपस में कहने लगे कि “देखो यह कैसा विचित्र खेल है।” यों कल-कल मचा देखकर कछुवे से न रहा गया, वह बोल बड़ा कि क्यों चक-चक करते हो, बस फिर क्या था, धड़ाम से जमीन पर गिर पड़ा और पकड़ा गया। मतलब यह कि मनुष्यों में अपने भले के लिए शारीरिक संयम के साथ-साथ वाणी का भी संयम होना चाहिए। शारीरिक संयम उतना कठिन नहीं है जितना कि मनुष्य के लिए वाक् संयम एवं मानसिक संयम तो उससे भी कहीं अधिक कठिन है। वाणी का संयम तो मुंह बन्द किया और हो सकता है, किन्तु मन तो फिर भी चलता ही रहेगा। मनुष्य का मन इतना चंचल है कि वह क्षण भर में कहीं का कहीं दौड़ जाता है। इसके नियंत्रण के लिए तो सतत साधु-संगति और सत्साहित्यावलोकन के सिवाय और कोई भी उपाय नहीं है। यद्यपि साधुओं का समागम हरेक के लिए सुलभ नहीं है फिर भी उनकी लिखी पुस्तकों को पढ़कर अपना जीवन सुधारा जा सकता है।
  14. सुभाषित ही संजीवन है जिसको सुनकर भूला भटका हुआ आदमी ठीक मार्ग पर आ जावे और मार्ग पर लगा हुआ आदमी दृढ़ता के साथ उसे अपनाकर अपने अभीष्ट को प्राप्त करने में समर्थ बन जावे उसे सुभाषित कहते हैं। यद्यपि बिना बोले आदमी का कोई भी कार्य सुचारु नहीं होता, किन्तु अधिक बोलने से भी कार्य होने के बदले वह बिगड़ जाया करता है। समय पर न बोलने वाले को मूक कहकर उसका निरादर किया जाता है, तो अधिक या व्यर्थ बोलने वाले को भी वावदूक या वाचाल कहकर भर्त्सना ही की जाती है। तुली हुई और समयोचित बात का ही दुनिया में आदर होता है। यहां हमें महाभारत के एक प्रसंग का स्मरण हो आता है। कौरवों और पाण्डवों में घमासान युद्ध हो रहा था। इधर पाण्डव पांच भाई थे तो उधर भी कर्म, भीष्म, जयद्रथ आदि प्रमुख योद्धा थे। बल्कि द्रोणाचार्य तो बाण विद्या के अधिनायक थे जो कि कौरवों की तरफ से खड़े होकर पाण्डवों की सेना में विंध्वस मचा रहे थे। यह देखकर श्रीकष्ण के दिल में विचार आया कि अगर कुछ देर भी ऐसा होता रहा तो आज अवश्य ही पाण्डवों की पराजय हो जायेगी। इतने ही में एक हाथी मारा गया। श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर के पास जाकर पूछा कि भूपते कौन मारा गया? युधिष्ठर इसका उत्तर अनुष्टुप चरण में 'अश्वत्थामाहतोहस्ती' इस प्रकार से देने वाले थे, उन्होंने बोलना प्रारंभ करके अश्वत्थामा तो इतना ही बोला था कि उसी क्षण श्रीकृष्ण ने अपना पाञ्चजन्य शङ्ख बजा दिया। लोगों ने समझा कि द्रोणाचार्य का पुत्र अश्वत्थामा मारा गया। अश्वत्थामा मुख्य योद्धाओं में से था, अत: इसे सुनकर पाण्डवों की सेना में उत्साह छा गया और कौरवों की सेना भंग होकर उसमें शोक छा गया और पुत्रा शोक से द्रोणाचार्य का भी भुजबल ढीला पड़ गया। इसका नाम है अवसरोचित बात, जिससे कि अनायास ही कार्य सिद्ध हो जाता है। हाँ, व्यर्थ की बकवास करने वाला आदमी अपने आप विपत्ति के गर्त में गिरता है।
  15. सत्संगति का सुफल एक बार की बात है, एक बहेलिया दो तोते लाया। उनमें से उसने एक तो किसी वेश्या को दे दिया और दूसरे को एक पण्डित जी के हाथ बेच दिया। थोड़े दिन के बाद वेश्या एक रोज महफिल करने राज दरबार में पहुंची। उसका तोता उसके हाथ में था सो पहुंचते ही राजा के सम्मुख अनेक प्रकार के भण्ड वचन सुनाने लगा। राजा को गुस्सा आया और उसने हुक्म दिया कि इसे मार डाला जावे। तोता बोला - हुजूर! मैं मारा तो जाऊँगा ही परन्तु इससे पहले मुझे मेरे भाई से मिला दीजिये। राजा ने कहा तेरा भाई कहाँ है? तोते ने कहा ! गिरधरजी शर्मा के यहाँ रहता है। उसी समय राजदूत गया और मय तोते के गिरधरजी शर्मा को बुला लाया। गिरधर जी शर्मा तो बोले ही नहीं उनके पहिले ही उनके तोते ने आते ही राजा को अनेक तरह के शुभाशीर्वाद दिये, राजा बहुत खुश हुआ। सहसा राजा के मुँह से निकल पड़ा कि शाबाश! जीते रहो तुम और तुम्हारी साथी। वेश्या वाले तोते ने कहा कि तब फिर तो में भी अब अमर बन गया क्यों इसका साथी तो मैं ही हूँ। राजा असमन्जस में पड़ गया तो पंडितजी वाले तोते ने वकालत की कि प्रभु इसमें विचारने की क्या बात है? यह दुष्ट है, सचमुच इसने आपके साथ बुरा बर्ताव किया है, किन्तु आप तो सज्जनों के सरदार हैं, आपका तो काम बुरा करने वालों के साथ भी भला बर्ताव करना ही होना चाहिए। पृथ्वी के पूत, पेड़ों का भी यही हिसाब है कि वे लोग पत्थर मारने वालों को भी उसके बदले में मीठा फल प्रदान किया करते हैं। आप तो पृथ्वी के पति हैं, सम्पूर्ण प्रजा के नाथ हैं, आपका तो सभी के साथ प्रेम होना चाहिए हाँ! अब भी यदि सचेत होगा तो आगे के लिए आने इस दुर्व्यवहार का त्याग कर सही मार्ग का अनुसरण करेगा, बस इतना ही कहना पर्याप्त है।
  16. हम उन्न्नत कैसे बनें? पानी से पूछा गया कि तुम्हारा रंग कैसा है? उत्तर मिला कि जैसा रंग का सम्पर्क मिल जावे वैसा। अर्थात् पानी पीले रंग के साथ में घुलकर पीला, तो हरे रंग के साथ में घुलकर हरा बन जाता है। ऐसा ही हाल इस मनुष्य का भी है। इसको प्रारम्भ से जैसे भले या बुरे की संगति प्राप्त होती है वैसा ही वह खुद हो जाया करता है। अभी कुछ वर्षों पहले की बात है- लखनऊ के अस्पताल में एक प्राणी लाया गया था जो कि अपनी चाल-ढाल से भेड़िया बना हुआ था, परन्तु वस्तुत वह मनुष्य था। जो कि कच्चे मांस के सिवा कुछ नहीं खाता था। भेड़िये की आवाज में बोलता था। वैसे ही अपनी शारीरिक चेष्टा-झपटना मारना वगैरह करता था। बात ऐसी थी कि एक नन्हें बालक को भेड़िया उठा ले गया। बालक के माँ-बाप ने सोचा कि उसे तो भेड़िया खा गया होगा परन्तु भेड़िये ने उसे अपने बच्चे के समान पाला-पोषा। जैसा मांस आप खाता था वैसा कुछ मांस इस बच्चे को भी दे दिया करता था एवं अपने पास उसे प्रेम पूर्वक रखा। करीब १२-१४ वर्ष की अवस्था में वह उन अस्पताल वालों की निगाह में आ गया और चिकित्सा के लिए लाया गया। धीरे-धीरे अब वह कच्चा मांस खाने की अपेक्षा पकाया हुआ मांस खाने लगा और कोई-कोई जवान मनुष्य की सी बोलने लग गया। मतलब यही कि मनुष्य जैसी सोहबत संगत में रहता है वैसा ही बन जाता है। बुरों के साथ में रहने से अपने आप बुरा बनते हुए और का भी बुरा करने वाला होता है। तो अच्छों के साथ में रहकर खुद अच्छा होता चला जाता है एवं समाज का भी भला करने वाला होता है। अतः हमें चाहिये कि हम भले लोगो की संगति में रहें और भले बनें, यही हमारी उन्नति है। लेखक - महाकवि वाणीभूषण बा. ब्र. पं. भूरामल शास्त्री (आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज)
