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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. पिछले नौ पाठों के माध्यम से आचार्यश्रीजी के बाह्य एवं आभ्यंतरीय व्यक्तित्व से पाठकों को परिचित कराने का प्रयास किया गया। प्रस्तुत पाठ में उपसंहार रूप से कुछ शब्द गुरुचरणों में समर्पित है...। आचार्यश्रीजी के व्यक्तित्व को कुछ पन्नों में समेटना समुद्र के जल को चुल्लू में समेटने जैसी कोशिश होगी। जो भी उन्हें जिस भी दृष्टि से देखता है, उनमें गुण ही गुण नज़र आते हैं। आपके बहु आयामी व्यक्तित्व को देख बुद्धि ठहर-सी जाती है। कल्पना को क्षितिज प्राप्त नहीं हो पाता और अनायास ही पूजकों के समर्पित हो उठते हैं ये शब्द- परम पिता परमात्मा, पंचम युग के त्राता, ज्ञानी, ध्यानी, परमवीतरागी, अध्यात्मयोगी, ज्ञानानंदभोगी, वात्सल्य प्रेमी, प्रोत्साहनदाता, प्रातःस्मरणीय, विश्ववंदनीय, अनाशक्त महायोगी, प्रतिभा प्रणेता, अहर्निश उगते सूर्य, धर्म मस्तक, हृदय सम्राट...संत शिरोमणि आचार्यश्री १०८ विद्यासागरजी महाराज की जय...जय...जय..., जिनको सुनकर भारतीय वसुंधरा का कण-कण हर्षोल्लास से पूरित हो मानो नृत्य करने लगता है। आचार्य श्री विद्यासागरजी अध्यात्म रूपी गंगा में पल-पल स्नान करने वाले श्रमण हैं। आगमिक सिद्धांतों के गूढ़ रहस्यों को उद्घाटित करने से आपका मस्तिष्क ऊर्जित होता रहता है। वह प्राचीन आचार्यों के मूल भावों से परिचित ही नहीं वरन् अनुभूत भी हैं। तीर्थंकरों के जैसी आप की चर्या है। आपके बहुमुखी व्यक्तित्व को देखकर, आध्यात्मिक संत होते हुए भी आपके व्यक्तित्व को मात्र आध्यात्मिकता की परिधि में नहीं पिरोया जा सकता। आपको देख कर लगता है कि आपको आध्यात्मिक संत कहें या राष्ट्रसंत, विश्वसंत कहें या सर्वोदयी चिंतक संताधिराज...क्या कहें ...? अकथ्य को कथ्य कैसे करें? अनिर्वचनीय का वाचन कैसे करें ? ऐसा लगता है कि किसी दिव्यात्मा ने इस युग के (प्राणियों के) पुण्य के फल स्वरूप ही स्वर्ग से च्युत होकर उन्हें सत्पथ दिखाने के लिए यहाँ जन्म लिया है। जो उनके एक बार दर्शन करता है, वह उन्हीं का हो जाता है। बार-बार दर्शनों की प्यास बनी रहती है। जीवन में कुछ क्षण ऐसे होते हैं, जो क्षणिक होकर भी अपनी स्मृतियाँ शाश्वत संजीवित छोड़ जाते हैं, आचार्यश्रीजी के दर्शनों से ऐसी ही शाश्वत स्मृतियाँ बनती हैं। परिवार के बड़े भैया महावीर, शांताजी, सुवर्णाजी एवं संघस्थ ज्येष्ठ-श्रेष्ठ मुनि श्री योगसागरजी के श्रीमुख से जब आचार्य भगवन् के आरंभिक जीवन प्रसंगों को सुना। आचार्य श्री ज्ञानसागरजी के समयवर्ती समर्पित श्रावकों द्वारा लिखित संस्मरण और सन् १९६७, ६८, ६९... आदि सन् के अजमेर के जैन गजट, जैन मित्र, जैन संदेश एवं सन् १९७८ का समाचार पत्रक' आदि को टटोला, उनके समय के लोगों से संपर्क किया। तो मन हतप्रभ रह गया। वर्धमान एवं अवस्थित चारित्र के धनी हैं आचार्य श्री विद्यासागरजी। संयमी जीवन के आरंभिक दशा में व्रतों के पालन के प्रति जैसे अप्रमादी थे, आज वृद्धावस्था में भी वैसे ही अप्रमादी हैं। व्रतों के प्रति उनका उत्साह देखकर युवा श्रमण शिक्षा ले रहे हैं। आचार्य श्री विद्यासागरजी वर्तमान के वह जीवंत इतिहास हैं जिनमें तीर्थंकर भगवंत की छवि है, जिनकी चर्या में आगम का रूप है, जिनके व्यक्तित्व में महापुरुषत्व का वास है, राष्ट्र, समाज एवं मानव मात्र को दिशा बोध देने की अलौकिक क्षमता है। उनके व्यक्तित्व की स्वर्णिम आभा से यह युग आलोकित हो रहा है। उनके द्वारा न केवल श्रमण संस्कृति अपितु समग्र भारतीय संस्कृति पल्लवित पुष्पित हो रही है। निश्चित ही यह युग आपके विराट व्यक्तित्व के कारण कालांतर में ‘संतशिरोमणि युग' के नाम से विख्यात होगा। युग बीतते हैं, सृष्टियाँ बदलती हैं, कई युगदृष्टा जन्म लेते हैं। उनमें से कुछ की सिर्फ़ स्मृतियाँ शेष रह जाती हैं और कुछ अपने व्यक्तित्व की अमर गाथाओं से चिर स्थाई बन जाते हैं। आचार्यश्रीजी ऐसे ही युगस्तंभ हैं, जिनके चरित्र की गाथाएँ युगों-युगों तक जनमानस को आलोकित करती रहेंगी। आपका व्यक्तित्व श्रमण एवं सामान्य सभी के लिए प्रेरणा का स्रोत बनेगा। दिव्यपुरुष आचार्यश्रीजी का ‘जीवन चरित्र' सोने की स्याही से वज्र की लकीर सम चिरस्थाई लिखा जाएगा। अंत में हम इतना ही कहना चाहते हैं कि जिन-जिन साधर्मी बंधुओं ने अभी तक आचार्यश्रीजी के दर्शनों का लाभ प्राप्त नहीं किया हो, वे विलंब न करें। और इस युग में जन्म लेने के सौभाग्य से स्वयं को वंचित न रखें। जिनबिंब निर्माण हेतु मिला शारीरिक मापदंड - अमरकंटक (शहडोल) मध्यप्रदेश में बनने वाले जिनालय हेतु भगवान् श्री ऋषभदेव की प्रतिमा का मॉडल बनाने वाले शिल्पी जगदीश परिहार, जबलपुर, मध्यप्रदेश के कथनानुसार, आचार्यश्रीजी को सामायिक मुद्रा में बैठा देखकर इस प्रतिमा हेतु मिट्टी से मॉडल बनाया था। कभी-कभी वह उस प्रतिमा के अंग-उपांगों का निर्माण करने हेतु आचार्यश्रीजी की मुद्रा का नाप करके उसके अनुपात से बड़ा करके बनाते थे। तब सन् १९९४ में इस निर्माण कार्य के समय संभवतः आचार्य श्री विद्यासागरजी के सिर की गोलाई- २२३ इंच, कंधों की दूरी- १३३ इंच, गले की गोलाई- १५३ इंच एवं बैठने पर घुटनों की दूरी३८३ इंच थी। आचार्य भगवन् के शारीरिक संरचना का माप सहजता से तो प्राप्त हो नहीं सकता था। धन्य है। उस शिल्पी को जिसके मन में आचार्यश्रीजी का माप लेकर मूर्ति निर्माण करने का विचार आया और आचार्यश्रीजी भगवान् की मूर्ति बनने में कारणभूत अपने शरीर के माप को देने से मनाही न कर सके, और प्राप्त हो गई दुर्लभतम जानकारी। आचार्यश्रीजी का ब्लड ग्रुप 'ए' है।२८ जनवरी, १९९९ के दिन आपकी ऊँचाई खड़ी अवस्था में- १६२.५ सेंटी मीटर तथा बैठी हुई अवस्था में- ८२.५ सेंटी मीटर थी। उस दिन का वजन-६४.५ किलो ग्राम था। मुनि श्री अभयसागरजी के मुख से व्यक्तित्व की कहती कहानी हस्तरेखाएँ सत्पथ पर बढ़ाती चरण की दिव्य रेखाएँ सुगम व दुर्गम राहों में मंज़िल तो पाकर रहेंगे कुछ जिज्ञासाओं के समाधान की प्यास - इतिहास साक्षी है कि दिगंबर श्रमण निष्पृही होते हैं। आचार्यश्रीजी तो निष्पृहशिरोमणि श्रमणाधिराज हैं। आपके अतीत से संबंधित कुछ प्रसंगों में द्वंद है। पर किसी का साहस ही नहीं हो पाता कि कोई उनसे उनकी जीवन यात्रा के विषय में स्पष्टत: कुछ पूछ सके। हाँ प्रसंगवशात् जब कभी उनके मुख से जो निःसृत हो जाए बस उतना ही पर्याप्त होता है। शेष विषय इतिहास के गर्भ में समाया रहता है। एक बार ‘वरिष्ठतम दिगंबर जैनाचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज से वीर के प्रधान संपादक रवीन्द्र मावल का साक्षात्कार' नामक एक छोटी-सी पुस्तक को पढ़ा, जिसमें (उसके पृष्ठ एक पर) उन्होंने प्रश्न किया- आचार्यश्री! किस घटना ने आपको वैराग्य की प्रेरणा दी ? आचार्यश्रीजी बाले- अपने विषय में बताने की आगम (शास्त्र) की आज्ञा नहीं है। संवेद्य को कथ्य नहीं बनाया जा सकता। फलतः कुछ जिज्ञासाएँ अभी भी हमारे सामने हैं- ब्रह्मचारी विद्याधर स्तवनिधि से आकर गुरुवर श्री ज्ञानसागरजी से कहाँ मिले थे ? - ‘ज्योतिर्मय निग्रंथ,' पृष्ठ २३ एवं विद्याधर से विद्यासागर' पृष्ठ ७३ में वह अजमेर के श्रावक कजौड़ीमलजी अजमेरा, अजमेर के साथ किशनगढ़ में मिले थे। जबकि शांतिलालजी बड़जात्या अजमेर, के संस्मरण के अनुसार वह अजमेर में रात के समय आए थे। तब गुरुवर श्री ज्ञानसागरजी नसिया में विराजमान थे। रात में ही उन्हें दर्शन प्राप्त हो गए थे। जैन गजट, अजमेर, ५ जून, १९६७ के समाचार अनुसार २९ मई, १९६७ को ज्ञानसागरजी का अजमेर में प्रवेश हुआ। एवं जैन गजट, अजमेर, २६ जून, १९६७ के अनुसार गुरुवर श्री ज्ञानसागरजी का केशलोंच २५ जून, १९६७ को नसियाजी अजमेर में हुआ था। ब्रह्मचारी विद्याधर के मित्र मारुति भैया के अनुसार वह लगभग ५-६ जून को स्तवनिधि से निकले थे एवं विद्याधर द्वारा मदनगंज-किशनगढ़ से भेजा गया पत्र जिनगौड़ा को ६ सितंबर, १९६७ को प्राप्त हुआ, जिसमें विद्याधर ने लिखा है कि उन्हें यहाँ (गुरुवर के पास) आए हुए ३ माह हो गए, २५ वें दिन मैंने महाराज का केशलोंच किया।' यह पत्र अंतर्यात्री पृ. १३५ पर देखा जा सकता है। इससे भी मारुति भैया द्वारा बताया गया समय लगभग ५/६ जून प्रमाणित होता है। किन्तु २६ जून, १९६७ के जैन गजट के अनुसार अजमेर में गुरुवर के केशलोंच के समाचार में विद्याधर का उल्लेख नहीं है। इन सब साक्ष्यों के आधार पर ब्रह्मचारी विद्याधर यदि ८-९ जून को अजमेर पहुँचे तो गुरुवर वहीं पर विराजमान थे। मई के अंतिम सप्ताह में आने पर संभव है गुरुवर किशनगढ़ में मिले हों। दिगम्बर जैन पथ, शरद पूर्णिमा विशेषांक, वर्ष-२, अंक-१/माह अक्टूबर-दिसम्बर, २०१३, पृष्ठ- २१ ‘यात्रा शीर्षक' में प्रकाशित साक्षात्कार के अनुसार ब्रह्मचारी विद्याधर रात्रि ११/१२ बजे एक ब्रह्मचारी के घर अजमेर पहुँचे, और अगले दिन तक वहाँ रहे। यदि गुरुवर श्री ज्ञानसागरजी महाराज अजमेर में थे तो ब्रह्मचारीजी के यहाँ क्यों ठहरे थे ? इस प्रकार की कुछ जिज्ञासाएँ हमारे सामने हैं। हमारी प्रार्थना है, उन सभी से जिन्हें आचार्य भगवंत का सान्निध्य एवं सामीप्य प्राप्त होता है। वह इन कड़ियों को स्पष्ट कर सकने का प्रयास अवश्य करें। ताकि वर्तमान के महापुरुष का स्वर्णिम इतिहास संभावना के ऊहापोह में न रह कर वास्तविकता के आधार पर रचा जाए। आचार्यश्रीजी के वैशिष्ट्य पूर्ण व्यक्तित्व के कारण लोग उनका नाना नामों से गुणगान करते हैं। महान् रचनाकार आचार्य श्री विद्यासागरजी की जन्म भूमि सदलगा (चिक्कोड़ी) होने से सारा जगत् इन्हें ‘सदलगा के संत' कहता है। आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज के शिष्य एवं अतुल ज्ञान के भण्डारी होने से उन्हें ज्ञान का सागर कहते हैं। कुण्डलपुर वाले ‘बड़े बाबा' के बड़े भक्त होने की अपेक्षा सभी भक्त गण इन्हें ‘छोटे बाबा' कहते हैं। संतों के सरताज होने से इन्हें ‘संत शिरोमणि' कहा जाता है। वैसे तो वह ‘आचार्यश्री' कहने मात्र से जाने जाते हैं। गुरु से हम चरणानुरागियों को क्या नहीं मिला, पर उन्हें कुछ भी देने में सर्वदा असमर्थ रहे। आज इस ‘संयम स्वर्ण महोत्सव' वर्ष पर प्रभु से एवं गुरु से प्रार्थना है हम गुरुचरणानुरागियों की कि गुरुवर का यह ‘परमोज्ज्वल जीवन चरित्र' आगामी काल में शीघ्र ही तीर्थंकर के पूर्व भवों का यशोगान बनकर गाया जाऐ। और हम सभी आपके समवशरण में ही केवलज्ञान को प्राप्त कर मुक्तिरमा का वरण कर सकें। बस....। अकथनीय का कथन करना कथाकार की असमर्थता की कहानी को प्रगट करता है। फिर भी सागर को जलांजली देने की लोकोक्ति लोक में देखी जाती है। जो आचार्यश्रीजी को नहीं जानते उनके लिए आचार्यश्रीजी का व्यक्तित्व शब्दों से वर्णनातीत है। पर जो उन्हें जानते हैं वे यह भी जानते हैं कि सभी शब्द उनके चरित्र चित्रण के लिए फ़ीके हैं।
  2. अट्ठाईस मूलगुणों का पालन करने वाले साधक ही श्रमण' संज्ञा से सुशोभित होकर मुक्ति रमा का शीघ्र वरण करते हैं। प्रस्तुत पाठ में कहे जाने वाले पाँच महाव्रत, पाँच समिति, पंच इन्द्रियनिरोध/जय तथा षट् आवश्यक के अतिरिक्त केशलोंच, आचेलक्य, अस्नान, भूमिशयन, अदंतधावन, स्थितिभोजन एवं एक भक्त भोजन रूप शेष सात मूलगुणों के परिपालन पूर्वक श्रमणों में २८ मूलगुणों की अशेषता( पूर्णता) हो जाती है। आचार्यश्रीजी के जीवन में मूलगुणों की अशेषता को प्रकट करने वाले कुछ प्रसंग इस पाठ में दर्शाए जा रहे हैं। रत्नत्रय सुरक्षा कवच : शेष सात गुण वैराग्य का अक्षय पुंज : केशलोंच आगम की छाँव वियतियचउक्कमासे.. .............. उबवासेणेव कायव्वो ॥२९॥ प्रतिक्रमण सहित दिवस (दिन) में दो, तीन या चार माह में उत्तम, मध्यम या जघन्य रूप लोंच उपवास पूर्वक ही करना चाहिए। लोचेन प्रकटं.........................निर्ममता परा।।१२७५, १२७६ ।। केशलोंच करने से मुनियों की सामर्थ्य प्रकट होती है, जिनलिंग (रूप) प्रकट होता है, अहिंसा व्रत की वृद्धि होती है और कायक्लेश नाम का तपश्चरण होता है। इससे वैराग्य की वृद्धि होती है, राग रूप शत्रु नष्ट होता है और शरीर से होने वाले निर्ममत्व की भी अत्यंत वृद्धि होती है। आचार्यश्री का भाव केशलोंच करने से क्लेश नहीं होता, उससे तो क्लेश को ही संक्लेश हो जाता है। केशलोंच में चार माह का उल्लंघन नहीं करना चाहिए। उसके भीतर ही कर लेना चाहिए। केशलोंच में खून भी निकलता है,राख आदि की याचना भी होती है। अतः केशलोंच के बाद प्रतिक्रमण एवं प्रायश्चित्त स्वरूप उपवास किया जाता है। रात में चींटी आदि जीवों की भी हिंसा हो सकती है, इसलिए दिन में ही करने को कहा है। आचार्य महाराज(आचार्यश्री ज्ञानसागर जी) कहते थे-‘केशलोंच व प्रतिक्रमण स्वाश्रित होना चाहिए। स्वाभिमान जागृत रखो, अपनी शक्ति को छुपाओ नहीं। ये ध्यान रखना, स्वाध्याय एवं उपवास को मूलगुण में नहीं रखा । बेला-तेला (एक साथ दो और तीन उपवास) कर लो और केशलोंच नहीं। केशलोंच तो मूलगुण है, उसे तो अपने हाथों से करना चाहिए, चाहे वह चार घंटे में हो या आठ घंटे में। आचार्यश्री का स्वभाव उत्कृष्ट केशलोंचकर्ता - केशलोंच करने की समय सीमा जघन्य से ४ माह, मध्यम से ३ माह एवं उत्कृष्ट से २ माह कही गई है। दो महीने में केशलोंच अतिशयरूप आचरण को सूचित करने वाला होने से उत्कृष्ट कहलाता है।(२ माह में केश अत्यंत छोटे होते हैं, | हाथों से जिनकी पकड़ बड़ी ही मुश्किल से बन पाती है। और प्रत्येक २ माह में अपने केशों का कुंचन (उखाड़ना) एक आत्मस्थ साधक ही कर सकता है। आचार्यश्रीजी इस क्रिया को कायक्लेश तप का सबसे अच्छा साधन मानकर, सन् १९८0, सिद्धक्षेत्र मुक्तागिरि चातुर्मास से प्रत्येक २ माह में ही केशलोंच करते हैं। आचार्यश्रीजी का मुनि अवस्था का प्रथम केशलोंच, १८ अक्टूबर, १९६८ अर्थात् ३ माह, १७ दिन के बाद अजमेर, राजस्थान में हुआ था और दूसरा केशलोंच, जनवरी, १९६९ में अर्थात् २ माह, २१ दिन में महावीर मार्ग, केसरगंज में हुआ था। आचार्यश्रीजी ने मुनि दीक्षा के पूर्व ब्रह्मचारी अवस्था में भी तीन बार केशलोंच किए। ब्रह्मचारी विद्याधर ने दूसरा केशलोंच दादिया, अजमेर, राजस्थान में फरवरी, १९६८ में किया था। उनके बाल काले, घने और धुंघराले थे। बड़ी कठोरता से राख (भस्म) का उपयोग किए बिना ही केशलोंच किए। जब आचार्य श्री ज्ञानसागरजी ने उनसे पूछा- ‘ब्रह्मचारीजी! आपने बिना भस्म के केशलोंच क्यों कर लिए, भस्म ले लेते तो यह लहु तो नहीं आता?' तब विद्याधरजी बोले- ‘एक बार ऐसा भी करके देखना था। धन्य है आचार्यश्रीजी की निरीहता को, जो शरीर के प्रति ममत्व को छोड़कर उत्कृष्ट रूप से केशलोंच करते हैं। आगम में जब कहा, तब करो - अप्रैल-मई, १९७६, कटनी (जबलपुर, मध्यप्रदेश) के ग्रीष्मकाल प्रवास में आचार्यश्रीजी को मलेरिया हो गया। बुखार १०६-१०७ डिग्री तक होने लगा। शरीर अत्यधिक शिथिल हो गया। इसी बीच केशलोंच करने की समयावधि भी होने को थी। जिस समय वह एक कदम भी चलने में समर्थ नहीं थे, उस स्थिति में उपवास पूर्वक केशलोंच करना शुरू कर दिया। पर दृढ़ीमन का साथ शरीर न दे सका, फलतः शेष केशलोंच संघस्थ ब्रह्मचारी भीमसेनजी (वर्तमान मुनि श्री भूतबलिसागरजी महाराज) से करवाने पड़े। पर उन्होंने आगमोक्त समयावधि का उल्लंघन नहीं किया। जब से संकल्प, तब से निर्जरा - ७ मार्च, २००१, कुंडलपुर, आचार्यश्रीजी आहार चर्या हेतु मंदिरजी में आए, उन्होंने सिद्धभक्ति ही कर पाई कि पेट गड़बड़ होने लगा। आचार्यश्रीजी मंदिरजी से वापस चले गए और उस दिन उन्होंने उपवास कर लिया। सायं को उन्होंने केशलोंच हेतु राख के लिए इशारा किया (गौरतलब है कि आचार्यश्रीजी ‘राख' के लिए 'खरा' शब्द का उपयोग करते हैं)। जिसे सुनकर संघस्थ अनेक मुनि महाराजों ने निवेदन किया- ‘आचार्यश्रीजी! आज का उपवास हो गया, अब आप कल केशलोंच का भी उपवास न करें।' आचार्यश्रीजी बोले-‘हमने तो प्रातः ही केशलोंच करने का संकल्प कर लिया था। आश्चर्य है! आज आहार कैसा होगा? इसका विकल्प किए बिना ही, केशलोंच मूलगुण का संकल्प भी निर्जरा में कारण होता है, सो उन्होंने वह संकल्प आहार के पूर्व ही कर लिया। धन्य है। उनकी संकल्प के प्रति निष्ठा और समयावधि के प्रति अद्भुत सजगता को । निर्जरा, पर निर्जरा - अतिशय क्षेत्र महावीर जी, राजस्थान में अक्षयतृतीया (वैशाख शुक्ल, तृतीया) के दिन आचार्यश्रीजी की केशलोंच की पारणा (उपवास के बाद आहार) थी। संघस्थ ब्रह्मचारी श्री शांतिनाथजी, जो आचार्यश्रीजी के गृहस्थावस्था के छोटे भाई एवं वर्तमान में उन्हीं के प्रथम मुनि शिष्य मुनि श्री समयसागरजी हैं, पारणा का लाभ लेने आचार्यश्रीजी के साथ आहारचर्या में गए। भावना थी कि निरंतराय आहार करवाऊँगा। और हो गया उल्टा ही। उन्हीं के हाथों से आहार के शुरू में ही एक लम्बा-काला बाल अंजलि में आ गया। आचार्यश्रीजी मुस्कराए और अंतराय मान कर बैठ गए। यह देख ब्रह्मचारीजी अत्यंत दु:खी होकर, स्वयं भी चौके से निराहार वापस लौट गए। जब आचार्यश्रीजी को पता चला तब उन्होंने १५-१६ वर्ष की उम्र एवं राजस्थान की भीषण गर्मी को देखते हुए, उन्हें समझाबुझाकर भोजन करने भेज दिया। और स्वयं निर्जरा का साधन आया हुआ जानकर प्रसन्न भाव से अपने आवश्यकों में मग्न हो गए। धन्य है श्रमणचर्या। केशलोंच करने से शरीर का ऊपरी हिस्सा खिंच जाता है। जिनके बाल घने एवं मजबूत हों, उनका फिर क्या कहना। आचार्यश्रीजी के बाल अत्यंत काले, घने एवं मजबूत थे। उस पर राजस्थान की गर्मी के केशलोंच की पारणा में अंतराय...। सचमुच निराली है कर्मों की लीला। केशलोंच, एक अलौकिक परीक्षा - १३ फरवरी, २०१५, नेमावर, (देवास, मध्यप्रदेश) शुक्रवार का दिन था। आचार्यश्रीजी जंगल (शौच क्रिया) से लौट रहे थे। लौटते समय उन्होंने सीढ़ी पर चढ़ने के लिए सीमेंट के बने चबूतरे पर ज्यों ही पैर रखा कि वह टूट गया और आचार्यश्रीजी गिर गए। दायें हाथ में कमंडलु था, वह जमीन पर टिक गया। बायाँ हाथ जमीन पर तेजी से रगड़ खा गया, जिससे हथेली में गहरा घाव हो गया एवं कोहनी में भी चोट आ गई। हाथ का घाव इतना गहरा था कि वह १५-१७ दिन में मुश्किल से भर पाया था। ऐसी स्थिति में गुरुवर ने अगले ही दिन १४ फरवरी को केशलोंच कर लिए। एक हाथ से कैसे संभव हुआ होगा? कदाचित् चोट खाए बायें हाथ का उपयोग किया होगा, तो पीड़ा की सीमा क्या रही होगी? केशलोंच के बाद संघस्थ मुनि श्री संभवसागरजी ने आचार्यश्रीजी से कहा- ‘आपको हथेली में इतनी तकलीफ़ है, फिर भी आपने समय से तीन दिन पूर्व ही केशलोंच कर लिए। आचार्यश्रीजी बोले‘हमें परीक्षा में शत-प्रतिशत अंक लाने हैं, कम क्यों लाएँ? (हँसते हुए) देखो! परीक्षक को पूरे अंक देने होंगे। धन्य है आचार्य श्री विद्यासागरजी जैसे अलौकिक परीक्षार्थी को, जो परीक्षा देने में प्रति समय तत्पर रहते हैं। निर्जरा का एक भी अवसर जाने नहीं देते । स्वयं ही परीक्षक बन, खुद को परखते रहते हैं। कि मैं निर्जरा करने में शत-प्रतिशत सफल हो पा रहा हूँ कि नहीं। अनंत सुख का समुद्र : आचेलक्य आगम की छाँव वत्था...............जगदि पूज।।३०।। वस्त्र, चर्म और वल्कलों से अथवा पत्ते आदिकों से शरीर को नहीं ढकना, भूषण-अलंकार से और परिग्रह से रहित निग्रंथ वेश जगत् में पूज्य अचेलकत्व/आचेलक्य नाम का मूलगुण है। आचार्यश्री का भाव दिगम्बर अर्थात् दिक्- दिशाएँ ही, अम्बर-वस्त्र हों जिसका। ऐसे रूप को दिगम्बर, निग्रंथ रूप कहते हैं। इस रूप को धारण किए बिना, किसी को मुक्ति आज तक न मिली है और न ही मिलेगी। आचार्य कुंदकुंददेव ने दिगम्बर मुद्रा को महानतम उपमाएँ दी हैं। दिगम्बर मुद्रा खेल नहीं है, बंधुओ! आचार्य कुंदकुंददेव ने इस चर्या, इस मुद्रा के लिए महान् से महानतम उपमाएँ दी हैंयही आयतन है, चैत्यगृह है, जिन प्रतिमा है, दर्शन है, वीतराग जिनबिम्ब है, जिनमुद्रा है।आत्मसंबंधी ज्ञान है, अरहंत भगवान् द्वारा प्रतिपादित देव है, तीर्थ है, अरहंत है और गुणों से विशुद्ध प्रव्रज्या (दीक्षा) है। जिनलिंग (जिनमुद्रा) मोक्षमार्ग में दीपक के समान है। मोक्षमार्ग यदि देखना चाहते हो, तो इस दिगम्बरत्व के द्वारा ही उसे देखा जा सकता है जिनलिंग को देखकर मार्ग का दर्शन हो जाता है, इसलिए कहा जाता है- ‘दंसणमूलो धम्मो' दर्शन मात्र से जिनधर्म का दर्शन हो जाता है। जिनलिंग का बहुत बड़ा महत्त्व है। यह ऐसी मुद्रा है, जिसे २४ तीर्थंकरों ने अपनाई। यह मुद्रा जिनलिंग मानी जाती है। इसके माध्यम से ही शरीर आश्रित आत्मतत्त्व को प्राप्त कर सकते हैं। भीतर से तो सबकी आत्मा नग्न है। क्या नग्न, क्या सवस्त्र? जो मेरा है ही नहीं, उसका क्या ग्रहण, क्या त्याग? जब आत्मा का स्वरूप समझ में आ जाता है तब वस्त्र को स्वीकारना लज्जा जैसी लगती है। मोक्षमार्ग में ‘पर' (दूसरे) की अपेक्षा नहीं होती, पर (दूसरे) को स्वीकारना मोक्षमार्ग को सहनीय नहीं, इसलिए मोक्षमार्गी को भी वस्त्र पहनना सहनीय नहीं है। दिगम्बर होना अलग वस्तु है और अंदर के दिगम्बरत्व को सुरक्षित रखना अलग वस्तु है। महावीर भगवान् का पक्ष अर्थात् आधार को लेकर जब हम धीरे-धीरे आगे बढ़ेंगे, तभी पूर्ण सरलता की प्राप्ति होगी। ग्रंथियों का विमोचन करना अर्थात् निग्रंथ होना, चारित्र को अंगीकार करना पहले अनिवार्य है। यह कटु सत्य है कि गुण ही सर्वश्रेष्ठ हैं, मुद्रा नहीं। गुणों से ही गुणी की पूजा होती है। मात्र दिगम्बरत्व ही नहीं, उसके अनुरूप चर्या भी होनी चाहिए। दिगम्बरत्व ही एक ऐसा बांध है। जिसे लाँघने का साहस परवादियों में नहीं हो सकता। ज्यों ही यह बांध टूटेगा त्यों ही धर्म का निर्मल स्वरूप नष्ट हो जाएगा। आचार्यश्री का स्वभाव यथाजात मुद्रा - सिद्धक्षेत्र नैनागिरिजी (छतरपुर, मध्यप्रदेश) में वर्षायोग संपन्न होने के उपरांत २ दिसंबर, १९८२ को वहाँ से विहार कर बंडा, दमोह, कटनी, शहडोल, अम्बिकापुर, डाल्टनगंज, हजारीबाग एवं ईसरी होते हुए २४ जनवरी, १९८३ को आचार्यश्रीजी ससंघ शाश्वत तीर्थराज श्री सम्मेद शिखरजी की वंदनार्थ मधुवन (गिरीडीह, बिहार) पहुँचे थे। वहाँ से आकर ईसरी नगर में ग्रीष्मकालीन वाचना एवं वर्षायोग- १९८३ भी संपन्न होने के पश्चात् कार्तिक शुक्ल द्वितीया, रविवार, विक्रम संवत् २०४0, ६ नवंबर, १९८३ को विहार कर पश्चिम बंगाल की राजधानी कलकत्ता की ओर आचार्यश्रीजी ने ससंघ विहार किया था। कलकत्ता में कार्तिक पूर्णिमा की ऐतिहासिक रथयात्रा संपन्न होने के बाद कलकत्ता से खण्डगिरि- उदयगिरि तीर्थक्षेत्र (भुवनेश्वर, उड़ीसा) की वंदनार्थ आचार्यवर्य पहुँचे थे। तदुपरांत कटक होकर अंगुल नगर, उड़ीसा के आसपास किसी ग्राम में आचार्य संघ के आहारचर्या संपन्न हुई थी। सारा संघ सामायिक में लीन हो गया। तभी कलकत्ता के श्रावकों को सूचना मिली कि उस ग्राम के जैनेतर बंधुओं ने आए हुए दिगम्बर साधुओं को लाठी से मारने की योजना बनाई है। वे तुरन्त ही कुछ पुलिस फोर्स को लेकर वहाँ आ गए। उन्होंने संघ को बाहर न निकलने का निवेदन किया। जहाँ संघ सामायिक कर रहा था वहाँ पर ताला डाल दिया। आचार्यश्रीजी सामायिक से उठे और बोले- ‘कुछ नहीं होगा, ताला खोलिए।' परन्तु श्रावक डरे हुए थे। उन्होंने पुनः कुछ सख्त होकर ताला खोलने का पिच्छी से इशारा किया। श्रावकों को ताला खोलना पड़ा। आचार्यश्रीजी स्वयं सबसे आगे हो गए, सारे संघ को एवं श्रावकों को अपने पीछे रखा और आदेश दिया- ‘कोई कुछ भी नहीं बोलेगा।' फिर आचार्यश्रीजी कमरे से बाहर निकले, तो देखा पूरी सड़क पर जैनेतर बंधु हाथों में लाठी लिए खड़े हैं। उन्होंने उन सबकी तरफ दृष्टि भर कर मात्र देखा, वे सभी सड़क के दोनों ओर दो भागों में विभाजित हो गए और बीच का मार्ग खाली हो गया। फिर आचार्यश्रीजी ने अपनी पिच्छी ऊपर उठाकर तीन बार उनके सामने घुमाई । सब एकदम शांत हो गए। हाथों की लाठियाँ नीचे झुक गईं, सारा संघ आराम से वहाँ से निलक गया? दिशाएँ ही वस्त्र हैं - अमरकंटक (शहडोल, मध्यप्रदेश) नर्मदा, सोन एवं जोहिला नदियों का उद्गम स्थल है। यहाँ की प्रकृति शीतल है। ग्रीष्मकाल में भी शीतकालीन ठंड-सम अनुभव होता है। फिर शीतकाल में पड़ने वाली ठंड का क्या कहें? सन् १९९४ का शीतकालीन व ग्रीष्मकालीन प्रवास भी आचार्यसंघ का यहीं हुआ था। १५ जनवरी के प्रवेशकालीन दिवस पर तापमान १-२° सेल्सियस तक गिर गया था। उन दिनों इतनी अधिक सर्दी होती थी कि रात में गाड़ियों के ऊपर बर्फ जम जाया करती थी। जनवरी माह की एक रात को अचानक से अमरकंटक में रहने वाले महामण्डलेश्वर कल्याण बाबा प्रभृति अनेक वैष्णव बाबाजी लोग, दिगम्बर जैन साधु इतनी ठंडी में बिना कुछ ओढ़े एवं बिना कुछ जलाए रात्रि विश्राम कैसे करते होंगे, इनकी रात्रिकालीन चर्या क्या रहती होगी? यह देखने आ गए। यह देखकर उनके आश्चर्य का पार न रहा कि उनके पास न कोई ओढ़ना और न कोई बिछौना है।न उनके पास कोई हीटर या अग्नि लग/जल रही है। न कोई स्त्री-पुरुष या सेवक-सेविकाएँ ही हैं। वह तो एक काष्ठ के तख़त पर विश्राम कर रहे हैं। चारों ओर फैले अंधेरे के बीच एक प्रकाशपुंज की भाँति उनका शरीर दमक रहा है। निर्विकारी दिगम्बरचर्या के साक्षात् दर्शन कर उनके मन श्रद्धा से भर गए। और कह उठे-‘निग्रंथ साधु ही उच्चस्तरीय साधक हैं, सचमुच में दिगम्बर अर्थात् दिशाएँ ही इनके वस्त्र हैं।” तख़त पर विश्राम कर रहे हैं। चारों ओर फैले अंधेरे के बीच एक प्रकाशपुंज की भाँति उनका शरीर दमक रहा है। निर्विकारी दिगम्बरचर्या के साक्षात् दर्शन कर उनके मन श्रद्धा से भर गए। और कह उठे‘निग्रंथ साधु ही उच्चस्तरीय साधक हैं, सचमुच में दिगम्बर अर्थात् दिशाएँ ही इनके वस्त्र हैं। नवजीवन का सृजन : अस्नान आगम की छाँव पहाणादि....................................मुणिणो।।३१।। स्नानादि के त्याग कर देने से जल्ल (सर्वांग को प्रच्छादित करने वाला मल), मल (शरीर के एकदेश को प्रच्छादित करने वाला मल) और पसीने (सर्वांग लिप्त हो जाना) से मुनि के प्राणी संयम और इन्द्रिय संयम पालन करने रूप घोर गुण स्वरूप अस्नान व्रत होता है। आचार्यश्री का भाव स्नान से निवृत्ति होना ही, अस्नान व्रत बन जाता है। यह शरीर अत्यंत मलिन है, जो जल से कभी भी शुद्ध नहीं हो सकता। हम जितनी बार स्नान करेंगे, उतनी ही राग की वृद्धि होती है । हिंसा होगी। जल अपने आप में जीव है, अतः स्नान करने पर जलकायिक जीवों की हिंसा हुई। जल तपाया तो अग्नि की शरण में जाना पड़ता है सो अग्निकायिक जीवों की हिंसा एवं वायुकायिक जीवों की भी हिंसा हुई। इन सबसे बचने के लिए अस्नान व्रत लिया जाता है। हाथ-पैर धो लेते हैं बस। स्नान पापों और राग को बढ़ाने वाला होता है। पूर्वाचार्यों ने कहा है कि अपनी पिच्छी से अपने शरीर का परिमार्जन कर लेना चाहिए। यानी पिच्छी के द्वारा शरीर की शुद्धि कर लो।स्नान करने के लिए नहीं कहा है। आप लोगों के स्नान के लिए सूर्य देवता कृपा करेंगे। सनलाइट में आप अच्छे ढंग से कार्य कर सकते हैं और रात में मूनलाइट भी रहती है। आप कहो नहीं, वह हमेशा-हमेशा जलता रहता है। और आपके लिए अच्छे ढंग से स्नान करा देगा।वायु स्नान में कोई बाधा नहीं है। आचार्य श्री का स्वभाव सनलाइट, मूनलाइट से नहाता हूँ - सन् १९८४ में पिसनहारी की मढियाजी, जबलपुर, मध्यप्रदेश में चातुर्मास के दौरान देश की तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधीजी की हत्या ३१ अक्टूबर, १९८४ को हो जाने से नगर में कयूं लगा हुआ था। स्थिति की नाजुकता को नियंत्रण करने पुलिस के अतिरिक्त सेना भी तैनात थी। उस क्षेत्र में नियुक्त सेना के कुछ प्रमुख अधिकारी एवं जवानों ने भी आचार्यश्रीजी के प्रथम बार दर्शन किए। गुरुवर का सुंदर एवं आकर्षक रूप देखकर उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने वहीं किसी श्रावक से पूछा कि आपके गुरुवर बड़े सुंदर हैं। एवं इनकी काया स्वर्ण जैसी चमकीली है, ये किस साबुन से स्नान करते हैं? वह श्रावक मन ही मन हँसे और बोले आप लोग स्वयं चलकर गुरुवर से ही पूछ लीजिए। उन्होंने गुरुवर के पास जाकर अपनी जिज्ञासा रखी। गुरुवर मुस्कराए और बोले- ‘भैया! हम तो दो बार स्नान करते हैं। दिन में ‘सनलाइट' से और रात्रि में 'मूनलाइट' से।' सेना के उन अधिकारी ने कहा- ‘पर हमने तो सुना है कि दिगम्बर जैन साधु स्नान नहीं करते हैं।' आचार्य भगवन् । बोले-'हाँ, स्नान नहीं करना हमारा मूलगुण है।' गुरुवर मुस्कराने लगे। उन्हें बात समझते देर न लगी कि यह स्वर्णपना उनकी तपस्या का प्रभाव है, किसी साबुन का नहीं। और सनलाइट, मूनलाइट कोई साबुन नहीं, बल्कि सूर्य व चंद्रमा की किरणें हैं। एक बार नहीं, कई बार स्नान करता हूँ - सन् १९९४ अमरकंटक (शहडोल, मध्यप्रदेश) में आचार्यश्रीजी के दर्शन करने कुछ नेपाली बंधु आए। उन्होंने आचार्यश्रीजी से कहा- ‘हमने सुना है आप कभी स्नान नहीं करते हैं, तो आपको कुछ लगता नहीं है?' आचार्यश्रीजी बोले- ‘किसने कहा हम स्नान नहीं करते। आप लोग तो दिन में एक ही बार स्नान करते होंगे, हम तो कई-कई बार स्नान करते हैं। आप जिसको सूर्यनारायण मानते हैं। और जो यहाँ का सनसेट (सूर्यास्त के समय सूर्य की किरणें) प्रसिद्ध ही है। उसी से हम सर्वप्रथम स्नान करते हैं। तीन बार प्रतिक्रमण करते हैं तो उससे स्नान होता है। देव वंदना करते हैं, उससे भी स्नान हो जाता है। हमारा यह आध्यात्मिक स्नान ही होता है। और फिर हँसते हुए बोले- ‘देखो भैया! हम तो प्रतिदिन कईकई बार, कई प्रकार से स्नान करते हैं। साधना विकास का सूर्योदय : भूमिशयन आगम की छाँव संस्तरे निर्जने.................शयनमेव तत्॥१३१४, १३१५॥ मुनिराज अपने परिश्रम से ऊपर उठने के लिए तिर्यंच, स्त्री, नपुंसक आदि से रहित निर्जन एकांत में किसी थोड़ी-सी बिछी हुई घास आदि पर अथवा प्रासुक भूमि, पाषाण, तखता आदि पर किसी एक करवट से अथवा धनुष के समान पैर समेट कर या डंडे के समान शयन करते हैं। उसको भूमिशयन नाम का मूलगुण कहते हैं। आचार्यश्री का भाव जैसा आगम में लिखा है वैसे सोएँ उससे भी कर्म निर्जरा होती है। भू-शयन में तृण-घास पर शयन, काष्ठ-तखत पर शयन, प्रासुक भूमि व शिला पर शयन रूपये चार शयन जो कहे गए हैं, वे पृथ्वी के ऊपर की बात है, शरीर के ऊपर डालने की बात नहीं है। नहीं तो ये आवरण हो जाएँगे। मुलायम आदि वस्तुओं का प्रयोग न करें। एक पार्श्व भाग से शयन करें। परिमार्जन करके करवट लेना चाहिए। मुनियों को अल्प भोजन करना चाहिए एवं कठिन आसनों पर बैठना और कठिन शय्या पर सोना | चाहिए, जिससे निद्रा विजय कर सकें। हम उपवास की बात तो करते हैं, लेकिन भूशयन नामक ये हमारा मूलगुण है। हमें मूलगुण को पहले देखना चाहिए। दो संस्तर एक साथ नहीं लेना चाहिए। इससे शरीर एक प्रकार से अभ्यस्त होता है, आदत पड़ने पर छूटती नहीं इसलिए प्रकृति के अनुकूल चलना चाहिए। आचार्यश्री का स्वभाव धरती बनी बिछौना-आसन - शेष गुणों में पठित अशेष गुणों का पालन आचार्यश्रीजी अशेष (पूर्ण) रूप में करते हैं। चार संस्तरों(साधु के बिछौना) में से तृण एवं चटाई रूप संस्तर का अब आपका आजीवन के लिए त्याग है। वह मात्र काष्ठ संस्तर और शिला (भूमि) संस्तर का उपयोग करते हैं। वे कहते हैं, हीन संहनन के साथ उत्कृष्ट साधना करने पर निर्जरा भी तो अधिक होगी। जब महाव्रती बनकर दुकान खोली है, तब अधिक से अधिक आमदनी(निर्जरा) की चाह साधक को होना चाहिए। वर्ष १९७०, किशनगढ़-रैनवाल, (जयपुर) राजस्थान के चातुर्मास का प्रसंग है। इस समय मुनि श्री विद्यासागरजी अपने गुरु आचार्य श्री ज्ञानसागरजी की चरण छाँव तले अपनी साधना बढ़ा रहे थे। इस चातुर्मास में मुनि श्री ने ‘भूमिशयन' नामक मूलगुण का पालन उत्कृष्टता के साथ किया। चातुर्मास की स्थापना (आषाढ़ शुक्ल चतुर्दशी) के दिन से ही आपने प्रतिदिन चौबीसों घंटे जमीन पर ही उठना-बैठना एवं शयन करने का कठोर नियम ले लिया। जिसका पालन कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी, चातुर्मास के निष्ठापन (समाप्ति) तक किया। समाज की मर्यादा के कारण केवल प्रवचन के समय वह तखत (लकड़ी के पाटे) पर बैठते थे, शेष समय भूमि ही उनका आसन एवं बिछौना बनी रही। ग्रीष्मकाल में प्राय:कर आज भी आचार्यश्रीजी जमीन पर ही उठना-बैठना पसंद करते हैं। आचार्यश्रीजी का सन् १९८६ में अतिशयक्षेत्र पपौराजी, टीकमगढ़, मध्यप्रदेश की ओर विहार चल रहा था, रास्ते में मड़ावरा, (ललितपुर) उत्तरप्रदेश से सामायिक करके विहार हुआ। सूर्यास्त होने पर जंगल में ही रुक गए। वहाँ पर एक मानवाकार गढ्डा दिखाई दिया। उसी में आचार्यश्रीजी परिमार्जन करके बैठ गए। श्रावक चटाई-पाटा लेकर आए, किंतु उसका उपयोग किए बिना ही गुरुदेव ने भूशयन किया। इसी प्रकार दमोह (मध्यप्रदेश) नगर में जटाशंकर पर्वत के ऊपर बालू भूमि में शरीर से ममत्व रहित होकर शयन करते थे। भूशयन मूलगुण के ऐसे अनेक प्रसंग हैं, जब गुरुदेव ने काष्ठ संस्तर को भी स्वीकार नहीं किया। निर्जरा का प्रवेश द्वार : अदंतधावन । आगम की छाँव अंगुलि............................अदंतमणं ।।३३।। अंगुली, नख, दातौन और तृण विशेष के द्वारा पत्थर या छाल आदि के द्वारा दाँत के मल का शोधन नहीं करना, यह संयम की रक्षा रूप अदंतधावन व्रत है। आचार्यश्री का भाव दाँतों को अब हम (साधु) किसी प्रकार के मंजन आदि से सुशोभित करें, ऐसा संभव नहीं हैं। हाँ, दाँतों में भोजन के समय कुछ रह गया हो तो उसको आप निकाल सकते हैं। अन्न आदि रह न जाए उससे, जीवोत्पत्ति न हो, इस अपेक्षा से भी दाँत साफ़ किए जाते हैं।और सब लें ऐसा भी नहीं। यदि एक बार लकड़ी आदि के द्वारा दाँतों में फंसा हुआ अन्न आदि निकालते हैं, तो वहाँ जगह बन जाती है। फिर अन्न कण फँसता ही जाएगा। इसलिए प्रतिदिन लकड़ी चाहिए पड़ेगी और दाँतों में गेप भी हो जाएगा। अलंकार और आभूषण ये दो चीजें हैं। असंयमी है, तो वह अलंकार, आभूषण के साथ शरीर को अलंकृत कर लेता है। पर साधुओं को दंत मंजन नहीं करना चाहिए। क्योंकि दाँत जो हैं, वे अलंकार में आते हैं। दाँतों को चमकीला बनाना, इससे भी रूप में निखार आता है। दाँतों को चमकीला बनाने का उद्देश्य न रहे, यह भी एक प्रकार से परीषहजय है। आचार्यश्री का स्वभाव रहते-सहते-कहते कुछ न - आचार्यश्रीजी को जब भी कोई पीड़ा होती है, तो वह पहले से ज्ञात नहीं हो पाती, क्योंकि वह स्व मुख से कुछ भी नहीं कहते हैं। जब पीड़ा की पराकाष्ठा हो जाती है, तब कहीं शारीरिक लक्षणों से ज्ञात हो पाता है, कि उन्हें कुछ तकलीफ़ है। इस पर भी वह सहजता से उपचार स्वीकार नहीं करते हैं। बहुत ही अधिक स्थिति बने, तब कहीं केवल काष्ठ औषधि को स्वीकार करते हैं। सन् २००८, रामटेक (नागपुर, महारष्ट्र) में आचार्यश्रीजी की दाढों में भयंकर दर्द हुआ। आहार कर पाना मुश्किल हो गया। दस-बारह दिन केवल पेय पदार्थ ही ले पाए। दर्द निवारक देशी उपचार स्वरूप ‘अमृतधारा' आदि गाल पर लगाने से पीड़ा किंचित् भी कम नहीं हो रही थी। संघस्थ साधुओं ने चिकित्सक से परामर्श किया। चिकित्सक ने कहा- ‘कुछ औषधि नहीं लेते तो कम से कम इस मंजन को, जो शुद्ध रूप से बनाया गया है, दाँतों पर रगड़ कर पाँच मिनट तक लगाए रखने से भी लाभ मिल सकता है। पर गुरुवर तो ‘अदंतधावन' मूलगुण के पालनकर्ता हैं, उन्होंने अँगुली से दाँतों पर मंजन नहीं रगड़ा। बहुत अनुनय-विनय किए जाने पर उन्होंने मात्र उसको पानी में घोलकर कुल्ला करना स्वीकार किया। संघस्थ ज्येष्ठ साधुओं ने उनसे निवेदन किया कि इस मंजन को कुछ देर तक मुख में ही रखे रहें, तो अच्छा रहे। पर गुरुवर तो रहे संकोची, चौके में इतनी देर तक कैसे बैठे? सो मंजन का कुल्ला बस करके आ जाते। एक दिन गुरुवर का आहार टीकमगढ़ (मध्यप्रदेश) वाली ब्रह्मचारिणी बहनों के यहाँ हुआ। बहनों को चिकित्सक वाली बात ज्ञात थी। उन्होंने आहार के बाद गुरुवर को कुल्ला करने मंजन वाला जल दिया और उसके साथ ही (डरते-डरते) नीचे का पात्र हटा दिया। गुरुवर ने इशारा किया, तो उन बहनों ने साहस करके निवेदन किया- ‘भगवन्! यह जरूरी है, आप मंजन का जल कुछ देर मुख में रखे रहें।' करुणावशात् गुरुदेव कुछ ही देर ठहरे और पुनः पात्र के लिए इशारा कर दिया। पात्र रखते ही कुल्ला करके गुरुवर चले गए। उन्होंने औषधि लेना या दाँतों पर मंजन रगड़ना नहीं स्वीकारा। अंततः दाढ़ों को निकलवाना ही पड़ा। दाँतों को निकालने के लिए वह किसी स्प्रे या इंजेक्शन का प्रयोग नहीं करवाते। जिस तरह स्वयं केशों को उखाड़ते वैसे ही आहार के बाद चिकित्सक से दाँतों को उखड़वा लेते हैं। वर्तमान में उनके पाँच दाँत ही शेष हैं। बाकी उनके सभी दाँत निकल चुके हैं। धन्य है ऐसे गुरुवर को, जिनकी दाँतों की असह्य वेदना भी बाधक न बन पाई, अपने अदंतधावन नामक मूलगुण के पालन करने में। आहार नियंत्रक : स्थिति भोजन। आगम की छाँव स्वपाद. ......................स्थिति-भोजनम्॥