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विवाह की उपयोगिता


संयम स्वर्ण महोत्सव

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विवाह का मूल उद्देश्य

 

आजकल के नव विचारक लोगों का कहना है कि विवाह की क्या आवश्यकता है वह भी तो एक बन्धन ही तो है। बन्धन से मुक्त हो रहना मानवता का ध्येय है। फिर जानबूझकर बन्धन में पड़ा रहना कहां की समझदारी है। स्त्री और पुरुष दोनों को दाम्पत्य जीवन में विहीन होकर सर्वथा स्वतंत्र रहना चाहिए। ठीक है, विवाह वास्तव में बन्धन है परन्तु विचार यह है कि उससे मुक्त हो रहने वाला जावेगा कौन से मार्ग से? अगर वह ब्रह्मचर्य से ही रहता है जब तो ठीक है, उसे विवाह करने के लिए कौन बाध्य करता है? मगर ऐसा तो सभी स्त्री पुरुष कर नहीं सकते हैं।

 

जिसने अपनी वासना के ऊपर नियंत्रण पा लिया हो ऐसा कोई बिरला व्यक्ति सही कर सकता है। बाकी स्त्री पुरुष तो अपनी वासनातृप्ति के लिए दौड़ लगाएंगे। फिर उनमें और पशुओं में अन्तर ही क्या रह जायेगा? बल्कि पशुओं का एक तरह से निर्वाह भी है। क्योंकि वे लोग विवाह बन्धन से नहीं तो प्राकृतिक बन्धन से तो बधे हुए रहते हैं। इस बारे में वे अपनी सीमा से बाहर कभी नहीं होते, परन्तु मनुष्य में ऐसी बात नहीं है तथा वह एकान्त सौन्दर्य का उपासक होता है, जब तक सौन्दर्य है। तब तक की एक दूसरे को याद करता है, फिर कौन किसी को क्यों पूछेगा तो कैसे निर्वाह होगा? किन्तु मनुष्य एक सामाजिक जीवन बिताने वाला प्राणी है। सामाजिकता का मूल आधार विवाह संबंध का होना ही है। अत: उसे सुचारू रखना समझदारों का कर्तव्य है। हां, वर्तमान में उसमें जो खराबियां आ घुसी है उनको दूर करना परमावश्यक है।

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