  17. श्री कर्तव्य पथ - प्रदर्शन इष्ट स्तवनम् कर्तव्य पथ हम पामरों के लिए भी दिखला रहे। हो आप दिव्यालोकमय करूणानिधे गुणधाम हे॥ फिर भी रहें हम भुलते भगवान् स्वकीय कुटेव से। इस ही लिये इस घोर संकटपूर्ण भव वन में फंसे॥ मनुष्य की मनुष्यता - माता के उदर से जन्म लेते ही मनुष्य तो हो लेता है फिर भी मनुष्यता प्राप्त करने के लिये इसे प्रकृति की गोद में पलकर समाज के सम्पर्क में आना पड़ता है। वहां इसे दो प्रकार के सम्पर्क प्राप्त होते हैं- एक तो इसका बिगाड़ करने वालों के साथ, दूसरे इसका भला चाहने वालों के साथ। अतः इसे भी दोनों ही तरह की प्रेरणा प्राप्त होती है। अब यदि यह इसका भला करने वालों के प्रति भलाई का व्यवहार करता है कि अमुक ने मेरा अमुक कार्य निकाला है, मैं उसे कैसे भूल सकता हूं, इसके बदले में मेरा सर्वस्व अर्पण करके भी मैं उनसे उऋण नहीं बन सकता। इस प्रकार आभार मानने वाला एवं समय आने पर यथाशक्य उसका बदला चुकाने की सोचते रहने वाला आदमी मनुष्यता के सम्मुख होकर जन से सज्जन बनने का अधिकारी होता है। हां!, अपने अपकार का भी उपकार ही करना जानता हो उसका तो फिर कहना ही क्या ! वह तो महाजन होता है। कोई-कोई ऐसा होता है जो भलाई का बदला भी बुराई के द्वारा चुकाया करता है, उसे जन कहें या दुर्जन? कर्तव्यता की सीढ़ी पर खड़ा हुआ आदमी एक जगह नहीं रह सकता। वह या तो ऊपर की ओर बढ़े या नीचे को आना तो अवश्यम्भावी है ही। घड़ी का कांटा चाबी देने के बाद रूका नहीं रह सकता, उसी प्रकार मनुष्य भी जब तक सांस है तब तक निठल्ला नहीं रह सकता। चाहे भलाई के कार्य करे या बुराई के, उसे कुछ तो करना ही होगा। अतः बुराईयों में फंसकर अवनत बनने की अपेक्षा से भलाई के कार्य करते चले जाना एवं अपने आपको उन्नत से उन्नत्तर बनाना ही मनुष्यता है। बन्धुओं! बहुत से देश ऐसे हैं जहां भलाई के साधन अत्यन्त दुर्लभ हैं। वहां के लोगों को परिस्थिति से बाध्य होकर अपना जीवन पशुओं जैसा बिताना पड़ता है। परन्तु हम भारतवासियों के लिये तो उन भले साधनों की आज भी सुलभता है। हमारे बुजुर्ग या महर्षियों ने प्रारम्भ से ही सामाजिक रहन-सहन ऐसा सुन्दर स्थापित कर रखा है कि हम उसे अनायास ही अपने जीवन में उतार सकते हैं और अपने आपको सज्जन ही नहीं बल्कि सज्जनशिरोमणि भी बना सकते हैं। फिर भी हम उनका सदुपयोग न करके उनके विरुद्ध चलें यह तो हमारी ही भूल है। लेखक - महाकवि वाणीभूषण बा. ब्र. पं. भूरामल शास्त्री (आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज)
  18. माँगने वाला परमाणु से भी तुच्छ और न माँगने वाला स्वाभिमानी अनन्त आकाश से भी महान् होता है। साधक को मूक नहीं मौनी बनना चाहिए। अपरिचित अवस्था में पास बैठा शत्रु भी शत्रु रूप नहीं लगता, अपरिचय का आनंद ही कुछ और होता है। साधक समाज से जितना दूर रहता है, समाज की आस्था भी उस त्यागी के प्रति विशेष होती है। शुद्धात्म स्वभाव के संस्कार प्रतिक्षण साधक को स्वयं में डालते रहना चाहिए, लक्ष्यभूत को प्रतिपल गुनगुनाते रहना चाहिए। ये संस्कार ही भविष्य में प्रकट परमात्म-पद को प्रदान करते हैं। स्वार्थ जहाँ से चला जाता है, वहाँ से समर्पण प्रारम्भ हो जाता है। पाप के डर से मर्यादा में रहना चाहिए, इसी का नाम अनुशासन है। हम अपने पर अधिकार न रखकर दुनियाँ पर अधिकार जमाने का भाव करते हैं, यही संसार की जड़ है। जैसी भावना शरीर के प्रति है वैसी ही आत्मा के प्रति हो जावे तो मनोभावना पूर्ण हो जावेगी। लौह के साथ जैसे अग्नि की पिटाई हो जाती है, वैसे ही इस देह की सौबत में आत्मा की पिटाई हो जाती है। शरीर और आत्मा का अभेद सम्बन्ध हल्दी चूना जैसा है । अध्यात्म को मजबूत बनाने के लिए धर्म से पहले कर्म को देखो। कर्म विपाक को जानना ही समयसार तक पहुँचने का साक्षात् कारण है। व्रतों को निर्दोष पालन करना ही यथार्थ विनय है। संसार से डरना चाहते हो तो शरीर का चिन्तन करो और जब डरना नहीं चाहते हो तो आत्मा का चिन्तन करो। सिगडी सुलगाने के लिए पहले हवा से बचाना आवश्यक होता है, फिर हवा में लाकर रख देते हैं। हवा निमित्त पहले बाधक था, अब साधक हो गया। बाधक निमित्त को साधक बनायें। ज्ञान के माध्यम से जैसे क्रोध करते हैं, वैसे ही ज्ञान के माध्यम से क्रोध छोड़ सकते हैं। बिल्ली जिस पंजे से शिकार करती है, उसी पंजे से अपने बच्चे का पालन भी करती है। जितने क्षण आत्मानुभूति में गए वही क्षण साधु और गृहस्थ में अंतर बताते हैं, बाकी सब तो समान है। गृहस्थ भी पुण्य करते हैं और पाप से बचते हैं। लिखने-पढ़ने में यदि आर्तध्यान होता है तो लिखना-पढ़ना बन्द कर देना चाहिए, क्योंकि हम धर्मध्यान करने आए हैं, आर्तध्यान नहीं। दूसरों की नहीं बल्कि अपनी अनुभूति अपने अनुभव से काम करो क्योंकि पचास ग्रन्थों का सार आपका स्वयं का अनुभव है। जिस प्रकार बच्चों को खाते-पिलाते समय माता-पिता उनके समान बन जाते हैं, उसी प्रकार असंयमियों और व्रतियों को ज्यादा मुँह नहीं लगाना चाहिए बल्कि थोड़ा बहुत दे दिया और अपने आत्म हित में लग जाना चाहिए। होनहार के साथ समझौता करना जिसने सीख लिया उसे कभी अप्रसन्नता नहीं सताती। आवश्यकता पड़ने पर कोश की किताब की तरह ज्ञानी को व्यवहार का आश्रय लेना चाहिए, कोश में उलझना नहीं चाहिए। परमार्थ देशना विशेष वाक्य उपयोग की भूमिका में राग-द्वेष का उत्पन्न न होना ही सही स्वाध्याय है। निमित्त बनता नहीं, बनाया जाता है। सिद्धों को असंख्यात गुणी निर्जरा का निमित्त बना सकते हैं। भीतरी साधना के लिए विशेष क्षयोपशम की नहीं, किन्तु रुचि की आवश्यकता होती है। समता ही परम ध्यान है, शास्त्र का विस्तार समता के लिए ही है। सम्यग्दृष्टि से संयम दृष्टि और संयम दृष्टि से साम्य दृष्टि अति दुर्लभ है। कुछ भी ज्ञान न होने पर चिन्ता न करना यही धर्मध्यान है। तत्त्व ज्ञान के क्षेत्र में एक श्लोक भी पर्याप्त है। दूसरों के निमित्त अपने परिणामों को बिगाड़ना, सबसे बड़ी मूर्खता है । मोक्षमार्गी की शोभा प्रवृत्ति नहीं निवृत्ति है। मोक्षमार्ग में मन की भूख मिटाने के लिए ही पुरुषार्थ है। व्यवहार की उलझनों के कारण ही हम अपने परिणाम बिगाड़ लेते हैं। पर पदार्थों से निर्लेप होना ही आध्यात्मिक साधना का फल है। हमारे लिए ध्यान इतना महत्त्वपूर्ण नहीं जितना कि भेद-विज्ञान, भेद-विज्ञान हमेशा रहना चाहिए। कर्म उतना बलवान नहीं जितनी की असावधानी। अध्यात्म में ज्ञान का उतना महत्त्व नहीं जितना संवेदन का, ज्ञान पर का हो सकता है, किन्तु संवेदन स्व का ही। ज्ञानी वही है, जो गलती को न दोहराये। व्रती को एकान्त प्रिय होना चाहिए, कोलाहल नहीं। दुनियाँ की ओर से आँख बन्द करना ही अध्यात्म की सही पहल है। अध्यात्म में उतरने वाले को जाति, लिंगादि से दूर रहना चाहिए। स्पर्धा नहीं करना चाहिए, स्पर्धा में शांति नहीं मिलती है, स्पर्धा में सुख आधा हो जाता है । वर्तमान सुख संतोष भी मिट जाता है। पर द्रव्य का अध्यवसान के द्वारा कर्तृत्व, भोक्तृत्व और स्वामित्व के रूप में स्वयं को स्वीकार नहीं करना ही समयसार का सार है। इनसे सम्पर्क ही संसार और इनसे छूटना ही मुक्ति है। जीवन के हर क्षण समान नहीं होते, ज्यों जल का बहाव हर जगह एक जैसा नहीं होता। साधना धारणा के ऊपर ही आधारित है, भीतर की शक्ति पर बाहरी ढांचा खड़ा हो जाता है। निष्पृहता और निरीहता ही साधना में उतरने के लिए वरदान है, न कि दान। साधना का सूत्र प्रतीक्षा करना है, जल्दबाजी नहीं। अप्राप्य वस्तु को प्राप्त करने की कोशिश करना ही आर्तध्यान है। जो स्वयं सम्हला है, वही दूसरों को सम्हाल सकता है। आत्मा अजर-अमर है, संयम के लुटने पर रोड पर आ जाता है। मोक्षमार्ग में मात्र कर्तव्य है और गृहस्थ के पास कर्तृत्व व भोक्तृत्व भी है। ज्ञान के साथ जो अनुभूति होती है, वह अपनी मानी जाती है । संकेत को अनुभव मानना गलत धारणा है। मोक्षमार्ग में बाहरी साधनों से नहीं भीतरी साधनों से शान्ति मिलती है। सहना मोक्षमार्ग है प्रतिकार करना नहीं, क्योंकि प्रतिकार के समय प्रतीति/अनुभव समाप्त हो जाता है। ज्ञान अर्जन से ज्यादा ज्ञान प्रयोग में प्रयत्न करना