१३३२- १३३३।। अपने पैरों के रखने की भूमि, उत्सृष्ट (अंजलि से आहार-पानी) गिरने का पात्र रखने की भूमि और दाताओं के खड़े होने की भूमि, ऐसी तीन प्रकार की विशुद्ध पृथ्वी को दृष्टि में रखकर अपने दोनों पैरों को समान स्थापन कर बुद्धिमान मुनियों को दूसरे के घर में जाकर, दीवार आदि के सहारे के बिना खड़े होकर करपात्र (हाथों की अंजलि) में शुद्ध भोजन लेना चाहिए। इसको स्थिति भोजन नामक मूलगुण कहते हैं। आचार्यश्री का भाव बैठकर के भोजन करने से आहार संज्ञा बढ़ती है, और खड़े होकर भोजन करने से जिह्वा इन्द्रिय वश में हो जाती है। ऐसा जिनेन्द्र देव ने कहा है। और हमें (श्रमणों को) खड़े होकर भोजन (आहार) ग्रहण करने की आज्ञा दी है। खड़े होकर भोजन करने से शारीरिक क्षमता ज्ञात हो जाती है। ये सबसे बड़ा कारण है स्थिति भोजन का। जब तक उनके हाथ मिल (अंजलि बन सकती) सकते हैं एवं पैर खड़े रहने के लिए स्थिर रह सकते हैं, तब तक ही मुनिगण आहार लेते हैं। अन्यथा उपवास धारण कर लेते हैं। मान लो दस-बीस किलो मीटर चलकर आए हैं, थक गए, अब आराम के साथ बैठकर खा लें? नहीं खा सकते। अब आपको खड़े-खड़े ही भोजन करना पड़ेगा। आपके (श्रमण के) जीवन में बैठकर के भोजन होगा ही नहीं। जब तब हम (साधु) भोजन करेंगे, खड़े रहेंगे। इनको (श्रावक) भी खड़ा होना पड़ेगा। कुर्सी लेकर बैठ जाएँ, नहीं ,ऐसा नहीं हो सकता। मान लीजिए कोई मुनिराज को धीरे-धीरे भोजन करना पड़ता है तो २ घंटे २४ मिनट तक ले सकते हैं। तो आप लोगों (श्रावकों) को उत्कृष्ट सामायिक करने का अवसर प्राप्त हो सकता है। इससे श्रावकों की भी संख्यात नहीं असंख्यात गुणी निर्जरा होगी। आप लोग यदि मुनि बनना चाहते हैं, तो अभी से अभ्यास कर सकते हैं। आचार्यश्री का स्वभाव स्थिति भोजन, तो स्थिति भोजन - दिगंबर साधु एक ही स्थान पर स्थिर रूप से खड़े होकर आहार करते हैं। वे एक बार में जहाँ-जैसा (शास्त्र में बताया वैसे) पैर जमाकर खड़े हो जाते, फिर वहाँ से पैरों का खिसकाना या उठाना नहीं करते। यह उनका स्थिति भोजन नाम का मूलगुण माना जाता है।सन् २०००, पैण्ड्रा रोड, मध्यप्रदेश में आचार्यश्रीजी के पैरो में अचानक से असहनीय वेदना होने लगी। पैर फैलाना भी मुश्किल हो गया। आसन भी नहीं लगा पा रहे थे। उठना-बैठना दूभर हो गया था। प्रारंभ में रोग की पकड़ नहीं हो पाई। आठ-दस दिन तो अत्यंत कठिनाई के रहे। बाद में पता चला, कि यह ‘हरपीस जोस्टर' नामक रोग है। इसकी वेदना का अहसास भुक्तभोगी ही समझ सकता है। एक दिन आचार्यश्रीजी की वैय्यावृत्ति करते-करते एक ब्रह्मचारी भैयाजी ने उनसे धीरे से पूछा‘आचार्यश्री जी! हरपीस रोग में कैसा दर्द होता है? और आप कैसे सहन करते हैं?' आचार्यश्रीजी मुस्कराते हुए बोले- ‘दर्द कैसा होता? जैसे बहुत सारे फौले हों और उनमें सुई चुभाकर नीबू-मिर्च डाला जाए, तब उसमें जितनी जलन होती है, उतनी जलन इस रोग में हवा लगने से होती है, पर सहन तो समता से करना होता है। जिन पैरों में इतनी असह्य पीड़ा हो । जिन्हें हल्का-सा फैलाना भी मुश्किल हो, उन पैरों से खड़े होना और उसमें भी खड़े होकर, पैर को खिसकाए बिना आहार ग्रहण करना, कितना कठिन रहता होगा! वे जितनी देर खड़े हो पाते उतने समय में जितना आहार पहुँच पाता उतना ही लेकर बैठ जाते थे। एक ओर असह्य वेदना और दूसरी ओर अपूर्ण आहार। यह सब वे समता भाव से सहन करते थे। स्थिति भोजन तो ‘स्थिति भोजन,' यह मूलगुण है श्रमण का। वे किन्हीं परिस्थितियों में मूलगुण के साथ सामंजस्य नहीं करते। धन्य हैं दिगंबर श्रमण को, जो समता से सब कुछ सहन कर सकते हैं, पर अपने मूलगुणों में दोष नहीं लगने देते। यदि खड़े होने की सामर्थ्य नहीं तो उपवास कर लेते हैं। इस प्रकार की आई हुईं प्रतिकूलताओं को वे परीक्षा का अवसर मानते हैं। इसके लिए वे बार्डर पर खड़े सैनिकों की भाँति हर पल सजग एवं तैयार रहते हैं। इन्द्रिय मृग बंधक : एकभक्त भोजन आगम की छाँव उदयत्थमणे..........................मुहत्तकालेयभत्तं तु।।३५॥ सूर्य के उदय और अस्त के काल में से तीन-तीन घड़ी (२४ मिनट की १ घड़ी/घटी/ घटिका) से रहित मध्य काल के एक, दो अथवा तीन मुहूर्तकाल (४८ मिनट का मुहूर्त) में एक बार भोजन करना, यह एकभक्त मूलगुण है। भोजन की दो बेला (समय) होती हैं। उसमें एक बेला में भोजन करना अर्थात् दिन में एक बार भोजन करना ‘एकभक्त भोजन' नामक मूलगुण है। आचार्यश्री का भाव मान को पूर्ण रूप से जीतने का साधन है आहारचर्या । चक्रवर्ती होकर भी (मुनि बनने पर) दूसरे के घर आहार लेना होता है। आहार का विकल्प भी निर्विकल्प होकर करना चाहिए। यह भी भगवान् के द्वारा दिया हुआ मूलगुण है‘एक बार भोजन करना। साधुचर्या निर्दोष रहेगी, तो दिगम्बरत्व भी सुरक्षित रहेगा। उसमें भी मुख्यत: आहारचर्या निर्दोष रहनी चाहिए। उसमें भी सिंहवृत्ति रहना चाहिए अर्थात् जब आवश्यक हो तभी आहार करना चाहिए। स्वेच्छा से संयम धारण किया है। स्वयं सहन करो। दुर्लभ से मिलता है संयम। शरीर के धर्म को चलाने के लिए खा रहा हूँ, मेरे लिए नहीं खा रहा हूँ। मुझे तो आत्मसाधना करनी है। ऐसे भाव रहना चाहिए। साधु आहार के समय पर ज्ञेय-ज्ञायक संबंध रखते हुए भी ध्यान रखता है कि कितने ग्रास लेना है। नहीं तो ‘अइमत्तभोयणाए' (मुनि- दैवसिक/रात्रिक प्रतिक्रमण) यह जो आगम में कहा है। उसे केवल प्रतिक्रमण में ही नहीं पढ़ना है। कितना लेना है, यह भी ध्यान में रखना होता है। लेकिन जो लेना होता है, वह अच्छे से लेते हैं। २४ घंटे निकालना है। आहार के समय भी असंख्यातगुणी कर्म की निर्जरा होती है, और ज्ञेय-ज्ञायक संबंध चलता है। आचार्यश्री का स्वभाव एक चौके का नियम - सन्१९९० में आचार्यश्रीजी का चातुर्मास सिद्धक्षेत्र मुक्तागिरिजी (बैतूल, मध्यप्रदेश) में चल रहा था। एक दिन संघस्थ ज्येष्ठ मुनि श्री योगसागरजी का तीन चौके से लौटकर अलाभ हो गया (अलाभ अर्थात् विघ्न उपस्थित हो जाने पर आहार ग्रहण नहीं करना)। पहले चौके में मृत चींटा पड़ा हुआ था, दूसरे चौके में बहुत से चींटे निकल आए एवं तीसरे चौके में किसी श्रावक के पैर के नीचे चींटा दब कर मर गया, जिससे ग्लानि होने पर उन्होंने अलाभ कर लिया। और ईर्यापथ भक्ति में गुरुदेव को अलाभ का कारण बताया। उसे सुनकर गुरुवर बोले-'ये तो ठीक नहीं।' और मौन हो गए। कुछ दिन बाद आचार्यश्रीजी ने संघस्थ ज्येष्ठ मुनि श्री समयसागरजी एवं मुनि श्री योगसागरजी को बुलाया, और कहा‘एक चौके में ही पड़गने का नियम भी लिया जा सकता है। दोनों मुनिराजों ने हँसकर कहा- ‘हाँ, अच्छा रहेगा।' आचार्यश्रीजी बोले- ‘मैं भी ग्रहण करता हूँ और आप लोग भी कायोत्सर्ग कर लें। आचार्यश्रीजी किसी भी विषय पर पूर्वापर विचार करके निर्णय लेते हैं। पूज्य श्री योगसागरजी के अलाभ वाले प्रसंग के दिन उनके मुख से निकला था, “यह तो ठीक नहीं, तब से लेकर जिस दिन नियम ग्रहण किया तब तक उन्होंने अच्छे-से विचार किया होगा। संभव है मन ही मन संकल्प कर इसका प्रयोग भी कर लिया हो, तब जाकर दोनों मुनिराजों सहित स्वयं ने इस नियम को अंगीकार किया होगा। यही कारण रहता कि उनके द्वारा ग्रहण किए गए प्रायः सभी नियम जीवनपर्यंत के लिए होते हैं। और पालन करने के लिए वह मेरु-सम अचल बने रहते हैं।] इस प्रकार संघशिरोमणि आचार्यश्रीजी एवं दोनों ज्येष्ठ मुनिराजों ने ‘एक चौके में ही पड़गने' का नियम ग्रहण कर लिया। अब वह किन्हीं कारणोंवश विघ्न उपस्थित होने पर दूसरे चौके में पड़गाहन नहीं देंगे, फलतः उपवास कर लेंगे। नियमों का दृढ़ता से पालन करने वालों की परीक्षा की घड़ी भी शीघ्र ही आ जाती है। आचार्यश्रीजी एवं दोनों मुनि महाराजों को नियम ग्रहण करने के दो या तीन दिन बाद ही ऐसा योग बना कि किन्हीं कारणवश उन तीनों महाराजों को अपने-अपने चौके से वापस लौटना पड़ा। और एक साथ नियम ग्रहण किए हुए आचार्यश्रीजी एवं दोनों मुनि महाराजों का एक साथ ही अलाभ (उपवास) हो। गया। अत्यल्प समय में आहार चर्या - आचार्यश्रीजी की आहार चर्या अत्यल्प समय में संपन्न हो जाती है। नवधाभक्ति पूर्वक श्रावक पड़गाहन करते हैं तब नीची दृष्टि कर उसके घर आहार को चले जाते हैं। और आधा घंटे में आहार संपन्न कर वापस भी आ जाते हैं। वे कहते हैं- ‘शरीर के धर्म को चलाने के लिए खा रहा हूँ। मेरे लिए नहीं खा रहा हूँ। मुझे तो आत्म-साधना करनी है- ऐसे भाव होना चाहिए साधु के। ऐसी ही भावना से वे आहार ग्रहण करते हैं। आहार के समय उनकी अनासक्तता देखकर ऐसा लगता है जैसे बोतल में भोजन भरा जा रहा हो। एक बार आहार करना भी श्रमण का एक मूलगुण है। उसका ही पालन करने वह चौके में जाते है और शीघ्र ही वापस आ जाते हैं। एक बार मई-जून, १९९९, कुण्डलपुर (दमोह, मध्यप्रदेश) में आचार्यश्रीजी के आहार चल रहे थे। चौके में चार ही लोग थे। एक श्राविका आचार्यश्रीजी से ‘छैना के रसगुल्ला लेने का बार-बार निवेदन कर रही थी। और गुरुवर बार-बार अंजलि बंद कर रहे थे। गुरुवर द्वारा ‘रसगुल्ला' नहीं लिए जाने पर भी, कटोरी को वापस रखते समय उस श्रविका की अचानक से प्रशस्त हँसी फूट पड़ी। गुरुवर की प्रश्नवाचक रूप से दृष्टि उस पर पड़ी। वह विनम्रतापूर्वक बोली- ‘आचार्यश्रीजी! हमारे द्वारा बार-बार निवेदन करने पर यदि आप उसे ले लेते हैं, तब तो लाभ ही लाभ है और यदि नहीं भी लें, तब भी हम चौके वालों को लाभ है। इस बार भी गुरुवर ने ऐसे देखा मानो पूछ रहे हों कि न लेने पर कैसा लाभ? वह बोली- ‘गुरुवर आप लीजिए। ऊँ-हूँ, आप लीजिए न। ऊँहूँ। ऐसा करने पर भले ही आपने उसे नहीं लिया, पर जितना समय आपको चौके में रहना था उससे कुछ अधिक देर ठहरने का सौभाग्य तो हम लोगों को मिल गया। तो हुआ न लाभ?' यह सुनकर आचार्यश्रीजी सहित सभी को हँसी आ गई। धन्य है गुरुदेव को, जो वे सब प्रकार की चाह से परे अनासक्त भाव से अपनी चर्या में रत हैं। उपसंहार २८ मूलगण पालन करते समय कदम-कदम पर, क्षण-क्षण में हमे लाभ ही लाभ है। आचार्यश्रीजी कहते हैं- ‘मूलाचार में यह उल्लेख मिलता है जो व्यक्ति मूल की रक्षा नहीं करता है और टहनी, शाखाओं, उपशाखाओं, फल, फूल, पत्ते व कोंपल इत्यादि सुरक्षित रखना चाहता है, यह संभव नहीं है। मूल के बिना कुछ भी मूल्यवान नहीं होता, मूल रहेगा तभी ब्याज मिलता है अन्यथा नहीं। सब जगह ये ही युक्तियाँ हैं। आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज ने कहा था- ‘मूलधन को सुरक्षित रखना, ज्यादा ब्याज के लोभ में नहीं पड़ना, प्रचार-प्रसार में मूलगुणों को भुलाना नहीं।' मूलाचार पढो, बारबार पढ़ो और अपनी तुलना करते चलो। डायरी लिखने मात्र से कुछ नहीं होता। लिखा हुआ भी जीवन में नहीं आ रहा है, तो उन लिखी हुईं डायरियों का क्या महत्त्व ? सब अलग रख दो। निश्चय यानी ‘समयसार' की आँख और व्यवहार यानी मूलाचार की आँख। बाहर की मुद्रा व्यवहार और भीतर की मुद्रा निश्चय है। बाहर आने पर बाहर की मुद्रा से चलेंगे तो ठीक रहेगा और भीतर जाने पर भीतर की मुद्रा से चलेंगे तभी ठीक रहेगा। इस प्रकार अंत में उपसंहार यही निकलता है कि यदि व्यवहार को नहीं अपनाओगे तो निश्चय तक नहीं पहुँच सकोगे। मूलगुण साधुत्व की कसौटी है। इस कसौटी पर आचार्य श्री विद्यासागरजी को परखने पर हम उन्हें शुद्ध स्वर्ण की भाँति खरे पाते हैं। आपको इंद्रियाँ नहीं नचाती, बल्कि वे आपके इशारे पर नाचती हैं। योग (मन, वचन, काय) आपको नहीं भटकाते, अपितु योगों का प्रवर्तन आपकी इच्छा पर निर्भर है। आपके शरीर का प्रत्येक अवयव आपकी आज्ञा का पालन करता है। आचार्यश्रीजी सम्यग्दर्शन, सम्यक्ज्ञान एवं चारित्र की अमूल्य निधि के ऐसे खजाँची हैं, जिसका उन्होंने संरक्षण ही नहीं किया, बल्कि पूर्ण आस्था, संकल्प और दृढता के साथ उपयोग करते हुए उसका संवर्धन भी किया है। यही कारण है कि आचार्यश्रीजी की निर्दोष ‘प्रायोगिक' चर्या से बना उनका ‘महत् व्यक्तित्व' जिनशासन को गौरवान्वित करता हुआ, आत्मजयी बनकर ‘अशेष' (संपूर्ण) कर्मों से मुक्त कराने में साधकभूत होकर श्रमणधर्म की गौरवगाथा गा रहा है। ऐसे ‘गौरवशाली व्यक्तित्व के चरणों में हार्दिक श्रद्धा और भक्तिभाव से नत होकर हम सब आत्मगौरव का अनुभव करते हैं। मुनियों के २८ मूलगुण समस्त प्रयोजन की सिद्धि करने वाले हैं। जिस प्रकार बाजार में सामान खरीदने जाते हैं। तो पैसों की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार जब हम शुद्धोपयोग आदि ध्यान-तप करना चाहें तो उसके लिए २८ मूलगुण होना जरूरी है।
  3. आचार्यश्रीजी ने रामटेक, १९९३, ‘भावपाहुड' की कक्षा में कहा- ‘हमें इस बात पर गौरव है, गौरव ही नहीं स्वाभिमान भी है कि कम से कम महावीर भगवान् के वीतराग विज्ञान का जो मूर्तरूप है, उसका हम पालन तो कर रहे हैं। इसमें गौरव होना भी सहज है। मात्र बातों के जमा खर्च से काम नहीं चल सकता, किंतु आगम की जो आज्ञा है, उसका सेवन करना सर्वप्रथम आवश्यक है।' गौरवशाली व्यक्तित्व के धनी आचार्य श्री विद्यासागरजी श्रमण के २८ मूलगुणों में कथित षट् आवश्यक के प्रति कैसा गौरव का भाव रखते हैं ? इससे जुड़े कुछ प्रसंग प्रस्तुत पाठ के विषय हैं। मोक्ष मंजिल के दिशासूचक : षट् आवश्यक आगम की छाँव यद्वयाध्यादि.........................रात्रिकं मुनेः॥१६॥ रोग आदि से पीड़ित होने पर भी इन्द्रियों के अधीन न होकर मुनि के द्वारा जो दिन-रात के कर्तव्य किए जाते हैं, उन्हें आवश्यक कहते हैं। जो वश्य अर्थात् इन्द्रियों के अधीन नहीं होता है उसे अवश्य कहते हैं। और अवश्य के कर्म को आवश्यक कहते हैं। इस प्रकार वश्य उसे कहते हैं जो किसी के अधीन होता है और जो किसी के अधीन नहीं होता है। उसे अवश्य कहते हैं। श्रमण इन्द्रियों के अधीन नहीं होते हैं इसलिए उन्हें आगम में ‘अवश्य' कहा गया है। अवश्य अर्थात् श्रमण के द्वारा किए जाने वाले कार्य को आवश्यक कहते हैं। इस प्रकार मुनियों के जो नित्य, नियम पूर्वक किए जाने वाले कार्य हैं, उन्हें आवश्यक कहते हैं, जो आगम में छह प्रकार के बताए गए हैं- सामायिकं.........इमान्यावश्यकानि षट्॥७१५॥ १. सामायिक, २.स्तव, ३. वंदना, ४. प्रतिक्रमण, ५. प्रत्याख्यान ६. कायोत्सर्ग आचार्यश्री का भाव आवश्यक को अपरिहारिणी कहा गया है। जिस समय जो कहा गया है, उस समय वह करना चाहिए। ऐसी आगम की आज्ञा है। इनका पालन निर्दोष करना चाहिए। ये तीर्थंकर प्रकृति के बंध के कारण हैं। आवश्यक साधकों के प्राण हैं। संयम के बिना संयमी का क्या जीवन? छह आवश्यक तो निर्विकल्पता पूर्वक होना चाहिए, अन्यथा भव बिगड़ते हैं। इसलिए भीतरी परिणामों को टटोलना आवश्यक है, नहीं तो घाटा ही घाटा है। यह छह आवश्यक आमदनी (पुण्यास्रव) के स्रोत हैं।आवश्यकों में रत रहना भी बड़ी साधना है, ये पुण्य का उदय समझना। जैसे भोजन थाली में विभिन्न व्यंजन अलग-अलग होते हैं, उनका स्वाद अलग-अलग आता है, उसी प्रकार प्रतिदिन षट् आवश्यकों का अलग-अलग आनंद लेना चाहिये, जो उत्साह पूर्वक ही संभव है। यह प्रफुल्लता के साथ होना चाहिए। जिस प्रकार भोजन-पानी से भरे पेट में लू नहीं लगती, उसी प्रकार छह आवश्यकों को समय पर करने से सांसारिक लू नहीं लगती। समता का मधुर मकरंद : सामायिक आगम की छाँव जीविदमरणे.....................सामाइयं णाम।।२३।। जीवन-मरण में, लाभ-अलाभ में, संयोग-वियोग में, मित्र-शत्रु में तथा सुख-दुःख इत्यादि में सम (समान) भाव होना ‘सामायिक' नाम का व्रत (आवश्यक) है। आचार्यश्री का भाव किसी भी प्रकार की चाह नहीं रखना ही सामायिक है। सामायिक व्रत व्रतों में शिरोमणि है, क्योंकि सारे व्रतों में निर्दोषता इसी से आती है। निश्चय स्वाध्याय तप इसी में गर्भित हैं। अन्य व्रतों के साथ हमारा उपयोग बाहर रहता है, लेकिन सामायिक के समय अंतर्मुखी होता है। सामायिक अपनी ओर आने का सौभाग्य है। सामायिक परीक्षा के समान है। जैसे परीक्षा में गड़बड़ी होने से साल भर का अध्ययन कोई मायने नहीं रखता, वैसे ही सामायिक ठीक से नहीं होती, तो व्रत लेने के उपरांत भी आत्म तत्त्व तक पहुँचने का अवसर प्राप्त नहीं हो पाएगा। और आत्म तत्त्व के साक्षात्कार बिना व्रतों की पूर्णता नहीं मानी जाती। सभी व्रत सामायिक में लीन होने से पूर्ण होते हैं। आसमान को छूना आसान है, लेकिन अंतर्मुहूर्त तक मन को स्थिर करना बहुत कठिन है। संसार में बस एक ही कार्य बचा है हम लोगों को करने के लिए, वह है समता/सामायिक केवलज्ञान सामायिक में ही हुआ करता है, भगवान् जैसे बैठना शुरू कर दो। दृढ़ता और निष्ठा के साथ सामायिक करना चाहिए। सामायिक के समय समता रूपी लकड़ी के पाटे पर बैठ जाओ, तब परीषह रूपी करंट का प्रभाव नहीं पड़ेगा। समता रूपी तड़ित चालक लगाने से बिजली रूपी परीषह से आत्मा को क्षति नहीं पहुँचती। श्रावक को आर्त-रौद्र ध्यान से बचने का एक मात्र अवसर सामायिक ही है। श्रमण वही है, जो समता के द्वारा अपना श्रृंगार करता है। सामायिक में कुछ भी करना नहीं पड़ता। जो कर रहे हैं, उन सबको छोड़ना पड़ता है। सामायिक में तन कब हिलता इसको देखो। आचार्यश्री का स्वभाव जितना समय बताया, उतना ही करो - दक्षिण भारत में कर्नाटक के आस-पास विशेष रूप से बेलगाम जिले में प्रायः ज्वार की खेती अधिक होती है। वहाँ कुछ लोग पानी पड़ जाने के डर से यदि समय से पूर्व ८-१० दिन पहले ही ज्वार को काट कर छाया में रख लेते हैं, तो घाटे में पड़ जाते हैं। लेकिन जो अनुभवी किसान हैं, वे जानते हैं कि यदि मोती जैसी ज्वार चाहिए हो, तो उसे पूरी तरह पक जाने पर ही काटना चाहिए। इसलिए वे पानी की चिंता नहीं करते और पूरी की पूरी अवधि को पार करके ही ज्वार काटते हैं। जो पूरी की पूरी सीमा तक तपन देकर ज्वार काटता है, उसके ज्वार हुँघरू की तरह आवाज करने वाले और आटे से भरपूर रहते हैं। वे वर्ष भर रखे भी रहें, तो भी उनमें कीड़े आदि नहीं लगते, खराबी नहीं आती। इसी प्रकार पूरी तरह तप का योग पाकर रत्नत्रय में निखार आता है। फिर कैसी भी परिस्थिति आए, रत्नत्रय के धारी मुनि हमेशा अपनी विशुद्धि बढ़ाते रहते हैं। संक्लेश परिणाम नहीं करते। जो आधा घंटे सामायिक करके उठ जाते हैं, वे जल्दी थक जाते हैं और विचलित हो जाते हैं। लेकिन जो प्रतिदिन दो-दो, तीन-तीन घंटे सामायिक और ध्यान में लीन होने का अभ्यास करते हैं, उनकी विशुद्धि हमेशा बढ़ती ही जाती है। इधर-उधर के कामों में उनका मन नहीं भटकता और वे एकाग्र होकर अपने में लगे रहते हैं। सामायिक बिना भाव सामायिक कहाँ - एक बार आचार्यश्रीजी के पास कुछ ऐसे श्रावक, जिनकी वर्तमान के मुनियों के प्रति कम निष्ठा रहती है, तत्त्वचर्चा कर रहे थे। चर्चा के बीच में ही गुरुदेव की दृष्टि घड़ी पर गई, साढ़े ग्यारह बज गये थे। समय के पाबंद गुरुदेव ने कहा कि हमारा सामायिक का समय हो गया, इतना कहकर वह आवर्त्त (दिशाओं में नमस्कार पूर्वक कार्योत्सर्ग) करने लगे। तब उन श्रावकों में से कारंजा, वाशिम, महाराष्ट्र निवासी माणिकचंद्र चवरे ‘तात्या' ने कहा- “देखो! भाव सामायिक को छोड़ कर द्रव्य सामायिक की बात करने लगे। मात्र रीढ़ सीधी करने से सामायिक नहीं होती।' श्रावक की अज्ञानता भरी बात सुनकर, मन ही मन करुणा से भर गए गुरुदेव। उस समय तो सामायिक करनी थी, सो मौन रहे। मध्याह्न की कक्षा में गुरुजी की अज्ञानहरण करने वाली वाणी खिरी- ‘क्या द्रव्य सामायिक के बिना भाव सामायिक होती है? जब द्रव्य सामायिक करेंगे उस समय क्या भाव सामायिक नहीं होगी? जो यह नहीं समझता, वह सामायिक के स्वरूप को नहीं समझ सकता। जो सामायिक के समय स्वाध्याय करता है, उसने सामायिक को समझा ही नहीं। जब तक मन-वचन-काय को द्रव्य से स्थिर नहीं करते तब तक भाव सामायिक नहीं होती। (मुस्कराकर बोले) ध्यान रखना, यदि रीढ़ सीधी करने से सामायिक नहीं होती, तो भीड़ जोड़ने से भी सामायिक नहीं होती है। स्वाध्याय करते-करते आज तक किसी को शुद्धोपयोग नहीं हुआ, और न ही केवल ज्ञान हुआ है, न हो रहा है और न होगा।' सामायिक अच्छे से करना चाहिए। जितना काल बताया उतना करना अनिवार्य है। उसे छोड़ना नहीं चाहिए। अन्य व्रतों की अपेक्षा इसे मुख्य बताया है। सारे व्रत इसमें आ जाते हैं। अन्य व्रतों में लगे दोषों का संशोधन सामायिक से हो जाता है। किसी ने प्रश्न किया- ‘आचार्यश्रीजी ! सामायिक में कभीकभी विशुद्धि बढ़ती है, रोज क्यों नहीं?' आचार्यश्रीजी बोले- ‘भगवान् हजारों वर्ष तक दिन में तीन बार सामायिक करते हैं। परन्तु केवलज्ञान एक ही सामायिक में हुआ, अर्थात् जब भगवान् की विशुद्धि एक जैसी नहीं रहती, तो हम क्या...? जिस सामायिक में विशुद्धि बढ़ती है, उसे ध्यान रखना चाहिए।' मन-वचन-काय की स्थिरता ‘द्रव्य सामायिक' एवं आत्मस्थ भाव, ज्ञाता-द्रष्टा भाव ‘भाव सामायिक' कहलाती है। घड़ी पर दृष्टि, तो सामायिक कैसी - एक बार आचार्यश्रीजी ने पूछा- “आज हमारे पास घड़ी किसने रखी थी?' सभी मौन रहे, एक ब्रह्मचारीजी ने कहा- ‘जी हमने रखी थी, क्योंकि आप बहुत जल्दी (सोकर) उठ जाते हैं।' आचार्यश्रीजी बोले- ‘शरीर को आराम देने के लिये दो-तीन घण्टे पर्याप्त हैं। फिर कौतूहल रूप में ब्रह्मचारीजी से बोले- क्या तुम्हारे यहाँ घड़ी की दुकान है? फिर तो तुम कमण्डलु-पिच्छी के साथ घड़ी भी लेकर चलोगे।' और मंद-मंद मुस्कराने लगे। शिक्षा देने का ढंग भी गुरुजी का अनोखा है। गुरुजी ने उस घड़ी को उल्टा रखा और सामायिक करने बैठ गए। आचार्यश्रीजी कहते हैं- यदि सामायिक में घड़ी पर दृष्टि जा रही, तो सामायिक नहीं हो रही। काल का तो पता ही नहीं चलना चाहिए। श्वासोच्छ्वास को घड़ी बनाकर सामायिक करें, घड़ी सामने रखकर नहीं। भक्ति की अभिव्यक्ति : स्तव आगम की छाँव उसहादिजिणवराणं...........................थवो णेओ॥२४॥ ऋषभ आदि तीर्थंकरों के नाम का कथन और गुणों का कीर्तन करके तथा उनकी पूजा करके उनको मन-वचन-काय पूर्वक नमस्कार करना ‘स्तव' नाम का आवश्यक जानना चाहिये। आचार्यश्री का भाव भगवान् बनने की एक युक्ति है- भगवान् के गुणों के प्रति अनुराग रखो, भक्ति करो। भगवान् को देखते रहने से भी स्तुति होती है, भक्ति होती है। वह भाव-विभोर हो जाता है, और भगवान् के सामने कुछ बोल ही नहीं पाता। अर्हत भगवान् की जय-जयकार करने से असंख्यातगुणी कर्मों की निर्जरा होती है। जैसे दो पृष्ठों के बीच गोंद लगाने पर दोनों पृष्ठ एक हो जाते हैं, ठीक उसी प्रकार भक्त और भगवान् के बीच भक्ति रूपी गोंद लगाने से दोनों एकमेक हो जाते हैं। भक्ति करने से चित्त को शांति मिलेगी, अहंकार घटेगा एवं नर पर्याय सार्थक होगी। स्तुत्य प्रत्यक्ष हो या न हो, स्तुति करने वाला तो उनके गुणों का स्मरण कर पवित्र हो जाता है। ‘हे भगवन्! आप तो सुन नहीं रहे।' यह भी एक प्रकार का स्तव है। सम्मेदशिखरजी में चन्द्रप्रभ भगवान् की टोंक पर बैठी एक वृद्धा जब कहती है- “हे भगवान् तुम कहाँ आकर बैठे हो ? हम तो यहाँ पर आते हुए थक गए हैं। धन्य हैं प्रभो! हमारा भी कल्याण करो।' यह भी स्तव ही है। जिस प्रकार सीप के योग से तुच्छ जल कण भी महान् मुक्ताफल बन जाते हैं, ठीक उसी प्रकार भगवान् के प्रति किया गया अल्प स्तवन भी महत् फल प्रदान करता है। भगवान् से मुनि बनने की भावना करना। हमारे कर्मों का नाश हो कहना। भक्ति में भगवान् के प्रति जो कर्तव्य की बात की जाती है वह सब अनुभय वचन है। आपकी कृपा से मेरा सब काम हो गया। आपकी वजह से मेरे लिये सब कारण बन सकते हैं। एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कुछ नहीं करता, ऐसा कहकर लोग उपादान की योग्यता को कम कर रहे हैं। अगर निमित्त को उपादान का कारण नहीं मानते, तो जिनवाणी और वाणी दोनों ही जड़ हैं। फिर ये हमारे उपादान के कारण कैसे हो सकती हैं? जबकि ये हमारे उपादान के लिए कारण हैं। भगवान् , भक्ति और भक्त का तालमेल गायन, वाद्य और नृत्य जैसा ही है। भगवान् की भक्ति में द्रव्य, गुण व पर्याय को लेकर के स्वाध्याय हो जाता है। धीरे-धीरे ‘स्वयंभू-स्तोत्र' करेंगे, तो एक घंटा लगेगा। न्याय, योगी भक्ति, चारित्र भक्ति, सिद्ध भक्ति, अध्यात्म, अर्हद् भक्ति, तप आदि सभी ‘स्वयंभू-स्तोत्र' में आ जाता है। स्वाध्याय भी हो जाता है। आगे बनूंगा अभी प्रभुपदों में बैठ तो लूं। आचार्यश्री का स्वभाव स्तव, आनंद का स्रोत - जब ‘स्तव' नामक द्वितीय आवश्यक का प्रसंग सामने आता है, तब ‘स्वयंभू-स्तोत्र' (आचार्य श्री समंतभद्र स्वामीजी द्वारा रचित १४३ श्लोक प्रमाण २४ तीर्थंकरों की स्तुति स्तोत्र) का पाठ करते हुए आचार्यश्रीजी का बिम्ब आँखों के सामने उपस्थित हो जाता है। वह प्रतिदिन, दिन में तीन बार प्रातः, मध्याह्न और सायं तीनों कालों की सामायिक के पहले अथवा बाद में इस स्तोत्र का पाठ बड़ी ही तन्मयता के साथ अड़तालीस मिनट या एक घण्टे में पूर्ण करते हैं। सामायिक के आसन को हिलाए बिना दोनों हाथ जोड़ कर, गुनगुनाते हुए करते हैं। जब उन्हें पाठ करते हुए देखो तो ऐसा लगता है मानो वह शब्द-शब्द पी रहे हों, उसके साथ आत्मसात् हो, जी रहे हों, उनके चेहरे से आनंद का स्रोत बह रहा हो। चौबीस भगवंतों की स्तुतिगान करने वाले छोटे-छोटे अन्य स्तोत्र भी हैं, पर आचार्यश्रीजी का सन् २००५, बीना बारहा (सागर, मध्यप्रदेश) से बृहद् स्वयंभू-स्तोत्र का पाठ तीनों संध्याओं में अनवरत जारी है। और हर बार उन्हें नई ऊर्जा, नए उत्साह, नए भावों के साथ पाठ करते हुए, उस ही रूप में डूबे हुए देखा जाता है। ऐसी तन्मयता अत्यंत दुर्लभ है। निज दर्शन की परिचायिका : वंदना आगम की छाँव अरहंतसिद्ध.........................संकोचणं पणमो।।२५।। अहँत, सिद्ध और उनकी प्रतिमा, तप में श्रुत या गुणों में बड़े गुरु का और स्व-गुरु का कृतिकर्म पूर्वक अथवा बिना कृतिकर्म (सिद्ध, श्रुत एवं आचार्य भक्ति पूर्वक) के मन-वचन-काय पूर्वक प्रणाम करना ‘वंदना' है। एयरस्य तित्थयरस्यणमंसणं वंदणाणाम...। एक तीर्थंकर को नमस्कार करना वंदना है। वन्दना त्रिशुद्धिः द्वयासना चतुःशिरोऽवनतिः द्वादशावर्तना...। मन-वचन-काय की शुद्धि पूर्वक कायोत्सर्ग मुद्रा या पद्मासन से चार बार शिरोनति और बारह आवर्तपूर्वक वंदना होती है। आचार्यश्री का भाव जिन दर्शन के प्रति हमेशा विशुद्धि बनी रहनी चाहिए। प्रभु के चरणों में जो विशुद्धि प्राप्त होती है, वह अन्यत्र कहीं भी प्राप्त नहीं हो सकती। प्रभु की भक्ति से उनके पादमूल में मोहनीय कर्म का क्षय हो जाता है, क्षायिक सम्यग्दर्शन भी प्राप्त हो जाता है। जब कभी भी वंदना करें, स्तुति करें, पाठ करें, उस समय मन-वचन-काय की चेष्टा शुद्ध रखें, एक-एक शब्द का उच्चारण हो, प्रत्येक शब्द के अर्थ की ओर दृष्टि जाए। प्रवृत्ति भले ही हो, लेकिन वह मनोयोग के साथ ही हो। अज्ञान रूपी अंधकार को नष्ट करने के लिए भक्ति रूपी दीपक का सहारा लेना चाहिए। स्तुति, वंदना मोक्ष की जननी/माँ के समान है। यदि कुछ विशिष्ट तप करना चाहते हो तो संहनन का योग न मिलने पर, नहीं कर सकते। इसीलिए मन लगाने के लिए प्रभु भक्ति रूप स्तुति में मन लगाओ। आज शुद्धोपयोग के लिये कम समय मिलता है तो पंच परमेष्ठी की आराधना करो। उसमें लगे रहो। यह पंच परमेष्ठी की वंदना ही हमें मुक्ति रूपी उपवन के लिये समीचीन वृष्टिवत् है। वंदना आदि आवश्यक अपना कर्तव्य समझ कर उत्साह के साथ सहज भाव से करना चाहिए। वंदना करते समय डरना नहीं चाहिए। स्तुति का लक्ष्य वैराग्य की ओर होता है। वंदना करते हैं और गुणों की ओर दृष्टि गई नहीं तो हम वंदना कह ही नहीं सकते। केवल काया की थोड़े ही हम वंदना कर रहे हैं। यदि दिगम्बरत्व को देखते हैं तो वहाँ पर गुण आता है और यदि दिगम्बरत्व नहीं है तो ना चारित्र आएगा, ना सर्वज्ञत्व आएगा, क्षुधा-तृषा आदि अठारह दोष हैं ना इनसे रिक्तता आएगी और इस प्रकार वह सर्वज्ञ है ऐसी मान्यता भी समाप्त होगी। ये एक मात्र symbol यथाजात रूप देखते हैं सारेसारे गुण उभर कर के आते हैं। पंच परमेष्ठी की भक्ति एवं ध्यान से विशुद्धि बढ़ेगी, संक्लेश घटेगा एवं वात्सल्य बढ़ेगा। भगवद् भक्त बीहड़ घनघोर जंगल में भी रास्ता पा लेता है और भगवान् को भूल जाने वाला साफ़-सुथरे रास्ते पर भी भटक जाता है। देख सामने प्रभु के दर्शन हैं। भूत को भूल। आचार्यश्री का स्वभाव प्रभुदर्श पा हर्ष से झूम उठते - बीना बारहा (सागर, मध्यप्रदेश), २०१५ में चातुर्मास का प्रसंग है। आचार्य भगवन् का स्वास्थ्य अनुकूल नहीं था। वे अत्यंत कमजोर हो गए थे। पर जैसे ही वंदना आवश्यक का समय हुआ। वह अपने कमरे से बाहर दहलान तक चलकर आए। उस समय की अस्वस्थता वाली मुखमुद्रा सामने बने मानस्तंभ में विराजित अहँत प्रभु का दर्श पाकर परिवर्तित हो गई। पिच्छी हाथों में झूल गई। चेहरे की वीतरागता सहस्र गुणित हो गई। अस्वस्थता का भाव चेहरे से पलायित हो गया। उन्होंने प्रफुल्लित हावभाव से विधि पूर्वक अर्हत प्रभु की वंदना की। उस समय का दृश्य ऐसा लग रहा था मानो जैसे गौतम स्वामीजी महावीर स्वामीजी को साक्षात् पाकर हर्षित हो रहे हों। ऐसा माँगो, दोबारा न माँगना पड़े - ०३ अक्टूबर, २००५ को अतिशय क्षेत्र बीना बारहा (सागर, मध्यप्रदेश) में एक श्रावक ने आचार्यश्रीजी से पूछा- ‘गुरुदेव! सभी लोग प्रभु के सामने कुछ न कुछ याचना करते हैं, उनसे कुछ माँगना चाहिए या नहीं ?' आचार्यश्रीजी बोले- ‘भगवान् के सामने ऐसी माँग करें ताकि दोबारा न माँगना पड़े।'वन्दे तद्गुण लब्धये'- हे प्रभु! आपको नमस्कार कर रहा हूँ मात्र आपके गुणों की प्राप्ति के लिए। प्रभु के पास रत्नत्रय रूप ऐसी निधियाँ हैं कि अनादिकाल की निर्धनता समाप्त हो जाती है। और आत्मवैभव उपलब्ध हो जाता है। व्रत शोधक यंत्र : प्रतिक्रमण आगम की छाँव अतीतदोषनिवर्तनं प्रतिक्रमणम्। अतीत में किए गए दोषों की निवृत्ति प्रतिक्रमण है। प्रतिक्रम्यते प्रमादकृतदैवसिकादिदोषो निराक्रियते अनेनेति प्रतिक्रमणं.... प्रमाद के द्वारा किए (लगे हुए) दोषों का जिसके द्वारा निराकरण किया जाता है, उसको प्रतिक्रमण कहते हैं। मिथ्यादुष्कृताभिधानादभिव्यक्तप्रतिक्रियं प्रतिक्रमणम्.... ‘मेरा दोष मिथ्या हो'- गुरु से ऐसा निवेदन करके अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करना प्रतिक्रमण है। प्रतिक्रमण सात प्रकार के होते हैं- १. दैवसिक-दिन में लगे दोषों का। २. रात्रिक-रात्रि में लगे दोषों का। ३. ईर्यापथ-गमन-आगमन में चलने पर लगे दोषों का ४. पाक्षिक-पक्ष (१५ दिन) में लगे दोषों का। ५. चातुर्मासिक-चातुर्मास में लगे दोषों का। ६. सांवत्सरिक-वर्ष भर में लगे दोषों का। ७. औत्तमार्थिक-जीवन भर में लगे दोषों की आलोचना करना औत्तमार्थिक प्रतिक्रमण कहलाता है। इसे क्षपक यानी समाधि ग्रहण करने वाला जीव करता है। आचार्यश्री का भाव प्रतिक्रमण प्रतिदिन की दीक्षा है। अध्यात्म तक पहुँचने के लिए प्रतिक्रमण अनिवार्य होता है। जैसे कड़वी दातौन से मुख शुद्धि कर लेने पर मिठाई का स्वाद अच्छा लगता है। उसी प्रकार शुद्धात्मानुभूति रूपी मिठाई का स्वाद (अनुभव) लेने से पहले प्रतिक्रमण द्वारा उसकी भूमिका बना ली जाती है। प्रसन्नचित्त होने के लिए प्रतिक्रमण रामबाण के समान अचूक दवाई है। प्रतिक्रमण जीवन पर्यंत करते रहना चाहिए। अतिक्रमण होता है तो प्रतिक्रमण करना भी आवश्यक है। हमें आत्मोन्मुखी होकर प्रतिक्रमण करना चाहिये। मोक्षमार्ग में प्रतिक्रमण करने वाला व्यक्ति पर की निंदा-गर्दा न कर, अपनी ही (आलोचना) निंदा गर्दा करता है। केवल प्रतिक्रमण का पाठ नहीं, भाव-भाषा सहित पाठ होना चाहिए, वही मूलगुण है। समुद्र के जल की भाँति परिणामों में भी हमेशा-हमेशा आरोहण-अवरोहण होता रहता है। प्रतिक्रमण एक ऐसा आवश्यक है, जिसके द्वारा सारे के सारे दोष प्रलय को प्राप्त हो जाते हैं। प्रतिक्रमण सामायिक की भाँति दिन में तीन बार, तीनों योगों सहित होना चाहिये। आचार्य श्री ज्ञानसागरजी कहते थे-जो ईर्यापथ प्रतिक्रमण है वह आहार, विहार व निहार आदि में जो जल्दी-जल्दी चलते हैं, रात में या दिन में आना-जाना, प्रवृत्ति आदि जो भी होती है, वंदना आदि करके आए हैं, उस संबंधी दोषों के निवारण के लिये ईर्यापथ की शुद्धि की जाती है। मात्र आहार संबंधी दोष के लिए नहीं। असंयमी के यहाँ जाकर जो भोजन करते हैं वह भोजन करना भी असंयमवत् कहा है। जिस प्रकार घर, आंगन को प्रतिदिन साफ़ कर रंगोली डालते हैं, उसी प्रकार प्रतिक्रमण द्वारा अपनी आत्मा को साफ़ कर उत्तम भावों की रंगोली डालें। जो भी दुराग्रही परिणाम आवे, तो उन्हें फटकार लगा देवें। प्रतिक्रमण करने वाला स्वाध्याय ही कर रहा है। आचार्य कुंदकुंद देव कहते हैं स्वाध्याय करने वाला अभिमान भी कर सकता है, पर प्रतिक्रमण करने वाला किए गए अभिमान पर पश्चात्ताप कर रहा है। प्रतिक्रमण का लाभ- इससे अतीत भी, अनागत भी एवं वर्तमान भी सुधर जाता है। प्रत्येक संसारी प्राणी अपने दोषों को मंजूर नहीं करता और न ही उन दोषों का निवारण करने का प्रयास करता है। वह तो प्रायः दूसरे को दंड देना चाहता है, पर अपने आप दंडित होना नहीं चाहता। किन्तु मोक्षमार्ग का पथिक वही है, जो इस संसार में अपने दोषों को छोड़ने के लिए हर क्षण तैयार रहता है। मुनिराज संसारी प्राणी होते हुए भी दूसरे को दण्ड देना नहीं चाहते, बल्कि खुद प्रत्येक प्राणी के प्रति चाहे वह सुने या न सुने, प्रतिक्रमण के माध्यम से अपनी पुकार पहुँचा देते हैं। कल चतुर्दशी का दिन था, ऐसा कहें कि कल ‘पनिशमेंट डे' था, दंड लेने का दिन था यानी पाक्षिक प्रतिक्रमण का दिवस था। आलोचन से लोचन खुलते हैं। सो स्वागत है। आचार्यश्री का स्वभाव आचार्यश्रीजी के प्रत्येक आवश्यक का समय निश्चित है। प्रतिक्रमण में उनके दोनों हाथ प्रायः पूरे समय जुड़े रहते हैं एवं मुख मुद्रा से आनंद का स्रोत बहता रहता है। पाक्षिक (१५ दिन/एक पक्ष) प्रतिक्रमण में कभी-कभी तो उन्हें ढाई से पौने तीन घंटे तक लगते हैं। वे पुस्तक (में देखकर) को सामने रखकर ही प्रतिक्रमण करते हैं। उनका कहना है प्रतिक्रमण-पाठ आदि पुस्तक से करने पर मन भटक नहीं पाता और उसके एक-एक शब्द का अर्थ स्पष्ट होता जाता है। कंठस्थ विषय का प्रतिदिन पाठ करने से पाठ चलता रहता और मन यहाँ-वहाँ चहलकदमी करता रहता है। इसीलिए पहले पाठ को कंठस्थ करो ताकि स्वाश्रित चर्या हो सके। और जब अनुकूलता रहे पुस्तक को देखकर पाठ करो। जो आवश्यक वही करते - सन् २००४, तिलवाराघाट, दयोदय, जबलपुर (मध्यप्रदेश) में आचार्य ससंघ विराजमान था। प्रातः सूचना आई कि मध्यप्रदेश शासन की मुख्यमंत्री माननीया उमा भारतीजी गुरु दर्शनार्थ प्रातः साढ़े सात बजे पधार रही हैं। गुरुवर ने सूचना सुन ली। उस दिन चतुर्दशी थी। पाक्षिक प्रतिक्रमण करने का दिन था। सो गुरुजी तो प्रातः सात बजे प्रतिक्रमण करने बैठ गए। मुख्यमंत्री सुश्री उमाभारतीजी अन्य नेताओं के साथ आईं, पर गुरुजी की न तो नज़र उठी और न ही आशीर्वाद हेतु हाथ ही उठा। वह तो अपने प्रतिक्रमण आवश्यक में तल्लीन रहे। वह एक घण्टे तक इंतजार करती रहीं और चली गईं। पर गुरुवर की कोई भी हलचल नहीं हुई। अपने आवश्यकों के प्रति इतनी निष्ठा अकथनीय ही है। अपूर्व शांति का कोश : प्रत्याख्यान आगम की छाँव आगामी काल में दोष न करने की प्रतिज्ञा करना प्रत्याख्यान है अथवा सीमित काल के लिए आहार आदि का त्याग करना प्रत्याख्यान है।' अयोग्यानां......................षडविधः।।१०९८-११००।। जो पदार्थ अपने योग्य हैं अथवा अयोग्य हैं उन पदार्थों का नियमपूर्वक तपश्चरण के लिए त्याग कर देना प्रत्याख्यान है अथवा कर्मों का संवर करने के लिए नाम आदिक छह निक्षेपों के द्वारा आगत अथवा अनागत पदार्थों का त्याग करना भगवान् जिनेन्द्रदेव ने ‘प्रत्याख्यान' कहा है। प्रत्याख्यान के छह भेद हैं- नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के रूप में छह प्रकार का माना जाता है। आचार्यश्री का भाव प्रत्याख्यान के माध्यम से मन को संयमित बनाया जा सकता है। मन को संयमित बनाने के लिए प्रत्याख्यान अमोघ शस्त्र के समान है। हमें पहले अच्छी, पक्की धारणा बना लेना चाहिए और बाद में फिर प्रत्याख्यान लेना चाहिए। प्रत्याख्यान लेने के बाद कमजोर व्यक्ति के पास नहीं जाना चाहिए। प्रत्याख्यान भंग होने से मूलगुण-उत्तरगुण आदि सबका भंग हो जाता है तथा मूल और उत्तरगुण भंग होने से नरक का कारण ऐसा महापाप उत्पन्न होता है, उस महापाप से वचनातीत दुःख होता है। भोजन का प्रत्याख्यान होता है। जितना आवश्यक था, उतना करके आ गए। अब फिर उसकी कथा भी नहीं करेंगे। आज किसका मुख देखा था, कैसा कर्म का उदय है, उनके यहाँ जाते हैं, तो ऐसा ही होता है, आदि-आदि बातें हो सकती हैं, ऐसी घटनाएँ हो सकती हैं, होती रहती हैं, इसलिए उस संबंधी कथा का भी त्याग बताया है। प्रत्याख्यान न सिर्फ आहार का बल्कि योग्य पदार्थों का भी होता है। प्रत्याख्यान (त्याग) उचित एवं अनुचित का भी होता है। आज मैं इस दिशा में जाऊँगा, यहाँ तक जाऊँगा आदि रूप संकल्प करना भी प्रत्याख्यान है। बोलने का त्याग, बोलने रूप प्रत्याख्यान है। जैसे हमें रात्रि में बोलने का त्याग करना है। इतना मात्र ठीक नहीं, दिन में भी बोलने का त्याग होना चाहिए, जैसे आज मैं एक घंटा ही बोलूंगा, इतने समय मौन रखेंगा, ये उचित प्रत्याख्यान है। इसमें सत्य एवं झूठ सबका त्याग हो जाता है। जिस प्रकार एस.