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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

शिल्प कला


संयम स्वर्ण महोत्सव

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शिल्प कला

 

यद्यपि खाने पीने और पहनने ओढ़ने वगैरह की, हमारे जीवन निर्वाह योग्य चीजें सब खेती करने से प्राप्त होती हैं, जमीन जोतकर पैदा कर ली जाती है, फिर भी इतने मात्र से ही वे सब हमारे काम में आने लायक हो रहती हों सो बात नहीं, किन्तु उन्हें रूपान्तर करने से उपयोग में लाई जाती हैं, जैसे कि खेत मैं उत्पन्न हुए अन्न को पीसकर उसकी रोटियां बनाकर खाई जाती हैं अथवा उसे भूनकर चबाया जाता है। कपास को चरखी में से निकालकर उसे पींजकर फिर उसे चरखें से कातकर सूत बनाया जाता है और बाद में उसका कर्मे के द्वारा वस्त्र बुनकर पहिना जाता है। तिलों को पीसकर तेल बनाया जाता है। इत्यादि सब शिल्पकला कहलाते है जो कि अनेक प्रकार की होती है।

 

इस शिल्पकला के विकास में भी हमारे पूर्वजों ने तो अहिंसा की पुट रखी थी। एक कोल्हू में दिन भर में एक मन तिल पिलते थे, जिसमें कम से कम एक बैल और एक आदमी लगाकर उनके निर्वाह का ध्यान होता था, आज की दशा उसके बिल्कुल विपरीत है। आज इसके लिए पशु की तो कोई जरूरत ही नहीं समझी जाती, मिलों में लोगों को मशीन से कई मन तिले के ही आदमी के द्वारा फोड़ डाले जाते हैं। आजः प्रायः हर एक बात में हर जगह ऐसा होता हआ देखा जाता है जहां पैसे से पैसा बटोरा जाता है जो कि एक श्रीमान के यहां आकर इकट्ठा हो जाता है और सब भाई बहिन बेकार होकर भूखे मरने लग रहे हैं। इस प्रकार आज का शिल्प आम प्रजा के लिए जीवनोपाय न रहकर जीवन घातक बनता जा रहा है। शिल्प को बोलचाल की भाषा में दस्तकारी कहते है। जिसका अर्थ होता है हाथ से काम करना। परन्तु आज तो वही सारा काम हाथ से न किया जाकर लोह यंत्रों से किया जा रहा है। जिससे विकिरण तो अधिक मात्रा में होता है और आवश्यक वस्तुएं भी सुलभ से दुर्लभतर होती चली जा रहा हैं एवं इसी प्रलोभनवश आज के लोग प्रसन्नतापूर्वक इसी मार्ग को अपना रहे है।

 

फिर भी जरा गहराई से सोचकर देखा जावे तो इसमें देश की महत क्षति हो रही है। उदाहरण के तौर पर, जब कि मुद्रणालय नहीं थे, लोग हस्तलिखित पुस्तकों से काम लेते थे तो प्राय: आदमी लिखने का अभ्यासी था और पुस्तक का बड़ी सावधानी के साथ रखता था। एक पुस्तक से ही वर्ष दो वर्ष तक ही नहीं सकैड़ो हजारो वर्षों तक काम निकलता था तथा जिस विद्या को पढ़ लेता था उसे अवश्य याद रखता था। आज स्वयं लिखने का तो काम ही उठ गया, जब जरूरत हुई मुद्रणालय से पुस्तक खरीद ली जाती हैं। प्रत्येक विद्यार्थी के पढ़ने के लिए जब तक कि वह पुस्तक को पढ़कर समाप्त करता है। उतने समय में उसकी अनेक प्रतियां फटकर रद्दी बन जाती है एवं उसकी वह विद्या फिर भी पुस्तकस्थ ही रह जाती है। एये एयकस बहुत कम अंश याद हो पाता है सो भी बहुत स्वल्पकालीन परीक्षा पास कर लेने तक के लिये । क्यों कि विचारधारा यह रहती है कि पुस्तक तो है ही, फिर याद रखने की क्या आवश्यकता है? जब जरूरत होंगी पुस्तक को देख लिया जावेगा। पहले जब रेल मोटर जैसा कोई आम साधन नहीं था तो लोग पैदल चलना जानते थे। हमारे देखने में भी बाज-बाज आदमी ऐसा था कि सुबह से शाम तक साठ पैंसठ मील तक की यात्रा कर लिया करता था। परन्तु जब रेल और मोटरों का आविष्कार हुआ तो लोग पैदल चलना भूल गये। जहां भी जाना हुआ कि बैठे रेल में या मोटर से और चल दिये। पैदल चलना एक प्रकार का अपराध समझा जाने लगा। अपने यहां से कहीं पांच मील की दूरी पर दूसरे गांव जाना हआ, अपने गांव से रेल स्टेशन से एक डेढ़ मील दूर है, उधर जिस गांव को जाना है। वह भी स्टेशन से एक-डेढ़ मील की दूरी पर है फिर भी रेल में बैठकर कर चलना।

 

भले ही रेल के आने में एक-डेढ़ घण्टे की देर हो तो मुसाफिर खाने में बैठकर उसकी प्रतीक्षा में लगा देना मगर पैदल चलकर उस गाँव नहीं पहुंचना। भले ही रेल में बैठने की जगह न हो तो हैण्डिल पकड़कर लटकते हुए ही चलना पड़े। जब से साईकिलों का प्रदुभाव हुआ तब से तो और भी शोचनीय परिस्थिति हो गयी शौच को भी जाना हुआ तो साईकिल लेकर चले, मानो चलने के लिए प्रकृति ने पैर दिये ही न हों। मतलब जैसे-जैसे साधन सामग्री की सुलभता होती चली गई वैसे-वैसे मनुष्य अकर्मण्य होता जाकर प्रत्युत आवश्यकताओं से घिरता जा रहा है और जीवन शांति के बदले अशांतिमय हो गया है।

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