चाहिए। तत्त्व चिन्तन कीजिए, विषय चिन्तन नहीं, तत्त्व चिन्तन में अर्थ-अर्थान्तर भाव होता है, राग द्वेष नहीं। मोक्षमार्ग में मित्रता प्रमाद का रूप धारण कर सकती है। तत्त्वानुकूल मन ही सबसे बड़ा साथी है एवं विषयानुकूल मन ही सबसे बड़ा शत्रु है। प्राण टिकते हैं तो व्रत पाल लेंगे, व्रत नहीं तो प्राण की कोई आवश्यकता नहीं, यही तत्त्व दर्शन है। उपदेश देना आदेश नहीं, आदेश मृत्यु तुल्य होता है। अपने मन को जीतो, दूसरों को नहीं, दूसरों को कभी जीता नहीं जा सकता, सबसे बड़ी भूल दूसरों को जीतूँ यही भाव है। राग-द्वेष रूपी घास के कारण ही ज्ञान का बीज पुष्ट नहीं हो पाता है, इसलिए चित्त रूपी खेत से राग-द्वेष रूपी घास को अलग करते रहना चाहिए। किसी के कहने पर नहीं, अपने कल्याण के लिए करना, धार्मिक कार्य वही है जो बाहर कम किन्तु भीतर से ज्यादा सम्बन्ध रखता है। अन्य संकलन विशेष वाक्य अनुप्रेक्षा का चिन्तन परीषहों के साथ होता है तो ही संवर निर्जरा का कारण होता है, अन्यथा नहीं। साधक स्व के लिए प्रमाण होता है, अन्य के लिए नहीं। माँगने से महत्त्व कम होता है, सहन करने से कर्म निर्जरा और संवर होता है । तिल तुष मात्र परिग्रह भी रौद्रध्यान है। तुम किस-किस को हटाओगे? किस-किस को घर से निकालोगे? इसलिए स्वयं निकल जाओ । स्वयं हटना बहुत सरल है, इसलिए साधु संसार को नहीं हटाता स्वयं हट जाता है। जब हम अपने को दूसरों का स्वामी मानते चले जाएंगे, तो अपनी रक्षा कभी नहीं कर पाएंगे। मनुष्य नेतृत्व की भूख के कारण भटक जाता है, नेतृत्व की भूख को शान्त करने का कोई साधन नहीं है। विषयों से रहित होने के पश्चात् ही कषाएँ शान्त होती हैं। निर्भीकता के साथ बोलना तो बहुत सरल है, पर निरीहता के साथ चारित्र पालन करना बहुत कठिन है। मौखिक उपदेश देने की अपेक्षा, आचरण से उपदेश देना कहीं अधिक प्रभावशाली होता है। साधना नैमित्तिक नहीं होनी चाहिए। सहनशीलता सफलता प्राप्ति का बहुत बड़ा साधन है। हमेशा प्रमाद की भूमिका पकड़ने का प्रयास करना चाहिए। सत्य को सिद्ध करने का प्रयास नहीं करना ही सबसे उत्तम है, अन्यथा सत्य पर भी संदेह होने लगता है। ज्ञान की आराधना सामायिक की साधना के बिना अधूरी है। जो व्यक्ति निमित्त पर आरोप लगाएगा उसका मोक्षमार्ग डगमगा जायेगा।
  19. 1. मंगलमय जीवन बने, छा जाये सुख छाँव । जुड़े परस्पर दिल सभी, टले अमंगल भाव ।।1।। शब्दार्थ - छाँव - छाया अमंगल - अशुभ मंगलमय - मंगल से युक्त परस्पर - आपस में अर्थ - सभी प्राणियों का जीवन मंगलमय बने। सभी के जीवन में सुख रूपी छाया हो जाए। सभी के जीवन से अशुभ भाव समाप्त हो जाए। ।।1।। 2.'ही' से 'भी' की ओर ही, बढ़े सभी हम लोग। छह के आगे तीन हो, विश्व शान्ति का योग ||2|| शब्दार्थ - ही - एकान्त का प्रतीक भी - अनेकान्त का प्रतीक छह के आगे तीन होना- परस्पर प्रेम भाव से रहना योग - जोड़, उपाय, युक्ति अर्थ - हम सभी लोग एकान्त से अनेकान्त की ओर बढ़े चलें। परस्पर प्रेम भाव से रहने से ही विश्व में शान्ति स्थापित हो सकती है ।।2।। 3. यही प्रार्थना वीर से, अनुनय से कर जोर। हरी-भरी दिखती रहे, धरती चारों ओर ||3|| शब्दार्थ - वीर - महावीर अनुनय - नम्रता कर - हाथ हरी-भरी - खुशहाली और समृद्धि अर्थ - भगवान महावीर से हम हाथ जोड़कर नम्रतापूर्वक यही प्रार्थना करते हैं कि हे भगवन्! हमारी यह धरती हमेशा चारों ओर हरी-भरी दिखती रहे अर्थात् चारों ओर इस धरती पर खुशहाली और समृद्धि का वातावरण छाया रहे ।।3।। 4. गुरु चरणों की शरण में, प्रभु पर हो विश्वास। अक्षय सुख के विषय में, संशय का हो नाश ||4|| शब्दार्थ - अक्षय सुख - शाश्वत सुख (हमेशा रहने वाला सुख) संशय - सन्देह अर्थ - जो व्यक्ति गुरु चरणों की शरण में आ जाता है उसे प्रभु पर विश्वास हो जाता है। फलतः शाश्वत सुख के विषय में उसके संशय का भी विनाश हो जाता है। ।।14।। 5. मेरा-तेरा पन मिटे, भेदभाव का नाश। रीति-नीति सुधरे सभी, वेदभाव में वास ।।5।। शब्दार्थ - मेरा-तेरा पन-अपने-पराये का भाव वेद भाव - अपनी आत्मा का भाव रीति – रस्म रिवाज, नियम नीति - व्यवहार का ढंग अर्थ - हे भगवन! अपने -पराये का भाव मिटे और अंतरंग में समस्त भेदभाव का नाश हो। सभी प्रकार की रीतियों और नीतियों में सुधार हो और सभी अपने भाव में रमण करें अर्थात् अपनी आत्मा में वास करें ।।5।। 6. ऊधम से तो दम मिटे, उद्यम से दम आय। बनो दमी हो आदमी, कदम-कदम जम जाय। ||16 || शब्दार्थ - ऊधम - उत्पात उद्यम - पुरुषार्थ दम - शक्ति दमी - इन्द्रियों का दमन करने वाला कदम - कदम जम जाय-प्रत्येक कदम पर प्रगति होना अर्थ - उत्पात् करने से तो शक्ति का ह्रास होता है किन्तु पुरुषार्थ करने से जीवन-शक्ति में वृद्धि होती है। इसलिये पुरुषार्थ करके इन्द्रियों का दमन कर सही आदमी बनो ताकि तुम प्रत्येक कदम पर प्रगति करो ।।6।। 7. मरहम पट्टी बाँध के, वृण का कर उपचार। ऐसा यदि न बन सके, डंडा तो मत मार ||7|| शब्दार्थ - वृण - घाव डंडा तो मत मार- कठोर व्यवहार न करना मरहम पट्टी बांध- सहानुभूति का व्यवहार रखना। अर्थ - किसी भी व्यक्ति के घाव का उपचार मरहम पट्टी बांध करके करना चाहिए अर्थात् प्रत्येक जीव के प्रति सहानुभूति का व्यवहार रखना चाहिए। यदि हम मरहम पट्टी बांध के घाव का उपचार नहीं कर सकते हैं तो उसके घाव को कुरेदना नहीं चाहिए अर्थात् यदि हम जीवों के प्रति सहानुभूति का व्यवहार नहीं कर सकते हैं तो उनके प्रति कठोर व्यवहार भी नहीं रखना चाहिए ।।7।। 8. नम्र बनो मानी नहीं, जीवन वरना मौत। बेंत बनो ना वट बनो, सुर शिव सुख का स्रोत ।।8।। शब्दार्थ- मानी - अहंकारी वट - बड़/बरगद का पेड़ सुर - स्वर्ग शिव - मोक्ष । अर्थ - हे मानव! तू बेंत के समान विनम्र बन, वटवृक्ष के समान अहंकारी मत बन। क्योंकि नम्रता जीवन है और अहंकार मृत्यु। बेंत तूफान में झुककर अपनी रक्षा कर लेता है। जबकि वटवृक्ष को तूफान जड़ से उखाड़कर धराशायी कर देता है। अतः जीवन का वरण करो, मृत्यु का नहीं । यही स्वर्ग एवं मोक्ष सुख का स्रोत है ।।8।। 9. तन मन से और वचन से, पर का कर उपकार रवि सम जीवन बस बने, मिलता शिव उपकार ||9|| शब्दार्थ- उपकार - भलाई रवि - सूर्य | शिव - कल्याण सम - समान अर्थ - हे मानव! तुम तन, मन और वचन से दूसरों का उपकार करो। सूर्य की तरह समान रूप से सभी का उपकार करो, इसमें ही सब का कल्याण होता है ।।9।। 10. दिखा रोशनी रोष न, शत्रु मित्र बन जाये। भावों का बस खेल है, शूल फूल बन जाये ||10|| शब्दार्थ- रोष - वैर - विरोध रोशनी - प्रकाश शूल - काँटा अर्थ - शत्रु पर रोष न करके उसे ज्ञान का प्रकाश प्रदान करें ताकि वह शत्रुता को छोड़कर मित्रभाव को धारण करे। यह सब भावों का खेल है जिससे काँटों के समान पीड़ा भी फूल के समान सुखद हो जाती है ।।10।। 11. धोओ मन को धो सको, तन को धोना व्यर्थ ।। खोओ गुण में खो सको, धन में खोना व्यर्थ ।।11।। शब्दार्थ - तन - शरीर व्यर्थ - बेकार अर्थ - यदि धो सकते हो तो मन को धोओ, तन को धोना व्यर्थ है। यदि खोना चाहते हो तो गुणों में खोओ, धन में खोना व्यर्थ है ।।11।। 12. निर्धनता वरदान है, अधिक धनिकता पाप। सत्य तथ्य की खोज में, निर्गुणता अभिशाप ||12|| शब्दार्थ - निर्धनता - गरीबी धनिकता - धनाढ्यता (धन का अधिक संग्रह) तथ्य - यथार्थ निर्गुणता - गुणहीनता अभिशाप - लांछन अर्थ - निर्धनता वरदान है तथा धन का अधिक संग्रह अभिशाप है। और सत्य तथ्यों की खोज में अज्ञानता (गुणहीनता) एक अभिशाप है ।।