टी.डी. से फोन करते हैं, उसमें कम शब्द बोलकर अपना सारा काम चला लेते हैं, वैसे ही मुनि महाराज भी अपने काम बिना बोले कर सकते हैं, लेकिन हम बोलने में लगे रहते हैं। सामायिक के समय सत् का भी प्रत्याख्यान होता है। इस समय हम पिच्छी, कमण्डलु एवं शास्त्रादि नहीं उठाएँगे, यह सत् का प्रत्याख्यान हो गया। इस प्रकार योग्य एवं अयोग्य किसी भी पदार्थ का त्याग करना प्रत्याख्यान है। भोग-भोग के पेट पे हाथ नहीं पीठ फेरना। आचार्यश्री का स्वभाव छोड़ा तो छोड़ा - आचार्य भगवन् के प्रसंगों को ज्यों-ज्यों जान रहे हैं, त्यों-त्यों आश्चर्य बढ़ता ही जा रहा है। लगता, अहो! ऐसा भी है। प्रत्याख्यान(त्याग) का ही प्रसंग लें । वह बिना बताए ही त्याग करते । पूछने पर मौन रहते। कब तक के लिए त्याग किया, कब से त्याग किया, सब अज्ञात रहता। एक बार जिस वस्तु का त्याग किया, प्रायः उसका ग्रहण करते हुए नहीं देखा गया। सवारी, नमक, मीठा, सूखे मेवा, तेल, दूध, चटाई आदि अन्य और भी बहुत कुछ। यहाँ तक कि पहली बार में जो घर छोड़ा, तो छोड़ा। फरवरी, २०१६ कोनीजी (पाटन, जबलपुर, मध्यप्रदेश) से दूध लेना बंद किया। संघ ने अनुमान लगाया, संभवतः शारीरिक दृष्टि से नहीं ले रहे होंगे। कुछ दिन बाद देने का बार-बार प्रयास किया गया, पर आज तक उनके द्वारा दूध का ग्रहण नहीं किया गया। प्रत्याख्यान का कार्यक्रम, ईर्यापथ भक्ति - आहार चर्या के बाद संघस्थ सभी साधुगण आचार्यश्रीजी के चरणों में आहार का प्रत्याख्यान करते हैं। जिसे ईर्यापथ भक्ति कहा जाता है। इस समय आचार्यश्रीजी कुछ विशेष प्रसन्न नजर आते हैं। वैसे भी गुरुवर की प्रसन्नता जगजाहिर है। एक दिन एक मुनि महाराज ने गुरुवर से पूछ ही लिया - आप इस समय विशेष प्रसन्न दिखाई देते हैं ?' आचार्यश्रीजी बोले-'२४ घंटे में यह कार्यक्रम, जो त्याग का है, एक बार ही आता है। प्रसन्नतापूर्वक करना चाहिए।' * प्रत्येक आवश्यकों के प्रति उनका उत्साह अकथ्य है। हरी नहीं, हरि का नाम लेता हूँ - सन् १९९३, रामटेक, नागपुर, महाराष्ट्र वर्षायोग के दौरान दशलक्षण पर्व में आचार्यश्रीजी ने हरी सब्जी एवं फलों का त्याग कर दिया। दशलक्षण पर्व पूर्ण होने पर भी जब उन्होंने हरी लेना आरंभ नहीं किया, तब एक दिन ईर्यापथ भक्ति के बाद मुनि श्री प्रमाणसागरजी ने आचार्यश्रीजी से निवेदन किया- ‘आचार्यश्रीजी ! दशलक्षण तो पूर्ण हो गये और आप अभी भी हरी नहीं ले रहे हैं?' आचार्यश्रीजी बोले- ‘जो छोड़ दिया, फिर उसको क्या लेना।' इतनी अल्पवय में हरी छोड़ने का विकल्प सभी संघ को हुआ। एक बार किन्हीं आर्यिकाओं ने गुरुदेव से कहा कि आपने इतनी जल्दी सभी प्रकार की हरी का त्याग क्यों कर दिया? आचार्यश्रीजी बोले-‘हरी का त्याग किया, पर हरि (भगवान्) का नाम तो लेता हूँ। मिठास मीठा में नहीं, दीक्षा में है। - आचार्यश्रीजी सवारी, नमक एवं मीठा के त्याग पूर्वक अपने गुरु के चरणों में समर्पित हुए थे। वैराग्य उम्र की प्रतीक्षा नहीं करता और वैराग्य का फल त्याग है। विद्याधर के जीवन में वैराग्य के कुछ फल तो गुरुचरणों तक आते-आते विकसित हो गए थे।आचार्य श्री ज्ञानसागरजी ने विद्याधर रूपी उपजाऊ भूमि में समुचित खाद-पानी देकर मुनि दीक्षा पूर्व खड़े होकर आहार करते हुए दिक्षार्थी विद्याधर गुणरूपी असंख्य फल और विकसित करा दिए। उन गुणरूपी फलों की सुंदर-सुंदर कलियाँ बनाकर जिन-शासन के आँगन में ऐसे सुसज्जित कर दिया, जिनसे आकर्षित हुआ श्रावक भ्रमर के समान उनके इर्द-गिर्द मँडराता रहता है। २९ जून, १९६८ अजमेर, राजस्थान में विद्याधरजी की मुनि दीक्षा के एक दिन पूर्व की बेला थी। ब्रह्मचारी अवस्था का अंतिम आहार उनके धर्म के माता-पिता श्रीमती जतनकुंवरजी एवं हुकुमचंदजी लुहाड़िया को प्राप्त हुआ। वे नया बाजार स्थित अपने निवास स्थान पर दीक्षार्थी ब्रह्मचारीजी को आहार कराने ले गए। परिवार के सभी सदस्य उनका मुख मीठा कराना चाह रहे थे। पर दीक्षार्थी ब्रह्मचारीजी मंद-मंद मुस्कराते हुए उन्हें मना करते जा रहे थे। तब हुकुमचंदजी लुहाड़िया ने दीक्षार्थी विद्याधरजी से कहा- ‘भैयाजी! कल आपकी दीक्षा हो जाएगी, आज तो मेरी बात मान लो। इतना बड़ा दीक्षा का महोत्सव हो रहा है और जीवन में आमूलचूल परिवर्तन होने जा रहा है। इस खुशी में मीठा मुँह तो करना ही पड़ेगा। आप रस तो लेते नहीं, किंतु आप थोड़ा-सा मीठा ले लेंगे तो हम लोगों को आनंद रस आ जाएगा।' यह सुनकर दीक्षार्थी विद्याधरजी को जोर से हँसी आ गई, पर उन्होंने मीठा नहीं लिया। आहार के बाद ब्रह्मचारी विद्याधरजी बोले- ‘जिस चीज़ को छोड़ दिया, उसे पुनः ग्रहण क्या करना।' उनकी दृढ़ता को देखकर देखने वालों की भीड़ ने जयकारा लगाया। धन्य है आचार्यश्रीजी को, जिन्हें क्षणिक मिठास देने वाले पकवानों से रस-पान की चाह नहीं रही, उन्हें तो शाश्वत मिठास मोक्षफल को प्रदान करने में समर्थ दैगम्बरी दीक्षा का रसास्वाद लेने की चाह रही। वे समझ गए थे, मिठास मीठा में नहीं, दीक्षा में है। लगभग ५-६ अक्टूबर, सन् १९६७, किशनगढ़, अजमेर, राजस्थान से ब्रह्मचारी अवस्था में नमक एवं मीठा का त्याग। सन् १९६७, किशनगढ़, राजस्थान से ब्रह्मचारी अवस्था में सवारी का त्याग। सन् १९७६ से फलों का त्याग। सन् १९८३, ईसरी, बिहार से थूकने एवं खारक (छुहारा) के अलावा शेष सूखे मेवा का त्याग। सन् १९८५, सिद्धक्षेत्र अहारजी, टीकमगढ़, मध्यप्रदेश से चटाई का त्याग। सन् १९९१ , मुक्तागिरिजी, बैतूल, मध्यप्रदेश, से विधि मिलने पर एक ही चौके में पड़गहने का नियम। सन् १९९३, रामटेक, नागपुर, महाराष्ट्र से हरी सब्जियों का त्याग। आचार्यश्रीजी ने आचार्यपद ग्रहण के बाद मार्गशीर्ष कृष्ण द्वितीया से फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा तक आहार में मात्र गेहूँ, दूध, पानी ही ग्रहण किया। सन् २०१६, कोनीजी, पाटन, जबलपुर, मध्यप्रदेश से दूध का त्याग। आत्म-मिलन का अवसर : कायोत्सर्ग आगम की छाँव त्यक्त्वाङ्गादि.............................कारकः ।।११५२-११५३।। रात्रि में वा अन्य किसी समय में अपने शरीर से ममत्व का त्यागकर तथा दोनों प्रकार के परिग्रहों का त्यागकर, खड़े होकर, दोनों भुजाएँ लम्बी लटकाकर पाँचों परमेष्ठियों के गुणों का चिंतन करना ‘कायोत्सर्ग' कहलाता है। यह कायोत्सर्ग अनंतवीर्य (अनंत शक्ति) को उत्पन्न करने वाला है। आचार्यश्री का भाव काय (शरीर) का उत्सर्ग अर्थात् काय के प्रति ममत्व का त्याग । जैसे गृहस्थ कोट पहनते हैं, और घर जाकर उसे उतारकर बूंटी पर टाँग देते हैं। यह कोट का उत्सर्ग(त्याग) हो गया। इसी प्रकार साधक काय के प्रति ममत्व(अपनेपन का भाव) का त्याग कर देता है। कायोत्सर्ग में प्रवृत्ति का पूर्ण त्याग कर दिया जाता है। वह एक मूलगुण है। ध्यान तो अंतर्मुहूर्त का होता है, पर कायोत्सर्ग तो बारह भावना आदि का चिंतन करते-करते घंटों तक चल सकता है। शरीर के प्रति निरीहता होना साधु की सबसे बड़ी निरीहता मानी जाती है। तभी उपसर्गों को जीता जा सकता है। दंशमशक आदि का प्रतिकार किए बिना कायोत्सर्ग करना चाहिए। कायोत्सर्ग करने से पूर्व स्थान आदि देख लें। बाद में प्रतिकार के भाव नहीं करें। प्रतिकार करना भी अपने आप में हिंसा है। सूक्ष्म हिंसा है। यदि परीषह विजय नहीं कर पा रहे तो कम से कम उसके भाव तो करना चाहिए। आज यदि हम कमज़ोर हो गए तो आगे-आगे कमज़ोर होते जाएँगे। इसीलिए हमें परीषह जय करना चाहिए और अभ्यास बनाए रखना चाहिए। हमें टिक करके नहीं बैठना चाहिए। दीवार से टिकने से गुरुत्वाकर्षण और अधिक बढ़ता है। इस प्रकार करते हैं तो कायोत्सर्ग आदि अच्छा लगता है। करोड़ों विघ्नों के जाल एक क्षण के कायोत्सर्ग से नष्ट हो जाते हैं। कायोत्सर्ग करने से संघातन क्रिया (विशेष वर्गणाएँ आना) होती है, जिससे शरीर स्वस्थ बना रहता है। जिस प्रकार आहार करते समय पैरों में दर्द का अहसास नहीं होता है, वैसे ही कायोत्सर्ग करते समय भी पैरों में दर्द का अहसास नहीं होना चाहिए। कायोत्सर्ग करते समय इधर-उधर नहीं देखना चाहिए, सौम्य मुद्रा होनी चाहिए। कायोत्सर्ग करते समय जीभ नहीं हिलना चाहिए। एक दूसरे से चिपक करके कायोत्सर्ग करना ठीक नहीं है। निश्चितता में भोगी सो जाता वहीं योगी खो जाता। आचार्यश्री का स्वभाव मुद्रा सौम्य हो - सन् २००२, बंडा बेलई, (सागर, मध्यप्रदेश) पंचकल्याणक के समय आहार के बाद ईर्यापथ-भक्ति चल रही थी। एक मुनि महाराज आचार्यश्रीजी को देखकर कायोत्सर्ग कर रहे थे। भक्ति पूर्ण होने पर आचार्यश्रीजी बोले-“देखो! कायोत्सर्ग सौम्य मुद्रा में, आँख बंद करके करना चाहिए।' महाराजजी ने निवदेन किया-‘आचार्यश्रीजी! आपको देखकर तो कर सकते हैं?' आचार्यश्रीजी की हँसी फूट पड़ी, बोले-‘मुझे बाद में देखना, पहले जैसा मैं कह रहा हूँ वैसा करो।' तब उन महाराजजी ने प्रसन्न होकर, सौम्य मुद्रा में आँख बंद करके फिर से कायोत्सर्ग किया। अहो! कायोत्सर्ग मुद्रा, जिनमुद्रा - सन् २००१, अतिशय क्षेत्र बहोरीबंद, जबलपुर, मध्यप्रदेश में आचार्यश्री का ग्रीष्मकालीन प्रवास था । उस समय वहाँ पर एक मंज़िला इमारत में बहुत पुराने, छोटे-छोटे कुल आठ-दस कमरे ही बने थे। उन कमरों के आगे-पीछे एवं ऊपर पूरा खुला मैदान था। इस कारण मई-जून माह का सूर्य चारों तरफ से अपनी तपन उन कमरों पर लुटा रहा था। और इस पर भी एक-एक कमरे में चार-चार साधु ठहरे थे, सो आपस की गर्मी भी हो रही थी। गर्मी की इस भीषणता में बड़े-बड़े ग्रंथों के स्वाध्याय की अनुकूलता नहीं बन पा रही थी। अतः ज्येष्ठ मुनि श्री योगसागरजी के कहने पर सभी साधुओं ने आपस में ही आचार्यश्रीजी कृत 'मूकमाटी' महाकाव्य का स्वाध्याय इस वाचना काल में किया था। प्रतिकूलता में भी अनुकूलता की अनुभूति करने में समर्थ आचार्य भगवन् ने इस ग्रीष्मकाल में दोपहर की सामायिक के समय कायोत्सर्ग की मुद्रा में निष्कंप खड़े होकर ढाई-ढाई घंटों की सामायिक करना शुरू कर दी थी। जहाँ मुख पर पसीने की एक बूंद बह जाए तो घबराहट हो जाती है, वहीं गुरुदेव के शरीर से पसीना ऐसा बहता था कि आस-पास की भूमि गीली हो जाती थी। फिर भी वह अडिग, अटल, एकदम निश्चेष्ट खड़े रहते थे। संघस्थ मुनि श्री पूज्यसागरजी ने विचार किया कि आचार्यश्रीजी अपने कक्ष में अकेले हैं, अतः आपस की गर्मी भी नहीं लगेगी और गुरुचरणों में प्रमाद भी नहीं आएगा। ऐसा विचार कर वह आचार्यश्रीजी के कक्ष में पहुँचे तो देखा की गुरुदेव तो कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़े सामायिक में लीन हैं। उन्होंने भी खड़े होकर सामायिक करने का मन बनाया और स्वयं भी खड़े हो गए। पर वह दस-पंद्रह दिन ही यह साधना कर पाए, किन्तु गुरुदेव की यह साधना पूरे ग्रीष्मकाल अनवरत चलती रही। अथक, अरु क। धन्य है गुरुदेव को, जहाँ वे दोपहर की सामायिक प्रायः बैठकर एक घंटे की ही करते थे, क्योंकि दिन में सूर्य प्रकाश होने से स्वाध्याय अधिक करते हैं। वहीं स्वाध्याय की अनुकूलता न होने पर वे काय के प्रति ममत्व छोड़कर निर्जरा का साधन जुटाने लगे। उपसंहार छह आवश्यकों में प्रत्येक आवश्यक के प्रति हमारी आस्था, हमारा उत्साह बना रहे। इस समय सामायिक करना है, सो सामायिक करना है। इस समय प्रतिक्रमण करना है, सो प्रतिक्रमण ही करना। प्रतिक्रमण का समय पूर्ण हुआ और उसे अच्छे ढंग से कर लिया, तो दूसरा आवश्यक हमारे सामने है। प्रशस्त समय में प्रतिक्रमण करोगे, तो सामायिक में बिलकुल हल्के हो जाओगे। और बहुत अच्छी सामायिक होगी। फिर स्तुति करो, उसके बाद स्वाध्याय।“ आवश्यकों के लिए जितना समय रखा है, उसको ध्यान में रखना चाहिए, जल्दी-जल्दी नहीं करना चाहिए। व्रतों में कोई एक व्रत का ही अच्छे से पालन करना ठीक नहीं। एक व्रत तो बहुत अच्छा पाल रहे हैं, पुरस्कृत हो रहे हैं और दूसरे में फैल- कैसे होगा? पूरे के पूरे जितने व्रत हैं आपके, वो सब कम्पलसरी(अनिवार्य) हैं। वे गौण नहीं हो सकते। इसीलिए कहा है अनिवार्य प्रश्न को जो हल नहीं करता और बाकी सब प्रश्नों को हल करके आया है, और कहता है ९५ नम्बर नेट हैं, गलत बात है। परीक्षक चैक (जाँच) ही नहीं करेंगे। अनिवार्य प्रश्न पहले किया है या नहीं, पहले देखेंगे। फिर बाद में जो चैक करने वाले होते हैं, वो नम्बर देना प्रारंभ कर देते हैं। नोट (निर्देश)...सावधान ! इस प्रश्न को तो आपको अनिवार्य रूप से हल करना है। यदि यह नोट भूल गए, तो चिल्लर (फुटकर प्रश्न) में रह जाओगे। नईं समझे? अपने यहाँ छह आवश्यक अनिवार्य कहे गए हैं, जिस समय जो कार्य करने को कहा है, उस समय वही कार्य करना चाहिए। आवश्यकों का पालन करना तो स्वाध्याय का फल है। अपने आवश्यक ऐसे करें, जिससे सावद्य का दोष न लगे। इसीलिए दिन के प्रकाश का पूर्ण प्रयोग कर लीजिए। आवश्यक का परिहार न करें व यद्वा-तद्वा न करें। आवश्यकों में ज्यादा से ज्यादा समय लगाना चाहिए।'दीनता के भावों से कभी नहीं करना चाहिए। यह भाव धार्मिक क्षेत्र में अच्छा नहीं। यदि आप लोग आवश्यकों का पालन अच्छे नहीं करते तो समझो आगे वालों को/उम्मीदवारों के लिए मार्ग अवरुद्ध कर रहे हो। अंतरंग आवश्यकों में श्री कुंदकुंद आचार्य और बाह्य आवश्यकों में श्रीसमंतभद्राचार्य का स्मरण करना चाहिए। सामयिक आदि आवश्यकों को जो सही समय पर, सही ढंग से करता है, वह होनहार है।
  4. आचार्यश्रीजी कहते हैं- ‘मन एवं इन्द्रियों के विषय जिसके अधीन हैं, ऐसे संयमी मुनि का शरीर जिनागम में ‘आयतन' कहा गया है। जो रत्नत्रयधारी (मुनि) होता है, वही शुद्ध आत्मा का ध्यान कर सकता है। और महाव्रत धारण किए बिना रत्नत्रय प्राप्त नहीं हो सकता। इसके लिए इन्द्रियों के विषयों से ऊपर उठना होता है। यह संकल्प एक दिन के लिए नहीं, बल्कि जीवन पर्यंत के लिए होता है। अनमोल है यह चर्या, यह व्रत, जो आज भी दिगंबर साधु पाल रहे हैं। कहाँ तक कहा जाए यह पथ, यह चर्या ऐसी है जिसका मूल्य कभी भी आँका नहीं जा सकता?' दिगंबर साधुओं के २८ मूलगुणों में पठित पंचेन्द्रिय निरोध'के अनुरूप ढल गया है जिनका जीवन, ऐसे अग्रगण्य, ‘आत्मजयी'साधक आचार्यश्रीजी से संबंधित प्रसंगों को इस पाठ में प्रस्तुत किया जा रहा है। संयम की पृष्ठभूमि : पंचेन्द्रिय निरोध आगम की छाँव चक्खू सोदं...................सया मुणिणा।।१६।। मुनि को चाहिए कि वह चक्षु, कर्ण, घ्राण, जिह्वा और स्पर्शन इन पाँच इन्द्रियों को अपने विषयों से हमेशा रोके। रोधा अप्रवृत्तयः....................कियन्तस्ते पंचैव।। इन्द्रियों की विषयों में प्रवृत्ति नहीं करना रोध कहलाता है। सम्यक् ध्यान के प्रवेश में प्रवृत्ति करना अर्थात् धर्म-शुक्ल ध्यान में इन्द्रियों को प्रविष्ट करना यह इन्द्रिय निरोध है। आचार्यश्री का भाव साधु के २८ मूलगुणों में ५ मूलगुण इन्द्रियविजय के रूप में हैं। इन्द्रिय विषयों में व्यापार होते ही ये गुण निश्चित रूप से मलिन हो जाते हैं। चूँकि इन्द्रियाँ मन के अधीन हैं, अतः इन्द्रिय विजय के साथ-साथ जितमना होने के लिए मन का भी निग्रह आवश्यक है | स्पर्शन इन्द्रिय के आठ, रसना के पाँच, घ्राण के दो, चक्षु के पाँच एवं कर्णेन्द्रिय के सात विषय हैं। इनमें हर्ष-विषाद नहीं करना इन्द्रिय निरोध है। पंचेन्द्रिय विषय हाथी के समान हैं और सिंह के समान संयमी है। इन्द्रियाँ अनर्थ करने वाली हैं, जो संसारी जीवों को संसार-भ्रमण कराने में मुख्य कारण हैं। यदि वास्तविक सुख चाहते हो तो इन्द्रिय निरोध अवश्य करते रहना चाहिए। आत्मानुभूति में बाधा डालने वाली इन्द्रियाँ हैं। पराजित होने का मूल कारण इन्द्रिय लोलुपता है, जिसके कारण त्याग-तपस्या सब भस्म हो जाती है। अपनी-अपनी इन्द्रियों के विषयों से बचने का पुरुषार्थ करना ही इन्द्रिय निरोध है। पंचेन्द्रिय निरोध करने के लिए नोट्स की कोई आवश्यकता नहीं, अपितु अधिक चिंतन करने की आवश्यकता है। वैराग्य के बिना पंचेन्द्रिय निरोध नहीं हो सकता है। आप आस्रव को रोकना चाहते हैं तो इन्द्रिय निरोध करना सीखो। और यदि निर्जरा करना चाहते हैं तो भी पाँचों इन्द्रियों को वश में रखो। भवों-भवों का पुण्य, इतनी बड़ी पूरी पूँजी लगा दी इस जिनलिंग को धारण करने में। फिर भी पाँच इन्द्रियों के विषय में ध्यान है। इस लिंग की कीमत तो समझो। कछुवे-सम इन्द्रिय संयम से आत्म रक्षा हो। आचार्यश्री का स्वभाव रसोई घर, इन्द्रिय निरोध का परीक्षालय - १ मार्च, २00६ , कुण्डलपुर (दमोह, मध्यप्रदेश) पूजन होने के बाद आचार्यश्रीजी ने कहा कि श्रमणों के इन्द्रियजय का सबसे बड़ा साधन चौका (रसोई घर) है। साधु को पाँचों इन्द्रियों के विषय चौके में ही उपलब्ध होते हैं। पंचेन्द्रियजय कर पाने में हम कितने सफल हैं, समर्थ हैं, इसकी परीक्षा चौके में हो जाती है। साधु यदि एषणा समिति' का पालन सम्यक् प्रकार से करता है तो पंचेन्द्रियजय हो ही जाती है। हम चौके में सफल हो गए तो मंदिर से भी ज्यादा निर्जरा चौके में हो सकती है। आचार्यश्रीजी ने ‘ओरिया' (आँवले की कढी) में पाँचों इन्द्रिय और मन के विषय को घटाते हुए कहा- ‘लो यहीं देख लो - कटोरी में ओरिया आया। उसमें हल्दी नहीं डली, साँवला-सा दिख रहा है। ओरिया का गुण, उसका रूप उसमें नहीं दिख रहा, कैसे खाएँ ? चक्षु-इन्द्रियजय चली गई। अच्छे-अच्छे नाम वाले व्यंजन अच्छे लगते हैं। यह क्या है?‘ओरिया', क्या नाम है? अतः कर्णेन्द्रियजय चली गई। बरसात या सर्दी का मौसम है। ‘ओरिया' ठण्डा-ठण्डा है। खाया नहीं जा रहा, हटा दिया। इस लिए स्पर्शनइन्द्रियजय चली गई। मुख तक गया नहीं कि घ्राण इन्द्रिय ने अपना कार्य किया, यह तो जला हुआ-सा है, अब कैसे खाएँ? नाक सिकुड़ गई। घ्राण-इन्द्रियजय भी चली गई। मुख में लिया, यह कोई ‘ओरिया' है? आँवले का, नमक का कोई स्वाद ही नहीं, काहे का (कैसा) ‘ओरिया' है? नहीं लेना, तब रसनाइन्द्रियजय चली गई। पता नहीं कैसे बनाते हैं?....... आदि जो मन में संकल्प-विकल्प उठने लगे, तो बस मन इन्द्रियजय भी चली गई। इन्द्रिय विषयों में विषाद (अरति) भाव लाने के साथ हर्ष भाव आने पर भी इन्द्रियजयी नहीं बन सकते। क्या गरमागरम है, क्या स्वाद है, क्या गंध है, क्या रूप है, देखते ही खाने का भाव बने, जलेबीघेवर-बावर क्या नाम है। इन सब में आनंद मनाना पाँचों इन्द्रियों पर विजय पाने से च्युत होने का लक्षण है। चौके में अच्छे-अच्छे शब्द सुनने मिल रहे हैं। बड़ा आदर सत्कार हो रहा। इसमें आनंद आ रहा, मन प्रफुल्लित हो रहा है तो मन-इन्द्रियजय भी चला गया। यदि मान-सम्मान की ओर दृष्टि नहीं रहती, विषयों के प्रति साम्य भाव रहता है, तो वह विशेष रूप से निर्जरा का कारण है। जिनशासन की महिमा अपरंपार है।जो आहार दे रहा है, जो ले रहा है और जो देख भी रहा है उन सबकी निर्जरा हो सकती है। ध्यान रखना, साधु रसों में चटक-मटक नहीं करते। यह बहुत सुंदर है, बढ़िया है, ऐसा कहना तो दूर, मन में भी ऐसा भाव आ जाएगा, तो गुणस्थान से नीचे आ जाएँगे। साधु को घटिया-बढ़िया से कोई मतलब नहीं रहता। उनके अंदर तो ‘अरसमरूवमगंध.....' वाली गाथा चलती रहती है। वहाँ (चौके में) पर प्रसन्नता के साथ बार-बार इसका प्रयोग करो, आनंद आएगा। वहाँ पर मूलाचार, समयसारादि अध्यात्म ग्रंथों के अवलोकन का अवसर मिलता है, प्रयोग रूप में। प्रयोग करो हम बारबार कहते हैं आप मानें तब न। अन्तर्मुखी होने का सरल साधन : चक्षु इन्द्रियनिरोध आगम की छाँव सच्चित्ताचित्ताणं..................................मुणिणो॥१७॥ सचेतन और अचेतन पदार्थों के क्रिया, आकार और वर्ण के भेदों में मुनि के जो राग-द्वेष आदि संग का त्याग है वह चक्षुनिरोध व्रत होता है। आचार्यश्री का भाव रूप को देखने वाली आँखें महत्त्वपूर्ण नहीं हैं, बल्कि जो स्वरूप को दिखावें, वे ही आँखें महत्त्वपूर्ण हैं। नेत्र बहिर्मुखी होने के लिए सरल साधन हैं। चक्षु इन्द्रियनिरोध जिसके हो जाता है, वह व्यक्ति गुण का सागर बन जाता है। नेत्र इन्द्रिय के व्यापार से, इधर-उधर देखने से, पर-पदार्थ की ओर दृष्टि ले जाने से राग-द्वेष अधिक होता है। यदि हमने नेत्र इन्द्रिय को संयत बना लिया तो समझना आज भी बहुत बड़ी साधना कर ली। हमें यह देखना पसंद है, यह नहीं.....आदि। अरे! अब अन्य को देखने की बात नहीं, भगवान् को देखो। बाकी विकृतियों को देखने में आपका (श्रमण का) गुण नहीं पलता।" पैरों में काँटें आँखों में गड़े फूल आँखें चली क्यों। आचार्यश्री का स्वभाव मनोज्ञ-अमनोज्ञ...क्या? - एक बार संघस्थ मुनि श्री पुनीतसागरजी महाराज को अतिसार (लूजमोशन) हो गया। आराम नहीं हो रहा था। तब आचार्यश्रीजी ने कहा- ‘क्या हमें उनकी जंगल (शौच) देखने मिल सकती है? (मल के रंग-रूप के आधार पर रोग की जाँच हो जाती है) जब आचार्यश्रीजी शुद्धि करके आहार चर्या के लिए मंदिरजी जा रहे थे, तब रास्ते में उन्हें महाराजजी के शौच जाने की सूचना मिली। यह सुनते ही वह शौच देखने वापस लौट आए। अपने नेत्रों से उनके मल का निरीक्षण किया। रोग को समझकर तदनुकूल उपचार बताकर आहार चर्या को निकलने के लिए वापस मंदिरजी चले गए। धन्य हैं। गुरुवर, जो आहार चर्या को जाते समय दूसरे के मल को देखकर भी अंश मात्र ग्लानि के भाव आपके चेहरे पर नज़र नहीं आए। स्वयं की विजय : श्रोत्र इन्द्रियनिरोध आगम की छाँव षर्षभौ..............................हानिकृत्।।६२३-६२४॥२२ षङ्ग, ऋषभ, गांधार, धैवत, मध्यम, पंचम और निषाद ये जीवों से उत्पन्न होने वाले सात प्रकार के स्वर हैं। जीवों से उत्पन्न हुए इन शब्दों को तथा वीणा आदि अचेतन पदार्थों से उत्पन्न हुए शब्दों को रागपूर्वक सुनना श्रोत्र निरोध नाम के गुण को हानि पहुँचाने वाला है। अर्थात् किसी भी प्रकार के शब्दों में राग नहीं करना श्रोत्र-इन्द्रियनिरोध गुण है। आचार्यश्री का भाव जिस प्रकार यथालब्ध आहार की बात करते हैं, वैसे ही यथालब्ध शब्द सुनने के भी आदी या अभ्यस्त होना चाहिए । दूसरे की स्तुति-परक शब्द सुनने में हमारी कर्म निर्जरा और अधिक होती है, परंतु अपनी स्तुति करने में वो निर्जरा नहीं होती। पर्वत की चोटी पर बैठ कर तप करने में वो निर्जरा नहीं होती है, जो निर्जरा हमारी निंदा परक शब्दों को सुनने में होती है। निंदा-प्रशंसा दोनों में समान होना चाहिए। यही तो परीक्षा है। कोई भी बरस जाए, फिर भी संयमी अपनी मर्यादा नहीं छोड़ता। दुर्वचनों को सुनने से कर्मों की निर्जरा हो रही है, किन्तु अज्ञानी को यह सहन नहीं होता। और ज्ञानी कहता है, इससे हमारा माथा दु:खता नहीं है, बल्कि माथा उठता है कि कितनी क्षमता है मुझमें। आलोचना, प्रशंसा इन दोनों को सुनकर छोड़ दो, हमेशा निर्विकल्पता रहेगी। कटु वचन को सुनकर जिसे रंज नहीं होता, वह निरोगी है। कानों को मीठा सुनना, प्रशंसा सुनना जिसे अच्छा लगता है, वह रोगी है। कर्ण इन्द्रिय को शहनाई अच्छी लगती है। कोलाहल सुनकर सामायिक में मन नहीं लगता और कोई रेडियो चलाता है तो अच्छा लगता है। इन सबसे बचो। हम बता ही सकते हैं,करना तो आपको ही है। शब्द पंगु हैं। जवाब न देना भी लाजवाब है। आचार्यश्री का स्वभाव बुरा भी बुरा लगे - सिद्धक्षेत्र नैनागिरिजी (छतरपुर, मध्यप्रदेश) का प्रसंग है। पहाड़ी पर जैन मंदिर परिसर के बगल में ही एक हिन्दू मंदिर भी है। उसमें एक साधु रहते थे। उनके द्वारा मंदिर में माईक, स्पीकर द्वारा कुछ न कुछ शोरगुल चलता रहता था। एक दिन उसी मंदिर की बाउंड्री के पास आचार्यश्रीजी जिस समय सामायिक कर रहे थे, उसी समय वह साधु माईक के द्वारा ज़ोर-ज़ोर से ‘सियाराम, जय राम, जय जय राम' की राम धुन किए जा रहे थे। उस दिन उस समय आचार्यश्रीजी ने पाँच घंटे तक सामायिक की। सामायिक से उठने के उपरांत एक मुनि महाराज ने पूछा- ‘आचार्यश्रीजी! इतने व्यवधान के उपरांत भी आपका मन सामायिक में कैसे लगा रहा?' आचार्यश्रीजी मुस्कुराते हुए बोले- ‘वह ठीक ही तो कह रहा है। प्राकृत भाषा में ‘सिया' का अर्थ ‘स्यात्' (किसी अपेक्षा से) होता है। मैंने सोचा यदि देखा जाए तो मैं भी सिया (किसी अपेक्षा से) राम (भगवान् आत्मा) हूँ। और मैं अपने रामत्व का ध्यान करता रहा। प्रतिक्रिया से परे... - इसी तरह वर्षों पूर्व अजमेर, फिरोजाबाद तथा नैनागिरिजी में भी आचार्यश्रीजी ने जैन सिद्धांत से संबंधित विषय आस्रव और बंध के क्षेत्र में मिथ्यात्व की भूमिका को स्पष्ट करते हुए उस मिथ्यात्व को अकिंचित्कर (कुछ भी नहीं करने वाला), ऐसा कहा था। उनकी विवक्षा को न समझ पाने के कारण बहुत से विद्वानों ने उसकी अपने-अपने अनुसार प्रतिक्रिया व्यक्त की थी। इस पर भी आचार्यश्रीजी ने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की, मौन ही बने रहे। किसी विद्वान् ने उनसे पूछा- ‘आपने स्पष्टीकरण क्यों नहीं दिया? मौन रहकर आपको क्या मिला?' आचार्यश्रीजी बोले- ‘इससे मुझे बड़ा लाभ हुआ। मेरी समता बढ़ी और स्वाध्याय भी बढ़ा है। धन्य है! गुरुदेव को, जिन्हें पर-निमित्त प्रभावित भी नहीं कर पाए। प्रशंसा, गुरु शंसा लगे - एक दिन प्रात:काल आचार्यश्रीजी के पास दर्शन हेतु भीलवाड़ा, राजस्थान से कुछ श्रावक आए और उन्होंने बहुत ही भक्ति-समर्पण से युक्त एक-दो भजन प्रस्तुत किए कि आप ही हमारे खेवनहार हैं, उद्धारक हैं, कल्याणकर्ता हैं आदि-आदि। वहाँ पर उपस्थित आर्यिकाओं को लगा, इन सब श्रावकोंकी भक्ति, भाव व समर्पण समझकर आचार्यश्रीजी क्या सोचते होंगे? सो किसी आर्यिका ने अपनी जिज्ञासा गुरुदेव के सामने रख दी। ख्याति-पूजा-लाभ से दूर गुरुवर बोले- ‘मैं अपने गुरु पर लगा लेता हूँ। मैं उनकी भक्ति में लीन हो जाता हूँ।' आर्यिका ने पुनः कहा- ‘आचार्यश्रीजी ! ये ख्याल तो आता होगा कि कितनी बड़ी-बड़ी और कितनी सारी जिम्मेदारियाँ हैं सबके कल्याण के लिए?' आचार्यश्रीजी ने कहा- हाँ, उनके कल्याण का भाव तो आता है। पर ये सब निमित्त-नैमित्तिक संबंध हैं। सब बिजली की चमक के समान है। स्वयं के प्रति प्रशंसात्मक वचनों को गुरु शंसा में लगा लेना उनकी अपनी गुरु के प्रति समर्पण की अनूठी कला है। और स्तुतिपरक शब्दों से भावित एवं निंदापरक शब्दों से प्रभावित नहीं होना गुरुजी की विशेषता है। गुरुजी कहते हैं- ‘प्रशंसा और ख्याति की चाहत रखना खाई में कूदना है।' धर्म सुगंधि विस्तारक : घ्राण इन्द्रियनिरोध आगम की छाँव पयडीवासणगंधे..............................मुणिवरस्स।।१९।। जीव और अजीव स्वरूप, सुख और दुःख रूप, प्राकृतिक तथा पर-निमित्तक गंध में जो रागद्वेष का नहीं करना है, वह मुनिराज का घ्राण इन्द्रियजय व्रत है। आचार्यश्री का भाव घ्राण इन्द्रिय के विषय हमारे लिए कोई सुगंध के रूप में, कोई दुर्गध के रूप में फूटते हैं। हम सुगंध में तो फूल जाते हैं, लेकिन दुर्गध के समय नाक सिकोड़ना या नाक बंद करना, येसम्यग्दृष्टि का स्वभाव नहीं है। वीतराग सम्यग्दर्शन का स्वरूप वही है कि किसी भी पदार्थ में सुगंध या दुर्गंध के आने पर समभाव बनाए रखना। सुगंध-दुर्गंध लौकिक पद्धति है। संयमी के लिए तो वह पुद्गल की परिणति है। गंध खाने में न आती फिर तू क्यों सौगंध खाता। आचार्यश्री का स्वभाव सुगंध एवं दुर्गंध सब एक समान - आचार्यश्रीजी को सुगंधित पदार्थ लुभाते नहीं हैं एवं दुर्गंधित पदार्थ व्याकुल भी नहीं करते हैं। अर्थात् दुर्गंधित पदार्थों का सामीप्य मिलने पर भी उनकी नासिका एवं मुख सिकुड़ते नहीं है। विहार करते समय कई बार रास्ते में दुर्घटनाग्रस्त मृत सड़े-गले पशु पड़े रहते हैं। जिनसे इतनी तीव्र दुर्गंध आ रही होती है कि साथ में चलने वालों की नाक सिकुड़ जाती, मुख विकृत हो जाते, यहाँ तक कि हाथ से नाक भी बंद कर ली जाती। और वहीं आचार्यश्रीजी उसी मार्ग पर पूर्ववत् प्रसन्न मुद्रा में ही विहार करते रहते। उनके चेहरे पर प्रतिक्रिया का कोई भी हाव-भाव नज़र नहीं आता, वह तो ‘मनोज्ञामनोज्ञेन्द्रियविषयरागद्वेषवर्जनानिपंच' तत्त्वार्थसूत्र के इस सूत्र का चिंतन करते-करते विहार कर जाते। इसी प्रकार सन् १९९६ में गिरनार यात्रा के समय एक दिन गोबर की खुली सार के बाहर आचार्यश्रीजी को बैठने के लिए स्थान मिला था, बैठे तो सभी थे वहाँ, पर सबकी नाक-मुँह सिकुड़ रही थी। एक मात्र आचार्य भगवन् थे कि उनके चेहरे पर अब भी वही प्रशस्तता थी, जो हरे-भरे सुगंधित उद्यानों के बीच से निकलते समय रहती है। आचार्यश्रीजी ने तो ग्लानि एवं सुगंध-दुर्गध को जीत लिया है। गुरुवर श्री ज्ञानसागरजी वृद्ध थे, जिससे उन्हें जब कभी आहार के बाद स्थान पर पहुँचने से पूर्व ही मल विसर्जित हो जाता था। आचार्यश्रीजी उन्हें अपने हाथों की झोली बनाकर नियत स्थान पर लाते थे, और उनकी शुद्धि आदि करवाते थे। समाधिकाल में भी वह ही उनकी सारी चर्या पलवाते थे। किसी भी समय उनके मुख पर कोई विकार नज़र नहीं आता था। धन्य है गुरुवर को, जिनकी साम्य प्रकृति प्रेरणादायी एवं अनुकरणीय है। ऐसे इन्द्रिय साधक को कोटिशः नमन्...। सर्व इन्द्रिय वशीकरण मंत्र : रसना इन्द्रियनिरोध आगम की छाँव अन्नादिचतुराहारे... .........स कथ्यते ।।६४६-६४७॥ जो मुनि आत्मध्यानरूपी अमृत से तृप्त हो रहे हैं और इन्द्रियों को जीतने वाले हैं, ऐसे मुनिराज खट्टे-मीठे आदि छहों रसों से परिपूर्ण, जिह्वा इन्द्रिय को सुख देने वाले, अत्यन्त मनोज्ञ और प्रासुक अन्नादिक चारों प्रकार का आहार प्राप्त होने पर जो अपनी आकांक्षा रोक लेते हैं, उसमें गृद्धता धारण नहीं करते उसको जिह्वा इन्द्रिय का निरोध कहते हैं। आचार्यश्री का भाव रस की इच्छा जिह्वा इन्द्रिय की भूख है, पेट की भूख नहीं। साधक संयमीजन जिह्वा इन्द्रिय की नहीं, पेट की भूख दूर करते हैं। जिह्वा इन्द्रिय राक्षसी के समान है। रसना इन्द्रिय को वश में करके समता भाव में आ जाना चाहिए। प्रसन्नता के साथ सोचो कि ये मुझे कब से नचा रही है। अब मैं इसे नचाऊँगा। जिसका रसना इन्द्रिय पर नियंत्रण नहीं है, वह दीन-हीन होता है। वह विषयों पर जय को प्राप्त नहीं कर सकता। प्राकृतिक रूप से जो ठंडी चीज़ है, उसे लेने में दोष नहीं। पर ठंडी चीज़ खाने में अच्छी लगी यहजिह्वा इन्द्रिय का अविजय है जिह्वा इन्द्रिय ताज़ी बन गई तो कर्मरूपी जंगल हरा-भरा हो जाता है। बिना रस भी पेट भरता छोड़ो मन के लड्डू। आचार्यश्री का स्वभाव ...अब, रसना को रस भान कहाँ? - ९ मई, २०१४, नेमावर, (देवास, मध्यप्रदेश) ग्रीष्मकाल में आचार्यश्रीजी का आहार एक चौके में चल रहा था। चौके में चापर (चोकर) की लपसी और चावल की महाराष्ट्रियन पद्धति से खीर बनी हुई थी। एक श्राविका अपने दोनों हाथों में एक जैसे दो बर्तनों में दोनों वस्तुओं को लिए आचार्यश्रीजी से लेने का निवेदन कर रही थी। लपसी हल्की एवं ठंडी प्रकृति वाली होने से गुरुदेव का भाव लपसी लेने का था। किंतु वह श्राविका खीर देने का भाव अपने मन में सँजोए थी। उसने आचार्यश्रीजी से पहले खीर लेने का निवेदन किया। पर आचार्यश्रीजी ने अंजलि नहीं खोली । तब उसने एक ऐसी श्राविका को आहार देने बुलाया, जो शांति पूर्वक आहार की व्यवस्था में संलग्न थी, जिसने अभी तक एक भी ग्रास नहीं दिया था। गुरुवर ऐसे धैर्यशाली श्रावकों को बड़ा ही प्रोत्साहन देते हैं। सो उन्होंने भी अपनी भाव मुद्रा से चापर की लपसी का पात्र उसे देने की अभिव्यक्ति की। परंतु आहार देने में कुशल उस श्राविका ने चतुराई से खीर वाला पात्र उसे पकड़ा दिया। और जब गुरुदेव द्वारा उसे लेकर जल लेने का भाव अभिव्यक्त हुआ, तब वह बोली- ‘आचार्य भगवन्! अभी जल नहीं, अभी तो चापर की लपसी चलनी है।' यह सुनकर आचार्यश्रीजी ने बड़े ही आश्चर्य से खीर वाले खाली पात्र की ओर देखा, जिनका भाव था कि हमने अभी-अभी वही तो ली है। वह श्राविका बोली- “नहीं, भगवन् ! मैंने इन्हें खीर वाला पात्र दे दिया था, अभी तो खीर चली है।' आचार्यश्रीजी को श्रावकों के मातृत्व भाव पर हँसी आ गई। फिर उन्होंने चापर की लपसी नहीं ली। धन्य हैं! आचार्य भगवन् को, जिन्हें चापर की लपसी और चावल की खीर के स्वाद में अंतर ही समझ में नहीं आया। सच ही है, आए भी कैसे? जिनका उपयोग अध्यात्म रस के स्वाद में लगा है। अब उनकी रसना को अन्य रसों का भान कहाँ ? उन्होंने ब्रह्मचारी अवस्था से ही रसों के राजा कहे जाने वाले नमक एवं मीठा इन दोनों रसों का त्याग कर दिया था। जब उन्हें स्वास्थ्य की दृष्टि से गुरुवर श्री ज्ञानसागरजी महाराज के कहने पर नीम की पत्तियों का एक लोटा रस पीना पड़ता था, तब वह उसे बिना नाक-मुँह सिकोड़े सहजता से इतने कड़वे रस को हँसते-हँसते पी लेते थे। इस तरह आरंभ से ही वह इन्द्रियजयी साधक रहे। शील समुद्र वर्धक : स्पर्शन इन्द्रियनिरोध आगम की छाँव कर्कश मृदुशीतोष्णाः. ..................योगिनां महान्।।६६२-६६३ ।। कठोर, कोमल, शीत, उष्ण, स्निग्ध, रूक्ष तथा हल्का-भारी ये जीव-अजीव से होने वाले आठ स्पर्श हैं। ये आठों ही स्पर्श शुभ भी हैं और अशुभ भी हैं। जो मुनिराज इन आठों प्रकार के स्पर्शों में अपनी अभिलाषा का त्याग कर देते हैं उसको स्पर्शनेन्द्रिय का निरोध कहते हैं। यह स्पर्शनेन्द्रिय का निरोध मुनियों के लिए सर्वोत्कृष्ट है। आचार्यश्री का भाव पहले स्पर्शन इन्द्रिय को वश में करना चाहिए। इसलिए कहा है, ध्यान करने के पहले स्पर्शन इन्द्रिय पर जय करो। जो सर्दी खाता है वो ही गर्मी खा सकता है। ऐसा महाराजश्री (आचार्य श्री ज्ञानसागरजी) हमेशा कहा करते थे। बाहरी पुद्गल की ओर दृष्टि जाती है तब उसको छूने के भाव होते हैं जो इस स्पर्शन इन्द्रिय के कारण होते हैं। व्रती लोगों को ऐसे संस्तर नहीं रखना चाहिए, जिसमें कोमलता का अनुभव होता है। जिस प्रकार काले सर्प को संकट के समान समझकर छूना नहीं चाहते हैं, वैसे ही व्रती लोगों के लिए चाहे वो स्त्री हो या पुरुष, कोमल स्पर्श वाले, रुई वाले गट्ठों को, कोमल शय्या को एवं रेशमी वस्त्र को भी नहीं छूना चाहिए। ब्रह्मचर्य व्रत वाले के लिए कोमल आसन एवं शय्या पर नहीं बैठना और न ही सोना चाहिए। ऐसे में ब्रह्मचर्य व्रत की हानि होती है। शरीर के प्रति सुख देने वाले पदार्थों से भी बचना चाहिए। प्रकृति के अनुकूल ही प्रकृति का प्रयोग करना चाहिए। सहजता से मिले, ऐसा करना चाहिए। कृत्रिम साधनों का प्रयोग न करें। फूलों की रक्षा काँटों से हो शील की सादगी से हो। आचार्यश्री का स्वभाव आत्मस्पर्शी को, शेष स्पर्शो से क्या ? - सन् १९८०, सिद्धक्षेत्र मुक्तागिरि, (बैतूल, मध्यप्रदेश) में चातुर्मास करके आचार्यश्रीजी का ससंघ विहार रामटेक, (नागपुर, महाराष्ट्र) की ओर हुआ। दिसम्बर का महीना था। अम्बाड़ा गाँव पहुँचने से पूर्व ही अंधेरा होने लगा। आचार्यश्रीजी ससंघ एक खेत में ठहर गए। खेत में ज्वार के डंठलों से बना एक स्थान था। रात्रि विश्राम करने के भाव से आचार्यश्रीजी ससंघ उसी स्थान पर प्रतिक्रमण और सामायिक करने बैठ गए। रात होने से ठंड बढ़ने लगी। श्रावकों ने अपने अनुसार सेवा लाभ लिया। वह स्थान एकदम खुला था, और नीचे बिछे डंठल तो डंठल ही थे। इसके बावजूद भी स्पर्श-इन्द्रियजयी आचार्यश्रीजी अपने आसन पर अडिग रहे। किसी प्रकार के प्रतिक्रिया के भाव उनके चेहरे पर नहीं झलके। लगभग आधी रात बीत जाने के बाद शरीर को विश्राम देने के लिए उन्हीं डंठलों पर एक करवट से लेट गए। सारे संघ ने मन ही मन विचार कर लिया था कि गुरुवर के लेटने के बाद ही वह विश्राम करेंगे। सो उनके उपरांत सभी साधुवूद भी लेट गए। रात में ठंड बढ़ती देख श्रावकों ने पास में रखे सूखे ज्वार के डंठल सभी साधुओं के ऊपर डाल दिए। सब चुपचाप देखते रहे, किसी ने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की। लोग यह सोचकर निश्चिंत हो गए कि अब ठंड कम लगेगी, पर ठंड तो उतनी ही रही। डंठल का बोझ और चुभन अवश्य बढ़ गई थी। उपसर्ग व परीषह के बीच सभी साधुजन शांत भाव से चुपचाप सब सहते रहे। सुबह श्रावकों ने आकर ठंडल हटाए। आचार्यश्रीजी ने आगे विहार किया। कुछ ही दूर आगे जाकर वह बोले- ‘देखो, कल सारी रात कर्म निर्जरा करने का कैसा अवसर मिला, ऐसे अवसर का लाभ उठाना चाहिए।' यह सुनकर सभी महाराज दंग रह गए। मन ही मन अत्यंत श्रद्धा और विनय से भरकर उनके चरणों में झुक गए। धन्य है आचार्य भगवन् ! जिन्हें मूलगुण के किसी भी गुणधर्म के रूप में क्यों न देखा जाए। तो भी उनकी छवि हर बार निराली ही निराली नज़र आती है। पंच इन्द्रिय स्वामी : मन आगम में ‘मन के निरोध' का २८ मूलगुणों में पृथक् रूप से पाठ नहीं किया गया है। पर ‘पंच इन्द्रियनिरोध' मूलगुण पढ़ा गया है। पंचइन्द्रिय निरोध मूलगुण का पालन तभी संभव है, जब । मन का निरोध कर लिया गया हो। क्योंकि पाँचों इन्द्रियों का व्यापार मन के ही अधीन होता है। मन को पाँचों इन्द्रियों का स्वामी कहा जा सकता है/ जाता है। अतः मन का निरोध करना पहले आवश्यक है। इसका ग्रहण अव्यक्त रूप से इन्द्रियनिरोध में हो जाता है। आगम की छाँव ... नानाविकल्पजालरूपं मनो भण्यते... नाना प्रकार के विकल्प जाल को मन कहते हैं। अनिन्द्रियं मनः अन्त:करणमित्यनर्थान्तरम्...। अनिन्द्रिय, मन और अंत:करण ये एकार्थवाची नाम हैं। मन के भेद - मन दो प्रकार का है, द्रव्यमन व भावमन। द्रव्यमन - जो हृदयस्थान में आठ पाँखुड़ी के कमल के आकार वाला है, तथा अंगोपांग नामकर्म केउदय से मनोवर्गणा के स्कंध से उत्पन्न हुआ है। उसे द्रव्यमन कहते हैं। भावमन - वीर्यांतराय और नोइन्द्रियावरण कर्म के क्षयोपशम की अपेक्षा रखने वाले आत्मा की विशुद्धि को भावमन कहते हैं। आचार्यश्री का भाव इन्द्रिय विषय मन के अधीन - पाँचों इन्द्रियों के विषय नियत हैं एवं प्रत्येक का स्थान भी नियत है। किंतु मन का न तो स्थान नियत है, और न ही विषय नियत है। वह मन क्षण-क्षण में अलग-अलग वस्तुओं को विषय बनाता रहता है। मन कभी वस्तु की प्रतीक्षा नहीं करता, बल्कि वह वस्तु कितनी भी दूर हो उसे अपना विषय बना लेता है और बार-बार स्मरण में लाता रहता है। कोई इन्द्रिय अपने विषय की माँग नहीं करती, मन ही माँग करता है। प्रत्येक इन्द्रियों के विषयों की पूर्ति मन ही करता है। मन को विज्ञानी नहीं, सम्यग्ज्ञानी जानता है। - पाँच इन्द्रियों के साथ-साथ एक मन भी हुआ करता है। आज तक विज्ञान इन्द्रियों के बारे में तो खोज कर चुका है। लेकिन मन कहाँ होता है, इसकी खोज नहीं कर पाया। इन्द्रियाँ देखने में आती हैं, इसलिए इन्हें पकड़ना सहज होता है। लेकिन जो अंतरंग का विषय है, वह विज्ञान की खोज से परे है। उसे विज्ञानी नहीं, सम्यग्ज्ञानी जान सकता है। मन काबू सो सब काबू - मन कभी भी समझना नहीं चाहता, वह तो हमेशा समझाना चाहता है, उसी का नाम मन है। मन को संतुलित करके रखा जाए, तो उस पर काबू पाना आसान है। जैसे सितार के तार थोड़े भी ढीले हो जाएँ, तो संगीत बिगड़ जाता है और अगर ज़ोर से खींच दिए जाएँ, कस दिए जाएँ तो वे टूट जाते हैं। उन्हें तो ठीक से संतुलित किए जाने पर ही अच्छा संगीत सुनाई देता है। ऐसा ही मन को संतुलित करके रखा जाए, तो उस पर काबू पाना संभव है, आसान है। मन चंचल है। वह ख्याति, पूजा के लिए जीवनपर्यंत व्यर्थ के कामों में भी लग सकता है। मन यदि इन्द्रिय विषयों के प्रति रुचि जागृत कर सकता है तो वह इन्द्रिय विषयों के प्रति उदासीनता भी ला सकता है। मन में ये दोनों ही संभावनाएँ हैं। संयमी मन के अधीन नहीं रहते। इन्द्रियों को इष्ट लगे या अनिष्ट, वे सब कुछ सहन करते हुए आगम के अनुसार ही चर्या करते हैं। श्रावक और साधु में यही सबसे बड़ा अंतर है कि साधु मन को मना लेता है और श्रावक मन की मान लेता है। मन दमन नहीं, वशीभूत करें - अपने मन को वश में करने वाले ही महात्मा माने गए हैं। मन को वश में करने का अर्थ मन को दबाना नहीं, बल्कि मन को समझाना है। मन को समझाना, उसे प्रशिक्षित करना, उसे तत्त्व के वास्तविक स्वरूप की ओर ले जाना ही वास्तव में मन को अपने वश में करना है। मन दिखता नहीं। उसका नाम ही अंतरंग है, वह भीतर रहता है। लेकिन जो बाहर (इन्द्रियाँ) दिखती हैं, उन सबको वह वशीभूत कर लेता है। इसलिए मन की आराधना छोड़कर, हमें मन को आत्मा की आराधना की ओर लगाना चाहिए। मन को वश में करोगे, तो सम्यग्ज्ञान प्राप्त होगा, मोक्ष पाओगे। मन को बार-बार साफ़ करें - मन को सदा प्रशस्त रखें। उसकी चंचलता से बचें । जिस प्रकार चश्मा एक बार खरीदा जाता है, लेकिन बार-बार उसे साफ़ करना पड़ता है तभी दृश्य साफ़ दिख पाता है। उसी प्रकार मन में जो विकारों की धूल है उसे बार-बार साफ़ करना पड़ता है, तभी निर्मल मन से आत्म-वस्तु दिख पाती है। भीतर की यथाजात वस्तु अद्भुत होती है। जिसका मन रूपी सरोवर शांत है वहाँ पर राग-द्वेष रूपी तरंगें उत्पन्न नहीं हो सकतीं। अपना मन, अपने विषय में क्यों न सोचता? - मन लग रहा है, यह अच्छा नहीं है। बल्कि यह विचार करो कि मन कहाँ लग रहा है? अपना मन, अपने विषय में क्यों नहीं सोचता? हम दूसरे के बारे में सोचते रहते हैं, जबकि हमें अपने बारे में अधिक सोचना चाहिए। जिसका मन (धर्म में) नहीं लगता, उस मन को नरक में भेज दो।* मन रंजन, तन रंजन, जन रंजन को छोड़े बिना निरंजन को नहीं जान सकता। संसार इन तीनों ही रंजनों में लगा हुआ है। सबसे बड़ी कमज़ोरी है, ख्याति, पूजा व लाभ की चाह। यह मन का विषय है जो सब कुछ छोड़ सकता है, पर यह नहीं। बोलो, कब मन को रोका तुमने? - मन का गुलाम सबसे उत्कृष्ट गुलाम माना जाता है। यह सुनने में अच्छा नहीं लगेगा, लेकिन देख लो स्वयं को। यहाँ पर कोई भी ऐसा नहीं है, जो आत्मा की गुलामी नहीं कर रहा हो। सब मन की गुलामी कर रहे हैं। बोलो, ‘कब मन को रोका है तुमने? कब मन के द्वंद्वों पर अंकुश लगाया है, कौनसा क्षण आया है, जिस समय तुम्हारा मन कषायों से रहित हुआ हो? निर्णय करो, बहुत बड़ा भेद-विज्ञान होगा। तुम्हें एक क्षण को भी भेद-विज्ञान/आत्मा का अनुभव हुआ है?' यदि मानसिक साधना प्रौढ़ होती जाती है तो शारीरिक साधना अपने आप प्रौढ़ होती चली जाती है। मानसिक साधना प्रधान मंत्री है। और शारीरिक कलेक्टर जैसी है। प्रधानमंत्री आ गया तो सभी आ ही जाएँगे। मन रूपी बच्चे को सुला कर, आत्मा रूपी माँ काम करे - किसी ने आचार्यश्रीजी से कहा कि मेरा मन बड़ा चंचल है। वह धार्मिक क्रियाओं में भी चंचल हो जाता है, इससे काम लेने का तरीका बतलाइए। तब आचार्यश्रीजी ने उदाहरण देते हुए कहा- ‘जैसे घर में बच्चा रोता, मचलता एवं ऊधम करता है तो माँ उसे पालने में सुला देती है और अपना काम कर लेती है। यदि बीच में बच्चा जाग जाता है तो माँ पुनः पालना झुला देती है, बच्चा फिर सो जाता है। ठीक उसी प्रकार मन रूपी बच्चे को सुला करके आत्मा रूपी माँ को अपना काम कर लेना चाहिए। मन को विषयों के बाजार में मत भेजो - हमारा मन बच्चे के समान है। जैसे बच्चे को बाजार में नहीं भेजते, क्योंकि वह कुछ भी खरीदकर खा सकता है और ठगा भी जा सकता है। वैसे ही अपने मन को पंचेन्द्रिय विषयों के बाजार में मत ले जाओ। यदि ले जाना पड़े तो समझा कर ले जाओ। ठंडे बस्ते में मन को रखो फिर आत्मा में डूबो। आचार्यश्री का स्वभाव पंचेन्द्रिय एवं मन रूपी गेट बंद रखो - आचार्यश्रीजी का विहार बरगी (जबलपुर, मध्यप्रदेश) से सन् १९८४ में हो रहा था। वहाँ बहुत बड़ा बाँध बँधा हुआ था, जो बाद में ‘रानी अवन्तीबाई सागर बरगी (एन.वी.डी.ए.) डेम' के नाम से प्रसिद्ध हुआ है। उसे देखकर आचार्यश्रीजी बोले- 'बाँध में भले ही कितना भी पानी भरा रहे, लेकिन वह कभी भी हमें नुकसान नहीं पहुँचा सकता, क्योंकि उसमें मजबूत गेट लगे हुए हैं। ठीक वैसे ही इस संसार की नदी में हमारे सामने पंचेन्द्रिय विषय भरे पड़े हैं, लेकिन ये हमारा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते। बस पंचेन्द्रिय एवं मन रूपी गेट मत खोलो। मन को संयत रखो। और जैसे बाँध पर सरकार आकर बारबार नहीं देखती। जिन्हें जिम्मेदारी दी गई है उसको व्यवस्थित रखना उनका कर्तव्य है ठीक इसी प्रकार हम साधकों से देव- शास्त्र-गुरु बार-बार कुछ नहीं कहते। यह तो अपना कर्तव्य है, आप करिए। उपसंहार इस प्रकार आचार्यश्रीजी कहते हैं- ‘पंचेन्द्रिय के विषयों की इच्छा नहीं करना और अरुचि जनक वस्तु की मिलने पर भी अरति उत्पन्न नहीं होना इन्द्रिय विजय कहलाती है। जीव के पास इन्द्रिय रूपी पाँच खिड़कियाँ हैं, जिनमें से विषय चोर आते रहते हैं और मन सिंहद्वार के समान है, जो विषय रूपी चोरों को रास्ता दिखाता रहता है। साधु को, ज्ञानी को इन्द्रिय रूपी को चोरों से हमेशा बचकर रहना चाहिए, क्योंकि उनके पास सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूपी रत्न हैं। वर्तमान में चारों ओर इन्द्रिय विषयों के काँटें बिखरे हैं। हम अपने मन के जरिए इन काँटों से ग्रसित भी हो सकते हैं और उसी मन के माध्यम से मोक्ष की यात्रा भी कर सकते हैं। इसलिए काँटों के मध्य रहकर भी फूल की तरह मुस्कराना सीखो। जब पंचेंद्रिय के विषय खाली हो जाएँ, तब मैं साधना करूं, ऐसा तीन काल में भी संभव नहीं। हमें इन सबके बीच में रहकर ही साधना करनी होगी। आप अपनी सोच मोक्षमार्ग की ओर जागृत करेंगे तभी पुरुषार्थ कर पाएँगे। ठंडक में गर्माहट अथवा गर्मी में ठंडक, बैठने हेतु चिकना अथवा खुरदरा पाटा की प्राप्ति की भावना से रहित, कंकड़-काँटों के चुभने पर भी प्रतिकार की भावना से रहित, नीरस-सरस आहार में साम्यभाव, दुर्गंध-सुगंध में एकीभाव, कुछ अच्छा देखने की इच्छा से रहित, सुस्वर-दुःस्वर में समत्व (समानता)। इस प्रकार पाँचों इन्द्रियों की विषयों की अभिलाषा से रहित और पाँचों इन्द्रियों के अमनोज्ञ विषय उपलब्ध होने पर भी प्रतिकार करने की भावना से रहित, राग-द्वेष रूप परिणामों से रहित, सदा समता रूप मंद मुस्कान युक्त आचार्यश्रीजी श्रेष्ठ पंचेन्द्रिय संयमक हैं। पाँचों इन्द्रियों के विषयों से मन को हटाकर अपने आत्म-ध्यान में लगाना ही ज्ञानीपने का लक्षण है। यदि आप योगी बनेंगे तो मन आपका सहयोगी बनेगा। और यदि आप भोगी बनेंगे तो मन आपको रोगी बना देगा।
  5. आचार्यश्रीजी कहते हैं- 'देखो ! जिनलिंग को कलंकित नहीं होने देना। अपनी क्रिया ऐसी करना कि किसी के भाव जिनलिंग के प्रति अनादर के न हो पाएँ। जिनलिंग की शोभा अट्ठाईस मूलगुणों के पालन में है। निर्दोष चारित्र का पालन करना, दिगम्बरत्व को सुरक्षित रखना, यही जिनलिंग की विनय है। यही आत्मधर्म है, परात्मधर्म नहीं। अपना जीवन प्रायोगिक होना चाहिए। ''ऐसे भावों से भरे जिन-लिंगधारी आचार्यश्रीजी ने अपने जीवन को २८ मूलगुणों की मानो प्रयोगशाला ही बना लिया है। प्रस्तुत पाठ में उनके जीवन से जुड़े पंच समितियों का पालन करने वाले अनुकरणीय कुछ प्रसंगों को विषय बनाया गया है। गुप्ति की सखियाँ : पंच समितियाँ आगम की छाँव समितयः सम्यक्प्रवृत्तयः सम्यक् प्रवृत्ति (क्रिया) को समिति कहते हैं। समिति शब्द सम् और इति के मेल से बनता है। सम् अर्थात् सम्यक्, इति अर्थात् गति या प्रवृत्ति। ईर्याभाषेषणादान.................पञ्च चेति वै॥२६६।। ये समिति ईर्या, भाषा, एषणा, आदान-निक्षेपण और प्रतिष्ठापन के नाम से पाँच प्रकार की हैं। मुनियों की प्रत्येक क्रिया समीचीन हो, ऐसी आगम की आज्ञा है। इसे ही ‘समिति' नाम से कहा गया है। आचार्यश्री का भाव हमारी चर्या में ही दोषों का भंडार है। मुनि होने के उपरांत करने योग्य कार्य करते नहीं हैं। और ये करो’, ‘वो करो'कहते हैं। अरे! अपना कर्तव्य करो, यह ही हमारे लिए समीचीन है। जिसकी पाँचों क्रियाएँ (समितियाँ) सुधर गईं, तो समझो उसका आधा जीवन सुधर गया। ये समितियाँ कल्याण करने वाली हैं। तीर्थंकर, चक्रवर्ती आदि उत्तम विभूतियों के लिये कारण हैं। सम्यग्दर्शनादि रत्नों की खान हैं। संसार रूपी शत्रु का नाश करने वाली हैं। स्वर्ग व मोक्ष की सिद्धि के लिए कारण हैं। इसीलिए इन समितियों का उत्तम मन के साथ पालन कर लेना चाहिए। जो इन पाँच समितियों में प्रमाद करते हैं, वे निंदनीय हैं। आज जो ये कहा जाता है कि यह पंचमकाल है, महाराज! इसमें इन समितियों का पालन नहीं हो सकता है। ऐसा कहकर अपने प्रमाद को छुपाने की बात कही जा रही है। यह ठीक नहीं है। समितियों में प्रमाद ठीक नहीं। शाश्वत सुख की ओर गमन : ईर्या समिति आगम की छाँव फासुयमग्गेण.................................हवे गमणं ।।११।। प्रयोजन के निमित्त चार हाथ आगे जमीन देखनेवाले साधु के द्वारा दिवस में प्रासुकमार्ग से जीवों का परिहार करते हुए जो गमन है वह ईर्या समिति है। आचार्यश्री का भाव चातुर्मास में किसी को भेजना या बुलाना नहीं चाहिए। उनके द्वारा आवागमन में हुई हिंसा का दोष हमें आएगा। अपने काम दूसरों से नहीं करवाना चाहिए। यात्रादि के लिए कोई जाता है तो महाराज आशीर्वाद दे सकता हूँ कि नहीं ? ऐसा पूछते हैं। (शिष्य)। नमोऽस्तु करो तो आशीर्वाद है। यदि यात्रा के लिए आशीर्वाद देंगे तो इसमें जो हिंसा होगी उसका भी समर्थन हो जाएगा। आशीर्वाद तो दो, पर नमोऽस्तु का, चलने-चलाने, प्रेरणा या अनुमोदना का नहीं। प्रेरणा एक प्रकार से प्रेषण (भेजना) जैसा ही हो जाता है। मार्ग में खड़े होकर मुनिगणों को बात नहीं करना चाहिए और चलते समय रास्ता छोड़कर चलना चाहिए। क्योंकि पीछे कोई गाड़ी वाला आ रहा है, यदि रास्ता नहीं होगा, तो वो घास आदि से निकालकर ले जाएगा। उस समय जो हिंसा होगी उसमें हम कारण होंगे। ईर्या समिति यत्न (प्रयत्न) पूर्वक पालन नहीं करोगे तो अहिंसा व्रत का पालन नहीं हो पाएगा और आगे की समितियों का पालन भी निर्दोष नहीं हो पाएगा। यदि आप मुक्ति को चाहते हो तो ईर्या समिति को यत्न के साथ पालन करो। बातचीत करते हैं तो रास्ता तय हो जाता है। लेकिन यह भी तय हो गया कि ईर्यापथ शुद्धि भी छिद गई। विहार के समय यहाँ-वहाँ की बात क्यों करते हो? उसमें ध्यान बँट जाता है, अतः नहीं करना चाहिए। आचार्यों ने पैर में काँच लगने पर भी एक उपवास का प्रायश्चित्त कहा है, क्योंकि यदि पंचेन्द्रिय जीव दब जाता तो क्या होता ? बिना प्रमाद श्वसन क्रिया-सम पथ पे चलूँ। आचार्यश्री का स्वभाव दृष्टि उठे, तब न यहाँ-वहाँ जाए - प्रकृति में विकृति संभव है, पर आचार्यश्रीजी की चर्या में विकृति ‘न भूतो, न भविष्यति।' आगम ने आज्ञा दी है कि गमनागमन | के समय चार हाथ प्रमाण भूमि देखकर चलना है, तो यह आज्ञा उन्हें पत्थर की नहीं, वज्र की लकीर है, जो कभी मिट नहीं सकती। जिनकी दृष्टि में आगम बसा हो, उनकी दृष्टि गमनागमन के समय यहाँ-वहाँ जा भी कैसे सकती है। सन् १९८३, महानगर कलकत्ता, पश्चिम बंगाल का प्रसंग है। अपार जन-समूह के बीच आचार्यश्रीजी ससंघ का महानगर में प्रवेश हुआ। आचार्यश्रीजी की ससंघ अगवानी का समाचार ‘समाचार पत्र' में प्रकाशित हुआ, जिसका शीर्षक था- ‘जिसे पूरे कलकत्ता ने देखा, उसने कलकत्ता को आँख उठाकर नहीं देखा।' आचार्य भगवन् द्वारा ईर्या समिति पालन करने का इससे अधिक ज्वलंत उदाहरण और क्या हो सकता है। धन्य है ! गुरुवर की चर्या। इसी तरह २८ जून, २०१७, ‘संयम स्वर्ण महोत्सव दिवस,' के दिन चन्द्रगिरि, डोंगरगढ़ (राजनांदगाँव, छत्तीसगढ़) में गुरुवर की एकाग्रता एवं दृष्टि नीचे रखने का एक महत् एवं आश्चर्यकारी उदाहरण देखने को मिला। प्रात:काल आचार्यश्रीजी मंचासीन थे। उनका पाद-प्रक्षालन चल रहा था तभी बिना पूर्व सूचना के कुछ श्रावकजन अर्हत प्रतिमाजी को मंच पर ले आए। प्रतिमाजी को मंच पर लाना पूर्व नियोजित कार्यक्रम में न होने से, वह कहाँ विराजमान करें? अतः तुरन्त ही वापस ले गए। इस क्रिया में विनयभाव से संघस्थ साधु मंच पर खड़े भी हुए, पर गुरुजी का योग और उपयोग उस समय पादप्रक्षालन कर रहे श्रावकों की ओर था कि वे मर्यादा में ही कार्य करें। अतः उनकी दृष्टि ऊपर उठी ही नहीं। उन्हें अहँत प्रभुजी के आने और जाने का या आजू-बाजू साधुओं के खड़े होने का एहसास भी नहीं हुआ। धन्य है! नासाग्र दृष्टि शिरोमणि आचार्य भगवन् गुरुदेव को। योग- उपयोगमय हो प्रत्येक क्रिया - जनवरी, २००५ में जब आचार्यश्रीजी, पिसनहारी की मढ़ियाजी, जबलपुर (म.प्र.) में विराजमान थे, उस समय दक्षिण भारत की यात्रा करके ज्येष्ठ आर्यिका श्री गुरुमति माताजी सहित ४७ आर्यिकाएँ गुरुचरणों में दर्शनार्थ पहुँचीं। गुरुजी से चर्चा के दौरान आर्यिका श्री उपशांतमति माताजी ने सहजता से कहा- ‘आचार्य भगवन् ! आप हमेशा कहते हैं कि विद्या को कंठस्थ करना चाहिए। कंठस्थ विद्या समय पर काम में आती है। आपने सिद्धक्षेत्र मुक्तागिरिजी में पंचास्तिकाय और राजवार्तिक ग्रंथ का अध्ययन कराया और जब-जब, जो-जो (समयसार, प्रवचनसार,द्रव्यसंग्रह आदि) आपने अध्ययन कराया, उनको मैंने कंठस्थ किया। विहार के समय वह बहुत काम आया। चाहे वह कितना ही लम्बा विहार क्यों न हो। मन-ही-मन उन ग्रंथों का पाठ करते-करते अगले स्थान पर पहुँच जाते थे। तब आचार्यश्रीजी बोले- “देखो, विहार में पाठ करने से ईर्यापथ (गमनागमन) शुद्धि नहीं पल सकती। योग (मन-वचन-काय) से तो पल जाएगी, पर उपयोग की शुद्धि नहीं पल सकती। चलते समय ज्यादा से ज्यादा णमोकार मंत्र पढ़ने में बाधा नहीं, यह तो ‘धवला' में भी दिया है। लेकिन अन्य चीज पढ़ने का निषेध है। ‘पाठ' तो, जब शांति से बैठो, मन की एकाग्रता हो, तब स्वाध्याय के कायोत्सर्ग पूर्वक करना चाहिए। धन्य हैं गुरुदेव! जिनका प्रत्येक कार्य योग एवं उपयोगमय हुआ करता है। और वैसी ही शिक्षा वे अपने शिष्यों को दिया करते हैं। प्रकृति ने थामें कदम - आचार्यश्रीजी की प्रत्येक चर्या यत्नाचारपूर्वक होती है। सन् १९९३ का प्रसंग है। आचार्य संघ का विहार चातुर्मास के लिए रामटेक क्षेत्र की ओर हो रहा था। गर्मी का समय था। शाम करीब ४ बजे बरमान, नरसिंहपुर, मध्यप्रदेश से लिंगा गाँव की ओर विहार हुआ। विहार किए हुए १ घंटा ही नहीं हुआ था कि एकदम घटाएँ आईं और आँधी-पानी के साथ अंधेरा-सा छा गया। जब मार्ग स्पष्ट न सूझे तो कैसे करें श्रमण विहार? आचार्यश्रीजी एक वृक्ष के नीचे जाकर बैठ गए। साथ वाले एक दो साधु एवं कुछ श्रावक भी ठहर गए। शेष साधु विहार कर लिंगा जाकर ही ठहरे। सारी रात्रि गुरुदेव ने उसी वृक्ष के नीचे बिताई। प्रातः सूर्योदय होने पर वह विहार करके लिंगा पहुँचे। जो साधुगण शाम को ही विहार कर लिंगा पहुँच गए थे, उन्होंने गुरुदेव से प्रायश्चित्त स्वीकार किया। अनुकरणीय है मोक्षाभिलाषी आचार्य भगवन् की चर्या, जो तीर्थंकर और गणधर देवों के द्वारा सेवनीय, अत्यंत पवित्र, हिंसादि पापों से दूर ‘ईर्या समिति' का पालन करने में आगम कथित उद्योत शुद्धि का भी पूर्णतः पालन करते हैं। वैराग्यवर्धिनी वाणी की देवी : भाषा समिति आगम की छाँव हास्यकर्कश.....................भाषासमितिर्मता।।२८५-२८६।। चतुर पुरुष हँसी के वचन, कठोर वचन, चुगली के वचन, दूसरे की निंदा के वचन और अपनी प्रशंसा के वचनों को तथा विकथाओं को छोड़कर, केवल धर्ममार्ग की प्रवृत्ति करने के लिए तथा अपना और दूसरों का हित करने के लिए सारभूत, परिमित और धर्म से अविरोधी जो वचन कहते हैं, उसको * भाषा समिति' कहते हैं। आचार्यश्री का भाव भाषा समिति की परिभाषा अद्वितीय है। व्यभिचारी को व्यभिचारी कहना भी गलत है। निंद्य भाषा से अहिंसा को धक्का लगता है। भाषा समिति पूर्वक ही कर्मों के आस्रव को रोका जा सकता है, जो कि जिनधर्म का सार है। भाषा समिति का प्रयोग हो जाए, तो संघ का वर्धन होगा। आदर के साथ भाषा समिति का पालन करें। यह समिति धर्म की मूल एवं मोक्ष का द्वार है, वैराग्यवर्धिनी हैं। वचनों के कारण ही साधर्मी विसंवाद, संघ-विग्रहण (विभाजन) आदि अनेक विषमताएँ उत्पन्न होती हैं। वचनों का प्रयोग बहुत तौल कर करना चाहिए। कटु भाषा के प्रयोग से भवों का वैर हो सकता है। रत्नत्रय को अपनाकर इधर-उधर की बातें नहीं करनी चाहिए। विकथा करने वालों की बुद्धि और श्रुतज्ञान नष्ट हो जाते हैं। लौकिक क्षेत्र में हम अच्छी से अच्छी वस्तु का चयन करते हैं, तो वचन बोलने में भी चयन पद्धति अपनाना चाहिए। साधु को वचन से बँधना नहीं चाहिए।‘देखो' ऐसा कहना चाहिए। यदि कोई कर्कश, कटु शब्द बोलता भी है, तो भी हमें एक मुस्कान दे देना चाहिए। दीक्षा दूसरों के लिए नहीं अपने लिए ली है। प्रासुक शब्द बोलें। प्रासुक वचनों का प्रयोग करें। जैसे प्रासुक भोजन आदि सभी लेते हो, ऐसे ही अपनी जिह्वा को प्रासुक रखो ताकि वह अच्छे-अच्छे शब्दों का प्रयोग करे। प्रासुक वचन दिव्यध्वनि के माध्यम से समवसरण के चहुँ ओर फैलते हैं, तो प्राणी जातिगत वैर भी भूल जाते हैं। अपने मुख को शब्दों के द्वारा अशुद्ध नहीं बनाना। अच्छे-अच्छे शब्दों का प्रयोग करो, सुगंधित मंजन से मुख शुद्धि के समान । अनर्थ को देने वाले शब्दों से हमारा जीवन नाली के पानी के गटर की तरह बनता है। दूसरे को दुःखी कर दें, सदमा लग जाए ऐसे शब्दों का प्रयोग नहीं होना चाहिए। इतना मीठा बोलें कि भरी गर्मी में भी पित्त शांत हो जाए। पित्त कुपित हो जाए तो बहुत मुश्किल होता है। सज्जनों के शब्द गंगा की कलकल ध्वनि की तरह होते हैं। और दुर्जनों के शब्द नाली के पानी की तरह। सार्थक बोलो व्यर्थ नहीं साधना सो छोटी नहीं। आचार्यश्री का स्वभाव अपशब्दों से सदा ही बचते - एक बार आचार्यश्रीजी के पास राष्ट्र विषयक चर्चा चल रही थी। किसी प्रसंग पर आचार्यश्रीजी ने कहा- ‘सोने की चिड़िया........' नामक पुस्तक को पढ़ लेना चाहिए। गुरु मुख से पुस्तक का अधूरा नाम सुनकर, सामने से किसी ने उसे पूरा करते हुए कहा- ‘आचार्यश्रीजी! और लुटेरे अंग्रेज।' उन्हें लगा कि शायद गुरुजी के लिए पूरा नाम विस्मृत हो गया होगा। चर्चा चलती रही। दूसरी बार भी। यही हुआ, गुरुदेव ने अधूरा नाम लिया और सामने वाले ने विनम्र भाव से उसे पूरा करते हुए कहा- ‘आचार्यश्रीजी!... और लुटेरे अंग्रेज।' सामान्य से चर्चा आगे भी चलती रही। पर जब चर्चा के दौरान पुनः तीसरी बार गुरुजी द्वारा उस पुस्तक नाम उसी रूप में, उतना ही लिया गया और ज्यों ही सामने से उसे पूरा करने की कोशिश हुई, तब आचार्यश्रीजी ने समझाने के स्वर में बहुत ही आत्मीय भाव से कहा-'अरे! जब ‘सोने की चिड़िया' कहने से काम चल रहा है। फिर आगे के अपशब्दों का उच्चारण क्यों करना? लिखे हुए अपशब्दों का उच्चारण जिनकी जिह्वा नहीं करती, उनके द्वारा स्वयं से अपशब्दों का निःसृत होना असंभव ही है। अपनी प्रशंसा और दूसरों की निन्दा करने वाली अतिमानिनी भाषा से दूर रहकर ' भाषा समिति' का पालन करने वाले आचार्य भगवन् आचरण के आदर्श हैं। खुलते सीप निकलते मोती - मई , २०१७, डोंगरगढ़, छत्तीसगढ़ में प्रतिभास्थली की बहनों को मातृभाषा के महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए आचार्यश्रीजी बोले- ‘आज अंग्रेजी में शिक्षा होने से घर में बच्चे अंग्रेजी में बोलते हैं। हिन्दी भाषा का बोल-चाल बंद होता जा रहा है। ऐसे में आगे की पीढ़ी संस्कृति व मूलभाषा तो भूल ही जाएगी। पुराने दस्तावेज जो हैं, वह उन्हीं के हस्ताक्षर रूप में रखो। हस्ताक्षर सुरक्षित नहीं रहेंगे तो संस्कृति सुरक्षित नहीं रहेगी। तभी एक शिक्षिका ब्रह्मचारिणी बहन बोली- ‘आचार्यश्रीजी! बच्चों को मातृभाषा का महत्त्व समझ में आ रहा है। बच्चे कहते हैं- ‘हिन्दी हमारी माँ है, और अंग्रेजी नौकरानी है।' तब भाषा समिति साधक आचार्यश्रीजी ने कहा- “नहीं, ऐसा नहीं कहते। संस्कृत हमारी माँ है, हिन्दी मौसी है और अंग्रेजी धाय माँ है।' धन्य है! गुरुवर की भाषा की समुज्ज्वलता को। चारित्र सुगंधी को बिखेरने वाले गुरुवर त्रिकाल वंदनीय हैं, जिनमें कर्कश आदि भाषाओं की गंध दूर-दूर तक नज़र नहीं आती। करते आर्ष वाणी का प्रयोग - एक बार आचार्यश्रीजी से किसी महाराज ने कहा‘आचार्यश्रीजी ! मैं प्रवचन करने का त्याग करना चाहता हूँ।आचार्यश्रीजी बोले- ‘नहीं, प्रवचन करने से भाषा समिति पलती | है। मात्र पढ़ने-लिखने से नहीं। इसी प्रसंग को और स्पष्ट करते हुए आपने कहा- “जब हमारी दीक्षा हुई थी तब दो घंटे केशलोंच में लगे थे, उपवास था और गुरु महाराज ने प्रवचन करने का निर्देश कर दिया था। फिर मुझे बोलना पड़ा। प्रवचन को में किसी का कान नहीं पकड़ना, व्यंग नहीं करना, कठोर, कटु, कर्कश शब्दों का प्रयोग नहीं करना। प्रवचन में तो भाषा समिति से, शांति से बोला जाता है।६ मौन से गुप्ति आएगी, समिति नहीं । मौन की अपेक्षा वह बोलना भी अच्छा है, जिससे कि सारा माहौल शांत हो जाए। हित-मित-प्रिय वचन बोलना चाहिए। साधना-उन्नति की खुराक : एषणा समिति आगम की छाँव शीतोष्णादि..................................सैषणासमितिर्मता।।३४९।।” मोक्ष की इच्छा करने वाले मुनिराज दूसरे के घर में जाकर शीत या उष्ण जैसा मिल जाता है, वैसा शुद्ध भोजन करते हैं, इसी को ‘एषणा समिति' कहते हैं। आचार्यश्री का भाव मुनिराज दूसरे के घर जाकर ४६ दोषों से रहित, जैसा मिल जाता है, वैसा शुद्ध भोजन करते हैं। जैसे भोजन की खोज में गाय जंगल में चली जाती है वैसे ही मुनिगण भोजन की गवेषणा (खोज) के लिए निकल जाते हैं। हमने तो प्रतिदिन आहार करने का नियम लिया है। यदि ऐसा कहते हैं तो यह कोई नियम नहीं है। यदि हमारे पास क्षमता है तो उपवास आदि भी कर लेना चाहिए। उपवास करके तेल, घी का प्रयोग (वैयावृत्ति) नहीं करवाना चाहिए।आवश्यक हो तभी वैयावृत्ति करवानी चाहिए। यदि आवश्यक नहीं पल रहे, तो उपवास नहीं करना चाहिए। अन्यथा मूल में भूल हो जाएगी। भोजन बनने की क्रिया में कृत, कारित एवं अनुमोदना किसी भी रूप में अपनी उपस्थिति का होना, अधः (नीच) कर्म है। एषणा समिति सूक्ष्म है। यदि साधु अनुमोदना भी करते हैं तो भी पूरे आरंभ-परिग्रह का दोष लग रहा है। वैय्यावृत्ति की दृष्टि से करता है तो ठीक है, नहीं तो गलत है। अधः कर्म का दोष लगा, तो साधुत्व खण्डित हो गया। असंयमी हो जाता है। नवधाभक्ति महत्त्वपूर्ण मानी जाती है। इसे हास्य रूप में नहीं लेना चाहिए, नहीं तो चर्या बिगड़ जाएगी। प्रसन्नतापूर्वक आहार करना चाहिए। भोजन के पहले एवं बाद में कुछ देर तक प्रसन्न रहना चाहिए। प्रासुक आहार से तात्पर्य, केवल प्रासुक आहार से ही नहीं, उनका वित्त भी प्रासुक होना चाहिए। वह हिंसात्मक साधनों से कमाया हुआ नहीं हो। श्रावक के लिए कहा बनाओ, फिर आग्रह के साथ खिलाओ। और साधु के लिए कहा इधर-उधर मत देखो, जैसा मिले अच्छी तरह खा लो। आहार ‘मूलाचार' के अनुसार करके आइये। फिर इसकी चर्चा न हो। जब आगम ने अनुमति नहीं दी, फिर इसकी चर्चा क्यों ? रत्नत्रय, त्रिगुप्ति, मुनि मुद्रा, शुक्ल ध्यान एवं तप की रक्षा गृहस्थ आहार दान देकर करता है। एक समय भी विकथा में नहीं जाना चाहिए। यदि आहार करके एक समय भी विकथा में निकलता है तो समाज का खाकर भार (बोझ) लादना जैसा है। दीक्षा ही व्यर्थ है। एक समय भी धर्मध्यान के बगैर नहीं निकलना चाहिए। आहार के बाद निर्विकल्प हो जाना चाहिए। गुस्सा नहीं करना चाहिए। दाल-भात-रोटी, ये ही बात चोखी' वाली बात है। गुस्सा आए तो रसों का त्याग कर दो। अपने अनुकूल जो है वह ले लेना, अनुकूलता का भाव छठवें गुणस्थान में आता ही है। जिस प्रकार पुलिस तभी कार्य करती है, जब ऊपर से अफसर का आर्डर हो। बिना आर्डर के पुलिस कुछ नहीं कर सकती है। उसी प्रकार साता आदि कर्म रूपी अफसर का आर्डर (आदेश) होगा तभी तो आहार मिलेगा, उसके बिना चौके रूपी पुलिस क्या कर सकती है? अर्थात् उसके बिना आहार नहीं मिलेगा। भूख लगी है स्वाद लेना छोड़ दो भर लो पेट आचार्यश्री का स्वभाव हर्ष-विषाद से परे संत - आहार के समय अनुकूलता-प्रतिकूलता होना जितना स्वाभाविक है, उतना ही स्वाभाविक है। गुरुवर का उन सबसे अप्रभावित रहना। आहार संबंधी विचार भी उन्हें केवल चर्या के समय ही आता है। इसके बाद कभी भी तत्संबंधी चर्चा करते नहीं सुना। हाँ, प्रसंगवशात् शिष्यों को शिक्षित करने कोई संस्मरण प्रस्तुत हो जाए, वह पृथक् बात है। सन् १९७०, राजस्थान के छोटे से ग्राम ‘कुली' में मुनि श्री विद्यासागरजी अपने गुरुजी के साथ विहार करके पहुँचे। पड़गाहन का सौभाग्य हनुमानवगस नामक श्रावक को प्राप्त हुआ। आहार प्रारंभ होते ही दाता ने अत्यंत भयंकर गरम जल अंजुली में दे दिया। शरीर तो हिल गया, पर मन का स्पंदन अचल था। जिसके भाव चेहरे पर स्पष्ट झलक रहे थे। कोई विषाद नहीं। दाता के प्रति कोई नाराजगी नहीं। वह चौके से आकर बाहर विराजमान हो गए। यह सब हनुमानवगस के साले श्री सत्यंधर कुमार सेठी, जो उज्जैन से आए थे, देख रहे थे। मुनियों के प्रति उनकी आस्था नहीं थी, वह बिना हाथ जोड़े द्रष्टा बनकर मुनिश्री की भावभंगिमा का अध्ययन कर रहे थे। मुनिश्री के साम्यभाव से वह बहुत प्रभावित हुए और उनके चरणों में लेट गए। भावुक हो ज़बरदस्ती करके मुनिश्री का हाथ अपने हाथ में लेकर देखा, उसमें फोले आ गए थे। उन्होंने मुनिश्री से कहा- ‘महाराज ! बड़ी भूल हुई। मुनिश्रीजी बोले- “यह तो अशुभ का उदय है। जीवन में आता है। संत हर्ष-विषाद नहीं करते।' यह सुनते ही वे आस्था से भर गए। उन्होंने सन् १९७६ में प्रकाशित समाचार पत्रक' में ‘आर्य परंपरा के रुप में आदर्श जीवन' नामक लेख में इस प्रसंग को उधृत करते हुए लिखा है। कि मुनिश्रीजी द्वारा फिर कभी इस प्रसंग की चर्चा भी नहीं की गई। गरिमामयी हो मुनि चर्या - सन् १९८३ में ईसरी, तत्कालीन बिहार में, चातुर्मास प्रवास के दौरान आचार्यश्रीजी ससंघ आचार्यश्री के गृहस्थावस्था के पिताश्री) का भी चातुर्मास हुआ था। एक दिन आचार्यश्रीजी को आहार चर्या से लौटते समय किसी चौके से मुनि महाराज के संकेत करने का स्वर सुनाई दिया। वे समझ गए कि यह आवाज तो मुनि श्री मल्लिसागरजी की है। आहार के बाद आचार्यश्रीजी ने उन्हें भली-भाँति समझाया और मुनि पद की गरिमा का अहसास कराया। धन्य है। आचार्यश्रीजी! जो पूर्व संबंधों को पूरी तरह विस्मृत(भूल) कर साधु चर्या की शुद्धीकरण करने का प्रयास किया। जो स्वयं स्वात्मानुशासित होता है। वही दूसरों के प्रति ऐसा विचार रख सकता है। नीरस भी लगे सरस - एषणा समिति की चर्चा चल रही थी कि बीच में किसी ने पूछ लिया, 'आचार्यश्रीजी ! वैद्यों का कहना है कि हँसकर आहार लेना चाहिए।' मुस्कराते हुए आचार्यश्रीजी बोले- ‘हाँ, प्रशस्तता के साथ आहार करना चाहिए, जैसे कि दलिया खा रहे हो तो ऐसा लगना चाहिए, जैसे हलवा खा रहे हो।' तभी किसी ने कहा- ‘आपकी बात अलग है। आप तो नीरस में भी सरस का आनंद लेते हैं। 'आचार्यश्रीजी बोले -‘नीरस को सरस बनाने में अलग ही आनंद आता है। लेकिन जिसे दुनिया के पदार्थों में रस आता है, उसे नीरस में नहीं आ सकता । संसार में रस है ही कहाँ? क्योंकि संसार तो नीरस है। यदि वास्तव में रस लेना है, तो संसार का रस छोड़ दो। मानो छप्पन भोग ले रहे - आचार्यश्रीजी की आहार की मुख मुद्रा ऐसी प्रशस्त एवं प्रसन्नकारी रहती है, जिसे देखकर लगता है, मानो वे छप्पन भोग ले रहे हों। जहाँ वह नमक, मीठा, फल, सब्जी, मेवा-मिष्ठान्न, यहाँ तक कि दूध, दही का भी सेवन नहीं करते। रसों में एक मात्र घी लेते हैं। फिर भी ऐसा लगता मानो छ: रसों से युक्त पकवान का स्वाद ले रहे हों। पता नहीं उनके अंत में ऐसा कौन-सा रस भरा है जो उनके आहार में घुलता-मिलता जाता है। एक बार प्रसंगवशात् किसी ने आचार्यश्रीजी से कहा- ‘आप तो नीरस आहार करते हैं।' आचार्यश्रीजी बोले- ‘कोई भी पुद्गल नीरस नहीं होता। प्रत्येक पुद्गल में स्पर्श, रस, गंध और वर्ण तो हैं ही, फिर नीरस कैसे ? नीरस कहना ये व्यवहार है।' फिर हँसकर बोले- ‘हम तो अध्यात्म रस लेते रहते हैं। रस तो उस समय आता है, जिस समय हम इस प्रकार का भोजन करते हैं | पात्र हूँ, उपकारी नहीं - आहार के समय श्रावक एवं श्रमण का संबंध दाता एवं पात्र का रहता है। उत्तम पात्र को प्राप्त कर दाता हर्ष के कारण करने योग्य कर्म भी भूल जाते है। एक बार सन् १९८९, तारादेही (दमोह), मध्यप्रदेश में ऐसा ही हुआ था। वहाँ के सिंघई परिवार के साथ ब्रह्मचारिणी पुष्पा दीदी, सागर (वर्तमान में आर्यिका श्री उपशांतमतिजी) ने आचार्यश्रीजी के पड़गाहन का सौभाग्य प्राप्त किया। पहले प्रायः देखा जाता था कि श्रावक, साधु के पाद-प्रक्षालन हेतु चौके के बाहर एक कुर्सी, परात एवं जल से भरा कलश रख दिया करते थे। वहीं पर पाद-प्रक्षालन करके, चौके में ले जाकर पूजन की जाती थी। सिंघई परिवार ने भी इसी तरह चौके के बाहर पाद-प्रक्षालन की पूरी तैयारी कर रखी थी, पर उत्तम पात्र के आने की खुशी में वे पाद-प्रक्षालन किये बिना ही गुरुवर को चौके के अंदर ले गए। चौके के अंदर तो पूजन की तैयारी की गई थी, तो संस्कारवश उन्होंने पाद-प्रक्षालन किए बिना ही सीधे पूजन प्रारंभ कर दी। भोजन की थाली दिखाकर शुद्धि बोलकर मुद्रा (आहार की मुद्रा) छोड़ने का निवेदन करने लगे। पर गुरुवर शांत भाव से मुस्कुराते हुए बैठे रहे। उन्होंने मुद्रा नहीं छोड़ी। श्रावक हड़ियाँ की हड़ियाँ (भोजन से भरे हुए पात्र) उठा-उठा कर दिखाने लगे। पुनः-पुनः शुद्धि बोलकर निवेदन करने लगे, पर गुरुवर ने मुद्रा नहीं छोड़ी। सिंघई परिवार और बह्मचारिणी दीदीजी सब घबरा गए, कहाँ गलती हो गई। पर किसी को भी पाद-प्रक्षालन का स्मरण नहीं आया। इस समय तक गुरुवर का एक चौके का नियम नहीं था। वह दूसरी जगह भी पड़गाहन दे सकते थे। पर श्रावकों को दुःखी एवं घबराया हुआ देखकर करुणानिधान गुरुदेव चौकी से उठे, और बाहर आकर जहाँ पाद-प्रक्षालन हेतु परात एवं कुर्सी डली थी, उस परात में पैर रखकर कुर्सी पर बैठ गए। श्रावकों को पाद-प्रक्षालन करने का स्मरण हो आया। वे हर्ष से झूम उठे। सिंघईजी ने जल से भरे हुए लोटे को उठाकर जल की धार देकर गुरुदेव का पाद-प्रक्षालन किया। नवधाभक्ति पूर्ण होने पर आहार प्रारंभ हुआ। आहार के बाद ब्रह्मचारिणी पुष्पा दीदी ने कहा- ‘आचार्यश्रीजी, हम लोग तो पाद-प्रक्षालन करना ही भूल गए थे।' आचार्यश्रीजी बोले- ‘श्रावकों ने पाद-प्रक्षालन की व्यवस्था बाहर बनाई थी, इसलिए ध्यान नहीं गया। आचार्यश्रीजी ने कहा- “ज़रा-जरा-सी बात पर लौटना अच्छा नहीं। दाता भक्ति-भाव पूर्वक पात्र की प्रतीक्षा करता है। इस पर घर आया हुआ पात्र यदि लौट जाए, तो उनके दुःख की सीमा नहीं रहती। भावों का भी ध्यान रखना चाहिए। बस इतना ध्यान रहे कि वह आगम के विरुद्ध न हो।' धन्य है! गुरुवर की सहजता को। वह चौके में उपकारी बनकर नहीं जाते कि मैं उनके यहाँ जाकर उन पर कोई उपकार कर रहा हूँ। वह तो पात्र बनकर दाता की गवेषणा (खोज) करते हैं। जैसे भ्रमर फूल को बाधा दिए बिना पराग का पान कर लेता है, उसी प्रकार गुरुदेव भी श्रावकों को विकल्प कराए बिना आहार करके आ जाते हैं। आगम में श्रमण की इस वृत्ति को ‘भ्रामरी वृत्ति' कहा गया है। स्वनिमित्तक आहार नहीं लेते - श्रमण कभी भी अपने निमित्त से बना हुआ आहार ग्रहण नहीं करते। यह ‘उद्दिष्ट भोजन' नाम का दोष माना जाता है। आचार्यश्रीजी कहते हैं- ‘एषणा समिति की चर्या तो तीर्थंकरों ने नहीं छोड़ी। जो प्रकृति है उसे सहन करो। आचार्यश्रीजी की विशाल शिष्य मंडली एवं लाखों समर्पित श्रावक। सब चाहते हैं कि गुरुवर को वह ठाट-बाट से आहार करवा सकें। भले ही वे षट्रस भोजन नहीं लेते हों, पर जो लेते हैं उसे ही अनुकूल कर सके । पर गुरुदेव को न तो कोई लगातार आहार देने जा सकता है और न ही किसी दूसरे चौके की सामग्री उनके चौके में पहुँचा सकता है। वे कहते हैं व्यवस्था नहीं, व्यवस्थित हो जाओ। विहार में भी वह कभी चौका या चौका वालों को साथ नहीं रखते। उसे वह उद्दिष्ट आहार मानते हैं। जैसे लोक में कहा जाता है कि जो लक्ष्मी को पीठ दिखाता है, लक्ष्मी उसके पीछे भागती है। इसी प्रकार गुरुदेव के साथ भी है। वे व्यवस्थाओं को पीठ दिखाते हैं और व्यवस्थाएँ उनके आगे-पीछे भागती हैं। वे आदिवासी क्षेत्रों में विहार करें अथवा अन्य क्षेत्रों में। जितने साधु होंगे उसके अतिरिक्त ही चौके वाले अपनी ही व्यवस्थाओं के साथ व्यवस्थित होकर उनके साथ चलते हैं। गुरुदेव कहीं भी रहें अथाह जनसमूह फूल पर भ्रमर की भाँति उमड़ता ही रहता है। कितनी बार भीड़ के कारण अव्यवस्थित होने से गुरुदेव को बाधा भी पहुँची और वह गिर भी चुके हैं। पर भीड़ तो भीड़ है। अतः वृद्धावस्था की दहलीज़ पर कदम रखने वाले गुरुदेव के साथ अब आहार में प्रायः कोई न कोई मुनिराज चले ही जाते हैं। एक बार फरवरी,२०१०, देवेन्द्र नगर से कुंडलपुर जाते समय ग्राम हरदुआ' (पन्ना) मध्यप्रदेश में आचार्यश्रीजी को आई फ्लू हो गया। आँखों में बेशुमार पीड़ा थी। आहार के समय मुनिराज एवं कुछ श्रावक जन उनके साथ गए। पर गुरुदेव ने पूजन के बाद एक-एक करके सबको बाहर निकाल दिया। ईर्यापथ भक्ति के बाद मुनि महाराजों ने धीरे से कहा- “आज आपको इतनी पीड़ा थी फिर भी आपने सबको बाहर निकाल दिया था। आचार्यश्रीजी हँसकर बोले- ‘अरे! गाँव में विहार करते हुए चार-पाँच रोज हो गए, एक भी दिन राख की रोटी और धुएँ का पानी नहीं मिला। सभी महाराज आचार्यश्रीजी का तात्पर्य समझ गए कि उनके लिए छिपकर आहार की कोई व्यवस्था तो नहीं की जा रही है, यह जानने के लिए उन्होंने सबको हटा दिया था। तभी एक महाराज ने कहा- ‘आचार्यश्रीजी! अब तो गाँव-गाँव में गैस चूल्हे आ गए हैं।' सब हँसने लगे। गुरुवर उठकर सामायिक में लीन हो गए। ऐसे अनेक प्रसंग हैं जब भी उन्हें संयोग से चौके में दो-चार दिन एक जैसी रूप, रंग एवं स्वाद वाली वस्तु मिलती तो वह उस वस्तु को कुछ दिनों के लिए लेना ही बंद कर देते हैं। धन्य हैं ऐसे उद्दिष्ट त्यागी योगीराज को, जो किन्हीं भी परिस्थितियों में व्रतों में दोषों के साथ सामंजस्य स्थापित नहीं करते हैं। जो प्रकृति है, उसे सहन करो - आचार्यश्रीजी कहते हैं मुनियों को जैसा मिले, वैसा ले लेना ‘एषणा समिति' है। चर्या के समय श्रावकों को कोई कर्ज देकर रखा है क्या ? जो श्रावक को आप कुछ कहते हैं, ऐसा क्यों नहीं करते? वैसा क्यों नहीं किया? ऐसा कहने की जरूरत ही नहीं है। जो प्रकृति है उसे सहन करो।' आचार्यश्रीजी ने आहार के बाद ईर्यापथ भक्ति के समय इसी प्रकार के किसी प्रसंग पर स्वयं के साथ घटित टड़ा, केसली (सागर, मध्यप्रदेश) गाँव का एक प्रसंग सुनाया- 'हमारा जामफल से पड़गाहन हुआ। और थाली में भी जामफल दिखाया। हमने भी उसे हटवाया नहीं। क्योंकि भुना हुआ जामफल उस समय हमारी औषधि थी। (भुना हुआ जामफल सर्दी-खाँसी की औषधि होता है।) आहार शुरू हुआ, तो कोई श्रावक शुरू से ही देने को हुए, तभी किसी ने कहा- “अरे! अभी से जामफल...' पीछे कर दिया। बीच में देना भूल गए। और उसे बाद में लाए, देने को भी हुए तो फिर कहते हैं- “अरे! बाद में जामफल चलाते....' पीछे कर दिया। शुरू से अंत तक दिखाया तो, पर वह चला नहीं पाए। महासंयम की सिद्धि : आदान-निक्षेपण समिति आगम की छाँव ज्ञानसंयम..........