12।। 13. अर्थ नहीं परमार्थ की, ओर बढ़े भूपाल।। पालक जनता के बनें, बनें नहीं भूचाल ।।13।। शब्दार्थ - अर्थ - धन भूपाल - शासक, राजा भूचाल - विध्वंसक, भूकम्प पालक - पालन करने वाला अर्थ - शासक को धन की ओर नहीं अपितु परमार्थ की ओर बढ़ना चाहिए। वे जनता के पालक बनें, विध्वंसक नहीं ।।13।। 14. दूषण ना भूषण बनो, बनो देश के भक्त। उम्र बढ़े बस देश की, देश रहे अविभक्त ||14|| शब्दार्थ - दूषण - विनाशक आभूषण - आभरण अविभक्त - समूचा, एक अर्थ - देशभक्त बनकर आभूषण बनने का प्रयास करो, विनाशक मत बनो। ताकि देश चिरकाल तक अविभाजित रहते हुए सुरक्षित रहे।14 || 15. धर्म धनिकता में सदा, देश रहे बल जोर। भवन वही बस चिर टिके, नींव नहीं कमजोर ||15|| शब्दार्थ- बल जोर - पुष्ट आधार भवन - मकान चिर - लम्बा । टिके - स्थिर रहना अर्थ - जिस प्रकार वही भवन चिरकाल तक स्थिर और सुरक्षित रह सकता है जिसकी नींव कमजोर नहीं होती है। उसी प्रकार वही देश सदा सुरक्षित रह सकता है जिसमें धर्म और धन का पुष्ट आधार है।।15।। 16. कब तक कितना पूछ मत, चलते चल अविराम। रुक-रुको यूँ सफलता, आप कहे यह धाम ||16।। शब्दार्थ - 1. अविराम - निरन्तर, लगातार 2. धाम - चरम लक्ष्य अर्थ - हे मोक्ष के राही! यह मत पूछ कि संयम के पथ पर कितने समय तक और कितनी दूर तक चलना है बल्कि निरन्तर आगे बढ़ता रह, जब तुम अपने गन्तव्य तक पहुँच जाओगे तो सफलता स्वयं बोल उठेगी कि तुमने अपना चरम लक्ष्य प्राप्त कर लिया है।16।। 17. गुण ही गुण पर में सदा, खोजू निज में दाग। दाग मिटे बिन गुण कहाँ, तामस मिटते राग।।17।। शब्दार्थ - पर - दूसरा, पराया दाग - दोष तामस - अज्ञान अर्थ - मेरी भावना है कि मैं सदा पर में गुणों को देखें और निज में दोषों को खोजें, क्योंकि अपने दोषों को नष्ट किये बिना गुणों का प्रकट होना संभव नहीं है। जिस तरह अज्ञान रूपी अंधकार के नष्ट होते ही राग स्वयं समाप्त हो जाता है ।।17।। 18. पंक नहीं पंकज बनूं, मुक्ता बनूं न सीप। दीप बनूं जलता रहूँ, प्रभु-पद-पद्म समीप||18 || शब्दार्थ पंक - कीचड पंकज - कमल मुक्ता - मोती सीप - शंख पद - चरण पद्म - कमल अर्थ - हे प्रभो! मैं कीचड़ नहीं, कमल बनना चाहता हूँ। सीप नहीं, मोती बनना चाहता हूँ। मेरी भावना है कि मैं सदा दीपक बनकर प्रभु के चरण कमलों के निकट जलता रहूँ। ।।18।। 19. यही प्रार्थना वीर से, शांति रहे चहुँ ओर। हिल-मिलकर सब एक हों, बढ़ें धर्म की ओर ||19।। शब्दार्थ - चहुँ ओर - चारों ओर वीर - भगवान महावीर अर्थ - मेरी वीर प्रभु से यही प्रार्थना है कि इस विश्व में सब जगह शांति का वास हो, सब लोग मिल-जुलकर एक साथ निवास करें और धर्म की ओर नित्य बढ़ते रहें ||19।। 20. गोमटेश के चरण में, नत हो बारम्बार । विद्यासागर कब बनँ, भव सागर कर पार ।।20।। शब्दार्थ - गोमटेश - गोमट के स्वामी भगवान बाहुबली भव - संसार सागर - समुद्र बारम्बार - बार-बार अर्थ - मैं गोमटेश बाहुबली के श्रीचरणों में बार-बार नमन करता हूँ यही भावना भाता हूँ कि मैं विद्यासागर जैसा बनकर कब इस संसार रूपी सागर को पार कर सकूँ। ||20 ||
  20. 1. जीवन समझो मोल है, ना समझो तो खेल। खेल-खेल में युग गया, वहीं खिलाड़ी खेल ||1|| शब्दार्थ - मोल - मूल्यवान युग - काल, समय अर्थ - जिसने जीवन को समझा उसके लिये जीवन अनमोल है। और जिसने नहीं समझा उसके लिये खेल और फिर खेल-खेल में कई युग बीत गये लेकिन खिलाड़ी और खेल वहीं के वहीं हैं ।।1।। 2. खेल सको तो खेल लो, एक अनोखा खेल। आप खिलाड़ी आप ही, बनो खिलौना खेल ||2|| शब्दार्थ - अनोखा - अनूठा, अदभुत अर्थ - जीवन एक अनोखा खेल है, यदि तुम खेल सकते हो तो खेल लो। इस खेल में न केवल खिलाड़ी बल्कि खिलौना और खेल भी आप स्वयं ही होते हैं ।।2।। 3. किस-किस का कर्ता बनूँ किस-किस का मैं कार्य। किस-किस का कारण बनूँ यह सब क्यों कर आर्य ।।3।। शब्दार्थ - आर्य - सज्जन पुरुष कर्ता - करने वाला अर्थ - मैं किस-किस का कर्ता बनूँ, किस-किस का कार्य बनें और किस-किस का कारण बनू और बनूँ भी तो किस लिये? ।।3।। 4. पर का कर्ता मैं नहीं, मैं क्यों पर का कार्य । कर्ता कारण कार्य हूँ, मैं निज का अनिवार्य ||4|| शब्दार्थ - पर - दूसरा निज - अपना अनिवार्य - जरूरी अर्थ- जब मैं पर का कर्ता नहीं हूँ तो पर का कार्य कैसे हो सकता हूँ। मैं तो स्वयं का अनिवार्य कर्ता, कारण और कार्य हूँ ।।4।। 5. घुट-घुट कर क्यों जी रहा, लुट–लुट कर क्यों दीन। अन्तर्घट में हो जरा, सिमट-सिमट कर लीन ||5|| शब्दार्थ - दीन - दरिद्र, गरीब घुट-घुट कर - असह्य पीड़ा सहते हुए अन्तर्घट - अपनी आत्मा लीन - संलग्न अर्थ- घुट-घुट कर क्यों जीना और लुट-लुटकर गरीब भी क्यों होना? इससे तो अच्छा है तू बाह्य जगत से अपने को समेट कर अन्तर्जगत में लीन हो जा अर्थात् अपनी आत्मा में लीन हो जा ।।5।। 6. खोया जो है अहम में, खोया उसने मोल। खोया जिसने अहम को, खोजा धन अनमोल ।।6।। शब्दार्थ - खोया - लीन है या फूला हुआ है। अहम - अहंकार खोया - खोना अनमोल - अमूल्य अर्थ - जो अहंकार में फूला हुआ है उसने सब कुछ खो दिया है। और जिसने अहंकार को खो दिया है उसने अनमोल धन प्राप्त कर लिया है ||6|| 7. यान करे बहरे इधर, उधर यान में शांत। कोरा कोलाहल यहाँ, भीतर तो एकान्त ||7 || शब्दार्थ- कोलाहल- शोर यान - वायुयान कोरा - व्यर्थ भीतर - अपनी आत्मा में एकांत - पूर्ण शांति अर्थ - वायुयान से बाहर में इतनी भीषण आवाज होती है कि सुनने वाले भी बहरे हो जायें, किन्तु वायुयान के अन्दर पूर्ण शान्त वातावरण रहता है। इसी भाँति बाह्य जगत में तो व्यर्थ का कोलाहल होता रहता है किन्तु साधक के अन्तर्जगत में पूर्ण शांति बनी रहती है ।।7।। 8. स्वर्ण बने वह कोयला, और कोयला स्वर्ण। पाप-पुण्य का खेल है, आतम में ना वर्ण। ||18 || शब्दार्थ - स्वर्ण - सोना आतम - आत्मा वर्ण - रंग। अर्थ - कर्म के उदय से स्वर्ण भी कोयला बन जाता है और पुण्य कर्म के उदय से कोयला भी स्वर्ण बन जाता है। जो इससे ऊपर उठकर शुद्धात्म स्वरूप हो चुका है उसका कोई वर्ण नहीं होता है ।।8।। 9.प्रमाण का आकार ना, प्रमाण में आकार। प्रकाश का आकार ना, प्रकाश में आकार ।।9।। शब्दार्थ - प्रमाण - ज्ञान आकार - आकृति अर्थ - प्रमाण अर्थात् ज्ञान का कोई आकार नहीं होता, बल्कि प्रमाण में समस्त ज्ञेय आकार को प्राप्त करते हैं। प्रकाश का कोई आकार नहीं होता बल्कि प्रकाश में सभी पदार्थ आकार को प्राप्त करते हैं।।9।। 10. जिनवर आँखें अधखुली, जिनमें झलके लोक। आप दिखे सब देख ना, स्वस्थ रहे उपयोग ||10|| शब्दार्थ - अधखुली- आधी खुली हुई (नासा दृष्टि) उपयोग - जीव का जो भाव वस्तु के ग्रहण करने के लिए प्रवृत्त होता है। | झलके - झलकता है। लोक - तीनों लोक (संसार) अर्थ- जिनेन्द्र भगवान की नासा दृष्टि में समस्त संसार स्पष्ट झलकता है। हे मानव! तू भी अपने में देख, संसार को नहीं, ताकि तेरा उपयोग स्वस्थ रहे ||10।। 