समितिश्च सा।।५७४-५७५।। बुद्धिमान् मुनि ज्ञान के उपकरणों को, संयम के उपकरणों को, शौच के उपकरणों को और सोने-बैठने के साधनों को, नेत्रों से अच्छी तरह देखकर तथा कोमल पिच्छिका से शोधकर प्रयत्नपूर्वक ग्रहण करते हैं और प्रयत्नपूर्वक ही रखते हैं, उनकी इस क्रिया को आदान-निक्षेपण समिति कहते हैं। अर्थात् साधु अपने उपयोग की वस्तुओं का उठाना-रखना पिच्छी से परिमार्जन पूर्वक करते हैं। उनकी यह क्रिया आदान-निक्षेपण समिति कहलाती है। आचार्यश्री का भाव आदान-निक्षेपण समिति में कमी नहीं होना चाहिए। अगर हम दूसरों के द्वारा कोई काम कराते हैं। तो फिर आदान-निक्षेपण समिति सदोष हो जाती है। हमे स्वयं देखकर के रखना-उठाना चाहिए। जिन-जिन पदार्थों का उपयोग करते हैं तो उसे पिच्छी का प्रयोग करके ही उपयोग करना चाहिए। हमें अपनी चटाई आदि स्वयं बिछाना चाहिए। मेहमान जैसी आदत नहीं डालें कि तुम्हारे आने से पहले व्यवस्था होना चाहिए। यह ठीक नहीं है। अपनी समिति को समीचीन बनाने के लिए अपना कार्य स्वयं करने में शर्म नहीं करना चाहिए। आहार के समय तो एक चींटी भी मर जाती है, तो माला का प्रायश्चित्त मिलता है। तब फिर दूसरे से काम कराने में आदान-निक्षेपण समिति कैसे पल सकती है ? प्रमाद तो महाशत्रु है। ये असंयम की ओर ले जाता है। रात्रि के समय पाटा आदि उठाना-रखना हीं चाहिए। जहाँ पर शयन करना है, उस स्थान को सूर्यास्त से पहले अच्छे से देखकर पाटा, चटाई आदि लगा लेना चाहिए। सूर्यास्त पूर्व ही सब कर लेना चाहिए। हिलने-डुलने वाले आसन पर नहीं बैठना चाहिए। धर्मोपकरण ग्रंथ आदि का प्रतिलेखन (परिमार्जन) नहीं करना, ये निंद्य है। उनका रखना-उठाना आदि पिच्छी लगा करके करना चाहिए। मनोयोग के साथ प्रतिलेखन करना चाहिए। बिना मन के यह समिति नहीं होती। आदान-निक्षेपण समिति के पालन के बिना यदि शिथिलाचार करता है तो स्थूल जीवों के समूह का नाश होता है। सूक्ष्म जीवों की बात ही क्या? इसलिए इस समिति का अच्छे से पालन करना चाहिए। आस्था व बोध संयम की कृपा से मंज़िल पावें आचार्यश्री का स्वभाव भूल से भी भूल नहीं होती - आचार्यश्रीजी अपने लिए लाना-ले जाना अथवा उठाना-रखना आदि क्रियाओं को करने का कभी किसी से नहीं कहते। कोशिश भर संकेत/इशारा आदि से बचते हैं। अगस्त, २००८, आचार्यश्रीजी रामटेक (नागपुर, महाराष्ट्र) में विराजमान थे। उनकी प्रशांत मुद्रा एक लम्बी दहलान के दाहिनी छोर पर रखे एक तखत पर शोभित हो रही थी। टीकमगढ़ (मध्यप्रदेश) से आईं कुछ ब्रह्मचारिणी बहनों ने उस दहलान में जब प्रवेश किया, तब गुरुजी उठने को ही थे। बहनों ने गुरुवर से दो मिनट का समय देने की प्रार्थना की। गुरुवर रुक तो गए, पर उनकी मुख मुद्रा ऐसा संकेत दे रही थी, जैसे उठना चाह रहे हों, अति-संक्षेप में चर्चा पूर्ण कर वे खड़े हो गए। और दहलान के दूसरे छोर पर बने कमरे में प्रवेश करते ही पुनः पलटे । पलटकर सामने, अपने बैठने वाले स्थान को निहारने लगे और उस ओर आने को हुए। बहनें समझ गईं कि गुरुजी चर्चा के कारण शायद कुछ ले जाना भूल गए। उन्होंने निवेदन किया- “आप न आएँ भगवन् । संकेत दीजिए, हम देना चाहते हैं।' वह पलभर के लिए ठहर गए। बहनों ने शास्त्र उठाकर दिखाया। गुरुजी पुनः आगे बढ़े। बहनों ने पुनः प्रार्थना की, कि आप न आएँ। शायद आपको समय देखना है। पौने तीन हुए हैं गुरुवर। इस पर आचार्य भगवन् कमरे की दहलीज से बाहर कदम बढ़ाकर आने को हुए। बहनों की प्रार्थना पुनः करुणाभाव पूरित हो गई। कृपया आप न आएँ। और सोचने लगीं, क्या हूँ ? शास्त्र, बाजोटा अथवा घड़ी ? इसके अलावा कुछ भी तो नहीं है यहाँ। वे पूरा बाजोटा उठाकर गुरुजी के पास ले जाने को हुईं। यह देख गुरुवर ने अपने कदम आगे बढ़ाए, अपने स्थान तक आकर एक आले में रखे हुए अपने कमण्डल को उठा लिया। यह देख बहनें दुःखी होकर बोलीं हम लोग इतना भी नहीं समझ पाए भगवन् । आपने हल्का-सा इशारा क्यों नहीं किया? नहीं तो उस ओर देख ही लेते। वे तो भगवन् हैं, मुस्कराए, ओऽम् बोलकर आशीर्वाद दिया और चले गए। कमरे में कमण्डल की जरूरत होगी, ऐसा वे बहनें सोच ही नहीं पाईं कि वहाँ से बाहर जाने का कोई मार्ग खुलता है। अगले वर्ष वही बहनें पक्षाघात से पीड़ित अपनी (ब्रह्मचारिणी अनीता दीदी की) माँ को गुरुजी के दर्शन करवाने बीना बारहा पहुँचीं। गुरुजी के पास माँ को कुर्सी पर बैठा दिया। और गुरुजी से उन्हें संबोधित करने की प्रार्थना की। संबोधित करने के बाद गुरुजी ने कुर्सी पीछे करने का हाथ से इशारा किया। बहनों ने कुर्सी उठाने के बजाय सरकाकर पीछे कर ली। यह देख गुरुजी तत्काल बोले- ‘कहते हैं, आप बोलते नहीं, इशारा नहीं करते। बोलता हूँ, तो अयत्नाचारपूर्वक क्रिया करते हैं। दोष हमको जाता है। आत्मा ठहर-सी गई उन बहनों की। स्पष्ट रूप से रामटेक (उपर्युक्त) का उत्तर उन्हें आज मिल रहा था। बहनों ने क्षमा माँगी। धन्य है गुरुवर का जीवन, जिनकी प्रत्येक क्रिया माला में पिरोए गए मोती-सी व्यवस्थित है। जब जिनेन्द्र देव की आज्ञा है कि वस्तु को उठाने-रखने में पिच्छी का प्रयोग करें, तब फिर वह कैसे कमण्डलु को उठा लाने का इशारा करते। मूलगुण, श्रावकों के नहीं - ५ जनवरी २०१०, शीतकालीन प्रवास, सतना का प्रसंग है। धूप में लगे सिंहासन पर आचार्य श्री अपने शिष्यों के साथ सुशोभित हो रहे थे। ईर्यापथ भक्ति आरंभ होने को थी। मुनि श्री धीरसागरजी आहार करके आए। पर, पाटा एक भी खाली नहीं था। मुनि श्री महासागरजी ने एक श्रावक को पाटे लाने का इशारा किया। यह देख गुरुवर बोले- ‘क्यों, महासागरजी ! आपने महाराज पर करुणा तो की है, पर सक्रिय करुणा नहीं की। उस श्रावक के पास न तो पिच्छी है, और न ही उसकी समितियाँ हैं। अतः उससे हिंसा हो सकती है। आप स्वयं जाकर यदि पाटा नहीं ला सकते थे, तो अपना पाटा तो दे ही सकते थे। करुणा में आपको उत्तीर्णांक तो मिल गए, पर सक्रिय करुणा के अभाव में विशेष अंक नहीं मिल पाए। ध्यान रखा करो। ऐसे ही एक बार सिद्धक्षेत्र मुक्तागिरि (बैतूल, मध्यप्रदेश) में आचार्यश्रीजी ससंघ का स्वाध्याय चल रहा था। उसी बीच किसी प्रसंग को देखने के लिए किसी अन्य ग्रंथ की जरूरत महसूस हुई । एक मुनिराज ने ब्रह्मचारीजी को बुलाया और कहा कि हमारे कमरे से अमुक पुस्तक ले आओ। यह सुनकर आचार्यश्रीजी बोले- ‘महाराज! ब्रह्मचारीजी को पिच्छी और दे दो, जिससे वह परिमार्जन करके ग्रंथ उठा लाएगा।' मुनिराज गुरुवर का संकेत समझ गए। और स्वयं उठकर ग्रंथ लाने चले गए। एक-एक समिति आचार्यश्रीजी के जीवन की प्राण है। वह न केवल पालन ही करते, अपितु समय-समय पर किसी एक शिष्य के माध्यम से सभी शिष्यों को सजग और सतर्क भी करते रहते हैं। करूं तो मैं क्या करूं? - १७ अक्टूबर, २00१ ,दयोदय, तिलवाराघाट, जबलपुर मध्यप्रदेश के चातुर्मास में प्रात:कालीन भक्ति के बाद तुरंत उसी स्थान पर ही आचार्य संघ की, ग्रंथराज ' धवला', पुस्तक-१४ की कक्षा प्रारंभ हुई । कक्षा पूर्ण होने के बाद आचार्यश्रीजी शौच क्रिया के लिए जाते थे, अतः तभी एक ब्रह्मचारीजी ने आचार्यश्रीजी का भरा हुआ कमण्डलु लाकर उनके बगल में रख दिया। यह देख गुरुजी बोले- ‘यही तो आप लोग ठीक नहीं करते। बिना पूछे ले जाते हो और बिना परिमार्जन के रख देते हो। कम-से-कम कपड़े से तो परिमार्जन कर सकते थे। इसी कारण मैं अपना कमण्डलु किसी को नहीं देता। तभी धीमे स्वर में अति विनम्र भावपूर्वक एक मुनिराज ने कहा- ‘भैयाजी तो डर गए।' आचार्यश्रीजी बोले- ‘डरने की बात नहीं, इतना कहना आवश्यक होता है। कई बार मैं देखता हूँ। अच्छा नहीं लगता, पर करूं तो मैं क्या करूं? आचार्यश्रीजी किसी से कुछ भी करवाना नहीं चाहते। उनके अंदर अपने व्रतों की निर्दोषता का भाव अत्यंत सूक्ष्मता से (गहराई तक) समाया हुआ है। जीवों की रक्षा के प्रति, अपने व्रतों के प्रति सतर्कता रखना गुरुवर का एक विशेष गुण है। मुक्ति सुख की बेल : प्रतिष्ठापन समिति आगम की छाँव एकान्ते....................सा समितिर्मता ।।५८८-५८९॥ मुनि लोग जो मल-मूत्र करते हैं, वह ऐसे स्थान में करते हैं जो एकांत में हो, निर्जन हो, दूर हो, ढका हो अर्थात् आड़ में हो, दृष्टि के अगोचर हो, जिसमें बिल आदि नहीं हो, जो अचित्त हो, विरोध रहित हो अर्थात् जहाँ किसी की रोक-टोक न हो और जिसमें जीव-जंतु नहीं हो। ऐसे स्थान पर देख-शोधकर वे मुनिराज मल-मूत्र आदि करते हैं, इसको ‘प्रतिष्ठापन समिति' कहते हैं। आचार्यश्री का भाव जिसमें जन्तु आदि न हों, ऐसे स्थान पर देख-शोध करके मुनिराजों को मल-मूत्र आदि का क्षेपण करना चाहिए। शौच आदि का स्थान बड़े शहरों में नहीं मिल पाता है। साधु के लिए शहर में रहने का अधिक लोभ नहीं रखना चाहिए। छोटे-छोटे ग्रामों में रह करके व्रतों का निर्दोष पालन हो सकता है। मुनियों को कफ व नाक का मैल डालकर उसके ऊपर बालू या राख डाल देना चाहिए, जिससे उसमें जीव गिरकर मर न जाएँ। नाक, थूक, कफ आदि सामान्य रूप से आता है तो कायोत्सर्ग करना चाहिए। रोगादि की बात अलग है। आज मुनियों की प्रतिष्ठापन समिति भी गड़बड़ा गई है। शौचकूप बने हैं, उनमें जाते हैं। और कहते हैं ‘इसमें कोई दोष नहीं है। शौचकूप में जो कीड़े होते हैं वे मरते नहीं हैं, वे तो इस मल को खा जाते हैं। यह सब ठीक नहीं है। कैसे देखते संत्रस्त संसार को दया मूर्ति हो। आचार्यश्री का स्वभाव वर्तमान की परिस्थिति में प्रतिष्ठापन समिति का पालन कर पाना अत्यंत कठिन है। मलमूत्र विसर्जन हेतु प्रासुक भूमि, एकांत स्थान या तो नगरों में हैं नहीं और यदि कहीं हैं भी, तो वह नगर से पर्याप्त दूर हैं। पर आचार्य भगवन् इस समिति का पालन आगमिक निर्देशानुसार ही करते हैं। इसके लिए उन्हें कितनी ही दूर क्यों न जाना पड़े। प्रमाद उन्हें छूता भी नहीं। यह समिति पल सके, इसलिए वे अपना प्रवास मुख्यत: क्षेत्र पर या शहर से दूर स्थित जिनालयों में करते हैं। कृत्रिम शौचालयों का उपयोग नहीं करते । प्रवास स्थान से एक-दो किलो मीटर की दूरी पर ही वह शौच क्रिया हेतु जाते हैं। प्रमाद ही बना, प्रमादी - आचार्यश्रीजी का सन् २०१६ का चातुर्मास हबीबगंज, भोपाल, मध्यप्रदेश में चल रहा था। वह नित प्रति शौच क्रिया हेतु लगभग दो किलो मीटर की दूरी पर जाया करते थे। एक दिन पेट गड़बड़ हो गया। उस दिन उन्हें तीन बार शौच के लिए जाना पड़ा। संघस्थ साधुओं ने निवेदन किया कि आप बार-बार दूर न जाएँ, पास वाले स्थान का उपयोग कर लीजिए। पर नहीं, समिति और आवश्यकों के पालन में उन्हें कोई प्रमाद नहीं, बल्कि उनके उत्साह को देखकर प्रमाद को ही प्रमाद आ जाए। उस दिन आचार्यश्रीजी प्रतिष्ठापन समिति का पालन करने बारह कि.मी. चले । शारीरिक बाधा के होते भी चर्या को सदोष नहीं होने दिया। धन्य है। गुरुदेव की चर्या । शैथिल्य बर्दाश्त नहीं - निहार (बाहर शौच) के विषय में आज हमारे पास प्रस्ताव आ रहे हैं कि महाराज अब आप लोगों को देश-काल के अनुसार शौचकूप में शौच जाना चाहिए। उसके लिए साधुओं के साथ चार-पाँच किलो मीटर तक हम लोगों को जाना पड़ता है। कहाँ तक जाएँ। और आप लोग कब तक इतनी दूर-दूर जाते रहेंगे। उस (शौचकूप) में जाने से कोई उठा-पटक अर्थात् हिंसा नहीं होती है। उस (शौच) का भक्षण तो जीव कर जाते हैं। ये सारी की सारी परिस्थितियाँ परिवर्तित होती जा रही हैं। अरे, पंडितजी! पिच्छी लेकर कोई साधु शौचकूप में जाए तो क्या होगा? हम उनके साथ कैसे व्यवहार करें ? नहीं-नहीं, जो निर्दोष रूप से अट्ठाईस मूलगुणों का पालन करेगा तो चलेगा, अन्यथा हमारे यहाँ नहीं चलेगा।' | ‘आहारचर्या बिगड़ जाती है तो अनगारचर्या भी बिगड़ जाती है। अब वह अनगार (साधु) नहीं रहा, सागार बन गया। भले ही पिच्छी व कमण्डलु हैं तो उससे क्या होता है? फिर निहार भी समाप्त हो जाएगा, विहार भी समाप्त हो जाएगा, चर्या ही समाप्त हो जाएगी। अब न तो ईर्या समिति पल रही है और न कोई भिक्षा से मतलब रहा और न निहार से कोई मतलब। मठाधीश बन जाओ। दिगम्बर परम्परा में ऐसा शैथिल्य बर्दाश्त नहीं हो सकता है, यह निश्चित बात है। उपसंहार समितियों द्वारा संवर होता है। संवर द्वारा मोक्ष होता है। जो निर्दोष समितियों का पालन करता है, उसका मन हमेशा-हमेशा प्रसन्न रहता है। गुप्तियों में भी उसका मन अच्छे से लग जाता है। और जिसका मन गुप्तियों में लग जाता है, वही अच्छे से ध्यान कर पाता है। एक भी समिति कम होगी तो अहिंसादि व्रतों का मुख्य रूप से घात होगा। समितियों में शिथिलाचारिता रखने वाले के दया आदि व्रत नष्ट होंगे और शील व्रत नष्ट होने से आत्मा का घात करने वाला महापाप उत्पन्न होता है। उस महापाप से दुर्गति प्राप्त होती है और अनंत संसार के लिए कारण होता है। मुनि की परीक्षा समिति के माध्यम से ही होती है। वो जिस समय सोएँगे उस समय समिति चल रही है। बोलेंगे उस समय भाषा समिति चल रही है जिस समय उठाएँगे-रखेंगे उस समय आदाननिक्षेपण समिति चल रही है। जब चलेंगे, ईर्या समिति से चलेंगे पूरी की पूरी समितियाँ चल रही हैं। किसी भी क्रिया में कमी नहीं है। इसका मतलब है कि प्रत्येक क्रिया के साथ सावधानी चल रही है यानी चौबीसों घंटे (हमेशा) स्वाध्याय चल रहा है। जिस प्रकार हवाई जहाज उड़ने के पूर्व (ऊपर उठने के पूर्व) हवाई पट्टी पर दौड़ने की प्रवृत्ति करता है, बाद में सीधा ऊपर उठ जाता है, उसी प्रकार साधु प्रवृत्ति के समय सीधे चलते हैं और समाधि व ध्यान के समय ऊपर उठते हैं। मोक्षमार्ग में समिति समतल गुप्ति सीढ़ियाँ।
  6. जिनागम में श्रमणों की आचार संहिता का वर्णन करने वाले अनेक ग्रंथ उपलब्ध हैं। एक ओर जब उन ग्रंथों का अध्ययन किया जाता है, और दूसरी ओर चरित्रनायक आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज की निर्दोष चर्या का अवलोकन किया जाता है, तब ऐसा प्रतीत होता है, मानो आचार्यश्रीजी मुनियों के आचरण को बताने वाले ग्रंथों की जीवंत प्रतिलिपि हों। प्रस्तुत पाठ में, आगम में कहे गए २८ मूलगुणों में गर्भित, पाँच महाव्रतों के पालन करने से बना है। जिनका व्यक्तित्व, ‘महत्’ ऐसे महापुरुष आचार्य श्री विद्यासागरजी के महाव्रत संबंधी कुछ विशिष्टता ग्राही प्रसंगों को दर्शाया जा रहा है। जिन शासन में दिगंबर साधु ही मुक्ति का अधिकारी है, परंतु केवल दिगंबर वेष धारण कर लेने मात्र से कोई श्रमण नहीं कहला सकता। आगम में कहे गए २८ मूलगुण उनके जीवन में उद्घाटित होना चाहिए। जिस प्रकार ऑक्सीजन के बिना प्राणियों का जीवन नहीं ठहर सकता, ठीक उसी प्रकार २८ मूलगुणों के बिना श्रमणत्व नहीं ठहर सकता। आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज ऐसे ही श्रमण हैं, जिनके संपूर्ण व्यक्तित्व में ये २८ मूलगुण तिल में तेल की भाँति समाए हुए हैं। इन मूलगुणों से संबंधित आचार्यश्रीजी के जीवन के प्रेरणादायी कुछ प्रसंग, क्रमशः आगे के पाँच पाठों तक द्रष्टव्य हैं। जिन शासन में दिगंबर साधु ही मुक्ति का अधिकारी है, परंतु केवल दिगंबर वेष धारण कर लेने मात्र से कोई श्रमण नहीं कहला सकता। आगम में कहे गए २८ मूलगुण उनके जीवन में उद्घाटित होना चाहिए। जिस प्रकार ऑक्सीजन के बिना प्राणियों का जीवन नहीं ठहर सकता, ठीक उसी प्रकार २८ मूलगुणों के बिना श्रमणत्व नहीं ठहर सकता। आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज ऐसे ही श्रमण हैं, जिनके संपूर्ण व्यक्तित्व में ये २८ मूलगुण तिल में तेल की भाँति समाए हुए हैं। इन मूलगुणों से संबंधित आचार्यश्रीजी के जीवन के प्रेरणादायी कुछ प्रसंग, क्रमशः आगे के पाँच पाठों तक द्रष्टव्य हैं। निर्वाणसारथी - २८ मूलगुण 6. आगम की छाँव कर्मों को धोकर साधना में लगने वाला साधु है। साधु माने सज्जनता का व्यवहार करने वाला, भलाई करने वाला। मूलानि च तानि................वर्तमानः परिगृह्यते। साधुओं के मूलभूत जो गुण हैं वे मूलगुण कहलाते हैं।‘मूल' शब्द यहाँ प्रधान अर्थ में एवं 'गुण' शब्द आचरण अर्थ में ग्रहण किया गया है। मुनियों के प्रधान आचरणों को मूलगुण कहा गया है। मूलगणों के नाम - पाँच महाव्रत - अहिंसा, सत्य, अस्तेय (अदत्त-परित्याग), ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह (असंग) महाव्रत। पाँच समिति - ईर्या, भाषा, एषणा, आदान-निक्षेपण एवं प्रतिष्ठापन (उत्सर्ग, मल-मूत्र आदि का त्याग) समिति। पाँच इन्द्रिय निरोध - स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु एवं श्रोत्र (कर्ण) इन्द्रिय निरोध। षट् आवश्यक - सामायिक (समता), स्तव, वंदना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान एवं कायोत्सर्ग (व्युत्सर्ग/तनु विसर्ग)। शेष सात गुण - केशलोंच, आचेलक्य (निग्रंथ), अस्नान, क्षिति (भूमि) शयन, अदंतधावन (घर्षण), स्थितिभोजन (खड़े होकर भोजन) एवं एकभक्त (एक बार भोजन)। आचार्यश्री का भाव २८ मूलगुणों का अच्छे से पालन करना साधु का पहला कर्तव्य है। आगम में मूलगुणों को जड़ (नीव) कहा है। इन्हीं का निर्दोष पालन करने के लिए स्वाध्याय किया जाता है। जो व्यक्ति मूलगुणों एवं आवश्यकों में कमी रखता है और बड़ेबड़े ग्रंथों का स्वाध्याय करता है, यह ठीक नहीं है। पहले अपने आवश्यकों एवं मूलगुणों का पालन करो, फिर बाद में बड़े-बड़े ग्रंथों का स्वाध्याय करो। मूलगुण सदोष हों, उत्तरगुण निर्दोष हों, तो यह भी ठीक नहीं है। पहले मूलगुणों का निर्दोष पालन हो, बाद में उत्तरगुणों की बात करें। उदाहरणार्थ स्टैंड फैन होता है, जिसका स्टैंड नहीं घूमता । फैन (पंखा) बस घूमता है, हवा करता रहता है। उसी प्रकार मूलगुण रूपी स्टैंड स्थिर रहता है और उत्तरगुण रूपी पंखे से (आत्म संतुष्टि की) हवा चारों ओर प्राप्त होती रहती है। तप, उपवास भले ही न हो, परन्तु २८ मूलगुणों की पूर्णता होनी ही चाहिए। जैसे बैंक में मूलधन जब रखा, तब से ही ब्याज मिलने लगता है। उसी प्रकार मूलगुण के होते ही संयमलब्धि (विशुद्धि) स्थान बढ़ते हैं, और निर्जरा बढ़ती जाती है, अतः इन्हें ठीक रखना चाहिए। श्रमणत्व के शिखर : पंच महाव्रत आगम की छाँव हिंसाया.. ..............योगिनां जिनैः ।।५०-५१।। श्रेष्ठ मुनिराज अपने मन-वचन-काय और कृत-कारित-अनुमोदना से जो हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह रूप पाँच पापों का पूर्ण रूप से सर्वथा त्याग कर देते हैं उनको भगवान् जिनेन्द्र देव मुनियों के महाव्रत कहते हैं। महान्ति च ..................................संयमनिवृत्तिकारणानि। जो महान् व्रत हैं, उनको महाव्रत कहते हैं। यहाँ ‘महान्' शब्द का अर्थ महत्त्व व प्राधान्य अर्थ में एवं ‘व्रत' शब्द का अर्थ सावद्य (पाप) से निवृत्ति रूप अर्थ में और मोक्ष की प्राप्ति के लिए निमित्तभूत आचरण अर्थ में है, क्योंकि ऐसे आचरण का महान् पुरुषों (तीर्थंकर आदि) के द्वारा अनुष्ठान (आचरण) किया जाता है अथवा स्वतः ही मोक्ष को प्राप्त कराने वाले होने से ये महान् व्रत ‘महाव्रत' कहलाते हैं। आचार्यश्री का भाव महाव्रत निवृत्ति रूप हैं, पाँच पाप की निवृत्ति का नाम महाव्रत है। पाँच महाव्रत नींव के समान हैं,इन्हीं के ऊपर ही मुनि का भवन खड़ा हुआ है। इनका बड़ा महत्त्व है। इसको अच्छे से समझ लेना चाहिए। केवल संकल्प ले लेना काफी नहीं है। यदि नीव का एक खंभा (कॉलम) हिलने लगता है, तो भवन गिरता नहीं, लेकिन गिरने की संभावना हो जाती है। महाव्रतों के बिना समितियों का कोई महत्त्व नहीं होता, क्योंकि व्रतों की रक्षा के लिए ही समितियाँ होती हैं। जैसे घड़ी के साथ डिब्बा मिलता है। घड़ी महाव्रत है और डिब्बा समिति है। अभय का मेरु : अहिंसा महाव्रत आगम की छाँव हृदा च वपुषा... .....................तन्महाव्रतम्।५२-५३।। छहों काय के समस्त जीवों को अपनी आत्मा के समान समझकर मन, वचन व काय और कृत, कारित व अनुमोदना के ९ भेदों से प्रयत्नपूर्वक उनकी रक्षा करना अहिंसा महाव्रत कहलाता है। आचार्यश्री का भाव प्रथम अहिंसा महाव्रत सभी महाव्रतों का मूल है। जैसे वृक्ष की जड़/मूल में कीड़ा लग जाता है तो वह सूख जाता है। वैसे ही अहिंसा महाव्रत में कमी रह जाए तो पूरे मूलगुणों में दोष लग जाता है अर्थात् वे मलिन या नष्ट हो जाते हैं। अतः इन्हें सुरक्षित ही रखना चाहिए। अहिंसा विश्वहितधारिणी है। अहिंसाव्रत तो मुनि के लिए जननी के समान कहा है। अहिंसा की गोद में ही हमें रहना चाहिए। अहिंसा स्वभावनिष्ठ परिणति है, इसलिए इसको सदा याद रखना चाहिए। जिसके पास दया, अहिंसा नहीं, वो कहीं भी चला जाए, चाहे तीर्थंकरों की शरण में भी चला जाए, उसको कुछ नहीं मिलने वाला। अहिंसा महाव्रत की जिसको चिंता है, तो फिर वह अपना काम दूसरे से नहीं कराएगा, स्वयं करेगा। दूसरों को आदेश देकर काम कराने से अहिंसा महाव्रत निर्दोष नहीं पल सकता है। व्रत हमारा है, न कि दूसरों का। पर की पीड़ा अपनी करुणा की परीक्षा लेती। आचार्यश्री का स्वभाव आचार्यश्रीजी से जुड़े प्रसंगों को ज्यों-ज्यों पढ़ते जा रहे, त्यों-त्यों आत्मा में आह्लाद की वृद्धि होती जा रही। लगता है, उन्हें क्या कहें ? दृढ़धर्मी या वर्धमानचारित्री। कभी-कभी लगता है कि ‘भगवन्’ कहना भी उन्हें उपयुक्त नहीं होगा। प्रभु तो देह से और कर्मों से रहित हुए तब भगवान् बने। ये तो आज के युग में जन्मे और आदि प्रभु के युग की भाँति चर्या पाल रहे हैं। ऐसे ही कुछ संस्मरण यहाँ दृष्टव्य हैं। महाव्रत, हमारे हैं। - सन् १९८७, थूबोनजी, गुना, मध्यप्रदेश में आचार्यश्रीजी का स्वास्थ्य एकदम बिगड़ गया। स्वयं से उठना-बैठना भी मुश्किल हो गया। एक दिन आचार्यश्रीजी विश्राम कर रहे थे। एक महाराजश्रीजी ने आकर कहा-हमने मार्जन कर दिया है, आप करवट बदल लीजिए। इतनी अशक्यावस्था में भी उन्होंने स्वयं ही अपनी पिच्छी हाथ में लेकर धीमे-धीमे पुनः परिमार्जन किया, फिर करवट ली। एक महाव्रती द्वारा किए गए परिमार्जन को नहीं स्वीकारा। वे कहा करते हैं कि मूलगुण स्वाश्रित होना चाहिए। अहिंसा महाव्रत के प्रति गुरुजी की सजगता देख महाराजश्रीजी के नेत्र सजल हो गए। दोषों की पकड़ से बचो - यह प्रसंग उस दिन का है, जब मई, १९९७, सिद्धवरकूट में ज्येष्ठा आर्यिका श्री गुरुमतिजी गोम्मटेश्वर बाहुबली की यात्रा करके गुरुचरणों में आई थीं, जिनकी भव्य अगवानी पहले से ही उपस्थित लगभग ५० आर्यिकाओं द्वारा की गई थी। सभी आर्यिकाएँ गुरुजी से यात्रा संबंधी चर्चा कर रही थीं। तभी एक श्रावक देव-पूजन करके आया। गुरुदेव अर्द्ध पद्मासन मुद्रा में बैठे थे, सो उस श्रावक ने पूजन की कलशी में शेष बचे थोड़े से जल से गुरुजी के एक चरण के अँगूठे का ही पाद-प्रक्षालन कर दिया। फलतः गंधोदक सभी को प्राप्त न हो सका, तब आर्यिकाश्री गुरुमतिजी ने श्रावकों को लक्ष्य करके कहा- ‘थोड़ा और जल लाकर दूसरे चरण का भी प्रक्षालन कर दीजिए। उनके इन वचनों को सुनकर पकड़ी गई आज तो गुरुमतिजी पकड़ी गई। देखो जल लाने का कहती है। अरे! जल लाने में जितना भी आरंभ-सारंभ होगा, श्रावक जाएगा-आएगा, जीवाणि करेगा, ईंधन से तपाएगा, करवाने रूप सारे सावद्य (पाप) का दोष आपको आएगा।' संयमियों को इस बात का ध्यान रखना चाहिए। आर्यिका गुरुमतिजी ने क्षमा माँगी एवं इसमें लगे दोष को दूर करने हेतु प्रायश्चित्त का निवेदन किया। अहिंसा का सूक्ष्मातिसूक्ष्म पालन - डॉ. पी.सी. जैन, जबलपुर अपने बड़े बेटे को लेकर कुंडलपुर में विराजमान आचार्यश्रीजी के दर्शनार्थ गए, उन्होंने आचार्यश्रीजी से कहा- यह मेरा बेटा पुणे, महाराष्ट्र में अपना मकान बना रहा है, अब यह वहीं रहेगा। आपसे आशीर्वाद लेने आया है। तभी उनके बेटे ने जिज्ञासा भाव से आचार्यश्रीजी से पूछा- क्या वास्तु का प्रभाव मनुष्य पर पड़ता है ?' आचार्यश्रीजी मौन रहे। उन्होंने पुनः पूछा‘आचार्यश्रीजी! क्या वास्तु का उल्लेख आगम में आया है ?' अब भी आचार्यश्रीजी का उत्तर मौन ही था। बाद में कभी अवसर पाकर प्रसंगवशात् डॉ. पी.सी. जैन ने आचार्यश्रीजी से कहा- ‘मेरे बेटे ने जब वास्तु के विषय में पूछा था, तब आप मौन क्यों रहे? वास्तु का उल्लेख भी शास्त्रों में आया है एवं इसका प्रभाव भी पड़ता है। आचार्यश्रीजी बोले- ‘देखो! उस समय वह मकान बना रहा था, यदि मैं हाँ कर देता और वह उसके अनुसार अपने मकान में तोड़फोड़ कर जो परिवर्तन करता, उस कार्य के आरंभ-सारंभ में हुई हिंसा का दोष हमें जाता। धन्य हैं! आचार्य भगवंत, जो मन-वचन-काय एवं कृत-कारित-अनुमोदना रूप हिंसा तो दूर उससे भी अत्यंत सूक्ष्म दोष से भी स्वयं को सहज ही बचा लेते हैं। इस तरह आचार्य भगवंत अहिंसा महाव्रत स्वयं पालते हैं और पलवाते भी हैं। सूक्ष्म से सूक्ष्म जीवों का घात महाव्रती न तो करते हैं और न करवाते हैं, साथ ही अनुमोदना रूप पाप से भी बचते हैं। और मोक्षमार्गी को बेचने की शिक्षा प्रदान करते हैं। विश्व कीर्ति का ध्वज : सत्य महाव्रत आगम की छाँव रागादीहिं.............. ...............सच्चे।।६।। रागादि के द्वारा असत्य बोलने का त्याग करना और पर को ताप करने वाले सत्य वचनों के भी कथन का त्याग करना तथा सूत्र और अर्थ के कहने में अयथार्थ वचनों का त्याग करना सत्य महाव्रत है। आचार्यश्री का भाव अहं (अहंकार) को छोड़, अहं (निज) को पाना ही सत्य है। ऐसे सत्य को बार-बार नमस्कार हो। सत्य महाव्रत का अर्थ सत्य बोलना नहीं है बल्कि असत्य का त्याग करना है। अहिंसा साधु का जीवन है, तो सत्य उसका वास्तविक प्राण है। जिस सत्य के द्वारा प्राणियों को पीड़ा पहुँचती है, ऐसा सत्य भी असत्य कहलाता हैं। एक शब्द के स्थान पर बहुत बोलना, यह सत्य व्रत नहीं कहलाता है। अधिक बोलने वालों के सत्य महाव्रत बन ही नहीं सकता है। मोक्षमार्ग में तथ्यात्मक बोलो, हितकारी जो हो, उसे बोलो, मीठे शब्दों के साथ बोलो और सारभूत ही बोलना चाहिए। बोलने के पूर्व स्व-परहित के बारे में, धर्म का गौरव बढ़ेगा कि नहीं, कहीं अपयश तो नहीं फैलेगा, सोच लेना चाहिए। ध्यान रखना, बोलने से यश फैल सकता है, तो अपयश भी पल्ले में आ सकता है। सत्यवादी आवेश में आकर कार्य नहीं करेगा। दृढ़ता, धीरता, गंभीरता सदा ही साथ रखो, तभी जीत होगी। हमारा समर्थन भले ही न हो, पर असत्य का आलम्बन नहीं लेना चाहिए। सत्य से ही तृप्ति होती है। कभी परेशानी नहीं आएगी। सत्यता के साथ बाहर भले ही अकेले दिखें, किंतु उसके साथ साक्षात् जिनवाणी है, गुरुदेव हैं, अकेला कहाँ है वह। आँखें न मँदो नही आँखें दिखाओ सच क्या देखो। आचार्यश्री का स्वभाव अनुभय वचनात्मक शैली - आगम के साँचे में ढला आचार्य भगवन् का जीवन एकदम श्रृंगारित नज़र आता है। आचार्यश्रीजी कहते हैं-‘सत्य और अनुभय वचन संसार सुख के निर्माता हैं, ये वचन पाप से रहित हैं और धर्म से सहित हैं, बोलने योग्य हैं तथा सारभूत हैं।' आचार्यश्रीजी अधिकांशतः अनुभय वचन एवं सांकेतिक शब्दों का प्रयोग करते हैं। जैसे “देखो', ‘देख लो’, ‘देखते हैं', ‘निमित्त होगा तो’, ‘मैं क्या कहूँ’, ‘मैं कैसे कुछ बोल हूँ' आदि। सन् २००८, रामटेक, नागपुर, महाराष्ट्र, चातुर्मास के दौरान एक आर्यिका संघ ने आचार्यश्रीजी के पास संघस्थ ब्रह्मचारिणी बहन के द्वारा सूचना भेजी कि संघस्थ एक आर्यिकाजी के दाँतों में अत्यन्त पीड़ा है। वैद्यजी ने अमुक उपचार बताया है। क्या करें ? गुरुवर ने उत्तर दिया- ‘देख लो। पूछने वाली बहन ने कहा- ‘भगवन्! हम समझ नहीं पा रहे, आर्यिकाजी से क्या कह दें ?' आचार्यश्रीजी मौन रहे। उस बहन ने साहस जुटा कर पुनः कहा- ‘आचार्य श्रीजी ! उनको बहुत वेदना है। कब से तो आहार नहीं कर पा रहीं हैं। हाँ कह दें भगवन् ?' वह बोले- ‘कह तो रहा हूँ देख लो ।' नहीं समझ पाई बहन कि यह ‘देख लो' शब्द क्या कह रहा है। उसने आकर आर्यिकाजी से कहा- ‘गुरुजी ने तो कुछ कहा ही नहीं। कह रहे थे ‘देख लो। अब आप क्या करेगीं ?' आर्यिकाजी बोलीं- ‘दीदी ! उन्होंने ‘देख लो' कह दिया, इसी में तो उत्तर है। क्या आप गुरुजी का आशय नहीं समझ पाईं, गुरुजी अपनी चर्या में दोष नहीं लगाते । जहाँ पर स्पष्ट रूप से निर्दोषता या सदोषता होती है, वहाँ तो वह 'हाँ' या ‘न' का प्रयोग करते हैं। पर जहाँ पर हल्की-सी भी सदोषता होने की संभावना हो, किंतु कार्य की अनिवार्यता भी हो, तब वह सामने वाले को अनुभय वचन ‘देख लो' जैसे कुछ शब्दों द्वारा स्वतंत्रता प्रदान कर देते हैं। और स्पष्ट रूप से कुछ भी कहने पर संभावना रूप से लगने वाले सूक्ष्म दोषों से भी स्वयं को बचा ले जाते हैं।' ...ऐसा भी सत्य! किसी भी विषय पर ‘हाँ' या ‘न' कहते प्रायः उन्हें नहीं देखा जाता। कभी क्वचित्-कदाचित् यदि संकेत में भी स्वीकृति रूप भाव प्रकट हो जाएँ, तो उसे भी वह अक्षरशः पूर्ण करते हैं। यह प्रसंग तब का है जब आचार्य श्री विद्यासागरजी के चरणों ने राजस्थान की भूमि को दूसरी बार स्पर्श किया था। राजस्थान वह पवित्र भूमि है, जहाँ पर विचरण कर आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज ने जिनशासन की महिमा मंडित करने वाले एक विराट् व्यक्तित्व का निर्माण किया था। राजस्थान की भूमि तो वही थी, पर तब और अब में अंतर इतना था कि तब उस विराट् व्यक्तित्व के साथ प्रत्यक्ष रूप में गुरु का हाथ और साथ था। और अब आज्ञा एवं क्रिया रूप में गुरु का साथ और हाथ है, प्रत्यक्षतः नहीं। मुनि श्री विद्यासागरजी का चौथा वर्षायोग अपने गुरु आचार्य श्री ज्ञानसागरजी के साथ सन् १९७१, में मदनगंज-किशनगढ़ (अजमेर, राजस्थान) में हुआ था। यहाँ की समाज ने इस दौरान आचार्य श्री ज्ञानसागरजी के दिशा निर्देशन में श्री आदिनाथ दिगंबर जैन मंदिर का निर्माण कार्य आरंभ किया था। आचार्य महाराज जहाँ भी रहे, समाज उनके पास जाकर समय-समय पर दिशा निर्देश लेती रही और मंदिर के निर्माण की प्रगति की सूचना उनके जीवित रहने तक उन्हें देती रही। आचार्य महाराज की समाधि के पश्चात् इस जिनालय के पंचकल्याणक उन्हीं के सुशिष्य आचार्य श्री विद्यासागरजी जो इस समय बुंदेलखण्ड में प्रवासरत थे, के चरण सान्निध्य में ही करवाने की तीव्र भावना समाज की बनी। इसके लिए समाज के अग्रणी लोग आचार्यश्रीजी के पास अनवरत निवेदन करने भी जाते रहे। प्रत्येक बार गुरुदेव, ‘निमित्त होगा तो'..... कह कर मौन हो जाते थे। समय निकलता गया। सन् १९७९ में आचार्यश्रीजी कुण्डलपुर (दमोह, मध्यप्रदेश) में विराजमान थे। उस समय किशनगढ़ से एक प्रतिनिधि मंडल के २०/२२ लोग पुनः निवेदन करने २७ जनवरी, १९७९ को प्रातः लगभग १०.00 बजे कुण्डलपुर पहुँचे। जिनमें प्रमुख थे, सर्व श्री कपूरचंदजी गंगवाल, श्री मूलचंदजी लुहाड़िया, श्री दीपचंदजी चौधरी, श्री बोदूलालजी गंगवाल, अजमेर के श्री छगनलालजी पाटनी, श्री कजौड़ीमलजी सावरकर, ताराचंदजी गंगवाल आदि। उन्होंने बड़ी भक्तिभाव से अपनी प्रार्थना निवेदित की। दो दिन तक आचार्यश्रीजी इस विषय में मौन ही रहे, पर श्रावकों का अथक प्रयास जारी रहा। जिसके फलस्वरूप २९ जनवरी, १९७९ को दोपहर के प्रवचन में आचार्यश्रीजी के मुख से निकला ‘पंचकल्याणक करना है सो कराओ, ‘विशुद्धि बढ़ाओ।' और हँसते हुए आगे बोले- भाई साई (बयाना) के पेटे कुछ जमा कराओ।' उनका आशय था कि कुछ त्याग बगैरह करो। तो उन सभी ने यथाशक्ति कुछ न कुछ त्याग किए। इन शब्दों ने तो जैसे प्रतिनिधि मंडल में प्राण फेंक दिए। यद्यपि स्पष्ट रूप से कुछ नहीं था, पर कुछ तो था। वे आशा की किरण लेकर खुशी-खुशी वापस लौट गए। पंचकल्याणक की तिथि २५ से ३१ मई, १९७९ निश्चित हो गई। ३० जनवरी, १९७९ में आचार्यश्रीजी का विहार कुण्डलपुर से किशनगढ़, अजमेर, राजस्थान की ओर हुआ। वह ७०० किलोमीटर का रास्ता तय करके जयपुर, राजस्थान पहुँचे। वहाँ छोटे दीवानजी के मंदिर में ठहरे। इस वर्ष जयपुर में महावीर जयंती १० अप्रैल, १९७९, मंगलवार के दिन आचार्यश्रीजी के सान्निध्य में मनाई गई। रामलीला मैदान में आचार्यश्रीजी के प्रवचन सुनने सारा शहर उमड़ पड़ा। फिर यहाँ से विहार कर पाकिस्तान के मुल्तान शहर से आए हुए आदर्श नगर जैन मंदिर में गए। यहीं से उन्हें टायफाईड आना शुरू हो गया। फिर वापस छोटे दीवानजी के मंदिर गए। १०५-१०६ डिग्री बुखार एक-डेढ़ माह तक लगातार आता रहा। शरीर इतना कृश हो गया कि स्वतः उठना-बैठना भी दूभर हो गया। जब पंचकल्याणक के पाँच दिन ही शेष थे, तभी २१ मई, १९७९ के दिन उन्होंने प्रात:काल छोटे दीवानजी के मंदिरजी में वेदी की तीन प्रदक्षिणा लगाईं। जैसे वह अपनी शक्ति को समझ रहे हो। और उसी दिन उन्होंने सायं पाँच/साढे पाँच बजे किशनगढ़ की ओर विहार कर दिया। इन्हीं दिनों आचार्यश्रीजी की गृहस्थजीवन की जन्मदात्री माँ आर्यिका श्री समयमतिजी एवं दोनों बहनें आर्यिका श्री नियममतिजी व आर्यिका श्री प्रवचनमतिजी जयपुर में ही विराजमान थीं। उनमें से एक (बहन) आर्यिका श्री १०५/१०६ डिग्री बुखार आ रहा था। परंतु आचार्यश्रीजी ने विहार करते समय उनकी तरफ दृष्टि भी नहीं डाली। तभी एक ऐसी अनोखी व आश्चर्यकारी घटना घटी कि कड़कड़ाती धूप में जहाँ बादल का नामो-निशान भी नहीं था, वहाँ चाँदपोल बाजार के बाहर खजांची की नसिया में प्रवेश करते ही बारिश की बूंदों ने शगुन कर दिया। वैद्यों ने मनाही की, कहा- ‘एक-डेढ़ किलोमीटर से अधिक चलने पर पुनः टायफाईड आ सकता है। समाज ने डोली तैयार करके रखी, पर उन्हें डोली में बैठाना तो दूर उनसे कहने तक का साहस समाज न कर सकी। एक दिन छोड़, दूसरे दिन २३ मई, १९७९ के दिन महलां, राजस्थान में आहार चर्या करने गए तो मात्र दो अंजली जल ही लिया कि अंतराय आ गया। फिर २४ मई को भी सामान्य से जल, दूध और दो-चार ग्रास ही ले पाए कि पुन: अंतराय हो गया। श्रावकों के लाख मना करने के बावजूद भी उन्होंने इसी दिन शाम को विहार कर दिया। राजस्थान की भीषण गर्मी, बीमारी की अवस्था, इस पर भी गुरुदेव ने अठारह-अठारह किलोमीटर का विहार किया। आगे-आगे वर्षा और पीछे-पीछे महाराज यही क्रम पूरे मार्ग में चलता रहा। गुरुदेव के अदम्य साहस को देखकर, जयपुर के कुशल वैद्यराज श्री सुशीलजी, जिनका उपचार चल रहा था, बोले- ‘ऐसे संतों का जीवन तो असाधारण है, जिन पर साधारण जीवों पर लागू होने वाले आयुर्वेद के सिद्धांत लागू नहीं होते। मेरे ज्ञान के अनुसार रोगियों के इतिहास की यह पहली घटना है कि जब डेढ़ माह से तीव्र टायफाईड से पीड़ित रोगी पहली बार अठारह किलोमीटर तो क्या, एक किलोमीटर भी पैदल चल सका हो। यह तो लोकोत्तर महात्मा के जीवन की लोकोत्तर घटना है। दृढ़ इच्छाशक्ति धारक गुरुदेव गन्तव्य स्थान तक पहुँचे, बीच में रुके नहीं। वचन तो दूर संकेत में कहे गए भावों को भी उन्होंने हर हाल में पूरा किया। २८ मई, १९७९, जन्म कल्याणक के दिन प्रातःकाल ३०-४० हजार नर-नारी , आबाल-वृद्ध आदि के मध्य विशाल जुलूस के साथ आचार्यश्रीजी का ससंघ किशनगढ़ में मंगल पदार्पण हो गया। इसी समय आचार्यकल्प श्री श्रुतसागरजी का संघ भी यहाँ विराजमान था। दोनों संघों का भव्य मिलन हुआ। अपनी अभीष्ट भावना को पूरा होता देख समाज के हर्ष का ठिकाना न रहा। किशनगढ़ का यह पंचकल्याणक महोत्सव आचार्यश्रीजी का सान्निध्य पा ऐतिहासिक और अभूतपूर्व बन गया। अखिल वैभव का हेतु : अचौर्य महाव्रत आगम की छाँव गामादिसु..........परिवजणं तं तु ।।७।। ग्राम आदि में गिरी हुई, भूली हुई इत्यादि जो कुछ भी छोटी-बड़ी वस्तु है और जो पर के द्वारा संग्रहीत है, ऐसे परद्रव्य को ग्रहण नहीं करना, सो वह अदत्त-परित्याग (अचौर्य) नाम का महाव्रत है। आचार्यश्री का भाव सर्वज्ञ, वीतराग और हितोपदेशी भगवान् ने हमारे आत्म कल्याण के लिए एक सूत्र दिया है, वह है अस्तेय, अचौर्य महावत। ‘स्तेय कहते हैं अन्य पदार्थों के ऊपर अधिकार जमाने की आकांक्षा, पर-पदार्थों पर आधिपत्य रखने का वैचारिक प्रयास। दूसरों के द्रव्य को देखते ही, ‘नहीं-नहीं', ऐसा भाव आवे, तब ही अचौर्य महाव्रत पलता है। ‘जहाँ देह अपनी नहीं, तहाँ न अपनो कोय' ऐसा विचार करने वाले मुनि, पर-धन (वस्तु) को अपना कैसे कह सकते हैं? जिस द्रव्य के द्वारा संयम की हानि हो, उस द्रव्य को नहीं लेना चाहिए, वह चोरी कहलाएगी। इसमें सब चीज आ जाएँगी। आहार आदि भी आ जाएगा। भक्ति के अतिरेक में कोई देता है, यदि वह संयम की हानि में कारण है, तो मुनि को वह नहीं लेना चाहिए। दाँत में फँसे हुए कण को निकालने के लिए बिना पूछे तृण भी नहीं लेना चाहिए। संयम की हानि एवं विकास किसमें होता है, यह विवेक मुनिराज में होना चाहिए। किसी पदार्थ से आत्मीय भाव नहीं रखना चाहिए। जैसे डायरी, पेन, पाटा और चौकी मेरी है, यह कहना भी ठीक नहीं है। अपनी चर्या के द्वारा दूसरों की आस्था गिराना भी चोरी करना ही है। कभी किसी से याचना नहीं करना, किसी को कुछ आज्ञा नहीं देना, किसी भी पदार्थ से ममत्व नहीं रखना, सदा निर्दोष पदार्थ का सेवन करना और साधर्मी पुरुषों के साथ शास्त्रानुकूल वार्तालाप करना। ये पाँच अचौर्य महाव्रत को शुद्ध रखने वाली श्रेष्ठ भावनाएँ हैं। आचार्यश्रीजी अचौर्य महाव्रत के धनी हैं। अचौर्य महाव्रत का पालन तो ठीक उनकी पाँच भावनाओं से सुसज्जित उनका जीवन है। इन भावनाओं के अनुरूप उन्होंने अपना स्वभाव बना लिया है। पक्षी कभी भी दूसरों के नीड़ में घुसते नहीं। आचार्यश्री का स्वभाव बिन पूछे कैसे लेता - अतिशय क्षेत्र बहोरीबंद (कटनी, मध्यप्रदेश) का प्रसंग है। संयोगवश आहार के बाद श्रावक आचार्यश्रीजी के स्थान पर संघस्थ मुनि श्री कुंथुसागरजी का कमण्डलु ले गए, और आचार्यश्रीजी के कमरे में रख दिया। ईर्यापथ भक्ति के बाद आचार्यश्रीजी मुनि श्री कुंथुसागरजी से बोले- ‘क्यों, कुंथु! यह कमण्डलु तुम्हारा है, मैं उपयोग में ले लूं।' उन्होंने कहा- ‘जी, आचार्यश्रीजी।' आचार्यश्रीजी बोले- ‘बहुत देर से मेरे पास रखा था, पर बिना पूछे कैसे लेता।' मुनि श्री कुंथुसागरजी हाथ जोड़कर बोले- ‘गुरुदेव! सब आपका ही है, ये मण्डल (संघ) और कमण्डल।' गुरुदेव सहज ही बोले- ‘नहीं, न मेरा ये मण्डल है और न ही कमण्डल है। धन्य है आचार्यश्रीजी को कि उन्होंने न तो बिना पूछे कमण्डलु का उपयोग किया और न ही अपने कमण्डलु के विषय में खोज स्वयं की। क्योंकि दूसरों से पूछने पर उसे खोजने के लिए श्रावकों की जो अयत्नाचारपूर्वक क्रिया होती, उससे लगने वाला दोष भी उन्हें स्वीकार नहीं था। बचपन तक में वह बिना दी हुई वस्तु को नहीं स्वीकारते थे। एक बार वह और मारुति अपने खेत में खड़े थे। दूसरे बाजू वाले के खेत में ट्रेक्टर के चलने से मिट्टी का एक बड़ा-सा डिमला उचक कर विद्याधर के खेत में आ गया। विद्याधर ने उठाकर उसे बाजू वाले खेत में ही फेंक दिया। जिसे देख मारुति ने कहा- ‘मिट्टी ही तो थी, क्या जरुरत थी। वापस फेंकने की ?' विद्याधर बोले- ‘अगले जन्म में उसकी मिट्टी के बदले जमीन देनी पड़ेगी। सब कर्म का खेल है।' मारुति बोले-‘यह मिट्टी है, तुमने तो उठाई नहीं, स्वयं ही आई है। विद्याधर बोले- ‘वस्तु की कीमत की बात नहीं है, उस वस्तु के ममत्व भाव से पाप होता है। वह मिट्टी तो हमने देख ली थी ना...। अपनी नहीं हैं, फिर भी स्वीकार लेना, तो पाप ही हुआ ना....।' धन्य है। गुरुवर को जो जन्मतः ही हेय (छोड़ने योग्य) उपादेय (ग्रहण करने योग्य) की बुद्धि सहित थे। याचना तो दूर, संकेत तक नहीं देते - कुण्डलपुर, (दमोह, मध्यप्रदेश) मई २०१६ का प्रसंग है। एक दिन स्वाध्याय करते-करते आचार्यश्रीजी ने पेंसिल उठाई, उसे देखा और रख दिया। यह दृश्य सामने कुछ दूरी पर आचार्यश्रीजी से चर्चा करने के भाव से प्रतीक्षा कर रहीं दो ब्रह्मचारिणी बहनों ने देखा। उन्हें समझते देर न लगी, उन्होंने तुरंत जाकर संघस्थ मुनिश्रीजी को बताया कि संभवतः गुरुजी कुछ लिखना चाह रहे हैं, पर पेंसिल व्यवस्थित (नोंक) न होने से उन्होंने लिखा नहीं। मुनिश्री ने तत्काल ही पेंसिल लाकर गुरुजी को दे दी। आचार्यश्रीजी ने उन्हें बड़े ही आश्चर्य से देखा कि इन्हें कैसे ज्ञात हुआ ? जब उनकी दृष्टि सामने कुछ दूरी पर प्रतीक्षारत उन बहनों पर गई, तब वह समझ गए और मुस्करा दिए। बाद में उन मुनिश्री ने बताया कि आचार्यश्रीजी कभी भी किसी वस्तु के लिए इशारा भी नहीं करते हैं। संघस्थ ज्येष्ठ साधु प्राय:कर गुरुजी का बाजौटा (चौका) व्यवस्थित कर देते हैं। इसके बावजूद भी कई बार तीन-तीन, चार-चार दिन तक गुरुजी का लेखन कार्य रुका रहता। उन्होंने बताया एक बार तीन-चार दिन से गुरुजी का लेखन कार्य रुका हुआ देखकर सहजता से किसी ने पूछ लिया, “आचार्यश्रीजी! क्या आपका लेखन कार्य पूर्ण हो गया ?' आचार्यश्रीजी ने न तो ‘हाँ' कहा और न ही 'ना' । उपदेशात्मक शैली में बोले- ‘योग्य उपादान और योग्य निमित्त के मिलने पर कार्य की सिद्धि होती है। निमित्त के अभाव में नैमित्तिक का भी अभाव हो जाता है। प्रत्येक कार्य का कारण होता है। कारण मिलने पर कार्य सिद्ध होता है। बाद में ज्ञात हुआ कि आचार्यश्रीजी के बाजौटे पर पेंसिल नहीं रखी थी। जब पेंसिल साफ़ करके उनके चौके पर रख दी।| तब लेखन कार्य पुनः प्रारंभ हो गया। धन्य है। गुरुवर की धैर्य एवं गंभीरता की पराकाष्ठा। लेखन कार्य रोक दिया, पर आगम की आज्ञा, अचौर्य महाव्रत की भावना रूप अयाचकवृत्ति का पालन पूर्ण निष्ठा से किया | आज्ञा नहीं, इशाराही पर्याप्त समझो - इतने विशाल संघ के नायक आचार्यश्रीजी को कभी भी आज्ञा देते नहीं देखा जाता। यदि कभी आवश्यकता भी पड़े, संघ में निर्देश देने या किसी को सतर्क करने की, तो प्रायः सामूहिक कक्षाओं में प्रसंग उपस्थित कर अपनी बात संकेत के माध्यम से कह देते हैं। अथवा संघस्थ ज्येष्ठ साधुओं को इशारा कर देते हैं। वे कहा करते हैं कि समझदार को इशारा ही काफ़ी है और नासमझ को सारा भी दे दो, तो कम है। उनके आशीर्वाद एवं प्रेरणा से स्वास्थ्य, शिक्षा, राष्ट्र, संस्कृति एवं संस्कार आदि विषयक कितने प्रयास एवं योजनाएँ संचालित हैं, पर कभी भी वह आदेशात्मक शैली का प्रयोग नहीं करते। जहाँ आज्ञा देते-देते भी कार्य की परिणति नहीं पाई जाती, वहीं गुरुजी के एक इशारे पर जनजन बलिहारी होते हैं। और सभी कार्य क्षण भर में पूर्णता को प्राप्त हो जाते हैं। ६ अप्रैल, २००१, सोमवार, बहोरीबंद, महावीर जयंती के दिन, मध्याह्न के समय मुख्यमंत्री श्री दिग्विजयसिंह आचार्यश्रीजी के पास दर्शनार्थ आए। समिति के सदस्यों ने उनके समक्ष सामाजिक कुछ आवश्यकताओं को रखा और आचार्यश्रीजी से कहा-‘गुरुदेव! आप मंत्रीजी को इस कार्य के लिए आशीर्वाद दीजिए, वह शीघ्र पूरा कर सकें।' मुख्यमंत्रीजी ने हाथ जोड़े और कहा‘आप हमें आदेश करें, हम अवश्य पूरा करेंगे।' आचार्यश्रीजी बोले- ‘आदेश तो हम देते नहीं। और फिर हँसते हुए बोले- जो । इशारे को ही आदेश समझ ले, तो समझ ले। अत्यंत निर्ममत्त्वी - सन् १९७६ में वर्षायोग/चातुर्मास के पूर्व आचार्यश्रीजी का ससंघ कुंडलपुर पहुँचना हुआ। मुनि श्री समयसागरजी, जो उस समय क्षुल्लक अवस्था (उम्र १८ वर्ष) में थे, गंभीर रूप से अस्वस्थ हो गए थे। उनका ज्वर बहुत समय से नहीं जा रहा था। जैन दर्शन के मूर्धन्य विद्वान् पंडित श्री जगन्मोहनलालजी, कटनी ने आचार्यश्रीजी से अनुरोध किया कि यहाँ जंगल है, छोटी बस्ती है, कोई वैद्य नहीं है एवं आपके वर्षायोग की स्थापना में अभी १ माह शेष है। अतः क्षुल्लक श्री समयसागरजी को मुझे अपने साथ कटनी ले जाने की अनुमति दीजिए। आचार्यश्रीजी ने अनुमति देते हुए कहा- “श्रावकों का अधिक संपर्क संयम में बाधक होता है।'' तब पंडितजी ने कहा- ‘क्षुल्लक श्री योगसागरजी को भी साथ भेज दीजिए।' आचार्यश्रीजी ने उत्तर दिया- ‘नहीं, क्षुल्लक श्री नियमसागरजी को ले जाओ।' चूंकि क्षुल्लक श्री समयसागरजी और क्षुल्लक श्री योगसागरजी दोनों ही आचार्यश्रीजी के गृहस्थावस्था के भाई थे। अतः आचार्यश्रीजी का अभिप्राय था, अस्वस्थता काल में क्षुल्लक श्री समयसागरजी को मोह उत्पन्न न हो जाए। पंडितजी क्षुल्लक श्री समयसागरजी एवं क्षुल्लक श्री नियमसागरजी को कटनी ले गए। एक दिन क्षुल्लक श्री समयसागरजी का स्वास्थ्य अत्यंत बिगड़ गया, उनको ठंडा पसीना आने लगा। रक्तचाप (ब्लड प्रेशर) ८0 से ३५ तक गिर गया। नाड़ी नहीं मिल रही थी एवं हार्ट ने ठीक से काम करना बंद-सा कर दिया। चिकित्सक बोले- ‘आधुनिक पद्धति से उपचार करना पड़ेगा, नहीं तो समाधि हो जाएगी। ऐसी स्थिति में पंडितजी को आचार्यश्रीजी के वचन याद आ गए-' श्रावकों का अधिक संपर्क संयम में बाधक है। अतः उन्होंने उपचार नहीं कराया और क्षुल्लक श्री समयसागरजी से पूछा- ‘महाराज! आपका स्वास्थ्य नहीं सुधरा तो आप क्या करेंगे ?' महाराज बोले-‘समाधि ले लेंगे'। पंडितजी ने कहा* भीतर से क्या पूरी तैयारी है ?' वह बोले- ‘आप चिंता न करें, मैं पूरी तरह तैयार हूँ। मैं मरण-भय से मुक्त हूँ।' तब पंडितजी ने कहा- ‘मेरे साथ भक्तामरजी का पाठ कीजिए।' वह पाठ करने लगे। रात्रि ११ बजे के बाद ब्लड प्रेशर ३६ से अधिक नहीं हुआ, उन्हें मूच्र्छा-सी आने लगी। तब उन्होंने पंडितजी के बेटे प्रमोदकुमारजी से कहा- “यदि मैं मूर्छित हो जाऊँ, तो मेरा इतना ख्याल रखना, समाज के लोग मुझे अस्पताल न ले जाएँ। ऐसा वचन दो मुझे। उन दिनों वर्धा शासकीय चिकित्सालय के सुप्रसिद्ध डॉक्टर निगम, कटनी आए हुए थे। उन्होंने महाराज को देखा तो बोले- ‘ऐसी स्थिति में चेतना रहती ही नहीं है, यह तो आत्मबल से बोल रहे हैं। कोई चमत्कार ही इन्हें बचा सकता है।' पंडितजी ने उसी समय एक व्यक्ति को एवं अपने पुत्र को भी कार से कुंडलपुर आचार्यश्रीजी के पास पत्र लिखकर भेजा- ‘क्षुल्लक श्री समयसागरजी बहुत अस्वस्थ हैं, डॉक्टर ने जवाब दे दिया। समाधि का काल आ गया है। समाधि के लिए साधु कोई भी नियम तोड़कर आ सकता है, अत: आप आ जाएँ। पत्र पढ़कर आचार्यश्री जी ने उत्तर दिया- ‘पंडितजी स्वयं सक्षम हैं, समाधि करा देंगे। मेरे आने की आवश्यकता नहीं है।' प्रमोदजी ने बार-बार निवेदन किया, पर आचार्यश्रीजी वही बात दोहराते रहे। उस समय प्रमोदजी को जोश तो था, पर होश नहीं था, क्योंकि महाराज की स्थिति उनकी आँखों में घूम रही थी। अतः अज्ञानतावश वह आचार्यश्री जी से बोले- ‘महाराजजी! आपको चलना ही पड़ेगा। यदि आपका स्वास्थ्य ठीक नहीं हो, तो डोली से ले चलेंगे, नहीं तो कार लेकर आया हूँ। आप अभी चलें बाद में प्रायश्चित्त कर लेना।' आचार्यश्रीजी शांत भाव से सब सुनते रहे। फिर बोले- ‘पंडितजी को हमारा आशीर्वाद है। वह सक्षम हैं, समाधि करा देंगे।' प्रमोदजी को आचार्यश्रीजी का पुनः वही उत्तर सुनकर आवेश आ गया। वह बोले- ‘आचार्यश्रीजी! आप बहुत कठोर हैं। क्षुल्लक श्री समयसागरजी आपके संघस्थ साधु हैं और छोटे भाई भी। आपको कटनी चलना ही पड़ेगा।' इतना कहकर उन लोगों की आँखों से आँसू बहने लगे। मर्यादा दोनों के बीच में थी। वे तुरंत वापिस आ गए। इधर क्षुल्लक श्री समयसागरजी के अँगूठों में मकरध्वज आदि औषधि एवं पूरे शरीर पर सिकी हुई अरहर की दाल का चूर्ण रक्तचाप (ब्लड प्रेशर) बढ़ाने के लिए लगाया जा रहा था। बड़े बाबा की कृपा व आचार्यश्रीजी के आशीर्वाद से औषधि ने काम किया और रक्तचाप (ब्लड प्रेशर) धीरे-धीरे सामान्य हो गया। और कुछ दिनों में क्षुल्लक श्री समयसागरजी स्वस्थ हो गए। पंडितजी जब कुंडलपुर आए, तब आचार्यश्रीजी से पूछा- ‘इतनी अस्वस्थ अवस्था में आप क्यों नहीं आए ?' आचार्यश्रीजी ने हँसते हुए कहा - ‘पंडितजी! गृहस्थों और साधुओं के चिंतन में यही तो अंतर है। समयसागर युवा थे, भावनाओं का आवेग था, साधना काल है। यदि मुझे देखकर मोह उत्पन्न हो जाता तो उनकी समाधि ही बिगड़ जाती। आचार्य ऐसा कोई कार्य नहीं करते, जिससे निर्ग्रन्थों में ग्रन्थियाँ उत्पन्न हों।' पंडितजी ने जब आचार्यश्रीजी के अंतस् के भावों को सुना, तब वे उनकी निर्ममत्वता एवं दृढ़धर्मिता को देखकर नतमस्तक हो गए। इस तरह आचार्यश्रीजी न तो कभी याचना करते, न किसी को आज्ञा देते और उनकी निर्ममत्वता स्तुत्य एवं प्रणम्य है। अचौर्य महाव्रत की चौथी भावना निर्दोष पदार्थ का सेवन एवं पाँचवी भावना शास्त्रानुकूल वार्तालाप इनका विषय क्रमशः एषणा समिति और भाषा समिति में द्रष्टव्य है। शिवसुख की खान : ब्रह्मचर्य महाव्रत आगम की छाँव स्वात्मजेव...................ब्रह्मचर्य-महाव्रतं ।।१८०-१८१।। शुद्ध हृदय को धारण करने वाले वीतरागी पुरुष अपने रागरूप परिणामों का सर्वथा त्याग कर कन्या को अपनी पुत्री के समान मानते हैं, युवतियों को अपनी बहिन (भगिनी) के समान मानते हैं और वृद्धा स्त्री को अपनी माता के समान मानते हैं। इस प्रकार जो निर्मल ब्रह्मचर्य को धारण करते हैं उसको भगवान् जिनेन्द्र देव ब्रह्मचर्य महाव्रत कहते हैं। आचार्यश्री का भाव ब्रह्मचर्य का अर्थ वस्तुतः है चेतन का भोग। ब्रह्मचर्य का अर्थ भोग से निवृत्ति नहीं बल्कि रोग से निवृत्ति है। जिसे आप लोगों ने भोग माना है, वह वास्तव में रोग है। उस रोग से निवृत्ति ही ब्रह्मचर्य है। आपके भोग का केन्द्र भौतिक सामग्री है, हमारे यहाँ भोग की सामग्री बनती है चैतन्य शक्ति। हमेशा-हमेशा ब्रह्मचर्य पूज्य बना, किन्तु कभी भोग सामग्री पूज्य नहीं बनी। पाँचों इन्द्रियों के विषयों से विरक्त होने का नाम ही ब्रह्मचर्य है। जैसे लौकिक जगत में थक जाने पर विश्राम आवश्यक हो जाता है, ऐसे ही संसार से विश्राम की दशा में ब्रह्मचर्य आवश्यक हो जाता है। उपयोग को विकारों से बचाकर, राग से बचाकर वीतरागता में लगाना चाहिए, यही ब्रह्मचर्य है। ब्रह्मचर्य का अर्थ अपने में रम जाना। परमार्थ के क्षेत्र में आँखें खुली रहनी चाहिए और विषय- वासना के क्षेत्र में अंधा होकर रहना चाहिए। यौवन की झाड़ी में रावण जैसे विद्वान् भी फैंस गए थे, इसलिए यौवन की झाड़ी से बचकर निकलना। जिस प्रकार बहने के उपरांत नदी वापस नहीं लौटती, उसी प्रकार बीता हुआ वक्त वापस नहीं आता। अपने को पहचानो और उसमें डूबो, ताकि मल से आच्छादित तुम्हारा परमात्मा जाग्रत हो जाए। जिस औदारिक शरीर से संयम पलता है, यदि इसी को विकारमय बना दोगे, तो संयम कैसे पलेगा ? ब्रह्मचारी को कोमल बिछोना, संस्तर का उपयोग नहीं करना चाहिए। मुलायम यदि है तो संस्तर नहीं माना जा सकता है। अपनी ही चटाई आदि उपयोग में लाना चाहिए। सभी जिस पर बैठते हैं, उसको उपयोग में लेना यह ठीक नहीं है। नृत्य, गान, वाद्य इन कलाओं से ब्रह्मचर्य नष्ट होता है। इनसे स्वयं की रक्षा करो। गलत साहित्य से ब्रह्मचारी को बचना चाहिए। इससे पैसा, समय व संयम भी खत्म होता है। ब्रह्मचर्य ही आत्मनिष्ठ होने का व्यवहार है। यह शारीरिक दृष्टि से चलता है, तब भी यह महत्त्वपूर्ण है। मोक्षमार्ग का रास्ता इससे प्रशस्त होता है। निद्रा वासना दो बहने हैं जिन्हें लज्जा न छूती। आचार्यश्री का स्वभाव ब्रह्मचर्य कैसे पले ? - निर्दोष, आगमोक्त ब्रह्मचर्य व्रतधारी आचार्य भगवंत के पास सन् १९७४, सोनीजी की नसिया में एक अन्य मतावलंबी साधु आए। उन्होंने आचार्यश्रीजी के दिगंबर रूप का दर्शन करके सोचा कि यहाँ मेरी शंका का समाधान मिल सकता है। उन्होंने आचार्यश्रीजी से पूछा- ‘मैं कामेन्द्रिय को जीतना चाहता हूँ, पर सफल नहीं हो पा रहा हूँ, आपने कैसे जीता ?' आचार्यश्रीजी बोले- ‘हठयोग से इन्द्रियों को नहीं जीत सकते। इन्द्रियों को जीतने के लिए पहले मन को जीतो। इसके अलावा रसना इन्द्रिय को जीतने से भी कामेन्द्रिय को जीतने में सहयोग मिलता है। ब्रह्मचर्य की सतर्कता - आचार्य भगवन् सशील ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हैं। कभी भी अकेली स्त्री से एकांत में वार्तलाप नहीं करते । सन् २००८, रामटेक में एक अकेली श्राविका गुरुजी से चर्चा करने आ गई। आचार्यश्रीजी मौन रहे। उन्होंने सोचा कि वह उठकर चली जाएगी। पर वह वहीं पर बैठी रही। आचार्यश्रीजी ने उसको जाने का इशारा किया। फिर भी वह नहीं उठी। तब आचार्यश्रीजी स्वयं उठकर बाजू में ब्रह्मचारी भाइयों के कमरे में चले गए। पर उन्होंने एकांत में अकेली महिला से बात नहीं की। धन्य हैं। गुरुदेव को जो व्रतों के पालन के प्रति अपनी क्रियाओं के द्वारा सतर्क रहते हुए सब के लिए भी प्रेरणादायी बने हुए हैं। गुरु आज्ञा की निर्मल परिणति - आचार्यश्रीजी अखंड बाल-ब्रह्मचारी हैं। आपका जीवन चरित्र चंद्रमा की चाँदनी के समान धवल है। वह कभी भी असंयमी, स्त्रीजाति, यहाँ तक कि ब्रह्मचारिणी-शिष्याओं के भी नाम नहीं लेते। एक बार किन्हीं मुनिमहाराज ने कहा- ‘आचार्यश्रीजी महेन्द्र-सुनीताजी आ गए।' एक बार कहा, दो बार कहा, आचार्यश्रीजी ने सुन लिया और मौन रहे। बाद में मुनिश्रीजी से बोले- ‘महिलाओं के नाम आपने मुख से नहीं लेना चाहिए।' सैकड़ों की संख्या में आर्यिकाएँ एवं हजारों की संख्या में ब्रह्मचारिणी बहनें हैं। उनके जीवन को संयमित रूप से संचालित करने, प्रायश्चित देने या किसी प्रकार के निर्देश आदि देने संबंधी कोई भी चर्चा हो, वह सामूहिक रूप में ही किया करते हैं। वे अपने गुरु से प्रदत्त शिक्षानुसार आर्यिकाओं को अपने साथ में नहीं रखते हैं। सन् १९७६, में कंचन माँजी, अजमेर (राजस्थान), रत्तीबाईजी, सतना (मध्यप्रदेश), दराखाबाईजी, संतरामपुर (गुजरात) एवं मणिबाईजी, बागीदौरा (राजस्थान) इन चारों ने आचार्यश्रीजी से आर्यिका दीक्षा की प्रार्थना की। उस समय भी आचार्यश्रीजी ने उनसे, जो कि वह उम्र में बड़ी एवं गृहस्थाश्रम से विरक्ता थीं, कहा कि मैं दीक्षा तो दे दूंगा, पर साथ में नहीं रखेंगा। बाद में इन्हीं के द्वारा ही ब्राह्मी विद्या आश्रम का बीज विकसित हुआ। ‘मैं अपने संघ में आर्यिका नहीं रखेंगा।' इसलिए १५ वर्ष तक दीक्षा प्रदान नहीं की। और जब १० फरवरी, १९८७ को सिद्धक्षेत्र नैनागिरिजी (छतरपुर, मध्यप्रदेश) में प्रथम बार आर्यिका दीक्षा प्रदान की, तब भी दीक्षार्थी बहनों से यही बात कही। दीक्षार्थी बहनों ने जब आचार्यश्रीजी से कहा- ‘हम सभी दीक्षा के बाद कहाँ रहेंगे? कैसे रहेंगे?' तब सत्पथ प्रदर्शक आचार्य भगवन् ने बड़ी ही सहजता से कहा‘मूलाचार ग्रंथ की जहाँ आज्ञा है, वहाँ रहना और उसमें जैसा आचरण बताया है, वैसा आचरण करते हुए रहना। दीक्षा के बाद आर्यिकाएँ आचार्यश्री के दर्शन एवं मार्गदर्शन हेतु संघ में आती हैं, पर उनकी वसतिका एकदम पृथक् होती है। छोटी आर्यिकाएँ आगमानुसार बड़ी आर्यिका के बिना गमनागमन नहीं करतीं। कुछ दिन ही ठहरकर उन्हें विहार करना होता है। आचार्यश्रीजी हमेशा कहा करते हैं, मुनियों को श्री और स्त्री से दूर रहना चाहिए और आर्यिकाओं को शिक्षा देते हुए कहते हैं कि कभी भी असंयमी पुरुषों के नाम नहीं लेना चाहिए। अपवर्ग का सेतु : अपरिग्रह महाव्रत आगम की छाँव त्यजन्ते निखिला यत्र...................माकिंचन्यमहाव्रतम्॥२३०-२३१॥ जहाँ पर बुद्धिमान् (श्रमण) लोग शरीर, कषाय आदि संसारी जीवों के साथ रहने वाले और वस्त्रालंकार आदि जीव के साथ न रहने वाले समस्त परिग्रहों का त्याग कर देते हैं तथा मन-वचन-काय और कृत-कारित-अनुमोदना से परिग्रहों में होने वाली मूच्र्छा व ममत्व का भी त्याग कर देते हैं, उसको भगवान् जिनेन्द्रदेव ने पूज्य ‘आकिंचन्य' महाव्रत कहा है। आचार्यश्री का भाव आत्मा को हल्का बनाने की प्रक्रिया परिग्रह त्याग है। पर-वस्तु से दूर होना है। परिग्रह त्याग किए बिना आत्मा की बात करना सन्निपात रोग जैसा है। बाह्य और अंतरंग दोनों परिग्रह को छोड़े बिना अहिंसा धर्म की महक नहीं आ सकती, आत्मानुभूति तो दूर की बात है। तीर्थंकरों की पूजा अपरिग्रह के कारण होती है। इस अपरिग्रह महाव्रत को तीर्थंकरों ने पालन किया है। मेरा भी आज सौभाग्य है कि मैंने भी उस अपरिग्रह व्रत को स्वीकार किया और पालन कर रहा हूँ। अपने आपको धन्य मानना चाहिए। संयमोपकरण के लिए एक पिच्छी रहती है। शौचोपकरण के लिए एक कमंडलु रहता है। लेकिन आज ज्ञानोपकरण की संख्या निश्चित नहीं करते हैं। कितने होते हैं, कितने होना चाहिए ? इसके बारे में भी सोच लेना चाहिए ? परिग्रह कहने से आप लोगों का ध्यान जड़ की ओर चला जाता है, ऐसा नहीं। सचेतन भी परिग्रह होता है। व्यक्ति विशेष के प्रति मूच्र्छा नहीं रखना चाहिए। कोई व्यक्ति हमारी बात करे, कोई बात नहीं, लेकिन हम उसकी बात करें, यह ठीक नहीं है। यह परिग्रह का कारण है। अभ्यंतर परिग्रह का त्याग करने के लिए बाह्य परिग्रह का त्याग अनिवार्य है। जितने बाह्य पदार्थ हैं उनको औंधा लटका दो, तो भीतर की सभी कषायें बाहर आ जाती हैं। जैसे घड़े को उल्टा कर देने पर सारा घी बाहर आ जाता है, वैसे ही हमें बाह्य पदार्थों की इच्छा को उल्टा कर देने से सारी कषायें बाहर आ जाती हैं। हमें सब बाह्य परिग्रह का त्याग करने के बाद अंतरंग परिग्रह छोड़ना चाहिए था, लेकिन यदि हम बाह्य परिग्रह में ही लगे रहे तो यह ठीक नहीं है। जो निर्दोष अपरिग्रह महाव्रत का पालन करेगा उसका क्षयोपशम भी बढ़ेगा और निर्जरा भी होती है। किसी से परिचय न रखो, उनका पता हम न रखें, वे भले ही हमारा पता रखें। संतों ने, गुरुओं ने उपकरण के बारे में कहा- ‘उपकारं करोति इति उपकरणं', जिससे मोक्षमार्ग में उपकार हो, वह रखो, शेष नहीं। यदि उसके प्रति इच्छा हो गई तो वह परिग्रह हो गया। जिसको छोड़ने के लिए पुरुषार्थ करें किंतु छोड़ा न जाए, वह परिग्रह है। गुरु के लिए शिष्य एवं शिष्य के लिए गुरु भी परिग्रह हो सकते हैं। यह शिष्य जो कर्म क्षय के लिए आया है, किंतु गुरु उससे इधर-उधर के काम करवाए, तो वह शिष्य गुरु के लिए परिग्रह हो गया। गुरु के लिए वह द्वेष या स्नेह का भाजन न बने, बल्कि वह कर्म क्षय के लिए आया है, तो गुरु उसे उसी क्षेत्र में स्थित करें। और शिष्य गुरु को प्रसन्न करने के लिए कमण्डलु नया कर दे, पिच्छी नई बना दे, नई पुस्तक ला दे, पाटा बिछा दे, तो यह शिष्य के लिये गुरु परिग्रह हो गए। भीतरी भाव के बिना परिग्रह नहीं आ सकता। जैसे बच्चा दूध नहीं पीना चाहता तो माँ जबरन पिला देती है, तो वह बच्चा उल्टी कर देता है। वैसे ही बिना अंदर की चाह के परिग्रह अपने आप नहीं चिपकता।* परिग्रह के बीच बैठ जाओ, लेकिन अपने अंदर परिग्रह को मत बैठाना। जैसे नाव पानी में रहे, पर नाव में पानी नहीं आना चाहिए। परिग्रह का त्याग आवश्यक है। जैसे नीचे से अग्नि निकाल दो, तो जो दूध उबल रहा है वह धीरे-धीरे शांत हो जाता है, वैसे ही परिग्रह छोड़ते ही उबलन ठीक होगी। फिर धीरे-धीरे शांति होगी। फिर स्वस्थ हो जावेगा। फिर संतोष प्राप्त हो जाता है। साधुव साँप घर नहीं बनाते खाली रहते। आचार्यश्री का स्वभाव परिग्रह स्वामी, आप सेवक - परिग्रह की परिभाषा ही यही है कि ‘परि आसमन्तात् आत्मानं ग्रह्णाति स परिग्रहः।' जो चारों ओर से आत्मा को खींचता है, ग्रसित कर लेता है, उसका नाम | परिग्रह है।‘परिग्रह' शब्द की निष्पत्ति करते हुए आचार्य महाराज (आचार्य श्री ज्ञानसागरजी) ने एक बार कहा था ‘परितः समन्तात् आत्मानं ग्रह्णाति बध्नाति यत् सः परिग्रहः।' आत्मा को जो चारों ओर से बांध लेता है, ग्रहण कर लेता है, उसका नाम है परिग्रह। परिग्रह को आप नहीं खींचते, बल्कि परिग्रह के माध्यम से आप ही खिंच जाते हैं। परिग्रह को आप नहीं भोगते, बल्कि परिग्रह के द्वारा आप ही भोगे जा रहे हैं। परिग्रह सेठ, साहूकार बन चुका है, आप उसके नौकर बन गए हैं। यथार्थ में निग्रंथसन् १९७७, सिद्धक्षेत्र द्रोणगिरिजी (छतरपुर, मध्यप्रदेश) में आचार्यश्रीजी विराजमान थे। उस समय भारतवर्षीय दिगंबर जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी के अध्यक्ष, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली के संस्थापक एवं नवभारत टाइम्स, टाइम्स ऑफ इण्डिया आदि अनेक समाचार पत्रों के मालिक साहू शांतिप्रसादजी, दिल्ली वाले दर्शन करने आए। उसी समय जैनेन्द्रवर्णीजी द्वारा संकलित व संपादित ‘जैनेन्द्र सिद्धांत कोश' का प्रकाशन हुआ था। उसके चारों भाग वे आचार्यश्रीजी को भेंट करने के लिए लाए थे। आचार्यश्रीजी ने उन ग्रंथों का अवलोकन करते हुए कहा-'अच्छा पुरुषार्थ किया है। ऐसा कहकर ग्रंथ वापिस देने लगे। साहूजी बोले- “नहीं, महाराज! हम तो यह भेंट करने लाए हैं।' आचार्यश्रीजी बोले‘नहीं, साहूजी! हम इन्हें कहाँ रखेंगे? हमारे पास ग्रंथालय नहीं है। हम तो निग्रंथ हैं। ग्रंथ पढ़ते हैं, पर अपने पास ग्रंथालय नहीं रखते हैं। परिग्रह घड़ी, आरंभ घंटी - कुण्डलपुर का प्रसंग है। एक महाराज ईर्यापथभक्ति में विलम्ब से आए। उन्होंने आचार्यश्रीजी से कहा- “आचार्यश्रीजी! आज कमरे की दीवार घड़ी बंद हो गई, और आज ही घंटी नहीं बजी। अतः समय का पता नहीं चला।' गुरुवर बोले- ‘महाराज! समय (आत्मा) को तो कभी नहीं भूलना चाहिए। और घड़ी की ओर ध्यान देना यह हो गया ‘परिग्रह' एवं घंटी की ओर ध्यान देना यह ‘आरंभ' है। साधु तो आरंभ-परिग्रह का पूर्ण त्यागी होता है। ऐसा कहकर वह हँस दिए। बातों ही बातों में सिद्धांत पिला देना, गुरुवर की अपनी विशेषता है। यथार्थ निर्गंथ साधु आचार्यश्री विद्यासागरजी | उपसंहार अहिंसा पथ का पथिक अपने पथ का निर्माण स्वयं करता चला जाता है। पथ का निर्माण तो चलने से ही होता है। महाव्रती ही अहिंसा के पथ पर चल सकता है। महाव्रती इसलिए कहा जाता है कि वह अकेला ही महान् पथ पर चल पड़ता है। फिर उसके पीछे बहुतों की संख्या चली जाती है। २२ मई, १९९९ नेमावर, (देवास, मध्यप्रदेश) में मूलाचार प्रदीप की कक्षा में आचार्यश्रीजी ने कहा- ‘जिस प्रकार कार तो आजीवन के लिए खरीदी जाती है, परंतु उसे चलाने के लिए समय-समय पर उसमें पेट्रोल डालते रहना पड़ता है। उसी प्रकार ये महाव्रत तो आजीवन के लिए अंगीकार किए जाते हैं, परन्तु उन्हें सुचारु रूप से पालन करने के लिए आगम में कही गईं प्रत्येक महाव्रत की पाँच-पाँच भावनाओं को हमेशा भाते रहना चाहिए, पेट्रोल की भाँति डालते रहना चाहिए। पाँच पापों का त्याग किया तो पाँच महाव्रत आ गए। शेष जो मूलगुण हैं वे इन महाव्रतों की पुष्टि के लिए हैं।
  7. आचार्य श्री विद्यासागरजी का व्यक्तित्व अब तक के प्राप्त चरित्रों में अश्रुत है। ऐसा कभी नहीं सुना कि एक महापुरुष ने जब घर परित्याग किया हो तो पूरा परिवार गृहत्यागी हो गया हो।और जब श्रमण बनकर जिस गाँव/नगर से गमन किया हो, तब वहाँ के सैकड़ों युवायुवती उनके मार्ग के अनुगामी बन गए हों, परिवार के परिवार संयमपथ पर आरूढ़ हो गए हों। ऐसे अपूर्व व्यक्तित्व के धारी आचार्यश्रीजी के अपूर्व-अपूर्व कुछ प्रसंगों को प्रस्तुत पाठ का विषय बनाया जा रहा है। दीक्षा की आई मंगल बेला - आ गई वह स्वर्णिम बेला, रविवार, मध्याह्न का समय, ३० जून, १९६८ जब बाल ब्रह्मचारी विद्याधरजी की मन की मुराद पूर्ण होने जा रही थी। दीक्षार्थी ने प्रात:काल अपने धर्म के माता-पिता बने श्रीमान् हुकुमचंद्रजी लुहाड़िया एवं उनकी धर्मपत्नी श्रीमती जतनकुँवरजी द्वारा लाई गई सोने-चाँदी की द्रव्य से ‘शांति विधान किया। छोटे धड़े की नसिया एवं बड़े धड़े की नसिया के बीच छतरी मंदिर में एक विशाल पांडाल बनाया गया। विशाल जुलूस के साथ दीक्षार्थी बाल ब्रह्मचारी विद्याधरजी के पांडाल में प्रवेश करते ही, समाज के श्रेष्ठी वर्ग ने सरस्वती पुत्र गुरुवर श्री ज्ञानसागरजी महाराज को ससंघ गाजे बाजे के साथ लाकर दोपहर एक बजे के | लगभग मंचासीन किया गया। पाँच वर्षीय नन्हें बालक ने अपनी तोतली, सहज, मीठी वाणी में मंगलाचरण कर कार्यक्रम को गति प्रदान की। इसके बाद दीक्षार्थी बाल ब्रह्मचारी विद्याधरजी ने श्री १००८ जिनेन्द्रदेव का अभिषेक किया। परिवार से माँगी क्षमा एवं अनुमति - धर्म माता श्रीमती जतनकुँवरजी के साथ शांति विधान करते हुए दीक्षार्थी विद्याधरजी अभिषेक क्रिया के बाद दीक्षार्थी बाल ब्रह्मचारी विद्याधरजी के बड़े भाई श्री महावीर भैयाजी से दो शब्द बोलने का निवेदन किया गया। महावीर भैया को हिन्दी भाषा ठीक से नहीं आती थी, अत: बोलने में ब्रह्मचारी विद्याधर ने उनकी सहायता की। उन्होंने कहा- ‘मुनि दीक्षा लेने की खुशी विद्याधर को है और आप सभी को है, परन्तु हमको नहीं है। हमारा भाई हमसे दूर हो जाएगा, लेकिन मुनि बनना तो बहुत अच्छा है, बनना ही चाहिए। हम परिवार की ओर से क्षमा माँगते हैं, जय जिनेन्द्र। ब्रह्मचारी विद्याधरजी ने भी जाने-अनजाने में हुई त्रुटियों के लिए बड़े भाई एवं परिवार से क्षमा माँगी। और दीक्षा के लिए दीक्षा की अनुमति प्रदान करते हुए। दीक्षार्थी के बड़े भाई महावीरजी अष्टगे अनुमति प्रदान करें, ऐसा महावीर भैया से निवेदन किया। इसे सुनकर महावीर भैया भाव विह्वल हो गए। उन्होंने आँखों में पानी भरकर भरे कंठ से कहा- मैं अनुमति प्रदान करता हूँ। यह दृश्य देखकर सभी की आँखों से आँसू बहने लगे। जय-जयकारों की नाद से आकाश गूंज उठा। दीक्षा का निवेदन - परिवार से अनुमति प्राप्त कर दीक्षार्थी बाल ब्रह्मचारी विद्याधरजी ने गुरुवर श्री ज्ञानसागरजी महाराज से दीक्षा प्रदान करने का निवेदन करते हुए कहा- “आज मैं वंदनीय गुरुदेव का मंगल आशीर्वाद प्राप्त कर भौतिक सुखों को अंतिम प्रणाम कर रहा हूँ। युगादि में आदिम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव ने सर्वप्रथम मुक्ति का मार्ग प्रशस्त किया था। वे ही इस हुण्डा अवसर्पिणी काल के प्रथम निग्रंथ श्रमण थे। आज वे सिद्धालय में विराजमान हैं। दिगंबर हुए बिना, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र की उपलब्धि असंभव है। आज मैं मुक्ति के महान् एवं दिव्य पथ का पथिक बनने जा रहा हूँ। मेरी साधना सार्थक हो। मैं आदि तीर्थंकर ऋषभदेव से लेकर अंतिम तीर्थेश वर्धमान स्वामी तक सभी तीर्थंकर भगवंतों की और पूज्य गुरुदेव की शरण स्वीकार करता हूँ। मैं गुरुवर श्री ज्ञानसागरजी से करबद्ध प्रार्थना करता हूँ कि वह मुझे निग्रंथ श्रमण की दीक्षा प्रदान कर अनुग्रहीत करें। इस प्रकार निवेदन करके बाल ब्रह्मचारी विद्याधरजी ने गुरुचरणों में श्रीफल के साथ अपना जीवन भी समर्पित कर दिया। गुरुवर ने सर पर पिच्छी रखकर हृदय से आशीर्वाद प्रदान किया। तृणवत् उखाड़े केश - इसके बाद दीक्षार्थी ने आसन लगाकर 'ॐ नमः सिद्धेभ्यः' बोलकर केशलोंच करना शुरू कर दिया। यह उनकी ब्रह्मचारी अवस्था का तीसरा केशलोंच था। इससे पूर्व वह दो बार केशलोंच कर चुके थे। पहली बार सितंबर-अक्टूबर, १९६७ मदनगंज-किशनगढ़ में, और दूसरी बार फरवरी, १९६८ दादिया ग्राम (अजमेर, राजस्थान) में बिना राख के किया था। दीक्षार्थी के एकदम काले, घने और मजबूत बाल थे, देखने वालों को लग रहा था कि यह सुकुमार नवयुवा अपने ही हाथों से कैसे और कब तक केश उखाड़ पाएगा। पर जिनका मन संसार शरीर भोगों से पूर्ण विरक्त हो चुका था, उन्हें यह कार्य कठिन होते हुए भी मन से सहज हो गया था। हाथों की अँगुलियाँ भले ही बालों को पृथक् करना न चाह रही हों, बालों के वियोग में मस्तक से भले ही आँसू रूप में रक्त बह रहा हो, पर दीक्षार्थी दृढ़, निष्कंप एवं अचल थे। उनकी प्रसन्न मुख मुद्रा पर मन की मुराद पूर्ण होने रूप संतुष्टि स्पष्टतः देखी जा सकती थी। वह अपने केशों को तृणवत् उखाड़ते चले जा रहे थे। और लगभग एक-सवा घंटे में केशकुंचन की क्रिया संपन्न हो गई। केशलोंच के मध्य धीमंतों के उद्बोधन - बाल ब्रह्मचारी विद्याधरजी के केशलोंच के मध्य पंडित श्री विद्याकुमारजी सेठी, श्री नाथूलालजी वकील बूंदी, श्री के.एल. गोधा, पण्डित श्री हेमचन्द्रजी शास्त्री आदि धीमानों के वैराग्यपूर्ण उद्बोधन हुए। इस अवसर पर धर्मवीर सर सेठ साहब श्री भागचंदजी सोनी ने अपने उद्बोधन में कहा‘बाल ब्रह्मचारी विद्याधरजी युवावस्था में पंचमकाल की भौतिकता के आकर्षण के बावजूद पंचेन्द्रिय विषयों को त्यागकर वीतरागता की ओर कदमबढ़ा रहे हैं। दिगंबर साधु बनना बड़ा साहसिक कदम है। धन्य है, ऐसी भव्य आत्मा को। इस छोटी उम्र में मुनिव्रत के पालन हो पाने में समाज को संदेह हो रहा था। जब इस संदेह को लेकर समाज गुरुवर श्री ज्ञानसागरजी के पास गई, तब उन्होंने कहा- ‘हमने सब प्रकार से परीक्षण कर लिया है और मेरी परीक्षा में 'विद्याधर' खरा उतरा है। अतः ‘विद्याधर' मुनि दीक्षा ग्रहण करने योग्य है। यह सुनकर हमने भी ब्रह्मचारी विद्याधरजी की हर प्रकार से परीक्षा की कि ये भोजन कैसे लेते हैं, सामायिक कैसे करते हैं, कितना सोते हैं, कितना पढ़ते हैं, लौकिकजनों से कितना संपर्क रखते हैं, गुरु के प्रति कितना समर्पण भाव है, धर्म का कितना ज्ञान है, वैराग्य कितना मजबूत है, क्या-क्या त्याग है ? आदि हर प्रकार से मैंने स्वयं व अन्य से परीक्षा करवाई, तो ब्रह्मचारी विद्याधरजी हर परीक्षा में खरे उतरे व १०० में से १०० अंक प्राप्त किए। ऐसे मनोज्ञ, वीतरागता व वैराग्य से ओतप्रोत भव्य मुमुक्षु को कौन दीक्षा ग्रहण करने से रोक सकता था ? और आज आप सबके समक्ष वह क्षण उपस्थित है। मैं इनकी जवाबदारी लेता हूँ। दीक्षा के उपरान्त किसी को भी कोई शिकायत नहीं मिलेगी। मुझे पूर्ण विश्वास है कि ब्रह्मचारी विद्याधरजी आचार्य श्री कुंदकुंद स्वामी की परंपरा को श्रेष्ठ ऊँचाइयों पर ले जाएँगे।' इस तरह धीमानों के उद्बोधनों के बीच एक-सवा घंटे में केशलोंच की क्रिया संपन्न हो गई। दीक्षा संस्कार - मुनि श्री ज्ञानसागरजी ने दीक्षा देने से पूर्व उदयपुर में विराजमान अपने गुरु आचार्य श्री शिवसागरजी से, ‘मैं दीक्षा प्रदान करूं' इसकी अनुमति मँगवाई। इस दीक्षा कार्यक्रम के विधानाचार्य पंडित श्री विद्याकुमारजी सेठी स्वयं जाकर स्वीकृति लाए। ९ वर्ष की अवस्था में बालक विद्याधर ने चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री १०८ शांतिसागरजी महाराज के प्रवचन सुनकर जो सपना सँजोया था, वह आज साकार होने जा रहा था। मुनि श्री ज्ञानसागरजी ने दीक्षार्थी को दीक्षा वेदी पर विराजमान किया। अपने कर-कमलों द्वारा उनके मस्तक पर आगम के अनुसार दीक्षा के संस्कार मंत्रोचारण पूर्वक प्रारंभ करने से पूर्व उन्होंने कहा- ‘मेरे दीक्षा गुरु आचार्य श्री शिवसागरजी की आज्ञा से उनकी परंपरा में ब्रह्मचारी विद्याधर के मुनि दीक्षा के संस्कार प्रारंभ करता हूँ।” इसके बाद दीक्षार्थी के दीक्षा संस्कार किए। दीक्षा संस्कार के बाद गुरुवर ने उन्हें वस्त्र त्याग करने को कहा। दीक्षार्थी ने पलभर में ही समस्त परिग्रह का परित्याग कर दिया और हो गए निग्रंथ दिगम्बर श्रमण। इसके बाद मुनिश्री ने दीक्षार्थी को जीव रक्षा का उपकरण (साधन) पिच्छिका एवं शुद्धि का उपकरण कमण्डलु प्रदान किया। हाथ में पिच्छिका के आते ही नवदीक्षित मुनि ने गुरुवर श्री ज्ञानसागरजी को हाथ में पिच्छिका लेकर नमोऽस्तु किया, गुरुवर ने भी उन्हें प्रति नमोऽस्तु किया। दीक्षार्थी के धर्म के बने माता-पिता ने नवदीक्षित मुनि को शास्त्र प्रदान किया। सारा पांडाल आनंद विभोर हो जिनशासन की इस अद्वितीय क्रिया को एकटक निहार रहा था। दीक्षा का अतिशयकारी पल - दीक्षा संस्कार के बाद दीक्षार्थी ने ज्यों ही अपने वस्त्रों का परित्याग कर दिगंबर मुद्रा को प्राप्त किया, त्यों ही बेमौसम अचानक से बादलों की गड़गड़ाहट पूर्वक बारिश होने लगी, और मात्र दस मिनट होकर बंद हो गई। लोगों के आश्चर्य का उस समय ठिकाना नहीं रहा, जब देखा कि बारिश पांडाल एवं उसके आस-पास ही हुई है। अन्यत्र सभी जगह तो तेज धूप निकली है। सभी को यह दीक्षा किसी अतिशय से कम नहीं लग रही थी। उस समय के ये पल अनुभूति के विषय हैं, जिन्हें अभिव्यक्ति देना असंभव ही है। इस प्रसंग को सुनकर ऐसा लगा मानो विद्याधर का जीव देवलोक से इसी जिनमुद्रा को धारण करने का लक्ष्य लेकर इस पृथ्वीतल पर आया हो। और देवों ने अपने पूर्व साथी को लक्ष्य की प्राप्ति होते देख अपने हर्ष की अभिव्यक्ति बादलों की गड़गड़ाहट एवं जल की वर्षा करके की हो। धन्य है ऐसे महापुरुष को, जिनके कदम श्रमण पथ पर ‘अतिशय' के साथ रखे गए, और आज ५० वर्ष होने जा रहे हैं, उनके श्रमण जीवन का प्रत्येक पल नित नए-नए अतिशयों की कहानी लिखता जा रहा है। ‘विद्याधर', बन गए 'विद्यासागर' - दीक्षा संस्कारों में एक नामकरण संस्कार भी होता है। इसमें दीक्षार्थी का नया नाम रखा जाता है। पुराने नाम के साथ जुड़ी स्मृतियों को छोड़ने, नए नाम के साथ नए कुल (तीर्थंकरों के कुल) में जन्म का अहसास कराने, इस कुल में हुए महापुरुषों के आचरणों को स्मरण में रखने एवं इस कुल की मर्यादाओं का ध्यान रखने हेतु नामकरण संस्कार किया जाता है। दीक्षा संस्कार हो गए, | पिच्छिका-कमण्डलु भी प्रदान कर दिया गया। अब सभी की दृष्टि इस ओर थी कि मुनिश्री अपने योग्य, विश्वासी एवं गुणी शिष्य का नामकरण क्या करते हैं। और जैसे ही गुरु ज्ञानसागरजी ने अपने ही साँचे में ढाले गए, अपने ही अंशभूत शिष्य का नाम अपने ही नाम का पर्यायवाची नाममुनि ‘विद्यासागर' रखते हुए उद्घोष किया, तो सारा पांडाल हर्ष विभोर हो उठा। गुरु और शिष्य के नाम की जय जयकारें आकाश एवं धरती पर ऐसी गूंजी, जिनकी ध्वनि जन-जन के मुख से आज तक प्रतिध्वनित हो रही है। और घटित हो गया एक ऐसा दुर्लभ संयोग कि ‘मुनि श्री विद्यासागर भट्टारक' के नाम पर, जिनका नाम ‘विद्याधर' रखा था, आज वह स्वयं भी उन्हीं के नामधारी बन गए। ‘चारित्र विभूषण' पद हुआ सुशोभित - इस अवसर पर सर सेठ साहब श्री भागचन्द्रजी सोनी, अजमेर द्वारा प्रस्तावित तथा समाज द्वारा अनुमोदित प्रस्ताव के अनुसार मुनि श्री ज्ञानसागरजी महाराज ‘चारित्र विभूषण' की उपाधि से सुशोभित हुए। और आचार्य कुंदकुंद स्वामीजी विरचित ‘समयसार' ग्रंथ की श्री जयसेनाचार्यजी द्वारा लिखित ‘तात्पर्य वृत्ति का हिन्दी अनुवाद गुरुवर श्री ज्ञानसागरजी महाराज ने किया था, उस ग्रंथ के प्रकाशन की योजना का सूत्रपात भी इसी अवसर पर किया गया। इस तरह चरित्रनायक आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज की ‘मुनि दीक्षा' अत्यंत भव्यता के साथ संपन्न हुई थी। जिन्हें इन पलों के साक्षी बनने का सौभाग्य मिला वे आज भी उस दृश्य का स्मरण कर रोमांचित हो उठते हैं। गुरु एवं शिष्य के अमृत वचन - दीक्षा का कार्य संपन्न होने के बाद गुरुवर श्री ज्ञानसागरजी महाराज ने नवदीक्षित मुनि श्री विद्यासागरजी को संबोधित करते हुए प्रेरणास्पद मार्मिक संबोधन दिया, जो प्रथम पाठ्य पुस्तक ‘प्रणामांजलि' में पाठकों को द्रष्टव्य रहा। इसके बाद मुनि श्री विद्यासागरजी से भी बोलने के लिए निवेदन किया गया। तब ‘मुनि दीक्षा को प्राप्त कर गुरु के प्रति उपकारी भावों से भरे नवोदित मुनि श्री विद्यासागरजी ने मंच से कहा -“गुरुवर श्री ज्ञानसागरजी मुनि महाराज की जय । मैने अपने आत्म कल्याण हेतु यह दीक्षा ग्रहण की है और गुरु महाराज ने मुझे दीक्षा देकर मुझ पर बहुत बड़ा उपकार किया है। मैं गुरु महाराज को विश्वास दिलाता हूँ। कि भगवान् महावीर की वाणी को जैसा आचार्य कुंदकुंद महाराज आदि ने बताया है वैसा ही मोक्षमार्ग स्वीकार करके उस पर मैं निर्दोष रीति से चलूंगा। आपके द्वारा दिए मुनि पद में किसी भी प्रकार का दोष नहीं लगने दूंगा। गुरुवर श्री ज्ञानसागरजी मुनि महाराज की...