11. अलख जगाकर देख ले, विलख-विलख मत हार। निरख निरख निज को जरा, हरख–हरख इस बार ||11|| शब्दार्थ - अलख - भाग्य विलख - चिल्लाकर रोना । निरख - ध्यानपूर्वक देखना हरख - प्रसन्न होना/हर्षित होना अर्थ - हे मानव! पुरुषार्थ द्वारा भाग्य को जगाने का प्रयास कर, केवल भाग्य-भाग्य चिल्लाकर रुदन मत कर। इस मानव जन्म को पाकर हर्षित होकर तनिक अपने निज स्वरूप को देखने का प्रयास कर ।।11।। 12. कर्तापन की गंध बिन, सदा करे कर्त्तव्य। स्वामीपन ऊपर धरे, ध्रुव पर हो मन्तव्य ।। शब्दार्थ - गंध - सुगन्ध कर्तापन - करने का भाव कर्त्तव्य - कर्म ध्रुव - स्थिर, केन्द्रित मन्तव्य - संकल्प स्वामीपन- मालिकपन, स्वामित्व अर्थ - मनुष्य को कर्ताभाव मन में लाये बिना सदैव अपने कर्तव्य करते रहना चाहिए। जिसका मन सदैव अपने लक्ष्य पर केन्द्रित रहता है उसे स्वामित्व तो स्वयं ही प्राप्त हो जाता है।।12।। 13. चेतन में ना भार है, चेतन की ना छाँव । चेतन की फिर हार क्यों, भाव हुआ दुर्भाव |13|| शब्दार्थ - चेतन - आत्मा छाँव - छाया दुर्भाव - खराब भाव/खोटे भाव हार - पराजय अर्थ - चेतन में न भार है और न ही उसकी छाया पड़ती है। चेतन की पराजय फिर कैसे सम्भव है। मन में चेतन की पराजय का भाव आना भी दुर्भाव है। ।13।। 14. धन जब आता बीच में, वतन सहज हो गौण। तन जब आता बीच में, चेतन होता मौन ||14 || शब्दार्थ - वतन - देश । गौण - अप्रधान, मूल अर्थ से भिन्न होना तन - शरीर सहज - आसान, सरल अर्थ - धन जब बीच में आ जाता है तो व्यक्ति देश को भी भूल जाता है और जब शरीर बीच में आ जाता है तो चेतन को गौण कर देता है। ||14|| 15. फूल राग का घर रहा, काँटा रहा विराग। तभी फूल का पतन हो, राग त्याग तू जाग ||15।। शब्दार्थ - विराग - वैराग्य राग - प्रीति, प्रेम पतन - च्युत होना, गिरना अर्थ - फूल राग का कारण है और काँटा विराग का यही वजह है। कि फूल का पतन होता है। अतः हे मानव! तू जाग और राग का परित्याग कर ||15 ।। 16. मोह दुखों का मूल है, धर्म सुखों का स्रोत। मूल्य तभी पीयूष का, जब हो विष से मौत।।16।। शब्दार्थ - मोह - ममत्व, परिणाम | मूल - जड़ स्रोत - साधन पीयूष - अमृत विष - जहर अर्थ - मोह दुखों की जड़ है और धर्म सुख का स्रोत है। अमृत का मूल्य तभी समझ में आता है जब विष मृत्युदायी हो जाता है।।16।। 17. पर घर में क्यों घुस रही, निज घर तज यह भीड़। पर नीड़ों में कब घुसा, पंछी तज निज नीड़।।17।। शब्दार्थ - तज - छोड़कर नीड़ों - घोंसलों पंछी - पक्षी निज - अपना अर्थ - सम्पूर्ण जगत अन्तर्जगत को छोड़कर बाहर की दौड़ में क्यों लगा हुआ है। क्या कभी पक्षी अपने घोंसले को छोड़कर दूसरे के घोंसले में प्रवेश करता है? अर्थात् कभी नहीं ।।17।। 18. विषय-विषम विष है सुनो, विष सेवन से मौत। विषय-कषाय विसार दो, स्वानुभूति सुख स्रोत ||18 || शब्दार्थ - विषय - पंचेन्द्रिय के भोग विषम - प्रतिकूल विष - ज़हर विसार - छोड़कर स्वानुभूति- अपनी आत्मतत्त्व में रमण का अनुभव स्रोत - साधन अर्थ - हे भव्य जीव सुनो! पंचेन्द्रिय के विषय विष के समान प्रतिकूल है। जिस प्रकार विष के सेवन से जीव की मृत्यु हो जाती है उसी प्रकार यह पंचेन्द्रिय विषय भी इस जीव को संसार में भटकाने वाले हैं। इसीलिए विषय रूपी कषाय को छोड़कर हमें अपनी आत्मतत्त्व में रमण करना चाहिए जो कि सुख का साधन है।।18।। 19. हल्का लगता जल भरा, घट भी जल में जान। दुख-सुख सा अनुभूत हो, हो जब आतम ज्ञान।।19।। शब्दार्थ - घट - घड़ा अनुभूत - अनुभव किया हुआ जान - जानना आतमज्ञान-आत्मा का ज्ञान अर्थ - जिस प्रकार जल से भरा घड़ा जल में हल्का लगता है उसी प्रकार जब दुःख भी सुख के समान अनुभूत होने लगे तभी आत्मा का सच्चा ज्ञान प्राप्त होता है।।19।। 20. कुन्द कुन्द को नित नर्मू, हृदय कुन्द खिल जाय। परम सुगन्धित महक में, जीवन मम घुल जाय ।।20।। शब्दार्थ - कुन्द - कमल महक - सुगन्ध मम - मेरा अर्थ - मैं आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी को नित्य नमस्कार करता हूँ। जिससे मेरा हृदय रूपी कमल भी खिल जाए। आचार्य कुन्द-कुन्द के गुणों की महक परम सुगन्धित है। मेरा जीवन भी उसमें आत्मसात् हो जाए।।20।।
  21. 1. सागर का जल क्षार क्यों, सरिता मीठी सार। बिन श्रम संग्रह अरुचि है, रुचिकर श्रम उपकार ||1|| शब्दार्थ - क्षार - खारा सरिता - नदी संग्रह - संचय सार - यथार्थ बात हेतु (ऐसा) अरुचि - स्वाद की इच्छा न होना रुचिकर - सुखद उपकार - भलाई अर्थ - समुद्र का जल खारा होता है और नदी का मीठा ऐसा क्यों? क्योंकि समुद्र को बिना परिश्रम के जल की प्राप्ति हो जाती है और नदी को निरन्तर कठिन परिश्रम करना पड़ता है। जिन्हें बिना परिश्रम के धन की प्राप्ति हो जाती है उन्हें उसका स्वाद पता नहीं चलता और जो श्रम करके धन कमाते हैं उन्हें वही धन अधिक सुखद लगता है।।1।। 2. उन्नत बनने नत बनो, लघु से राघव होय। कर्ण बिना भी धर्म से, विजयी पाण्डव होय ।।2।। शब्दार्थ - नत - विनम्र उन्नत - विकास लघु - छोटा राघव - राम कर्ण - कुन्ती का एक पुत्र धर्म - धर्मराज युधिष्ठिर अर्थ - यदि उन्नति करना चाहते हो तो विनम्र बनो । जो लघु होता है, वही राम के समान पूज्य होता है। जिसके पास धर्म होता है, वह विजयी होता है। जैसे शक्तिशाली कर्ण के न रहते हुए भी एकमात्र धर्मराज के बल पर पाण्डव विजयी हुए थे ||2|| 3. नहीं सर्वथा व्यर्थ है, गिरना ही परमार्थ। देख गिरे को हम जगें, सही करें पुरुषार्थ ।।3।। शब्दार्थ - व्यर्थ - बेकार सर्वथा - हमेशा परमार्थ - परोपकार पुरुषार्थ - पुरुष के उद्देश्य एवं लक्ष्य का विषय, पौरुष अर्थ - मानव का पतन भी हमेशा व्यर्थ नहीं होता, कभी-कभी परमार्थ भी होता है। क्योंकि पतित व्यक्ति को देखकर भी व्यक्ति सचेत होकर सही पुरुषार्थ करने लगता है ।।3।। 4. कौरव रौरव में गये, पांडव क्यों शिवधाम। स्वार्थ और परमार्थ का, और कौन परिणाम ||4|| शब्दार्थ - कौरव - कुरू वंश में उत्पन्न होने वाले धृतराष्ट्र के पुत्र रौरव - नरक (रव-रव एक नरक का नाम) शिवधाम - मोक्ष स्वार्थ - अपना हित साधने की उग्र भावना या अपना मतलब परमार्थ - दूसरों की भलाई, परोपकार परिणाम - फल, नतीजा अर्थ- कौरव अपने स्वार्थवश सातवें नरक को प्राप्त हुए तथा पांडव परमार्थ के कारण मोक्ष को गए। स्वार्थ और परमार्थ का इसके अतिरिक्त और क्या परिणाम निकल सकता है ||4|| 5. भूल नहीं पर भूलना, शिव पथ में वरदान।। भूल नदी गिरि को करे, सागर का संधान।।5।। शब्दार्थ - शिवपथ - मोक्षमार्ग वरदान - देवता, ऋषियों आदि से मांगी गई वस्तु गिरि - पर्वत संधान - खोज अर्थ - भूल करना नहीं बल्कि भूल जाना मोक्षमार्ग में वरदान स्वरूप है। नदी भी पर्वत को भूलकर सागर की खोज में निकल जाती है ।।5।। 6. दूर दुराशय से रहो, सदा सदाशय पूर। आश्रय दो धन अभय दो, आश्रय से जो दूर।।6।। शब्दार्थ - दुराशय - दुर्भावना सदाशय - सद्भावना आश्रय - शरण, सहारा अभय - निर्भयता अर्थ- हे मानव! तू हमेशा दुर्भावना से दूर और सद्भावना से पूर्ण रह। जो आश्रय विहीन हैं उन्हें आश्रय, धन और अभय प्रदान कर।।6।। 7. सूरज दूरज हो भले, भरी गगन में धूल। सर में पर नीरज खिले, धीरज हो भरपूर ।।7।। शब्दार्थ - दूरज - दूर जन्म लेने वाला सूरज - सूर्य गगन - आकाश सर - सरोवर, तालाब नीरज - कमल धीरज - धैर्य भरपूर - पूर्ण अर्थ - सूर्य चाहे कितनी भी दूर हो तथा आकाश (वायुमण्डल) में धूल भरी हुई हो फिर भी सरोवर में कमल खिलते ही हैं यह पूर्ण धैर्य का ही परिणाम है।7।।। 