जय। गुरु कृपा सबसे फलदाई - गुरुओं की कृपा से क्या संभव नहीं है ? बाल ब्रह्मचारी विद्याधरजी की दीक्षा के समय अजमेर की समाज ने लगभग दस हजार लोगों के आने का अनुमान कर रसोई बनाई थी। किन्तु लोगों की संख्या बीस-पच्चीस हजार तक पहुँच गई । समाज के प्रतिनिधि घबड़ा कर गुरुवर श्री ज्ञानसागरजी महाराज के पास गए। और उनसे बोले- ‘गुरुदेव हमारी समाज की इज्जत का सवाल है, भोजन कम न पड़ जाए। आप आशीर्वाद दीजिए!' तब गुरुवर ने कहा- ‘भोजन सामग्री के पात्रों को सफेद कपड़े से ढंक कर कोठयार (भण्डार) में रख दो और वहाँ सामग्री निकालने वाले व्यक्ति को शुद्ध वस्त्र पहना कर बैठा दो, अन्य कोई दूसरा व्यक्ति भीतर न जाए। ध्यान रखना वह कोठ्यार वाला व्यक्ति पात्र के ऊपर ढंके हुए वस्त्र को हटाए बिना ही, सामग्री निकालकर देता जाए।' ऐसा ही किया गया, फिर क्या था, सभी आगन्तुकों का भोजन हो गया, पर भोजन खत्म नहीं हुआ। अजमेर का स्वर्णिम इतिहास - धर्मवीर सर सेठ साहब श्री भागचंद्रजी सोनी ने ब्रह्मचारी विद्याधरजी की दीक्षा के समय कहा ‘प्राकृतिक सुषमा से पूर्ण भारत के हृदय स्वरूप अजमेर के इतिहास में हुई यह प्रथम मुनि दीक्षा थी। इससे अजमेर धन्य हो गया।' १७ इस अवसर पर सौभाग्यमलजी रचित ‘विद्याधर जीवन चरित' एवं प्रभुदयालजी वकील रचित गीत हजारों की संख्या में बाँटे गए। अमरसेना' आदि पुस्तकें एवं स्तुतियाँ भी समाज में बाँटी गईं। साधर्मीजनों के लिए प्रीतिभोज भी कराया गया। आज मुनि विद्यासागरजी आचार्य विद्यासागरजी बन, गुरु ने जो देखा था, उसको साकार करते हुए, दीक्षा के ५० वर्ष पूर्ण कर चुके हैं। आचार्यश्रीजी की दीक्षा के दिन आशु कवि प्रभुदयालजी ने गुरुभक्ति से ओत-प्रोत होकर कहा- ‘वर्ण लिखे जाएँगे सुवर्ण के। और आज वही सत्य हो रहा है। आचार्य भगवन् के ‘संयम स्वर्ण महोत्सव' के अवसर पर उनकी दीक्षा से जुड़ा ‘अजमेर' नगर अपने इतिहास में इस सौभाग्य को स्वर्णिम अक्षरों से लिख रहा है। राजस्थान की समाज आज भी पलक पाहुड़े बिछाकर वर्षों से आचार्यश्रीजी के आने का इंतज़ार कर रही है। उन्हें विश्वास है कि एक बार पुनः आचार्यश्रीजी के चरण इस धरती को अवश्य ही पवित्र करेंगे। वहाँ के श्रावक श्रेष्ठी श्री राजेन्द्रकुमारजी धनगसिया ने आचार्यश्रीजी की आगवानी हेतु लकड़ी के ऊपर इंपोर्टेड वर्क वाला एक कीमती स्वर्ण रथ का निर्माण करवाया है, जिसके निर्माण कार्य में सात वर्ष लगे। और लकड़ी का ही इंपोर्टेड वर्क वाला एक सिंहासन भी तैयार करवाकर रखा है। वर्षों से प्रतीक्षारत यह परिवार अपने इस रथ एवं सिंहासन को संयम स्वर्ण महोत्सव २८ जून, २०१७ के दिन चन्द्रगिरि, डोंगरगढ़ (राजनांदगाँव) छत्तीसगढ़ लाए थे। यह सिंहासन उस समय अनमोल हो गया जब संयम स्वर्ण महोत्सव के दिन आचार्यश्रीजी उस पर आसीन हुए। उनके विराजमान होते ही उसकी शोभा सहस्र गुणित हो गई। मुनि श्री विद्यासागरजी का प्रथम आहार - दीक्षा संस्कार के दिन दीक्षार्थी का निर्जल उपवास होता है। अगले दिन गुरु एवं शिष्य आहार चर्या करने नगर की ओर निकले। गुरुवर श्री ज्ञानसागरजी के आहार करवाने का सौभाग्य श्रावक श्रेष्ठी श्री छीतरमलजी दोसी को प्राप्त हुआ। एवं मुनि श्री विद्यासागरजी के प्रथम आहार (पारणा) करवाने का परम सौभाग्य सर सेठ साहब भागचन्द्रजी सोनी परिवार को प्राप्त हुआ। नवोदित मुनिश्री को नवधाभक्ति पूर्वक आहार करवाकर सेठ साहब धन्य हो गए। हजारों की संख्या में नर-नारी आहार देखने उमड़ पड़े। बैण्ड-बाजे एवं विशाल जुलूस के साथ सर सेठ भागचन्द्रजी सोनी मुनि श्री विद्यासागरजी को सोनीजी की नसिया तक पहुँचाने गए। इस दिन मुनिश्री की नाकी (नकसीर) फूट गई थी। गर्मी का मौसम, दीक्षा के कई दिनों पहले से दूर-दूर घरों में निमंत्रण पर जाना, बिनौली वगैरह का निकलना आदि के कारण गर्मी बढ़ गई थी। और पारणा के दिन श्रावकों ने आहार में दूध की ठण्डाई एवं मौसम्मी का रस दे दिया। इससे आहार की संयोजना बिगड़ गई । अतः सर्द-गर्म होने से नाकी (नकसीर) फूट गई। बच्चों जैसे रोकर हुई महावीर भैया की वापसी - बाल ब्रह्मचारी विद्याधरजी की मुनि दीक्षा के प्रथम पारणा के दिन महावीर भैया ने आहार दान देने का सौभाग्य प्राप्त किया। और उसी चौके में स्वयं भोजन किया। अगले दिन २ जुलाई को उन्होंने और मल्लू भैया ने गुरुवर श्री ज्ञानसागरजी के चरणों में सदलगा वापस जाने की भावना व्यक्त की। उस समय वह गुरुवर के समक्ष शब्दशः कुछ बोल नहीं पा रहे थे, उन्हें विद्याधर को छोड़कर जाना और उनको मुनि अवस्था में देखना यह सब स्वप्न-सा लग रहा था। जाते समय वह स्वयं को रोक नहीं सके। और बच्चों की तरह फूट-फूट कर रो पड़े। गुरुवर ने उन्हें आशीर्वाद देते हुए कहा- ‘जैसा कहा है, उसका ध्यान रखना।' उसी समय एक श्रावक श्री चेतन दोसीजी भी इचलकरंजी, महाराष्ट्र जा रहे थे। इचलकरंजी सदलगा के पास होने से महावीर भैया और मल्लू भैया उन्हीं के साथ सदलगा के लिए निकल गए। समाज के विशिष्ट लोगों ने महावीर भैया को सपरिवार पुनः पधारने का आमंत्रण दिया। एवं पत्र व्यवहार हेतु श्री कैलाशचंद्रजी पाटनी, अजमेर का पता (एड्रेस) भी उन्हें दे दिया। दीक्षा का वृत्तांत सुन, पारिवारिक मनोदशा - महावीर भैया, विद्याधर की दीक्षा की यादों को धरोहर के रूप में सँजोकर घर पहुँचे। अजमेर पहुँचने से लेकर वापस सदलगा आने तक का सारा वृत्तांत- विद्याधर का दृढ़ वैराग्य, गुरुवर श्री ज्ञानसागरजी का विश्वास, दीक्षा की भव्यता एवं समाज का उत्साह सब कुछ कह सुनाया। दीक्षा महोत्सव के छायाचित्र (फोटो) देखकर परिवार का एक-एक सदस्य भावुक हो उठा और उनकी आँखों से आँसू बहने लगे। अक्काजी (माँ) महावीर भैया से बोलीं- ‘बेटा ! तुमने वहाँ जाकर साहस का काम किया । पूरा भरा का भरा परिवार होते हुए भी यदि घर का एक भी सदस्य नहीं पहुँचता तो यह ठीक नहीं होता।' अन्नाजी भी स्वयं को नहीं रोक पाए। वे बोले- ‘महावीर ! खेती का काम जल्दी-जल्दी पूर्ण कर लो और चौके की तैयारी करो। हम सब लोग शीघ्र ही अजमेर जाएँगे।' अन्नाजी के इस वाक्य ने घर के सभी सदस्यों में प्राण फेंक दिए। खेद एवं वियोग का क्षण हर्ष एवं उत्साह में परिवर्तित हो गया। सारा परिवार अजमेर जाने की तैयारी में जुट गया। अन्नाजी ने विद्याधर के पहनने वाली सोने की तीन लरों (लड़ी) वाली चेन (जनेऊ) एवं अँगूठी सुनार के यहाँ गलवाकर उसके १०८ स्वर्ण पुष्प तैयार करवाए। महावीर भैया के आने का समाचार सुनकर घर पर कुटुंबीजनों, समाज के लोगों एवं ग्रामवासियों का आना-जाना शुरू हो गया। विद्याधर की दीक्षा की चर्चा सदलगा के घर-घर में, प्रत्येक गली एवं चौराहों पर सभी जगह होने लगी। महावीर भैया ने कैलाशचंद्रजी पाटनी को पत्र द्वारा परिवार में वातावरण के शांत होने एवं सपरिवार शीघ्र अजमेर पहुँचने की सूचना भेज दी। अजमेर पहुँचा अष्टगे परिवार - अजमेरवासियों के पुण्य से गुरुवर श्री ज्ञानसागरजी ससंघ के वर्षायोग की स्थापना ९ जुलाई, १९६८ को अजमेर नगर में हुई।* २० जुलाई के लगभग अन्नाजी अपने घर पर ताला डाल कर सभी सदस्यों के साथ विद्याधर के मित्र मारुति को भी लेकर अजमेर के लिए रवाना हुए। महावीर भैया ने स्वयं के सपरिवार अजमेर पहुँचने की सूचना पत्र द्वारा कैलाशचंद्रजी पाटनी को भेज दी थी। वह समाज के विशिष्ट व्यक्तियों के साथ अष्टगे | परिवार को स्टेशन पर ससम्मान लेने पहुँचे। उन्होंने एडवोकेट माणिकचंद्र जी सोगानी के ऑफिस (कार्यालय) के ऊपर खाली कमरे में उनके ठहरने एवं चौके लगाने की व्यवस्था कर दी। अन्नाजी ने सपरिवार सोनी जी की नसिया में विराजमान गुरुवर श्री ज्ञानसागरजी के दर्शन किए एवं उनके चरणों में कुछ दिन रुकने और आहार दान देने की भावना व्यक्त की। इसे सुनकर मुनि श्री विद्यासागरजी बोले- ‘इतनी दूर क्यों आए ? आहार दान देने के लिए क्या वहाँ कोई साधु नहीं मिले ?' तब माँ कहती हैं- ‘दीक्षा के समय नहीं आ पाए थे। इसीलिए चौका लेकर आ गए।' मुनि श्री विद्यासागरजी हँसते हुए बोले- ‘अरे! इस शरीर को बीस साल तक खिलाया, फिर भी मन संतुष्ट नहीं हुआ।' सब हँसने लगे। परिवार ने मुनि श्री विद्यासागरजी से इतनी कम उम्र में दीक्षा लेने का कारण पूछा। वह बोले- ‘घर के संस्कार धर्म के थे। एवं वैराग्य तो आचार्य श्री शांतिसागरजी महाराज के प्रवचन सुनकर बचपन में ही हो गया था। किन्तु छोटा होने से दीक्षा नहीं ले पाए थे। आहार देकर संतुष्ट हुआ परिवार - अष्टगे परिवार को गुरुवर श्री ज्ञानसागरजी को नवधा भक्ति पूर्वक आहार करवाने का सौभाग्य तीसरे दिन प्राप्त हुआ। जिस दिन गुरुवर का आहार हुआ, उसी दिन आहार के बाद अन्नाजी एवं अक्काजी ने गुरुवर श्री ज्ञानसागरजी से आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण कर लिया। वह क्षण भी आ गया, जिसका अष्टगे परिवार को बेसब्री से इंतज़ार था। आहार चर्या के समय जिनमुद्रा को धारण किए हुए ‘विद्याधर' मुनि श्री विद्यासागरजी के रूप में आकर अष्टगे परिवार के सामने खड़े हो गए। कल जो पुत्र था, आज वह गुरु बनकर सामने खड़ा था। कल जो कहा करता था कि माँ भोजन दो न। अब उसी को आहार करवाने की प्रतीक्षा करते-करते पाँच-छह दिन बीत गए। और आज उसे जिनमुद्रा में अपने सामने खड़े होते देख अष्टगे परिवार आह्लाद से भर गया। जिस माँ ने सारी उम्र साधुओं को आहार करवाए, आज उसे अपनी ही कोख से जन्मे, अपने ही हाथों से पाले गए पुत्र को जिनमुद्रा में पड़गाहन कर उन्हें आहार करवाकर आत्म संतोष प्राप्त हुआ था। कितना दुर्लभ पल होगा वह ! निश्चित ही इस समय याद आया होगा माँ को, कि इसी पुत्र के गर्भ के समय ही तो स्वप्न में दो चारणऋद्धिधारी मुनियों को पड़गाहन कर आहार करवाए थे। आज उन्हें अपने स्वप्न का साक्षात् फल दिखाई दे रहा था। धन्य है जिनशासन की अलौकिक महिमा, जो मात्र अनुभूति का विषय है। स्वर्ण एवं रजत पुष्पों से की भव्य पूजन - अष्टगे परिवार का अजमेर में २५-२७ दिन का प्रवास रहा। इसी बीच एक दिन रविवारीय प्रवचन के पूर्व सकल दिगंबर जैन समाज की उपस्थिति में अष्टगे परिवार ने गुरु पूजन का विशेष कार्यक्रम रखा। उसमें अन्नाजी द्वारा लाए गए सोने के १०८ पुष्प एवं मारुति द्वारा लाए गए चाँदी के पुष्पों से बड़ी भव्यता से पूजन की। कार्यक्रम संचालक प्रोफेसर श्री निहालचंदजी बड़जात्या के निवेदन पर अन्नाजी ने दो शब्द बोले। सबसे पहले गुरुवर श्री ज्ञानसागरजी की एवं मुनि श्री विद्यासागरजी की जय बोली। फिर आगे बोले- ‘हमको हिन्दी साफ़ नहीं आती, आप लोग समझ लेना। गुरुवर श्री ज्ञानसागरजी महाराज तो जौहरी हैं। उन्होंने दक्षिण भारत के रत्न को पहचान लिया और उसे तराश दिया। हमने आपके बारे में सुना है कि आप संस्कृत के विद्वान् पंडित हैं। आपने बहुत सारा साहित्य लिखा है। और ब्रह्मचारी अवस्था में मुनियों को पढ़ाया भी है। हमने आपके लिए विद्याधर को गोद दे दिया है। अब आप इसको अपने जैसा ही विद्वान् पंडित बनाना, जिससे ये अपना और दूसरों का भला कर सके। मल्लप्पाजी के उद्बोधन के बाद सर सेठ साहब भागचंद्रजी सोनी एवं सकल दिगंबर जैन समाज ने माता-पिता का मंच से सम्मान किया। श्री भागचंद्रजी सोनी ने अपने वक्तव्य में कहा- ‘स्त्रीणां शतानि शतशो जनयन्ति पुत्रान्’ संसार में ऐसी माताएँ कम होती हैं, जो ऐसे पुत्र को जन्म देती हैं। मुनि विद्यासागरजी (ब्रह्मचारी विद्याधर) का परिवार धन्य है। मल्लप्पाजी द्वारा चढ़ाए गए सोने के १०८ पुष्पों को देखकर वह बोले- ‘हमारे मंदिर में यही एक कमी थी, जिसे मल्लप्पाजी ने पूर्ण कर दिया। वे पुष्प नसियाजी में धरोहर के रूप में आज भी रखे हुए हैं। इसके बाद पूज्य गुरुवर श्री ज्ञानसागरजी एवं मुनि श्री विद्यासागरजी के संक्षिप्त प्रवचन हुए। अष्टगे परिवार कुछ दिन और गुरु चरणों में ठहरकर हर्ष एवं वियोग के मिश्रित भावों के साथ वापस सदलगा चले गए। प्रथम दीक्षा जयंती समारोह - अजमेर नगर को आचार्य श्री विद्यासागरजी की प्रथम मुनि दीक्षा जयंती मनाने का भी सौभाग्य प्राप्त हुआ था। जैन मित्र, २६ जून, १९६९ में इस प्रकार का समारोह समाचार प्रकाशित हुआ- ‘प्रथम दीक्षा जयंती अजमेर- २० जून, १९६९, सोनीजी की नसिया में मध्याह्न एक बजे से पूजा-पाठ आदि विशेष कार्यक्रम पूर्वक शुभारंभ हुआ। तीन बजे से सर सेठ साहब श्री भागचंद्रजी सोनी की अध्यक्षता में विशाल सभा का आयोजन हुआ। इसमें स्थानीय ‘दैनिक नवज्योति' समाचार पत्र के सम्पादक मोहनराजजी भंडारी, सर्व श्री सुन्दरलालजी सोगाणी एडवोकेट, पंडित विद्याकुमार सेठी, पंडित हेमचंद्रजी शास्त्री एवं ब्रह्मचारी मुख्तारसिंह, ब्रह्मचारी महाराजप्रसादजी हस्तिनापुर, मनोहरलालजी तथा युवा ब्रह्मचारी दीपचंदजी छाबड़ा ने पूज्य मुनिराज १०८ श्री विद्यासागरजी महाराज के त्यागमय जीवन पर प्रकाश डाला। इसके बाद अध्यक्षीय भाषण हुआ। पश्चात् मुनि श्री १०८ ज्ञानसागरजी एवं मुनि श्री १०८ विद्यासागरजी महाराज के मार्मिक प्रवचन हुए। अंत में समारोह के संयोजक श्री निहालचंदजी जैन द्वारा आभार प्रदर्शन के बाद कलशाभिषेक हुए। गुरुच्छाया बने मुनि विद्यासागरजी - गुरु एवं शिष्य की तारतम्यता कुछ अनोखी ही थी। गुरुवर प्रयत्नशील थे कि जो कुछ भी मेरे पास है- चारित्र या ज्ञान, वह सब कुछ इस शिष्य में उड़ेल दें। और शिष्य प्रयत्नशील थे कि जो कुछ भी गुरु से मिल रहा है, उसे पूरा का पूरा जीवन में ढाल दें। फलतः शिष्य अपने गुरु की छाया बन गए थे। न तो नामार्थ भेद था और न ही आचरण में। शिष्य के निर्माण, विकास, आचार्य पद पदारोहण एवं गुरुवर की समाधि से जुड़े प्रसंगों को पाठ्य पुस्तक-१ - ‘प्रणामांजलि' में पाठक पढ़ चुके हैं। चरम सेवा कर, गुरु को दी विदाई - गुरुवर आचार्य श्री ज्ञानसागरजी एवं शिष्य आचार्य श्री विद्यासागरजी, गुरु-शिष्य परंपरा के जीवंत उदाहरण बन गए हैं। जिनेन्द्र भगवान् द्वारा जो कहा गया, उसका अक्षरशः पालन करना गुरु और शिष्य दोनों का परम धर्म था। शिष्य श्री विद्यासागरजी के लिए गुरु श्री ज्ञानसागरजी के वाक्य आगम प्रमाण थे। उन्हें गुरु का एक-एक इशारा वज्र की लकीर की भाँति अमिट था। शिष्य में यदि समर्पण की पराकाष्ठा थी, तो लघुता से प्रभुत्व की प्राप्ति का टॅग गुरु में था। तभी गुरु ने जिस शिष्य को अ-आ से क्ष, त्र, ज्ञ तक सिखाया, यूँ कहें अँगुली पकड़कर चलना सिखाया, और जब शिष्य का पूर्ण विकास कर दिया, तब उसी शिष्य को अपना गुरु बना लिया। और फिर गुरु स्वयं शिष्य बनकर उनके चरणों में अपना समाधिमरण करवाने की प्रार्थना निवेदित करने लगे । यहाँ आचार्य पद के संस्कार शिष्य पर किए नहीं कि वहाँ तत्क्षण ही शिष्य को गुरु रूप में स्वीकार कर, गुरु होकर भी स्वयं को शिष्य रूप में ढाल लेना यह एक अपूर्व आश्चर्य ही था! किसकी महानता मानँ ? शिष्य की ओर दृष्टि जाती तो लगता ऐसा कैसा अपूर्व व्यक्तित्व है इनका कि जिसके सामने गुरु को शिष्य बनने में हल्की-सी हिचकिचाहट नहीं हुई । शायद गुरु ने समझ लिया था कि गुरु बनकर भी इसको गर्व नहीं छुएगा। गुरु बनकर भी इसका शिष्यत्व नहीं छूटेगा। और हुआ भी यही। उन्हें निर्यापकाचार्य बनना पड़ा अपने ही गुरु का । सो गुरु के ही गुरु बनकर संबोधन देने लगे। इस कार्य को भी गुरु आज्ञा मानकर स्वीकार कर लिया, क्योंकि उनका शिष्यत्व भाव छूटा ही नहीं था। समाधि साधना में संलग्न गुरु की ऐसी सेवा की कि ‘गुरु श्री भद्रबाहुस्वामी और शिष्य श्री चंद्रगुप्त मुनि' का उदाहरण पुनः जीवंत हो उठा। चौबीसों घंटे गुरु के पास रहते...- गुरुवर की सल्लेखना के समय आचार्य श्री विद्यासागरजी चौबीसों घंटे उनके पास रहते थे। राजस्थान की जून माह की भीषण गर्मी में सायटिका के दर्द के कारण गुरुवर श्री ज्ञानसागरजी बाहर की हवा सहन नहीं कर पाते थे, अत: उन्हें बंद कमरे में ही सोना पड़ता था। आचार्यश्रीजी भी उन्हीं के साथ उसी बंद कमरे में ही अंदर सोते थे। गुरुवर कहते भी थे- 'तुम दिन भर गर्मी में रहते हो, रात में बाहर जाकर थोड़ा विश्राम कर लिया करो। कुछ ठंडक मिल जाएगी।' पर आचार्य श्री विद्यासागरजी कहते“मुझे आपके पास रहने में न तो गर्मी लगती है, न ही ठंड। मैं ठीक हूँ।' गुरुवर श्री ज्ञानसागरजी अपने शिष्य की लगन, निष्ठा, आदरभाव, सेवाभाव देखकर चकित रह जाते थे। एक बार संघ में एक महाराज की नाकी फूटती देख आचार्यश्रीजी ने अपनी नाकी (नकसीर) फूटने का प्रसंग सुनाते हुए कहा-‘गुरु महाराज की समाधि चल रही थी। गर्मी का समय था तीन वर्ष से बारिश नहीं हुई थी। रात भर जागते थे। कहीं पर थोड़ा-सा भी ठंडा स्थान मिलता, वहाँ घंटे-दो घंटे सो जाते थे। आहार लिया नहीं जाता था। लोगों ने दूध में ठंडाई मिलाकर दे दी तो नाकी (नकसीर) फूट गई थी।' गुरुभक्ति के इस प्रसंग को सुनकर ज्ञान हुआ कि वे अपने गुरु की सल्लेखना के समय मात्र एक-दो घंटे ही विश्राम करते और शेष समय उन्हीं की सेवा में तत्पर रहते थे। गुरु को लगाते हाथ का सिरहाना...- गुरु वृद्ध थे। सायटिका से पीड़ित थे। शरीर कृश था उन्हें सिर में पीड़ा होने पर आचार्यश्रीजी अपने हाथ का सिरहाना लगा देते थे। और घंटों-घंटों बिना हिले-डुले बैठे रहते थे। धन्य है, आचार्यश्रीजी की ऐसी साधना को! जैसा चरित्र पुराणों में महापुरुषों को सुना था, वैसा आज हमें प्रत्यक्ष देखने मिल रहा है। हमारा परम सौभाग्य है कि ऐसे चरित्रधारी महापुरुष के युग में जन्म हुआ। एक बार शिष्य समूह के बीच चल रही चर्चा में किसी प्रसंग पर आचार्यश्रीजी अपने गुरु की स्मृति में डूब गए, और उन्हें याद कर बोले- ‘एक दिन की बात है, जब गुरुदेव का स्वास्थ्य ठीक नहीं था। उन्हें सिरहाने की आवश्यकता होती थी, तो एक बार श्रावकगण लकड़ी का सिरहाना बनाकर ले आए। कहने लगे- ‘महाराज! आपको सिर में तकलीफ़ होती है। इसलिए इसका उपयोग कर लीजिए।' उत्तर में गुरुजी ने कहा- ये तो गडेगा। मखमल का मुलायम तकिया लगा दो तो अच्छा रहेगा।' फिर श्रावकों से कहा, “साधक के लिए ये परीक्षा की घड़ी है। मुझे अपना पेपर हल करना है। यदि इसका उपयोग करता हूँ तो परीषह जय नहीं हो पाएगा और असंख्यातगुणी कर्म निर्जरा का अवसर चूक जाएगा।' यह सुनकर शिष्यों ने कहा- ‘गुरुदेव! आपने अपने गुरु की ऐसी भी उत्कृष्ट सेवा की है कि भीषण गर्मी में भी अपने हाथों का सिरहाना बनाकर उनके निकट घंटों-घंटों तक बैठे रहते थे।' आचार्यश्री मुस्कराते हुए कहते हैं- “मुझे उनके समीप ही शीतलता का अनुभव होता था। ऐसा होना भी स्वाभाविक है, जिन्होंने मुझे बालक अवस्था में प्रारंभिक शिक्षा से ही पढ़ाया है, वो तो परम उपकारी हैं।' कंधों पर बिठाकर कराया विहार...- सन् १९७०, मई-जून माह की भीषण गर्मी में गुरुवर आचार्य श्री ज्ञानसागरजी का ससंघ विहार फुलेरा से रैनवाल- किशनगढ़ (जयपुर, राजस्थान) की ओर चल रहा था। वृद्धावस्था में क्षीण हो रहे शरीर के कारण तेज धूप से गुरुवर को पैरों में फोले आ गए। तब मुनि श्री विद्यासागरजी ने अपने गुरु को कंधों पर बिठाकर रास्ते में पड़ने वाली सूखी रेत की नदी को पार कर लगभग ४ किलो मीटर का विहार करवाया था। बेटे से भी बढ़कर की सेवा - अपने गुरु की ऐसी सेवा की, जैसे की थी श्रवणकुमार ने अपने माता-पिता की। एक पल भी नज़रों से ओझल नहीं होते थे। उनके प्रति वह इतने सजग और सतर्क थे कि उनकी श्वासों के स्पंदन की गति का भी अहसास उन्हें होता था और उनकी हल्की-सी भी हलचल होने पर तत्काल ही उसे समझने के लिए ये सदैव तत्पर रहते थे। आचार्यश्रीजी की अपने गुरु के प्रति ऐसी समर्पित सेवा देखकर पंडित श्री पन्नालालजी साहित्याचार्य, सागर, मध्यप्रदेश ने लिखा है- '१० लाख रुपये की संपत्ति पाने वाला लड़का भी अपने माँ-बाप की ऐसी सेवा नहीं कर सकता था, जैसी तत्परता एवं तन्मयता पूर्वक उन्होंने अपने गुरु की सेवा की थी। निर्जरामूलक सेवा - अपूर्व समर्पण, अगाध निष्ठा, शास्त्रोक्त सेवा करने वाले आचार्य श्री विद्यासागरजी ने जब से गुरु की शरण प्राप्त की, तब से एक पल को भी उन्हें छोड़ा नहीं। जिस कुशलता से गुरु ने शिष्य के जीवन का निर्माण किया, वैसी ही कुशलता से शिष्य ने गुरु के जीवन का उपसंहार (समाधि) करवा दिया। १ जून, १९७३ को मुनि श्री ज्ञानसागरजी आचार्य श्री विद्यासागरजी के मुख से णमोकार मंत्र सुनते सुनते समधीस्त हो गए | हर पल गुरु का अहसास - गुरुवर श्री ज्ञानसागरजी की समाधि के पश्चात् आगे की यात्रा आचार्य श्री विद्यासागरजी को गुरु के बिना ही करनी थी। वह युवा आचार्य थे। बाहर के वातावरण से अपरिचित थे। जब से घर से निकले, उन्हें हर पल गुरु का साथ प्राप्त रहा। गुरुजी के समाधिस्थ हो जाने के बाद उन्हें कैसी, क्या अनुभूति हुई होगी ? क्या गुरु का वियोग असह्य रहा होगा ? अथवा अपने भावी जीवन के प्रति चिंतित हुए होंगे ? क्या होगी उनकी मन:स्थिति ? एक बार श्री निर्मलकुमारजी पाटोदी, इंदौर, मध्यप्रदेश ने आचार्यश्रीजी से इस संबंधित जिज्ञासा रखी, उन्होंने पूछा- ‘आचार्यश्रीजी ! जब गुरुवर श्री ज्ञानसागरजी महाराज की समाधि हो गई थी, तब आपको कैसा लगा ?' आचार्यश्रीजी बोले- ‘उस दिन मुझे बड़ा अच्छा लगा। मुझे इस बात का बड़ा संतोष हुआ कि मैंने अपना कर्तव्य पूरा कर लिया। एक लंबे अंतराल के बाद मैंने बाहर तखत पर विश्राम किया था। उन्होंने पुनः पूछा‘आचार्यश्रीजी! आपको ऐसा नहीं लगा कि आपके ऊपर से एक बहुत बड़ा हाथ उठ गया?' आचार्यश्रीजी बोले- “नहीं, ऐसा कतई (बिलकुल) भी नहीं लगा।' क्षणिक दीबैंकऑफराजथानल, ठहरकर बोले- ‘ध्यान रखो! मोक्षमार्ग नितांत स्वाश्रित है। संसार के सारे बंधन तो निमित्त मात्र हैं। सब निमित्त-नैमित्तिक संबंध हैं। गुरु के प्रति भक्ति रखना चाहिए मोह नहीं। गुरु का मोह भी मोक्षमार्ग में बाधक है। आचार्यश्रीजी द्वारा दिए गए समाधान में उनमें अत्यंत निस्पृही भावों के दर्शन पाकर पाटोदीजी अभिभूत हो गए। आचार्यश्रीजी हमेशा कहते हैं- ‘मैं मानता ही नहीं कि वह कहीं गए हैं। मुझे तो लगता है आज भी वह मेरे साथ हैं। देह से न सही, पर आज्ञा रूप में वह हर पल अब भी हमारे गुरुवर श्री ज्ञानसागरजी की समाधि के पश्चात् आचार्य श्री विद्यासागरजी पास और हमारे साथ हैं।' एक बार आचार्यश्रीजी गुरु का स्मरण करते हुए बोले- ‘गुरु के जाने के बाद उनके लाभ का पता चलता है। कितना बड़ा उपकार किया और बदले में कुछ नहीं चाहा। वृद्धावस्था में भी कितना दे दिया। देखो! उन्होंने मोक्षमार्ग खोल दिया, आत्म वैभव से परिचय करा दिया, नहीं तो मैं कहाँ होता? रास्ते की कठिनाई में वे ही सामने आते हैं। हम एड़ी से लेकर चोटी तक काम करें, कुछ नहीं होगा, परन्तु गुरु का एक अनुभव ही सब कुछ कर देता है। शास्त्रों से ज्ञान मिलता है, परन्तु गुरु से ज्ञान और अनुभव दोनों मिलते हैं।' दस किताब पढ़ने के उपरांत भी आपको वो नहीं मिलेगा जो गुरु से मिलता है। | ‘गुरु से कुछ नहीं मिलता ऐसा नहीं, उनसे जो मिलता है वह दुनिया में कहीं नहीं मिलता। शास्त्रों का मर्म गुरु के हृदय में छिपा होता है। यदि उनके आचार-विचार सामने आते हैं तो उनकी अनुपस्थिति भी उपस्थिति ही है। परोक्ष में भी गुरु वचन की उपस्थिति है तो परिस्थिति बिगड़ेगी नहीं। मैं अजर, अमर, अविनाशी तत्त्व हूँ- ये गुरु ने बताया।‘समयसार' के रहस्य को खोलकर दिखा दिया, ये क्या कम है। जगत् की नश्वरता का भान कराने वाले एवं आत्मा से परिचय कराने वाले गुरु ही हैं। धन्य है गुरु समर्पण का यह अपूर्व, निराला, अद्वितीय, अलौकिक एवं अकथ उदाहरण । गुरु आज्ञा में रहकर आचार्यश्रीजी अभी भी एक प्रकार से गुरु सेवा ही कर रहे हैं। ऐसी उनकी कर्तव्यनिष्ठ सेवा भावना, अलिप्त समर्पण एवं निर्जरामूलक गुणानुराग को अनंतानंत बार प्रणाम हो। परिवार बना मुक्ति अनुरागी - २ मार्च, १९७५ के दिन अनंतनाथजी (मुनि श्री योगसागरजी) जो उस समय १९ वर्ष के होंगे, अपनी अक्का (माँ) के कहने से घर पर बिना बताए ही माँ एवं दोनों बहनों (शांताजी-सुवर्णाजी को साथ लेकर आचार्य श्री विद्यासागरजी के दर्शनार्थ मुंबई से रतलाम होते हुए रात्रि ११ बजे अजमेर पहुँचे। खेत से घर आने पर अन्नाजी को जब पता चला तो वह भी शांतिनाथ (मुनि श्री समयसागरजी) को साथ लेकर अनंतनाथजी के पहुंचने से पहले ही रात्रि ९.३० बजे अजमेर पहुँच गए। पर आचार्य श्री विद्यासागरजी का वहाँ से विहार हो चुका था। टोंक, राजस्थान के पास पछाल गाँव में उन्हें आचार्यश्रीजी के दर्शन हुए। दोपहर में आचार्यश्रीजी का प्रवचन हुआ। बहन शांता-सुवर्णा ने आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत लेने की भावना व्यक्त की। आचार्यश्रीजी ने कहा- ‘अच्छा, देखेंगे।' और वहाँ से विहार कर पुस्तलाँ होते हुए सवाई माधोपुर पहुँच गए। परिवार ने यहाँ पर चौका लगाया। अनंतनाथ कुछ सामग्री लाने के लिए बाजार गए थे। अपरिचित स्थान होने से वह समय पर वापस नहीं आ पाए। और यहाँ परिवार को आचार्यश्रीजी के नवधा भक्तिपूर्वक आहार करवाने का सौभाग्य प्राप्त हो गया। बहन शांता एवं सुवर्णा ने लिया ब्रह्मचर्य व्रत - पहले ऐसी परंपरा थी कि आहार के बाद भी श्रावक के घर में ही साधु की अष्ट द्रव्य से पुनः पूरी पूजन होती थी और संक्षिप्त उद्बोधन भी होता था। बहन शांता एवं सुवर्णा ने आहार के बाद चौके में ही आचार्यश्रीजी से ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण कर लिया। इस तरह गृहस्थावस्था की दोनों छोटी बहनों को आचार्यश्रीजी की प्रथम शिष्या बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। जब अन्नाजी ने आचार्यश्रीजी से पूछा‘शांता-सुवर्णा को व्रत कितने दिन का दिया ?' तब आचार्यश्रीजी ने उनकी ओर बस एक दृष्टि डाली और मौन बने रहे।” अक्काजी बोलीं- जीवनपर्यंत के लिए दिया है। इस तरह दोनों बहनों ने ८ अप्रैल, १९७५ को आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण कर मुक्तिपथ पर कदम रखे। माँ एवं बहनों को आचार्य श्री धर्मसागरजी के संघ में भेजा - सवाई माधोपुर से विहार करके ८-१० दिन में आचार्यश्रीजी अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी, राजस्थान तीर्थ पर पहुँचे। लगभग एक माह तक परिवार ने यहाँ आहार दान का लाभ प्राप्त किया। माँबहनों ने घर त्याग पूर्वक साधना करने की भावना व्यक्त की। महावीर जयंती, २४ अप्रैल, १९७५ के आस-पास आचार्यकल्प श्री श्रुतसागरजी ससंघ का आगमन यहाँ हुआ। और वह ससंघ (उपाध्याय श्री अजितसागरजी, मुनि श्री यतीन्द्रसागरजी आदि मुनिराज एवं आर्यिका श्री विशुद्धमतिजी आदि पिच्छीधारी) शांतिवीरनगर में विराजमान हुए। आचार्य श्री विद्यासागरजी तीर्थक्षेत्र में मुख्य जिनालय परिसर में पूर्व से ही विराजमान थे। एक दिन आचार्यश्रीजी ने माँ एवं बहनों से कहा- “आप लोग आचार्य श्री धर्मसागरजी के संघ में जाकर धर्म साधना कर सकते हैं। और कजौड़ीमलजी के साथ उन्हें खतौली, जिला-मुजफ्फरनगर, उत्तरप्रदेश में विराजमान आचार्य श्री धर्मसागरजी की शरण में भेज दिया। उन तीनों को जाते हुए देखकर अनंतनाथ को राम, सीता एवं लक्ष्मण की याद हो आई। उन्होंने सजल नेत्रों से अक्काजी एवं दोनों बहनों के चरण स्पर्श कर विदाई दी। इस समय तक आचार्यश्रीजी के संघ में कोई ब्रह्मचारिणी शिष्याएँ नहीं होने से उन्हें खतौली भेज दिया। अन्नाजी ने कहा - अब मुझे भी घर नहीं जाना - जब श्रीमती श्रीमंतीजी एवं दोनों पुत्रियाँ घर न जाकर विरक्तमन हो आचार्य श्री धर्मसागरजी के संघ में चली गईं, तब अन्नाजी ने आचार्यश्रीजी से कहा- ‘अब मुझे भी घर नहीं जाना है। जिनके लिए हमें घर जाना था, जब वे ही नहीं हैं, तो घर जाने से क्या मतलब? हमें भी वैराग्यपथ अपनाना है।' आचार्यश्रीजी ने अन्नाजी के मनोभावों के अनुसार उन्हें क्षुल्लक श्री स्वरूपानंदजी के साथ शांतिवीरनगर, महावीरजी में ही विराजमान आचार्यकल्प श्री श्रुतसागरजी के पास भेज दिया। वहीं के वहीं आचार्यश्रीजी के पास भी उनका आना-जाना होता रहता था। भाई अनंतनाथ एवं शांतिनाथ का ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण करना - अक्काजी एवं अन्नाजी ने अपने दोनों पुत्रों अनंतनाथ एवं शांतिनाथ से महावीर भैया के पास वापस घर लौट जाने को कहा। ऐसी स्थिति में दोनों करते भी क्या ? सो वे घर जाने को तैयार हो गए। जाते समय आचार्यश्रीजी के दर्शन करने गए, तो आचार्यश्रीजी कन्नड़ भाषा में बोले- ‘देख लो ! जिस खेती-बाड़ी पर तेरा-मेरा करके कितने लोग चले गए, फिर भी खेत एवं घर वहीं का वहीं है। मैं भी तेरा मेरा करके चला आया। आज वह सब छोड़कर मेरा जीवन आनंदमय बन गया है। मानव जीवन को सार्थक करना है। मनुष्य जीवन दुर्लभ रत्न के समान है। तुम भी हमारे जैसे बन सकते हो।' अनंतनाथजी ने पूछा- ‘क्या-क्या करना होगा ?' आचार्यश्रीजी बोले- ‘ब्रह्मचर्य व्रत को स्वीकार कर लो।' बस फिर क्या था, गीली मिट्टी में बीजारोपण हो गया। आत्म कल्याण की बात हृदय में उतर गई और उसी दिन २ मई, १९७५ को दोनों भाइयों ने श्रीफल चढ़ाकर आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण कर लिया। अन्नाजी ने दोनों पुत्रों से कहा- ‘अपनी इच्छा एवं बुद्धि से कार्य करना। बाद में मेरे पास रोते हुए नहीं आ जाना।' दोनों भाइयों ने अपनी वेश-भूषा बदल ली, धोती-दुपट्टा पहन लिया और सिर का मुंडन करवा लिया। तब वे आचार्य श्री विद्यासागरजी के संघ में शामिल हो गए। जो पहले बड़े भाई थे, आज उन्हें ही गुरु रूप में स्वीकार कर लिया गया। तत्त्वार्थसूत्र, पंचास्तिकाय, कातंत्ररूपमाला, नाममाला एवं संस्कृत व्याकरण आदि का अध्ययन प्रारंभ हो गया। फिर आचार्यश्रीजी ससंघ का विहार भरतपुर, राजस्थान की ओर हो गया। भरतपुर में संघ का २० दिन प्रवास रहा। इस तरह महावीर भैया को छोड़कर पूरा का पूरा परिवार मुक्ति अनुरागी बन गया। महावीर भैया ने भेजा अपनी मृत्यु का तार - दर्शन करने आए परिजनों में से जब कोई भी घर वापस नहीं पहुँचा, तब महावीर भैया को भारी धक्का लगा। उनकी स्थिति पागलों जैसी हो गई। वह अकेले स्वयं को सँभालते भी कैसे, सो अपनी मृत्यु का झूठा तार आचार्य श्री धर्मसागरजी के पास खतौली, मुजफ्फरनगर, उत्तरप्रदेश भेज दिया, जहाँ पर माँ एवं दोनों बहनें साधनारत थीं। तार सुनकर आचार्य श्री धर्मसागरजी ने माँ श्रीमंतीजी से कहा‘जाओ, पहले अपना कर्तव्य करो।' और उन्हें आचार्य श्री विद्यासागरजी के पास भरतपुर, राजस्थान भेज दिया। यह समाचार श्रीमहावीरजी में आचार्यकल्प श्री श्रुतसागरजी के पास भी पहुँच गया, अतः मल्लप्पाजी भी वहाँ से भरतपुर पहुँच गए। सारा परिवार यहीं एकत्रित हो गया। पर आचार्य श्री विद्यासागरजी को जैसे आभास हो गया हो कि यह तार झूठा है, सो विश्वास के साथ बोले- “यह तार झूठा है, ऐसा कुछ भी नहीं हुआ।' अनंतनाथ से बोले- ‘तुम इन तीनों (माँ एवं बहनों) को लेकर श्रीमहावीरजी में विराजमान आचार्यकल्प श्री श्रुतसागरजी की संघस्थ आर्यिका श्री विशुद्धमतिजी के पास छोड़ आओ।' अनंतनाथ उनको लेकर श्रीमहावीरजी पहुँचे, पर आचार्यकल्प श्री श्रुतसागरजी ने उन्हें संघ में रखने से मना कर दिया, और बोले- ‘बड़े महाराज (आचार्य श्री धर्मसागरजी) ने जो कहा, सो करो।' ब्रह्मचारी अनंतनाथजी ने निवेदन किया कि आचार्यश्री (विद्यासागरजी) तो कह रहे हैं कि यह सब झूठ है। आप इन्हें आर्यिका श्री विशुद्धमतिजी के पास साधना हेतु रख लें।' आचार्यकल्प श्री श्रुतसागरजी बोले- ‘आपके गुरु महाराज तो बारहवें गुणस्थानवर्ती निर्मोही साधक हैं। मैं तो छट्टे गुणस्थानवर्ती वीतरागी साधु हूँ। मैं नहीं रख सकता।' ब्रह्मचारी अनंतनाथजी ने वापस भरतपुर आकर जब सारी चर्चा आचार्यश्रीजी को बताई, तब आचार्यश्री बोले- “यदि ऐसा है तो पहले घर जाओ।' तब शांतिनाथ को संघ में छोड़कर माता-पिता व दोनों बहनें ब्रह्मचारी अनंतनाथजी के साथ घर वापस चले गए। शाम को ६-७ बजे तक वह सदलगा पहुँच गए। घर पर ताला लगा था। खिड़की से अंदर झाँक कर देखा तो चौबीसी भगवान् के ऊपर प्रतिदिन जलने वाली लाइट यथावत् जल रही थी। शुकून हो गया कि सब कुछ ठीक है। पड़ोसी से पता चला कि महावीर भैया मंदिरजी गए हैं। श्री मल्लप्पाजी के कहने पर घर का ताला तोड़कर घर में प्रवेश किया। लगभग एक-डेढ़ माह तक सभी घर पर रहे। श्री मल्लप्पाजी लगभग ढाई माह तक घर पर रहे। विरक्तमन को घर की चौखट कब बाँध पाई है, जो वो बँधते । पिताजी को घर पर छोड़कर महावीर भैया स्वयं ही माँ, बहन एवं अनंतनाथ को लेकर १५ अगस्त, १९७५ को फिरोजाबाद, उत्तरप्रदेश में वर्षायोगरत आचार्य श्री विद्यासागरजी के पास गए। ४-५ दिन बाद आचार्यश्रीजी के कहने पर महावीर भैया ब्रह्मचारी अनंतनाथजी को वहीं संघ में छोड़कर माँ एवं बहनों को वर्षायोगरत आचार्य श्री धर्मसागरजी के पास सहारनपुर, उत्तरप्रदेश ले गए। उन्हें संघ की शरण में छोड़कर महावीर भैया घर वापस लौट गए। वैरागी बढ़ चले अपनी-अपनी राह - बाल ब्रह्मचारी अनंतनाथजी भी संघ में आकर अपनी साधना में लग गए। एक दिन आचार्यश्रीजी की आज्ञा से बाल ब्रह्मचारी शांतिनाथजी ने उपवासपूर्वक केशलोंच किया। तब ब्रह्मचारी अनंतनाथजी को लगा कि आचार्य महाराज को हमारे ऊपर विश्वास नहीं है कि हम भी साधना कर सकते हैं। अतः आचार्यश्रीजी को विश्वास दिलाने हेतु उन्होंने बिना अनुमति के ही उपवासपूर्वक केशलोंच कर लिए। इससे आचार्य महाराज दंड स्वरूप दो दिन तक मौन ज़रूर रहे, पर उन्हें विश्वास हो गया कि ब्रह्मचारी अनंतनाथजी भले ही बचपन में असाध्य बीमार रहे हों, पर अब वह साधना करने में सक्षम हैं। वहाँ आचार्य श्री धर्मसागरजी के चरणों में अन्नाजी-अक्काजी एवं दोनों बहनों की दीक्षा हो गई यहाँ ब्रह्मचारी अनंतनाथजी एवं शांतिनाथजी भी मोक्षपथ पर अपनी साधना बढ़ाते हुए क्रमशः मुनि श्री योगसागरजी एवं मुनि श्री समयसागरजी बनकर संघ के गौरव बन गए। आज पूज्य मुनि श्री समयसागरजी संघ के प्रथम दीक्षित ज्येष्ठ-श्रेष्ठ साधु हैं। एवं पूज्य मुनि श्री योगसागरजी क्रम में उनके बाद ज्येष्ठ साधु हैं। उपसंहार ज्ञान जब हृदयंगम होकर चारित्र में उतरता है तभी उपयोगी होता है, अन्यथा नहीं। चारित्र, ज्ञान को माँजता है अर्थात् ज्ञान, चारित्र के द्वारा शुद्ध होता है। ज्ञान कल्याणकारी तब हो सकता है, जब हम उस पर चलने लगते हैं। ज्ञान की शोभा तो संयम है, अहिंसा है, क्षमा है, कषाय का अभाव है। सही ज्ञान की प्रतिष्ठा वह है, जिसके माध्यम से तत्त्वज्ञान से हीन व्यक्ति भी तत्त्वज्ञान की ओर आकृष्ट हो। जाए।* मात्र उपदेश देने या सुनने से ज्ञान नहीं बढ़ता, ज्ञान को ऊर्ध्वगमन संयम के द्वारा ही मिलता है। इस प्रकार के भावों से भर कर बाल ब्रह्मचारी विद्याधरजी ने अपने गुरु से सम्यग्ज्ञान के साथ जैनेश्वरी मुनि दीक्षा को अंगीकार कर सम्यक्चारित्र को भी प्राप्त कर लिया। अब वह रत्नत्रय रूपी वायुयान में सवार होकर जहाँ केवल तद्भव मोक्षगामी जीव ही अपनी पूर्व पर्यायों में गए होते हैं। ऐसी विशुद्धि एवं उत्पत्ति के अपूर्व-अपूर्व स्थानों की यात्रा करते हुए शीघ्र ही मोक्ष-महल में प्रवेश करने के लिए पुरुषार्थी बन गए हैं। संयम ही जिनका जीवन बन गया है ऐसे आचार्य भगवन् कहते हैं- ‘जिस तरह बेल बिना बंधन के ऊपर की ओर नहीं जाती, ब्रेक के बिना गाड़ी का जीवन ख़तरे में रहता है, उसी प्रकार संयम के बिना जीवन की सार्थकता नहीं होती। वे कहते हैं- ‘हम तो जीवनपर्यंत के लिए बँधे हुए हैं। जब तक मुक्ति का संपादन नहीं होता, हमने अपने आपको भगवान् की शरण में बाँध लिया है, दुनिया की किसी भी बात से नहीं। यह गुरु की आज्ञा है, हम तो देव-शास्त्र-गुरु से बँधे हैं। जो देव- शास्त्र- गुरु से जुड़ा है, उसका संकल्प दृढ़तर हो जाता है। मोक्षमार्ग में कदम रखने के बाद मोहमार्ग की ओर नहीं जाना चाहिए, अन्यथा मोक्षमार्ग समाप्त हो जाएगा।' ऐसे परम वैराग्यवर्धक भावों से भरे हुए आचार्यश्रीजी की दीक्षा के बाद उनके पास पूरे परिवार का आना-जाना होता रहा, जिससे पूरा परिवार इस पथ पर बढ़ गया एवं गृहस्थावस्था के भाई-बहन संघ के सदस्य अर्थात् आपके ही शिष्य बन गए तब भी राग की अंश मात्र कणिका भी उन्हें स्पंदित नहीं कर सकी। मोह की पवन उन्हें छू न सकी। ऐसे अनेक प्रसंग सामने उपस्थित हो जाते हैं, जो उनकी निर्ममत्व की कहानी कह रहे होते हैं। मुक्ति का पथ संयम की आराधना से पूर्णता को प्राप्त होता है। संयम रूपी बंधन कोई बंधन नहीं होता, वरन् सांसारिक गतिविधियों से मुक्त होने के लिए यह एक अनिवार्य साधन होता है।