8. ईश दूर पर मैं सुखी, आस्था लिये अभंग। ससूत्र बालक खुश रहे, नभ में उड़े पतंग ।।8।। शब्दार्थ - ईश - ईश्वर अभंग - अटूट ससूत्र - सूत्र सहित, डोर सहित नभ - आकाश आस्था - विश्वास, निष्ठा अर्थ - जिस प्रकार बालक के हाथ में डोर रहती है तथा पतंग आकाश में जैसे - जैसे ऊपर उड़ती चली जाती है वैसे-वैसे बालक की प्रसन्नता बढ़ती चली जाती है। उसी प्रकार हे ईश! आप भले ही दूर हैं पर अटूट आस्था के सूत्र से जुड़ा होने के कारण मैं अत्यधिक प्रसन्न हूँ।।8।। 9. प्रभु दर्शन फिर गुरु कृपा, तदनुसार पुरुषार्थ। दुर्लभ जग में तीन ये, मिले सार परमार्थ ।।9।। शब्दार्थ- कृपा - आशीर्वाद तदनुसार- उसके अनुसार पुरुषार्थ - पुरुष के उद्देश्य एवं लक्ष्य का विषय दुर्लभ - कठिनता से प्राप्त होने वाला परमार्थ - उत्कृष्ट वस्तु अर्थ - नित्य जिनेन्द्र, देव के दर्शन, गुरुदेव का आशीर्वाद और उसके अनुसार पुरुषार्थ, ये तीन बातें मनुष्य को दुर्लभता से प्राप्त होती है। जिसे ये तीनों मिल जाती हैं उसे सारभूत परमार्थ की प्राप्ति हो जाती है। |9।। 10. अन्त किसी का कब हुआ, अनन्त सब हे सन्त। पर सब मिटता सा लगे, पतझड़ पुनः बसन्त ||10|| शब्दार्थ - अनंत - अक्षय पतझड़ - शिशिर ऋतु। (इसमें पेड़ की पत्तियाँ झड़ जाती हैं) वसन्त - वर्ष की छः ऋतुओं में से एक (इसमें पेड़ की पत्तियाँ खिल जाती हैं) अन्त - नाश अर्थ - हे सन्त! यद्यपि तुझे सब कुछ क्षणभंगुर नजर आता है पर वास्तव में ऐसा है नहीं। सत्य तो यह है कि द्रव्य दृष्टि से किसी का भी अन्त नहीं होता, सब कुछ अनन्त है। पतझड़ के आने पर पेड़ों के सारे पत्ते झड़ जाते हैं लेकिन बसन्त ऋतु के आते ही पेड़ पुनः हरे-भरे हो जाते हैं ।।10।। 11. ज्ञायक बन गायक नही पाना है विश्राम । लायक बन नायक नहीं, जाना है शिवधाम।।11।। शब्दार्थ - ज्ञायक - सब जानने वाला गायक - गाने वाला विश्राम - सुख लायक - योग्य शिवधाम - मोक्ष नायक - स्वामी अर्थ - हे साधक! यदि तू चिर विश्राम चाहता है तो गायक नहीं, ज्ञायक बन । यदि तुझे शिवधाम (मोक्ष) प्राप्त करना है तो नायक नहीं, लायक बन ।।11।। 12. सूक्ष्म वस्तु यदि ना दिखे, उनका नहीं अभाव।। तारा राजी रात में, दिन में नहीं दिखााव ||12|| शब्दार्थ - सूक्षम - बहुत छोटा राजी - सहमत दिखाव - दिखाई देती अर्थ- सूक्ष्म वस्तु यदि नहीं दिखती है तो इसका अर्थ यह नहीं है। कि उसका अभाव है। तारों की पंक्ति रात्रि में दिखाई देती। है, दिन में नहीं लेकिन उसका अभाव नहीं हो जाता ||12|| 13. लघु कंकर भी डूबता, तिरे काष्ठ भी स्थूल। "क्यों मत पूछो तर्क से, स्वभाव रहता दूर।।13।। शब्दार्थ - लघु - छोटा काष्ठ - लकड़ी स्थूल - मोटा तर्क - जानने-समझाने हेतु किया जाने वाला प्रयास या सुविचारित बात स्वभाव - प्रकृति अर्थ - कंकर छोटा होते हुए भी डूब जाता है और काष्ठ स्थूल होते हुए भी तैरता रहता है। ऐसा क्यों होता है यह मत पूछना क्योंकि यह उनका स्वभाव है और स्वभाव तर्क के अगोचर होता है।।13।। 14. कल्पकाल से चल रहे, विकल्प ये संकल्प। अल्पकाल भी मौन ले, चलता अन्तर्जल्प||14|| शब्दार्थ - कल्पकाल- बीस कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण एक कल्पकाल (काल का मान) होता है। विकल्प - मेरे तेरे पन का भाव या मन की ऊहापोह संकल्प - विचार अल्पकाल-थोड़ी देर अन्तर्जल्प - मानसिक चिन्तन अर्थ- संकल्प विकल्प कल्पकाल से चल रहे हैं। थोड़ी सी देर के | लिए मौन लेते ही अन्तर्जल्प (मानसिक चिन्तन) प्रारम्भ हो जाता है ।।14।। 15. सुचिर काल से सो रहा, तन का करता राग। उषा सम नर जन्म है, जाग सके तो जाग ||15|| शब्दार्थ - सुचिरकाल - लम्बा समय तन - शरीर राग - प्रीति उषा - भोर, सूर्योदय की लाली सम - समान अर्थ - हे मानव! तू तन से राग करता हुआ लम्बे समय से गहरी निद्रा में सो रहा है। यह मनुष्य जन्म उषा के समान है अब तो तू जाग जा ||15|| 16. दिन का हो या रात का, सपना सपना होय। सपना अपना सा लगे किन्तु न अपना होय ||16 || शब्दार्थ- सपना - स्वप्न होय - होता अर्थ - सपना तो सपना होता है फिर वह चाहे दिन में देखा जाए या रात में। सपना सबको अपना जैसा लगता है लेकिन वह कभी भी अपना नहीं होता| ।।16 ।। 17. दोष रहित आचरण से, चरण पूज्य बन जाय। चरण धूल तक सिर चढ़े, मरण पूज्य बन जाय।।17।। शब्दार्थ - आचरण - व्यवहार चरण – पैर अर्थ - यदि मनुष्य का आचरण दोष रहित हो तो उसके चरण पूज्य । हो जाते हैं। उसके चरणों की धूल तक को लोग अपने सिर पर चढ़ाते हैं। इतना ही नहीं, उसका मरण भी पूज्य बनजाता है। || 17 || 18. एक साथ दो बैल तो, मिलकर खाते घास। लोकतन्त्र पा क्यों लड़ों, क्यों आपस में त्रास ||18 || शब्दार्थ - लोकतंत्र - प्रजातंत्र (प्रजा का शासन) त्रास - कष्ट, पीड़ा अर्थ - जब दो पशु एक साथ मिलकर घास खा सकते हैं तो फिर मानव लोकतंत्र को प्राप्त करके भी आपस में संघर्ष कर क्यों कष्टों को आमंत्रण देता है। ।।18।। 19. बूंद बूंद के मिलन से जल, में गति आ जाये। सरिता बन सागर मिले, सागर बूंद समाय||19।। शब्दार्थ- गति - चाल, रफ्तार सरिता - नदी सागर - समुद्र समाय - समा जाती है। अर्थ - बूंद बूंद मिलकर जल गतिमान हो जाता है। नदी का रूप धारण करके सागर में मिल जाता है। एकमात्र अपनी मिलनशीलता के कारण बूंद सागर बन जाती है। ।।19।।
  22. आमंत्रण पत्र परम पूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ससंघ सानिध्य में परम पूज्य महाकवि "आचार्य ज्ञानसागर जी" के समाधी दिवस प्रसंघ पर उनकी अनुपम कृति "जयोदय महाकाल" पर आयोजित विव्दत्त संगोष्ठी - आप सदर सविनय आमंत्रित है | कृपया पधारकर पुण्यार्जन में सहभागी बनें | दिनांक - १४,१५ - मई - २०१८ प्रात : ७ बजे से स्थान - अतिशय क्षेत्र पपौरा जी निवेदक: क्षेत्र प्रबंधकारिणी समिति सकल जैन समाज टीकमगढ़ संयम स्वर्ण महोत्सव समिति
  23. 1. हाथ देख मत देख लो मिला बाहुबल पूर्ण। सदुपयोग बल का करो सुख पाओ सम्पूर्ण।।1।। शब्दार्थ - बाहुबल - सबल भुजाएँ सदुपयोग - अच्छी तरह उपयोग अर्थ - अपने हाथ की रेखाओं को मत देखो बल्कि अपनी सबल भुजाओं का अवलोकन करो और अपने बल का सदुपयोग करते हुए समस्त सुखों को प्राप्त करो ||1|| 2. देख सामने चल अरे, दिख रहे अवधूत। पीछे मुड़कर देखता, उसको दिखता भूत।।2।। शब्दार्थ - अवधूत - तीर्थंकर आदि महापुरुष भूत - बीता हुआ काल अर्थ - हे मानव! सामने देखकर चल तो तुझे तीर्थंकर आदि महापुरुष के रूप में अपना उज्ज्व ल भविष्य नजर आयेगा। जो पीछे मुड़कर देखता है उसे भूत के अलावा और कुछ नहीं दिखता।।2।। 3. उगते अंकुर का दिखा, मुख सूरज की ओर। आत्मबोध हो तुरत ही, मुख संयम की ओर।।3।। शब्दार्थ - सूरज - सूर्य आत्मबोध - आत्मज्ञान तुरत - तुरन्त संयम - पाँच इन्द्रियों और मन को वश मे करना तथा षट्काय जीवों की रक्षा करना अर्थ - वह बीज जो अंकुरित हो जाता है उसका मुख सूर्य की ओर हो जाता है। इसी तरह जीव को जब आत्मज्ञान हो जाता है। तो उसका मुख संयम की ओर हो जाता है।।3।। 4. हित - मित - नियमित - मिष्ट ही, बोल वचन मुख खोल। वरना सब सम्पर्क तज, समता में जा खोल ||4|| शब्दार्थ - हित - हितकारी मित - कम, थोड़े नियमित - सीमित मिष्ट - प्रिय तज - छोड़कर खोल - आवरण समता - साम्य भाव अर्थ - यदि मुख खोलना है तो हित मित प्रिय और सीमित वचन ही बोलें वरना सब प्रकार के सम्पर्क को छोड़कर समता की खोल में जाकर छिप जा ।।14।। 5. कूप बनो तालाब ना, नहीं कूप मंडूक। बरसाती मेंढक नाहीं, बरसो घन बन मूक ।।5।। शब्दार्थ - कूप - कुआँ मंडूक - मेंढ़क घन - बादल मूक - मौन अर्थ - यदि बनना है तो कूप बनो, तालाब मत बनो और कुएँ के मेंढक भी मत बनतो। न ही तुम बरसाती मेंढक बनो बल्कि बरसने वाले शीतल मेघ की तरह मौन रहकर दूसरों का भला करते रहो ।।5।। 6. हीरा मोती पद्म ना, चाहूँ तुमसे नाथ। तुम सा तम तामस मिटा, सुखमय बनूँ प्रभात।।6।। शब्दार्थ - तम - अंधकार तामस - अज्ञान प्रभात - सुबह अर्थ - हे भगवन्! मैं आपसे इस संसार में हीरा, मोती, पद्म जैसे रत्नों को नहीं चाहता हूँ। जिस प्रकार आपने अज्ञान रूपी अंधकार को नष्ट कर दिया, उसी प्रकार मैं भी अज्ञान रूपी अंधकार को नष्ट करके अपने जीवन को प्रातःकालीन प्रकाश के समान सुखमय बनाना चाहता हूँ। 7. सन्त पुरुष से राग भी, शीघ्र मिटाता पाप। उष्ण नीर भी आग को, क्या न बुझाता आप ||7|| शब्दार्थ - राग - चारित्र मोहनीय कर्म के उदय से इष्ट पदार्थों में प्रीति रूप परिणाम होना राग है। उष्ण - गर्म नीर - जल अर्थ - सन्त पुरुष के प्रति उत्पन्न राग भी पाप के नाश का कारण बनता है। जिस तरह जल उबलता हुआ हो तो भी अग्नि के शमन में कारण होता है ।।7।। 8. लगाम अंकुश बिन नहीं, हयगय देते साथ। व्रत श्रुत बिन मन कब चले, विनम्र करके माथ।।8।। शब्दार्थ - लगाम - घोड़े के मुँह में लगाया जाने वाला बाग समेत छड़ अंकुश - हाथी को वश में रखने का विशेष लोहे का काँटा हय, गय - हाथी - घोड़े व्रत - नियम, उपवास श्रुत - शास्त्र विनम्र - झुका हुआ, विनीत और सुशील माथ - मस्तक अर्थ - जैसे अंकुश के बिना हाथी और लगाम के बिना घोड़ा साथ छोड़ देते हैं उसी तरह व्रत और श्रुत के बिना मन विनम्रता पूर्वक सिर झुकाकर चलने की अनुमति नहीं देता ।।8।। 9. भले कूर्मगति से चलो, चलो कि ध्रुव की ओर। किन्तु कूर्म के धर्म को, पालो पल-पल और ||9|| शब्दार्थ - कूर्म - कछुआ ध्रुव - लक्ष्य, अटल, अचल पल - क्षण अर्थ - भले ही मंदगति से चलो लेकिन अपने लक्ष्य से कभी भी विमुख मत होओ। कछुए की चाल से चलना भी श्रेष्ठ है, यदि लक्ष्य से विमुख न होने का कछुए का दूसरा धर्म भी याद रहे ।।9।। 10. खुला खिला हो कमल वह, जब लौं जल संपर्क। छूटा सूखा धर्म बिन, नर पशु में ना फर्क।।10।। शब्दार्थ - सम्पर्क - संयोग, संसर्ग नर - मनुष्य फर्क - अन्तर अर्थ - कमल जब तक जल के संपर्क में रहता है तब तक खुलकर खिला रहता है जैसे ही उसका जल से संपर्क छूटता है वह सूख जाता है। इसी तरह मनुष्य जब तक धर्म के संपर्क में रहता है कमल की तरह विकसित रहता है और धर्म का संपर्क छूटते ही उसमें और पशु में कोई फर्क नहीं रहता ।।10।। 11. भू पर निगले नीर में, ना मेंढक को नाग। निज में रह बाहर गया, कर्म दबाते जाग।।11।। शब्दार्थ - भू - पृथ्वी नाग - सर्प अर्थ - जिस प्रकार सर्प मेंढक को जल में नहीं किन्तु पृथ्वी पर ही निगलता है उसी प्रकार कर्म प्राणी को निज में रहते हुए नहीं बाहर आने पर ही प्रभावित करते हैं अर्थात् जब मनुष्य अन्तर्जगत को छोड़कर बाह्य जगत की ओर दृष्टि करता है। तभी कर्म उसे सताते हैं ।।11।। 12. पेटी भर ना पेट भर, खेती कर ना आखेट। लोकतन्त्र में लोक का, संग्रह हो भरपेट ||12|| शब्दार्थ - आखेट - शिकार संग्रह - संचय, इकट्ठा करना अर्थ - हे मानव! पेटी भरने के लिए अनावश्यक संग्रह मत कर अपितु पेट भरने के लिए कृषि कार्य कर, शिकार मत कर मांसाहार का त्याग कर।प्रजातंत्र में लोगों को अपनी मूल आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु ही पर्याप्त संग्रह करना चाहिए ||12|| 13. सार–सार का ग्रहण हो, असार को फटकार | नहीं चालनी तुम बनो, करो सूप सत्कार ||13|| शब्दार्थ - असार - सारहीन फटकार - निकालकर दूर करना चालनी - छलनी सूप - अनाज पछोरने के लिए बॉस के छिलके से बना एक पात्र, छाज अर्थ - मनुष्य को वस्तु के सार को ग्रहण करने तथा निस्सार को निकाल दूर करने वाले सूप के समान बनना चाहिए, निस्सार वस्तु का ग्रहण करने वाली छलनी के समान नहीं ।।13।। 14. मात्रा मौलिक कब रही, गुणवत्ता अनमोल। जितना बढ़ता ढोल है, उतनी बढ़ती पोल ।।14।। शब्दार्थ - मौलिक - मूल्यवान, महत्त्व गुणवत्ता - गुण की महिमा अनमोल - अमूल्य पोल - खोखलापन अर्थ - किसी वस्तु की अधिक मात्रा का कोई महत्त्व नहीं होता अपितु महत्ता उसके गुण की होती है, गुण अमूल्य होते हैं। ढोल का जितना बड़ा आकार होता है उसके अन्दर खोखलापन उतना ही रहता है ।।14।। 15. दूर दिख रही लाल सी, पास पहुँचते आग। अनुभव होता पास का, ज्ञान दूर का दाग ||15।। शब्दार्थ - दाग - अस्पष्ट आग - अग्नि अर्थ - दूर से देखने पर लाल सा कुछ नजर आता है लेकिन जब पास पहुँचते है तो ज्ञात होता है कि आग है। दूर से पदार्थ का अस्पष्ट ज्ञान होता है जबकि निकटवर्ती पदार्थों का ज्ञान स्पष्ट होता है। ।।15।। 16. खिड़की से क्यों देखता, दिखे दुःखद संसार। खिड़की में अब देख ले, दिखे सुखद साकार ||16 || शब्दार्थ - दुःखद - दुःख देने वाला सुखद - सुख देने वाला अर्थ - हे साधक! तू नेत्र रूपी झरोखों से बाहर क्यों देखता है वहाँ तो तुझे दुःखद संसार ही दिखेगा। अब तू अपने अन्दर झाँक तुझे सुखद साकार आत्मा के दर्शन होंगे ।।16।। 17. स्वर्ण पात्र में सिंहनी, दूध टिके न अन्यत्र। विनय पात्र में शेष भी, गुण टिकते एकत्र।।17।। शब्दार्थ - स्वर्ण पात्र- सोने का बर्तन अन्यत्र - दूसरी जगह एकत्र - एक जगह अर्थ - जिस प्रकार सिंहनी का दूध स्वर्णपात्र में ही सुरक्षित रहता है अन्य किसी पात्र में नहीं, उसी प्रकार व्यक्ति के शेष सभीगुण विनयरूपी पात्र में ही एक जगह सुरक्षित रहते हैं। ||17|| 18. थक जाना ना हार है, पर लेना है श्वास। रवि निशि में विश्राम ले, दिन में करे प्रकाश ||18 || शब्दार्थ - रवि - सूर्य । निशि - रात में श्वास लेना - विश्राम लेना अर्थ - थक जाने का नाम हार जाना नहीं है बल्कि दो पल को विश्राम लेना मात्र है। जिस प्रकार सूर्य रात में विश्राम करता है और दिन में प्रकाश करता है। ।।18।। 19. यम दम शम सम तुम धरो, क्रमशः कम श्रम होय। नर से नारायण बनो, अनुपम अधिगम होय ||19।। शब्दार्थ - यम - हमेशा के लिए ग्रहण किये गये व्रत दम - इन्द्रिय दमन शम - क्षमा सम - समता अनुपम - उपमा रहित, सर्वोत्तम, बेजोड़ अधिगम - ज्ञान अर्थ - हे साधक! तुम हमेशा के लिए व्रत ग्रहण कर, इन्द्रियों का दमन कर, क्षमा और समता धारण कर तथा तुम्हारी धीरे धीरे योग की प्रवृत्ति भी कम हो। तुम इस तरह नर से नारायण बनो और तुम्हें केवलज्ञान की प्राप्ति हो ।।19।। 20. स्वीकृत हो मम नयन ये, जय-जय-जय-जयसेन। जैन बना अब जिन बनूं, मन रहता दिन रैन।।20।।
  24. 1. सीधे सीझे शीत हैं, शरीर बिन जीवन्त। सिद्धों को मम नमन हो, सिद्ध बनँ श्रीमन्त।।1।। शब्दार्थ - सीझे - प्राप्त कर लिया जीवन्त - चैतन्य स्वरूप मम - मेरा सीधे - सरल, ऋजु अर्थ - सिद्ध भगवान जिन्होंने ऋजुगति से मोक्ष को प्राप्त किया है, जो अशरीरी चैतन्यस्वरूप हैं, उन्हें मैं मन वचन काय की शुद्धिपूर्वक श्री सम्पन्न-अनन्त सुख का भोक्ता बनने हेतुनमन करता हूँ ।।1।। 2. वचन–सिद्धि हो नियम से, वचन-शुद्धि पल जाये। ऋद्धि-सिद्धि परसिद्धियाँ, अनायास फल जायें।।2।। शब्दार्थ - ऋद्धि - हर तरह की सम्पन्नता या वैभव सिद्धि - अलौकिक शक्तियाँ पर सिद्धियाँ - अन्य सिद्धियाँ अनायास - बिना प्रयत्न के, स्वतः अर्थ - वचन की सिद्धि हो जाने पर वचन की शुद्धि नियम से पल जाती है और फिर ऋद्धि-सिद्धि और अन्य सिद्धियाँ भी बिना प्रयास के फलने लगती हैं ।।2।। 3. प्रभु दिखते तब और ना, और समय संसार। रवि दिखता तो एक ही, चन्द्र साथ परिवार।। 3।। शब्दार्थ - प्रभु - भगवान रवि - सूर्य अर्थ - भक्त को जब भगवान दिखते हैं तो और कुछ नहीं दिखता। जब और कुछ दिखता है तो संसार दिखता है। जैसे सूर्य नजर आता है तो और कुछ नजर नहीं आता लेकिन जब चन्द्रमा दिखता है तो उसके साथ उसका सारा परिवार नजर आता है।।3।। 4. भाँति-भाँति की भ्रान्तियाँ, तरह-तरह की चाल । नाना नारद नीतियाँ, ले जाती पाताल ||4|| शब्दार्थ - भाँति-भाँति - विभिन्न प्रकार भ्रान्तियाँ - अनेक प्रकार के भ्रम या सन्देह | पाताल - नरक नीतियाँ - तरकीब अर्थ - विभिन्न प्रकार की भ्रान्तियाँ, तरह-तरह की चालें और नारद नीतियाँ व्यक्ति को नरक में ले जाती हैं ।।4।। 5. मानी में क्षमता कहाँ, मिला सके गुणमेल ।। पानी में क्षमता कहाँ, मिला सके घृत तेल ।।5।। शब्दार्थ - मानी - अहंकारी क्षमता - सामर्थ्य घृत - घी अर्थ -अहंकारी में इतनी क्षमता नहीं होती कि वह गुणों को पा सके। पानी में क्षमता नहीं होती कि वह घी और तेल को मिला सके ||5|| 6. स्वर्गों में ना भेजते, पटके ना पाताल। हम तुम सबको जानते, प्रभु तो जाननहार||6|| शब्दार्थ- - जाननहार - केवलज्ञानी अर्थ - भगवान न किसी को स्वर्ग भेजते हैं न ही नरक में पटकते हैं। वे हम सबको मात्र जानने वाले केवलज्ञानी हैं ।। 6 ।। 7. चमक दमक की ओर तू, मत जा नयना मान। दुर्लभ जिनवर रूप का, निशिदिन करता पान।।7।। शब्दार्थ - नयना - आँखें निशि दिन - रात-दिन दुर्लभ - कठिनता से प्राप्त होने वाला अर्थ - हे नयनों! तुम चमक दमक की ओर मत जाओ। मेरी इस बात को मान जाओ। तुम जिनेन्द्र देव के दुर्लभ रूप का रात-दिन पान करो।।7।। 8. चिन्तन से चिन्ता मिटे, मिटे मनो मल मार। प्रसाद मानस में भरे, उभरें भले विचार ||8|| शब्दार्थ - मल - मलिनता प्रसाद - प्रसन्नता, कृपा मानस - मन भले विचार - उत्तम विचार अर्थ - चिन्तन करने से चिन्ता नष्ट हो जाती है और मन की मलिनता नष्ट हो जाती है। मन कृपा से भर जाता है और सदा उत्तम विचारों को जन्म देता है ।।8।। 9. रही सम्पदा आपदा, प्रभु से हमें बचाय। रही आपदा सम्पदा, प्रभु में हमें रचाय ।।9।। शब्दार्थ - सम्पता - सम्पत्ति आपदा - आपत्ति बचाय - बचाती है अर्थात् दूर ले जाती है रचाय - मिलाती है। अर्थ - वह सम्पदा जो प्रभु से दूर ले जाती है, वह सम्पदा नहीं, आपदा है और वह आपदा जो प्रभु से मिलाती है, वह आपदा नहीं, सम्पदा है।।9।। 10. कटुक मधुर गुरु वचन भी, भविक चित्त हुलसाय।। तरुण अरुण की किरण भी, सहज कमल विकसाय ||10|| शब्दार्थ - कटुक - कड़वा मधुर - मीठा भविक - भव्य जीव चित्त - मन हुलसाय - हर्षित कर देता है तरुण - जवान अरुण - सूर्य विकसाय - विकसित कर देती है। अर्थ - गुरु के वचन कटुक हों अथवा मधुर, भव्य जीवों के चित्त को हर्षित कर देते हैं। उसी तरह जैसे तरुण सूर्य की किरणें भी सहज ही कमल को विकसित कर देती हैं ।।10।। 11. वेग बढ़े इस बुद्धि में, नहीं बढ़े आवेग। कष्टदायिनी बुद्धि है, जिसमें ना संवेग ।। 11 ।। शब्दार्थ - वेग - तीव्रता, प्रचण्डता, प्रवाह आवेग - जोश, बिना सोचे-समझे कर बैठने की अंतः प्रेरणा कष्टदायिनी - पीड़ा देने वाली संवेग - मनोवेग, अतिरेक अर्थ - बुद्धि में तीव्रता आये लेकिन आवेग नहीं । बुद्धि कष्टदायिनी हो जाती है, जब उसमें संवेग नहीं होता ।।11।। 12. शास्त्र पठन ना गुणन से, निज में हम खो जाय। कटि पर ना पर अंक में, माँ के शिशु सो जाय ||12 || शब्दार्थ - निज - अपना कटि - कमर अंक - गोद पठन - पढ़ना गुणन - आचरण से अर्थ - शास्त्र पढ़ने से नहीं अपितु गुणने से आत्मा में लीन होना सम्भव है। माँ की कमर पर नहीं अपितु गोद में आते ही शिशु सो जाते हैं।।12।। 13. सुधी पहनता वस्त्र को, दोष छुपाने भ्रात। किन्तु पहन यदि मद करे, लज्जा की है बात ||13|| शब्दार्थ - सुधी - बुद्धिमान भ्रात - भाई मद - घमण्ड लज्जा - शर्म अर्थ - हे भाई! बुद्धिमान मनुष्य दोष छुपाने के लिए वस्त्र धारण करता है किन्तु यदि वस्त्र पहनकर रूप का मद करने लगता है तो यह लज्जा की बात है।।13।। 14. आगम का संगम हुआ, महापुण्य का योग। आगम का हृदयंगम तभी, निश्छल हो उपयोग।।14।। शब्दार्थ - आगम - प्रवचन/जिनेन्द्र भगवान के द्वारा कहे गए समस्त पदार्थों को प्रकाशित करने वाले वचन को आगम कहते हैं। संगम - मेल, मिलना, संयोग हृदयंगम - मन में उतरना निश्छल - छल रहित उपयोग - जीव का जो भाव वस्तु के ग्रहण करने के लिए प्रवृत्त होता है। अर्थ - आगम पढ़ने या सुनने को मिलना यह महान पुण्य का योग है और जिसने आगम को हृदयंगम कर लिया उसका उपयोग निश्छल हो जाता है।14।। 15. विवेक हो ये एक से, जीते जीव अनेक। अनेक दीपक जल रहे, प्रकाश देखो एक।।15।। शब्दार्थ - विवेक - भले-बुरे का ज्ञान, सत्यज्ञान अर्थ -ये जो अनेक जीव जी रहे हैं ये सभी एक समान है, इस तरह का विवेक सभी को होना चाहिए। जिस तरह दीपक अनेक जलते हैं लेकिन प्रकाश एक ही होता है।।15।। 16. खण्डन–मण्डन में लगा, निज का ना ले स्वाद। फूल महकता नीम का, किन्तु कटुक हो स्वाद ।।16।। शब्दार्थ - खण्डन - गलत ठहराना मण्डन - अपने पक्ष का प्रतिपादन कटुक - कड़वा महकता - सुगन्धित होता हुआ अर्थ - जो खण्डन–मण्डन में लगा रहता है वह निज का स्वाद कभी भी नहीं ले पाता। जैसे फूल सुगन्धित होते हुए भी नीम स्वयं में कड़वा होता है ।।16।। 17. नीरनीर को छोड़कर, क्षीर-क्षीर का पान। हंसा करता भविक भी, गुण लेता गुणगान ||17 || शब्दार्थ - नीर - पानी क्षीर - गुरु भविक - भव्य जीव अर्थ - जिस तरह हंस नीर को पृथक् करके दूध का पान कर लेता है उसी प्रकार भव्य जीव भी गुणों को ग्रहण कर गुणगान करना जानता है।।17।। 18. चिन्तन मन्थन मनन जो, आगम के अनुसार। तथा निरन्तर मौन भी, समता बिन निस्सार ||18 || शब्दार्थ - चिन्तन - मन ही मन में किया जाने वाला। विवेचन या विचार मनन - विचार करना मन्थन - गूढ़ तत्त्व की छानबीन समता - साम्य, समभाव रखना निस्सार - निरर्थक, सारहीन अर्थ - यदि समता का अभाव है तो आगम के अनुसार चिन्तन, मन्थन और मनन करना तथा निरन्तर मौन साधना करना भी निरर्थक है ।।18।। 19. पके पत्र फल डाल पर, टिक ना सकते देर। मुमुक्षु क्यों ना निकलता, घर से देर सबेर ||19।। शब्दार्थ - पत्र - पत्ता मुमुक्षु - मोक्ष की इच्छा रखने वाला अर्थ - पके फल और पत्ते अधिक समय तक डाल पर नहीं टिकते, गिर ही जाते हैं। फिर मोक्ष का अभिलाषी इस बात के मर्म को समझते हुए देर से ही सही कुछ समय बाद घर त्याग क्यों नहीं कर देता ।।19।। 20. तव-मम तव-मम कब मिटे, तरतमता का नाश। अन्धकार गहरा रहा, सूर्योदय ना पास।। 20 ।। शब्दार्थ - तव - तेरा मम - मेरा तरतमता - अच्छे बुरे का भेद अर्थ - तेरा-मेरा, तेरा-मेरा कब समाप्त होगा और कब मैं अच्छे-बुरे का भेद समाप्त कर पाऊँगा। क्योंकि अंधकार बहुत गहरा है। सूर्योदय भी बहुत दूर है ।। 20।।
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