  8. विद्याधर का वैराग्य परवान चढ़ रहा था। घर, घर नहीं, कारावास लग रहा था। आत्मा रूपी परिंदा शाश्वत सुख का स्थान मोक्ष महल में जाने के लिए उतावला हो उठा। जहाँ चाह, वहाँ राह मिल ही जाती है। घर परित्याग से श्रमण बनने तक की यात्रा के कुछ प्रसंग प्रस्तुत पाठ के विषय बनाए जा रहे हैं। वैरागी की छटपटाहट - पूर्व भवों के पुरुषार्थों से आत्मा रूपी भूमि में वपन किया हुआ वैराग्य का बीज, इस भव के माता-पिता द्वारा प्रदत्त संस्कारों से अंकुरित हो गया। सदलगा में हमेशा मिलने वाले संत समागम रूपी खाद-पानी को पाकर वह विकसित होने लगा। लगभग १८/१९ वर्ष की उम्र में तो वैरागी विद्याधर का मन वैराग्यपथ पर आरूढ़ होने के लिए छटपटाने लगा। कहाँ जाऊँ ? कैसे हित होगा ? मनुष्य पर्याय है। आत्मोत्थान का सुंदर अवसर है। अब चूक नहीं होना चाहिए। बोरगाँव में मुनि श्री नेमिसागरजी की समाधि के बाद विद्याधर, मारुति एवं जिनगौड़ा इन तीनों मित्रों ने आपस में वैराग्यपथ पर ही बढ़ेंगे, ऐसा निर्णय कर लिया। अब मात्र यह निर्णय करना था कि किसकी शरण में जाएँ। तभी सदलगा में चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागरजी महाराज के शिष्य मुनि श्री अनंतकीर्तिजी महाराज पधारे। एकान्त पाकर विद्याधर ने अपने भाव मुनि चरणों में निवेदित कर दिए। मुनिश्री ने कहा- ‘आत्महित हेतु ज्ञान और चारित्र के संगम आचार्य श्री देशभूषणजी महाराज की शरण स्वीकार करो।' इस संघ से विद्याधर बचपन से ही परिचित थे। आचार्य महाराज का उन पर विशेष अनुराग भी था। विद्याधर ने कर लिया निर्णय गुरु के चरण थामने का। १९ वर्ष की उम्र में गृहत्याग करने की योजना बनाना शुरू कर देते हैं। वह जानते हैं, श्री मल्लप्पाजी का कठोर अनुशासन उन्हें पता है, माँ का उनके प्रति अन्य संतानों की अपेक्षा अधिक स्नेह। भाई-बहनों का आपसी वात्सल्य। ऐसे में घर का परित्याग कर पाना कैसे संभव हो ? इस विचार को मूर्त रूप देने हेतु निर्णय किया कि घर पर बिना कहे ही जाना होगा। मुख मोड़ा घर से - अपने निर्णय को मूर्तरूप देने का राजदार, ‘विद्या' ने अपने सखा मारुति को बनाया। परिवार को कहीं से भी, किसी प्रकार की आहट न होने दी। मारुति ने उनका पूर्ण सहयोग किया, यहाँ तक कि जाने का मुहूर्त भी निकलवाकर दिया- ‘अधिक श्रावण माह शुक्ल दशमी, वीर निर्वाण संवत् २४९३, विक्रम संवत् २०२३ रेवती नक्षत्र, बुधवार, २७ जुलाई, १९६६, प्रातःकाल १०.३० बजे।' घर पर ज्ञात न हो जाए, इस कारण मार्ग व्यय हेतु ११२ रुपए भी मारुति ने उस समय एक रुपये दिन की मजदूरी करके एवं मूंगफली बेचकर जो पूँजी जोड़ी थी, वह विद्याधर के कल्याण हेतु न्यौछावर कर दी। और वैराग्यपथ की इस यात्रा के प्रारंभिक चरण में विद्याधर के साथ रहे, उनके दूसरे मित्र ‘जिनगौड़ाजी'। वे उम्र में विद्याधर से चार-पाँच साल बड़े थे। यद्यपि तीनों ही मित्र वैराग्य पथ पर एक साथ बढ़ना चाहते थे, पर किन्हीं कारणों से मारुति उस समय साथ न जा सके। मुनि दीक्षा के बाद अष्टगे परिवार को जब यह ज्ञात हुआ, तब उन्होंने मारुति को यह अमूल्य निधि लौटाने का प्रयास किया, पर मारुति ने लेने से मना कर दिया। विद्याधर ने मारुति के साथ प्रात:काल सदलगा के तीनों जिनालयों की वंदना की। चातुर्मासरत आचार्य श्री अनंतकीर्तिजी महाराज के ससंघ दर्शन कर आशीष प्राप्त किया। पश्चात् मारुति द्वारा निकलवाए गए शुभ मुहूर्त में अपने दूसरे मित्र जिनगौड़ा को साथ लेकर घर से मुख मोड़कर मोक्ष पथ के अविराम पथिक बनने निकल पड़े। और पहुँच गए चूलगिरि, जयपुर, राजस्थान में विराजमान आचार्य श्री देशभूषणजी महाराज के चरणों में, और निवेदित कर दी अपनी दृढ़ भावना एवं वहाँ तक पहुँचने का अपना सारा वृत्तांत भी कह सुनाया। परिवार की अनुमति के बिना संघ में प्रवेश कैसे दें ? विद्याधर की दृढ़धर्मिता से पूर्व परिचित आचार्य महाराज ने तत्काल कुछ निर्णय न देते हुए विद्याधर एवं जिनगौड़ा के लिए बहुत आशीर्वाद दिया। प्रतीक्षारत परिवार - सायं के समय भोजन के लिए माँ इंतज़ार करती रहीं पर विद्याधर नहीं आए। सोचा मंदिर में होंगे। कहीं बैठकर ध्यान न लगा रहे हों। सारे मंदिर खोज लिए। सभी मित्रों के यहाँ पता कर लिया। मारुति को तो खामोश रहने का बोलकर गए थे, विद्याधर । वह कैसे कुछ बताते । देखा कि जिनगौड़ा भी घर पर नहीं है एवं विद्याधर भी घर से एक जोड़ी कपड़े लेकर निकले हैं, तब अनुमान लगा लिया कि दोनों मित्र आस-पास कहीं किन्हीं मुनिराज के दर्शन करने गए होंगे, आ जाएँगे। आधी रात निकल गई, माँ विह्वल होने लगी। अन्नाजी (मल्लप्पाजी) ने समझाया कि आ जाएगा। सो जाओ, वह कहीं नहीं जाएगा। प्रतीक्षा करते-करते कुछ दिन निकल गए। पर विद्याधर की कोई खबर प्राप्त नहीं हुई। संदेशा आया गुरुवर का - एक दिन आचार्य श्री देशभूषणजी महाराज के संघ से हिन्दी भाषा में लिखा हुआ एक पत्र आया। जिसमें लिखा था- ‘मल्लप्पाजी! आपका बेटा हमारे पास है, चिन्ता नहीं करना। वह बहुत होशियार है, होनहार है। हम उसको अच्छा बना देंगे। उसने अभी हिन्दी पढ़ना शुरू किया है। उसको पढ़ाने के लिए एक पंडितजी को नियुक्त किया गया है। उसका विचार पूरे चौमासा पढ़ने का है, फिर देखो उसका विचार आगे क्या बनता है ? जिनगौड़ा उसके साथ में आया है।' अन्नाजी पत्र पढ़कर अक्काजी (श्रीमंतीजी) से बोले- ‘लो तुम्हारा बेटा बड़ा हो गया है और पत्र माँ के हाथ में देते हुए बोले- ‘अब चार माह तक राह देखना बैठकर, वह अध्ययन करके चार माह बाद वापस लौटेगा, वह अच्छे कार्य हेतु ही तो गया है पर माँ को धैर्य कहाँ था। अन्नाजी भी अशांत हुए होंगे अंदर ही अंदर उन्होंने महावीर से पूछा- ‘तुमसे पैसे लिए थे क्या ?’ ‘नहीं लिए, तो फिर जिनगौड़ा के साथ ही चला गया होगा।' किसे पता था कि मारुति ने अपनी जुड़ी हुई पूँजी अपने मित्र के कल्याण हेतु न्यौछावर कर दी थी। पा गए, आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत - ब्रह्मचर्य व्रत को मोक्ष महल की। प्रथम सीढ़ी कहा जा सकता | विवाह होने तक का व्रत तो विद्याधर पहले ही ग्रहण कर चुके थे। संघ में आकर उन्होंने आचार्य श्री देशभूषणजी के चरणों में आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण करने की भावना रखी थी। विद्याधर की धर्मनिष्ठा से आचार्यश्री पूर्व परिचित थे। उसकी दृढ़ता को देखकर उन्होंने चूलगिरि, जयपुर, राजस्थान में उन्हें आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत का आशीर्वाद प्रदान कर दिया। संघचर्या, जीवनचर्या बनी - विद्याधर ने अपने कदमों को अग्रगामी बनाने के संकल्प लिए और संघ की चर्या के अनुसार अपनी चर्या बना ली। उन्होंने अपना आचार-विचार, आहार-विहार सब कुछ मुनियों जैसा बना लिया। संघ की सेवा - वैय्यावृत्ति में भी वह तत्पर हो गए, जैसे दूर गाँव से साइकिल पर दूध लाना, संघ के निवास स्थान की साफ़-सफ़ाई करना एवं कमण्डलु में जल भरना आदि। आचार्य श्री देशभूषणजी का विहार वर्षायोग के बाद चूलगिरि से गोम्मटेश्वर श्री बाहुबलीजी के महामस्तिकाभिषेक में उपस्थित होने हेतु श्रवणबेलगोला, हासन, कर्नाटक की ओर हुआ। विहार में उन्होंने कठिन परिश्रम किया। संघ की व्यवस्था का ध्यान रखा। मार्ग में समय-समय पर जिनगौड़ा के साथ आचार्य महाराज की डोली भी अपने कंधे पर उठाकर विहार करवाया। एक बार तो बीजापुर के पास डोली रखकर जैसे ही विद्याधर विश्राम करने बैठे कि बैठक पर एक बिच्छू ने डंक मार दिया। इस पीड़ा को उन्होंने चुपचाप सहन कर लिया। क्योंकि यदि किसी को ज्ञात हो जाएगा, तो फिर डोली उठाकर विहार करवाने को नहीं मिलेगा। ग्रहण की सातवीं प्रतिमा - ३० मार्च, १९६७, श्रवणबेलगोला, हासन, कर्नाटक में उन्हें भगवान् बाहुबली का प्रथम दिन महामस्तकाभिषेक करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। भगवान् का अभिषेक मोहनीय कर्म के पाश को ढीला करने में सहयोगी हुआ। इस दिन विद्याधर की अत्यधिक विशुद्धि बढ़ी और उन्होंने आचार्य महाराज से सीधे सप्तम प्रतिमा के व्रत अंगीकार कर लिए। इस समय तक उन्हें घर छोड़े आठ माह दो दिन हो चुके थे। मुख मोड़ा, फिर मुड़कर न देखा - महामस्तकाभिषेक के बाद संघ विहार करके मई माह में अतिशयक्षेत्र स्तवनिधि पहुँचा। स्तवनिधि सदलगा से २८ किलो मीटर की दूरी पर ही है। सूचना मिलते ही सदलगा से महावीर भैया विद्याधर को लेने पहुँच गए। वहाँ पर आचार्य महाराज के दर्शन किए। आचार्य महाराज ने पूछा- ‘क्यों महावीर! विद्याधर को लेने आए हो?' महावीर भैया ने स्वीकृति में हाथ जोड़कर कह दिया- ‘हाँ। आचार्य महाराज बोले- ‘ले जाओ, पर उसका मन नहीं लगेगा। वह वैरागी है, साधु सेवा में उसका मन लगता है। उसका समर्पण अलौकिक है।...वो जाना चाहे, तो ले जाओ।' तब महावीर भैया अपने छोटे भाई के पास गए। उन्हें लट्ठा के सफेद धोती-दुपट्टा एवं बड़े-बड़े बाल और दाढ़ी-मूंछ देखकर वह अचंभित रह गए। और मन में सोचने लगे कि इन्हें अब घर चलने के लिए मैं कैसे कहूँ, ये क्या अब हमारी सुनेंगे। अन्नाजी ही ले जा सकते हैं अब इन्हें घर। दोनों भाइयों में चर्चा होती है। विद्याधर उन्हें बताते हैं कि उन्होंने ब्रह्मचर्य व्रत एवं सातवीं प्रतिमा के व्रत ग्रहण कर लिए हैं। महावीर भैया बोले- ‘आठ माह हो गए। बहुत पढ़ लिया, अब घर चलो। घर पर दादी, माँ, बहनें सभी बहुत याद करते हैं।' विद्याधर बोले- ‘अभी अध्ययन करने में चार-छह वर्ष लग जाएँगे।' और मौन होकर अपने कार्य में संलग्न हो गए। मौनी से तो जग हारे। क्या करते महावीर भैया, सो घर वापस आ गए। अगले दिन जब अन्नाजी मारुति के साथ स्तवनिधि पहुँचे, तब उन्हें वहाँ विद्याधर नहीं मिले। आचार्य महाराज से पूछा, वह बोले- ‘उसे डर था कि कहीं अन्नाजी आकर ज़बरदस्ती घर न लें जाएँ। ‘मुझे संसार में नहीं फँसना' ऐसा कहकर वह आशीर्वाद लेकर उत्तर भारत चला गया। लेकिन आप चिंता न करें, उसे हिन्दी भी सही नहीं आती, अतः लौटकर आ जाएगा।' आचार्य महाराज का आश्वासन पाकर अन्नाजी घर आ गए। उनका मन अधीर हो उठा था। चार-पाँच माह तक वह गुस्से में रहे। घर का वातावरण अशांत बना रहा। यदि शांत था कोई, तो वह थी माँ। उत्तर भारत की ओर गमन - इस तरह स्तवनिधि में संघ के प्रवास ने विद्याधर को अशांत कर दिया था। सदलगा पास है, आज महावीर भैया आए, कल अन्नाजी आएँगे। क्या होगा? कैसे होगा? विद्याधर का मन ज्ञानार्जन की प्यास से व्याकुल था। मुनि बनकर विचरण करने हेतु आतुर था। अतः अन्नाजी के आने से पूर्व ही विद्याधर निकल चुके थे, एक अपरिचित किन्तु सुनिश्चित पथ की ओर। उस समय उत्तर भारत में आचार्य श्री शांतिसागरजी के शिष्य आचार्य श्री वीरसागरजी, इनके शिष्य तथा परंपरा के तृतीय पट्टाचार्य आचार्य श्री शिवसागरजी महाराज का विशाल संघ विराजमान था। जिसे ‘बड़ा संघ' कहा जाता था। उस बड़े संघ को लक्ष्य में रख कर विद्याधर ने अजमेर जाने का निश्चय किया। विद्याधर को स्तवनिधि से कोल्हापुर, बम्बई, अहमदाबाद होते हुए, अजमेर पहुँचना था। अतः वह लगभग २२ मई १९ को स्तवनिधि से कोल्हापुर जाने के लिए निकले। क्षेत्र से बस स्टैण्ड पाँच किलोमीटर की दूरी पर स्थित था। ग्रामीण एवं जंगली इलाका होने से बस रास्ते में कहीं कभी भी खड़ी नहीं होती थी। ब्रह्मचारी विद्याधर पैदल ही बस स्टैण्ड की ओर चले जा रहे थे, रास्ते में कोल्हापुर की ओर जानेवाली बस निकली, ब्रह्मचारी विद्याधरजी ने उसे रोकने के लिए हाथ दिया, आश्चर्य! वह बस ऐसे खड़ी हो गई जैसे उन्हें लेने ही आई हो। दृढ़ इच्छा शक्ति से आसमाँ भी थम जाए, वह तो बस थी। इस तरह वे बस द्वारा कोल्हापुर पहुँचे। वहाँ से आगे रेलगाड़ी द्वारा अजमेर पहुँच गए। इस यात्रा में उन्हें तीन दिन लगे। मार्ग में दो उपवास हो गए। दूसरे उपवास की रात्रि में लगभग ११/१२ बजे वह अजमेर पहुँच गए। यदि वह चाहते तो मार्ग में रुक कर भोजनादि करके भी यात्रा कर सकते थे। पर अपने लक्ष्य तक पहुँचने की तीव्र अभिलाषा एवं उत्तर भारत के स्थानों का विशेष ज्ञान न होने से वह सीधे अजमेर पहुँचे। यात्रा के दौरान उनके पास जो पैसे थे वे सब खर्च हो गए थे। मात्र पाँच रुपये शेष बचे थे। सो वह भी रिक्शे आदि के लिए कम पड़ गए थे। गुरु की खोज पूर्णता - की ओर दो दिन के निर्जल-निराहार ब्रह्मचारी श्री सौगनचंदजी विद्याधर अपनी यात्रा पूर्ण करके लगभग २४ मई, १९६७ को अजमेर के ही एक ब्रह्मचारी जी के घर रात्रि में लगभग १२ बजे पहुँचे। भूख एवं गर्मी से विह्वल ब्रह्मचारी विद्याधरजी की स्थिति को देखकर ब्रह्मचारीजी ने उन्हें छत पर लगे नल से स्नान कर सो जाने को कहा। वह छत पर गए तो नल में पानी नहीं आ रहा था। अतः ब्रह्मचारीजी के कमण्डल से अपना दुपट्टा गीला करके ओढ़ लिया और छत पर ही सो गए। दुपट्टा सूख जाने पर गर्मी की वेदना पुनः शुरू हो गई। आँखों ही आँखों में रात निकाली। सुबह अभिषेक-पूजन के बाद भोजन, सामायिक आदि करके वह कब सो गए, उन्हें पता ही नहीं चला। फिर शाम का जल-पान ग्रहण करने के लिए ब्रह्मचारीजी ने उन्हें जगाया। जल-पान के बाद वह ब्रह्मचारीजी के साथ ज्ञानार्जन की आश लिए विद्वान् पंडित श्री विद्याकुमारजी सेठी (अजमेर) के पास गए। उन्होंने पूछा- ‘क्या करना है ?' ब्रह्मचारी विद्याधर ने कहा‘हमें आत्मसाधना के साथ-साथ ज्ञानाध्ययन भी करना है। इसीलिए संस्कृत पढ़ना चाहता हूँ।' पंडित विद्याकुमारजी सेठी ने उन्हें झिड़कते हुए कहा- ‘पहले हिन्दी तो सीख लो, तब फिर संस्कृत पढ़ना।२६ खाली लौट आए ब्रह्मचारी विद्याधर । यह देख ब्रह्मचारीजी ने उन्हें मुनि श्री ज्ञानसागरजी के पास जाने की सलाह देते हुए कहा- ‘तुम्हारी शिक्षा एवं दीक्षा की प्यास मुनि श्री ज्ञानसागरजी की शरण में जाने से पूर्ण हो सकती है। वे ज्ञान की मूर्ति हैं, जिन्होंने प्राय: आज के सभी आचार्यों एवं उनके संघों में पढ़ाया है। मैं तो समझता हूँ कि तुम्हें वहाँ जाना चाहिए। इसके पूर्व भी जब यही ब्रह्मचारीजी चूलगिरिखानियाजी, जयपुर, राजस्थान में विराजमान आचार्य श्री देशभूषणजी महाराज के संघ में आते थे, तब भी वह ब्रह्मचारी विद्याधरजी को मुनि श्री ज्ञानसागरजी की विद्वतता एवं चारित्र के विषय में बताया करते थे। अतः ब्रह्मचारी विद्याधर मुनि श्री ज्ञानसागरजी की शरण में जाने को सहर्ष तैयार हो गए। ब्रह्मचारी विद्याधरजी को मुनि श्री ज्ञानसागरजी के पास तक पहुँचाने के लिए ब्रह्मचारीजी ने उनका संपर्क मुनि श्री ज्ञानसागरजी के परम भक्त श्रावक श्रेष्ठी श्री कजोड़ीमलजी अजमेरा, अजमेर से करवाया। दूसरे दिन की रात्रि का विश्राम कजौड़ीमलजी के यहाँ करके प्रातः भोजन आदि से निवृत्त होकर ब्रह्मचारी विद्याधर ने श्री कजौड़ीमलजी, श्री चेतनमलजी एवं श्री मिलापचंदजी अजमेर के साथ मदनगंज-किशनगढ़ की ओर प्रस्थान किया। इस तरह एक अनगढ़ पत्थर को मूर्ति बनाने के लिए एक अलौकिक शिल्पी के हाथों में सौंपने का सौभाग्य गुरुभक्त श्री कजौड़ीमलजी अजमेरा, अजमेर को प्राप्त होता है। इन्होंने अपने जीवनकाल के अंत-अंत तक पहले आचार्य श्री ज्ञानसागरजी की एवं बाद में आचार्य श्री विद्यासागरजी की पूर्ण समर्पित भाव से सेवा की। यहाँ से शुरू होती है विद्याधर की यात्रा, ज्ञान के सागर में डुबकी लगाकर स्वयं विद्या के सागर बनने तक की। सवारी त्यागपूर्वक किया समर्पण - श्रावक श्रेष्ठी कजौड़ीमलजी विद्याधर को लेकर मुनि श्री ज्ञानसागरजी के चरणों में मदनगंजकिशनगढ़ पहुँच जाते हैं। मुनि श्री ज्ञानसागरजी को ब्रह्मचारी विद्याधरजी का परिचय देते हुए कहते हैं। कि ये ब्रह्मचारीजी सुदूर दक्षिण भारत से आपके पास ज्ञानार्जन हेतु आए हैं। मुनिश्रीजी बोले- ऐसे तो कई आते-जाते रहते हैं। यह सुनकर ब्रह्मचारी विद्याधर के मन में हलचल हो गई। चरणों में नमोऽस्तु करते हुए बोले- 'मैं जाने के लिए नहीं आया हूँ।' मुनिश्री ने नज़र उठाकर देखा, और पूछा- ‘क्या नाम है। ?' वह बोले- ‘जी, विद्याधर।' नाम सुनकर मुनिश्री को हँसी आ गई, बोले- ‘अच्छा... विद्याधर हो, विद्या लेकर उड़ जाओगे।' विद्याधर बोले- ‘विश्वास कीजिए, मैं ज्ञानार्जन कर भागूंगा नहीं। मुझे अपनी शरण में रख लीजिए।' मुनिश्री बोले- ‘क्यों कजौड़ीमलजी! विश्वास कर लँ ब्रह्मचारी पर। कजौड़ीमलजी कुछ बोल पाते इसके ही पूर्व ब्रह्मचारी विद्याधर हाथ जोड़कर समर्पित भाव से बोले‘गुरुवर! यदि विश्वास नहीं, तो मैं इसी समय से आजीवन सवारी का त्याग करता हूँ।' छोटी-सी बात पर इतना बड़ा त्याग देख अचम्भित हो गए, मुनि श्री ज्ञानसागरजी। और विद्याधर से बोल उठे- “यदि तुम ज्ञानाध्ययन के लिए दृढ़ संकल्पित हो, तो मैं तुम्हें एक दिन विद्यानंदी बना दूंगा।' ‘विद्यानंदी' न्याय एवं दर्शन के बहुत बड़े आचार्य हुए हैं। इस तरह वर्तमान युग की गुरु-शिष्य की निर्मल एवं अनूठी परंपरा का सूत्रपात हो जाता है, एक अनदेखे अपूर्व त्याग एवं समर्पण के साथ। कुछ समय बाद ही विद्याधर नमक एवं मीठा का भी त्याग कर देते हैं। सवारी त्याग से तात्पर्य - दक्षिण भारत के लोग प्राय: भोले होते हैं। ब्रह्मचारी विद्याधरजी एक दिन किसी श्रावक के साथ भोजन करने ४/५ किलो मीटर की दूरी पर ताँगे में बैठकर चले गए, जबकि उनका सवारी का त्याग था। जब वह वापस आए, तब किसी श्रावक ने उन्हीं के सामने मुनिश्रीजी से पूछा- ‘सवारी का ऐसा-कैसा त्याग कि ब्रह्मचारीजी भोजन करने ताँगे में बैठकर गए और आए ?' इतने में ब्रह्मचारी विद्याधर बीच में बोल पड़े-‘क्या ताँगा भी सवारी में आता है ? यह तो मैं नहीं जानता था। सवारी त्याग करने में मेरा भाव तो यह था कि आपको छोड़कर नहीं जाऊँगा।' सवारी से उनका तात्पर्य मोटर गाड़ी एवं रेलगाड़ी आदि से था। भोले ब्रह्मचारीजी की भोली-सी बात सुनकर सबको हँसी आ गई। गुरु-शिष्य की अद्भुत लय - गुरुवर श्री ज्ञानसागरजी के चरणों में पहुँचने के बाद पच्चीसवें दिन जून, १९६७ में ब्रह्मचारी विद्याधरजी को गुरुवर के प्रथम बार केशलोंच करने का परम सौभाग्य प्राप्त हुआ। इसके बाद तो वह अपने गुरु के चरण सेवक ही बने रहे। ज्ञानसूर्य मुनि श्री ज्ञानसागरजी ने, वृद्धावस्था के पड़ाव पर एक ऐसे शिष्य को प्राप्त किया, जिसमें विस्मित कर देने वाली क्षमता थी, जिसमें इशारों को समझने की सामर्थ्य थी, जो समर्पण की पर्याय, कुशाग्र बुद्धि, सेवा के प्रति लगन एवं विनय की आधारशिला थे। ऐसे शिष्य को प्राप्त कर गुरु ने बिना एक पल आँवाए उनके जीवन को गढ़ना प्रारम्भ कर दिया। गुरु के द्वारा ज्यों-ज्यों तरासा गया, त्यों-त्यों शिष्य में निखार आता चला गया। निखार भी ऐसा था कि देखने वालों को चमत्कृत एवं आकर्षित कर ले। गुरु ने जिस प्रकार भी परीक्षा ली। गुप्त रूप में अथवा प्रकट रूप में, उसमें उन्हें अपने शिष्य को शत-प्रतिशत अंक देने पड़ते। उनका मन हर्ष से झूम उठता था। वह अपने अन्तस् का संपूर्ण अध्यात्म, संपूर्ण साहित्य व संपूर्ण ज्ञान अपने शिष्य के हृदयरूपी गमले में उड़ेल देना चाहते थे। इस तरह गुरु-शिष्य की दिनचर्या अद्भुत लय-ताल के साथ सुन्दर संगीत देने लगी। उसका चित्रण पाठ्य पुस्तक-१-‘प्रणामांजलि' में पाठकों को प्राप्त हुआ ही है। मुनि बनने की तैयारी - सन् १९६७, मदनगंज-किशनगढ़, अजमेर, राजस्थान चातुर्मास के दौरान एक दिन रात्रि में ब्रह्मचारी विद्याधरजी को बिच्छू ने काट लिया। मुनि श्री ज्ञानसागरजी महाराज ने समाज के लोगों से शीघ्र उपचार करने के लिए संकेत किया। तुरंत वैद्यजी को बुलवाया। पर ब्रह्मचारीजी ने उपचार लेने से मना कर दिया । बिच्छू के डंक की पीड़ा और उपचार की मनाही देख समाज के लोगों ने आग्रह किया। कुछ प्रमुख लोगों ने उपचार न लेने का कारण पूछा, तब वह बोले- ‘मुझे मुनि बनना है, तब कैसे सहन करूंगा।' ऐसा कह कर वह चटाई पर लेट गए। और बिना किसी उपचार के उस असहनीय पीड़ा को समता से सहन करते रहे। समाज के लोगों ने जब मुनि श्री ज्ञानसागरजी को बताया, तब उनके चेहरे पर गर्वमिश्रित मुस्कान फैल गई। और उन्हें अपने शिष्य की मुनि बनने की तीव्र अभिलाषा का भान भी हो गया। गुरु कसौटी, तो शिष्य खरा सोना - ब्रह्मचारी विद्याधरजी की चर्या, साधना, लगन, निष्ठा, समर्पण, सेवाभावना, हृदय की सत्यता, आज्ञापालन भाव, अध्ययन की ललक, जनसंपर्क से विमुखपना, कर्तव्यनिष्ठा एवं समय की बद्धता आदि सभी कुछ देखकर मुनि श्री ज्ञानसागरजी उनसे प्रभावित एवं संतुष्ट थे। अभी शिष्य को आए आठ माह ही तो हुए थे। वह कभी विद्याधर की निर्दोष चर्या देख गर्व से फूल जाते, तो कभी उनकी परीक्षा कर सौ में सौ अंक प्रदान कर खुश हो जाते थे। कभी वह श्रावकों से परीक्षा करवाते और उसमें भी विद्याधर को खरा पाकर मन ही मन मयूर की भाँति झूम उठते थे। एक दिन तो वह कजौड़ीमल अजमेरा से पूछते हैं कि विद्याधर कब सोता, कब उठता इस पर कभी ध्यान दिया आपने ? कजौड़ीमलजी ने जब आकर बताया कि वह दिन में जितना विषय पढ़ते हैं, वह जब तक पूरा तैयार नहीं हो जाता, तब तक सोते नहीं हैं। और कितने बजे -भी सोएँ, पर चार बजे उठ ही जाते हैं। दोपहर में तो विश्राम का सवाल ही नहीं उठता। पूरे समय आपकी ही नज़रों के सामने रहते हैं। यह सुनकर गुरुवर भाव विभोर हो जाते हैं। एक ओर वह विद्याधर को कक्षा में निर्देश देते हैं कि आचार्य प्रणीत ग्रंथ ही पढ़ना चाहिए, वहीं दूसरी ओर श्रावक द्वारा गुप्त रीति से पंडित प्रणीत ‘मोक्षमार्ग प्रकाशक' ग्रंथ पहुँचवा देते हैं। जब विद्याधर द्वारा उसे स्वीकारा नहीं जाता, तो हर्षित हो उठते हैं। एक दिन मयूर पिच्छी को बिखेर कर उसे बनाने का निर्देश देते हैं। और विद्याधर द्वारा बना दिए जाने पर उन्हें स्नेहपूरित नेत्रों से निहार उठते हैं। कभी वह सुनते हैं कि विद्याधर एक पैर से खड़े होकर साधना कर रहे हैं, कभी सुनते वह शीर्षासन लगा कर साधना कर रहे हैं, कभी उन्हें पता चलता कि विद्याधर तो रात में अपनी चोटी को छत के कड़े से बाँधकर अध्ययन कर रहे हैं। एक दिन श्रावकों से पता चलता है कि आज तो विद्याधर अपने काले-घने, मजबूत बालों को अपने ही हाथों से निर्दयता पूर्वक उखाड़ते चले जा रहे हैं। सर से खून के छींटे उचट रहे हैं, यह सब सुनकर मुनि श्री ज्ञानसागरजी अंदर ही अंदर जिनशासन की महिमा से भर जाते हैं। कितना कहें और क्या-क्या कहें ? अनंत गुणों का बखान तो सर्वज्ञ नहीं कर पाए, फिर सामान्य की सामर्थ्य कहाँ ? गुरु वृद्ध थे, अनुभवी थे, विद्वान् थे, महाव्रती थे। उनके हाथ में एक अनमोल पाषाण था, जिसे तराशकर वह जीवंत भगवंत की रचना करने जा रहे थे। इसके लिए गुरु स्वयं कसौटी बन गए थे, जिस पर वह पल-प्रति-पल अपने शिष्य रूपी सोने को कसते जा रहे थे। और हर बार सोलह आना खरा पाकर विश्वास से भर जाते थे। एक दिन उन्होंने बाल ब्रह्मचारी विद्याधर से कहा कि यदि मुनि बनना है तो दिगंबर मुद्रा में खड़े होकर सामायिक साधना करनी चाहिए। उधर गुरुवर ने पंडित विद्याकुमारजी सेठी से कहा- ‘आपने विद्याधर का दिगंबर रूप देखा है ? देख लेना, निर्दोष हो तो सीधे मुनिदीक्षा देने का भाव बना रहा हूँ। पंडित विद्याकुमार सेठी ने आकर बताया कि उनकी मुद्रा तो तीर्थंकर के समान वीतरागता का स्वरूप प्रकट कर रही। यह सुनते ही गुरुवर का हृदय-कमल खिल उठा और विचार किया कि अब शिष्य रूपी सोने को कसौटी पर कसने की जरूरत नहीं है। मुनि दीक्षा ही दूंगा, किया निर्णय - प्रत्येक परीक्षा में खरे उतरे बाल ब्रह्मचारी विद्याधर में गुरुवर ज्ञानसागरजी को भावी मुनि की योग्यता नज़र आने लगी थी। साथ ही बिन कहे ही बाल ब्रह्मचारी विद्याधर के अंतस् की ‘निग्रंथ पद प्राप्ति की भावना भी जब कभी उन्हें स्पर्श कर जाती थी। अतः उन्होंने मन ही मन में बाल ब्रह्मचारी विद्याधर को सीधे मुनि दीक्षा देने का निर्णय कर लिया। उस समय गुरुवर दादिया (अजमेर, राजस्थान) गाँव में विराजमान थे। एक दिन उन्होंने मदनगंज-किशनगढ़, अजमेर, नसीराबाद आदि अनेक स्थानों से आए हुए दर्शनार्थियों के सामने बाल ब्रह्मचारी विद्याधर को सीधे मुनि दीक्षा देने की बात रख दी। तभी दादिया गाँव के श्रावक श्रेष्ठी हरकचंदजी झाँझरी ने गुरुवर से विनम्रता पूर्वक पूछा- ‘आप विचार कर रहें हैं या निर्णय कर रहे हैं ?' तब ज्ञानसागरजी महाराज बोले- ‘विचार अब निर्णय में परिवर्तित हो गया है। मैंने विद्याधर की साधना, दृढ़ता, साहस, त्याग, श्रद्धा, ज्ञान की ललक, समर्पण, लगन, विनय, भक्ति, आत्मकल्याण की भावना और आगम निष्ठ आचरण का दृष्टिकोण देख लिया है एवं खूब परीक्षा भी कर ली है। जो सोलह बानी का सोना है, तो वह सोलह बानी का ही रहेगा। खरा तो खरा ही रहेगा, वह कभी अखरेगा नहीं।' इसी तरह एक दिन अजमेर से श्री छगनलालजी पाटनी गुरुवर के दर्शनार्थ दादिया आए। उन्होंने भी सीधे मुनि दीक्षा देने के प्रसंग पर गुरुवर से निवेदन किया कि इससे कहीं समाज में विरोध न हो जाए। तब गुरुवर बोले- ‘मैं तो आगम की सर्व दृष्टियों से देखकर के और त्यागीजी की सर्व प्रकार से परीक्षा करने के बाद ही इस निर्णय पर पहुँचा हूँ। मेरी उम्र भी ज्यादा होती जा रही है। फिर मैं उसे मुनि के संस्कार कैसे दे पाऊँगा? कुन्दकुन्द स्वामी की अनुभूति का अनुभव कैसे चखा पाऊँगा? मुझे विरोध की कोई परवाह नहीं है। आगम विरुद्ध कार्य हो तो चिन्ता करूं।' गुरुवर ज्ञानसागरजी का दृढ़ निर्णय जानकर पाटनीजी ब्रह्मचारी विद्याधर को परखने उनके पास पहुँचे। और बोले- ‘आप मुनि व्रत को सोच समझकर अंगीकार करना। यह तलवार की धार पर चलने के समान है। और गुरुजी वृद्ध हैं, अतः बाद में आपको अकेले रहना पड़ेगा।' यह सुनकर ब्रह्मचारी विद्याधर बोले- ‘पाटनीजी! इतना तो विश्वास है। कि गुरुदेव मुझे यदि मुनि दीक्षा देते हैं तो चारित्र तो ऐसा (श्री ज्ञानसागरजी की ओर इशारा करते हुए) ही रहेगा। ज्ञान की बात मैं नहीं कह सकता, किन्तु गुरु ने जो मुझसे अपेक्षाएँ रखी हैं, वैसा ही चारित्र पालन करके दिखा दूंगा।' इस तरह गुरुवर ज्ञानसागरजी ने अपने शिष्य की योग्यता का निर्धारण कर उन्हें सीधे मुनि दीक्षा प्रदान करने का निर्णय कर लिया। मुनि दीक्षा की घोषणा - दादिया में ही एक दिन गुरुवर श्री ज्ञानसागरजी ने अपने प्रवचन के पश्चात् ब्रह्मचारी विद्याधरजी को ३० जून, १९६८ के दिन मुनि दीक्षा प्रदान की जाने की घोषणा कर दी। सीधे मुनि दीक्षा की जानकारी मिलने पर अजमेर से पंडित विद्याकुमारजी सेठी, श्री छगनलालजी पाटनी, सर सेठ साहब श्री भागचन्दजी सोनी, श्री कजौड़ीमलजी अजमेरा एवं श्री कैलाशचंदजी पाटनी आदि श्रीमानों/धीमानों ने आकर गुरुवर से निवेदन किया- ‘आप पहले क्षुल्लक या एलक दीक्षा देवें, इतनी छोटी उम्र में सीधे मुनि दीक्षा देना उचित नहीं।' गुरुवर बोले- ‘मेरी उम्र काफ़ी हो गई है और ब्रह्मचारीजी को मैंने अच्छे से परख लिया है। मेरी उम्र संघ में ही गुजरी है, अतः अपने अनुभव से यह कार्य कर रहा हूँ। यह ब्रह्मचारीजी मुनि बनकर धर्म का बहुत नाम उजागर करेंगे। यह जैन धर्म की बहुत भारी निधि हैं। यह कोई साधारण त्यागी नहीं हैं, इसलिए सीधे मुनि दीक्षा ही दी जाएगी।' गुरुजी का निर्णय सुन सब वापस अजमेर चले गए। गुरुवर भी १४-१५ जून, १९६८ को दादिया से विहार कर २० जून, १९६८ को अजमेर पहुँच गए। सामाजिक प्रतिक्रिया - गुरुवर के अजमेर पहुँचते ही ब्रह्मचारी विद्याधर को मुनि दीक्षा दिए जाने की चर्चा जंगल में आग की तरह अजमेर के कोने-कोने में फैल गई। समाज की प्रतिक्रिया विभिन्न रूपों में आने लगी। समाज दो-तीन वर्गों में बँट गया। एक वर्ग का कहना था- ‘श्रमण धर्म युवावस्था में नहीं, तो क्या वृद्धावस्था में पलेगा, अतः दीक्षा होनी चाहिए।' दूसरे वर्ग का कहना था- ‘दीक्षा नहीं होनी चाहिए।' और समाज का एक अन्य वर्ग ऐसा भी था, जिसे संभ्रात श्रेष्ठियों का वर्ग कहा जा सकता है, जो अल्प वय एवं अल्प समय के साधक श्री विद्याधरजी को सीधे मुनि दीक्षा देने का स्पष्ट विरोध कर रहा था। उनका कहना था, ‘यदि सीधे मुनि दीक्षा देनी है तो एक-दो वर्ष ठहरकर अभी और परख लें। अथवा अभी क्षुल्लक या एलक दीक्षा प्रदान कर दें। अन्यथा कल को कुछ होता है तो समाज कलंकित होगी। इन परिस्थितियों में सर सेठ भागचन्द्र सोनीजी, जो स्वयं भी उस समय मुनि दीक्षा के विरोधी थे, ने समाज को बुलाकर निर्णय किया कि आपस में चर्चा करने से कोई लाभ नहीं। हमें मुनि श्री ज्ञानसागरजी के चरणों में अपना निवेदन रखना चाहिए। यदि वह दीक्षा स्थगित कर देते हैं, तो ठीक है, अन्यथा दीक्षा महोत्सव की तैयारी करनी चाहिए। सर सेठजी के नेतृत्व में एक प्रतिनिधि मंडल ने गुरु चरणों में अपना निवेदन रखा। गुरुवर मौन रहे। सेठजी ने पुनः विनम्रतापूर्वक सारी बात रखी। गुरुवर बोले- ‘यदि दीक्षा में आयु का मापदण्ड है तो आप में से कौन-कौन दीक्षा लेने को तैयार है?' प्रतिनिधि मंडल में मौन छा गया। गुरुवर ने समाज को संबोधते हुए आगे कहा- ‘यदि कल को कुछ होता है तो समाज को कलंकित होने से पूर्व गुरु कलंकित होंगे। हमने उसे परख लिया है। वह पुष्प-सा सुकुमार दिखने वाला युवक भीतर से वज्र-सा कठोर और निजाश्रित (स्वाश्रित) है। उसे कोमल न समझो। तुम्हारी चिंता यह है। कि युवा अवस्था में दीक्षा क्यों दी जा रही है और मुझे इस बात का खेद हो रहा है कि यह मेरे पास बाल्यकाल में क्यों नहीं आया? अजमेर की समाज जाग्रत है, इसलिए अभिनंदन के योग्य है। विश्वास रखो यह युवा श्रमण संस्कृति का एक नया इतिहास रचेगा। इस पर भी यदि आप मना करेंगे तो मैं जंगल में जाकर दूंगा, लेकिन उसे सीधे मुनि दीक्षा ही दूंगा। मौन स्वीकृति देकर प्रतिनिधि मंडल वापस लौट आया। अब उनके समक्ष दीक्षा की तैयारी के अलावा कुछ अन्य विकल्प न था। पर जब विद्याधर की बिनौली (दीक्षा से पहले दीक्षार्थी की शोभायात्रा रूप जुलूस) निकली, उसमें जो उनका ओजस्वी भाषण हुआ, उसको सुनकर सभी चकित रह गए। और सबके मुख से एक स्वर में निकला- ‘हाँ! ब्रह्मचारी विद्याधर की दीक्षा होनी चाहिए। वह सर्वथा योग्य है। सर सेठ साहब भागचंदजी सोनी का मंच - उद्घोष - प्रतिनिधि मण्डल तैयारी में जुट तो गया, पर मन से संतोष नहीं था। विद्याधर के वचनों से आम समाज तो प्रभावित हुई, पर कुछ लोगों के मन में अब भी संदेह था। ऐसे कुछ व्यक्तियों ने सर सेठ साहब से पूछा- ‘क्या आप इस दीक्षा से संतुष्ट हैं ?' उन्होंने कहा- ‘इसका जवाब मैं ५/६ दिन बाद दे पाऊँगा। पश्चात् उन्होंने भी विद्याधर को परखना प्रारंभ कर दिया। और जब उन्होंने ब्रह्मचारी विद्याधर की प्रातः तीन बजे से लेकर रात्रि ग्यारह बजे तक की दिनचर्या देखी- जो अभी मुनि नहीं है, पर मुनि-सी साधना देख वह भी प्रभावित हुए बिना न रह सके और एक दिन प्रवचन मंच से उन्होंने उद्घोष किया- ‘मेरी परीक्षा में ब्रह्मचारी विद्याधर पूर्णतया पास हो गए हैं। आज मैं मुक्त कंठ से घोषणा करता हूँ कि वह दिगंबर मुनि दीक्षा के सर्वतः योग्य पात्र हैं। इसके लिए सकल जैन समाज अजमेर को भव्य तैयारियाँ करनी चाहिए।' सोनीजी की परीक्षा में पास और उन्हीं के मुख से विश्वास के साथ दीक्षा की घोषणा को सुनकर वहाँ उपस्थित प्रत्येक व्यक्ति की आँखों से आँसू बह निकले। तालियों की गड़गड़ाहट एवं गुरुवर श्री ज्ञानसागरजी महाराज की जयकारों से सभा पूँज उठी। दीक्षा का पहुँचा तार, परिवार हुआ बेहाल - दीक्षा का निर्णय हो जाने पर प्राय:कर दीक्षार्थी अपने परिवार से अनुमति लेने घर जाते हैं। पर ‘विद्याधर' ने तो गुरुचरणों में पहुँचते ही सवारी का त्याग कर दिया था। अब उनके घर जाने का प्रसंग ही उपस्थित नहीं था। अतः समाज ने तार (टेलीग्राम) द्वारा सदलगा समाचार भेजा, जो २६ जून १९६८ के दिन सदलगा पहुँचा। महावीर भैया तार पढ़कर अवाक् रह गए। जिसकी किसी ने कल्पना नहीं की थी, ऐसी सूचना सुनते ही अन्नाजी अशांत हो उठे। उन्हें विश्वास था- ‘विद्या घर आएगा, पहले भी तो एकदो बार साधु सेवा करने घर से बाहर गया था, फिर वापस भी आ गया था। इसीलिए अध्ययन पूर्ण कर वह जरूर लौटेगा।' वह मन ही मन बुदबुदाए कि धार्मिक विषयों में रुचि होने से वह अध्ययन करना ही तो चाह रहा है और अभी छोटा होने से घर की जिम्मेदारी भी उस पर नहीं है, यही सोचकर तो मैंने उसे संघों में खुशी-खुशी रहने दिया। वे एकदम गुस्से में भरकर बोले- ‘ऐसे कैसे कोई २१-२२ वर्ष के युवा को दीक्षा दे सकता है। परिवार की अनुमति के बिना दीक्षा कैसे दी जा सकती है ? जब अनुमति प्रदान करने ही घर से कोई नहीं जाएगा, तब कैसे दीक्षा होगी उसकी ?' घर के मुखिया श्री मल्लप्पाजी अष्टगे ने आदेश जारी कर दिया- ‘कोई कहीं नहीं जाएगा।' अक्का (माँ) स्वयं को न रोक सकी, और पुत्र वियोग का स्वर माँ के हृदय की करुण पीर बन आँखों के नीर द्वारा निकल पड़ा। बोली माँ- ‘पीलू ऐसा नहीं कर सकता। कम से कम माँ से एक बार तो कहा होता। माँ के बिना जहाँ एक पल भी नहीं रहता था, बिना पूछे एक कदम नहीं चलता था, वहीं अब बिन पूछे, बिन कहे हमेशा-हमेशा के लिए माँ को कैसे छोड़ सकता है। सब कुछ मन ही मन में पीने वाली माँ का धैर्य आज हार गया। माँ आगे बोली- ‘हम कहते-कहते थक गए कि एक बार जाकर पीलू को ले आओ। बहुत दिन होते जा रहे हैं, एक बार उसको बुला लाओ। पर हमारी सुनता कौन है ? सब कहते रहे कि वह आ जाएगा-आ जाएगा, पढ़ने ही तो गया है। और... अब...। कोई तो जाकर पीलू को ले आए...।' माँ का करुण स्वर सुनकर छोटे-छोटे भाई-बहन भी अपने भाई के वियोग में रोने लगे। किसी को कुछ भी सूझ नहीं रहा था। रोने का स्वर सुनकर आस-पड़ोस के लोग घर पर आने लगे। पूरे गाँव में खबर फैल गई। सभी का मन सूना हो गया। सब यह सोचकर परेशान थे कि दीक्षा हो जाने पर विद्या फिर कभी सदलगा नहीं आएगा। पर एक अन्नाजी थे, जिन्हें यह समाचार अभी भी मिथ्या (असत्य) लग रहा था। उन्हें अभी भी विश्वास था कि परिवार की अनुमति के बिना दीक्षा हो ही नहीं सकती। उनके अंदर ही अंदर द्वंद्व चल रहा था- ‘मैंने क्यों विश्वास किया कि वह आ जाएगा, श्रीमंती के बार-बार कहने पर भी उसे लेने क्यों नहीं गया। पकड़कर-बाँधकर ला सकता था उसे, फिर क्यों नहीं लाया। पर अब गलती नहीं करूंगा दीक्षा की स्वीकृति देने कदापि नहीं जाऊँगा और न ही किसी को भेजूंगा....... उसे घर आना ही होगा।' ऐसे अनेक विचार अन्नाजी के मन को आंदोलित करने लगे। उनका पुत्र सुमेरु के समान अचल है, इस बात से अनजान, अपने निर्णय पर अडिग अन्नाजी ने किसी को भी अजमेर जाने की अनुमति प्रदान नहीं की महावीर भैया को विद्याधर के द्वारा मारुति के लिए भेजे गए पत्रों की थोड़ी-थोड़ी जानकारी मिलती रहती थी, जिससे उन्हें लग रहा था कि यह सूचना मिथ्या नहीं हो सकती। पर अन्नाजी से यह कह पाना संभव नहीं था, क्योंकि इस समय वह कुछ भी सुनने या समझने की स्थिति में नहीं थे। अतः महावीर भैया ने घर पर बिना बताए ही अजमेर जाने का निर्णय किया और २७ जून, १९६८ को वे अपने चचेरे भाई के बेटे- मल्लू को साथ लेकर अजमेर के लिए निकल पड़े। अन्नाजी-अक्काजी एवं सभी भाई-बहनों का यहाँ हाल, बेहाल हो रहा था। न तो भोजन बनाने की सुध थी और न ही खाने की। एकडेढ़ माह तक तो समय पर भोजन ही नहीं बना। बन गया तो बन गया, नहीं तो थोड़ा बहुत कुछ खापीकर दिन निकलने लगे। ऐसा लगने लगा जैसे घर पर कोई रहता ही नहीं हो। सब आपस में मानो अपरिचित हों। पहले भी तो विद्या घर पर एक वर्ष से नहीं था, पर तब उसके आने की उम्मीद थी, लेकिन अब तो जैसे सब कुछ खत्म-सा हो गया था। शांता-सुवर्णा के आँसू थमना नहीं चाह रहे थे। सबको सब जगह ‘विद्या' ही ‘विद्या' नज़र आने लगे। अब उन्हें इलायची वाला दूध बनाना अखरने लगा, यह तो विद्या भैया को पसंद था। अनंतनाथशांतिनाथ सभी को भैया की कही एक-एक बात यादों में आकर कानों में ध्वनि पैदा करने लगी। एक बार अन्नाजी जब सोलापुर जा रहे थे, तब विद्या भैया ने उनसे कढाई से ‘सुखी जीवन' लिखा वाला चादर लाने को बोला था। और अन्नाजी भी एक की जगह छह चादर लाए थे। विद्या भैया ने अपनी चादर पर निशान बनाकर उसे अलग रख लिया था। वह किसी भी भाई-बहन के बिस्तर का उपयोग नहीं करते थे। इस तरह पल-पल की यादें पल-पल की वेदना बन गई थीं। एक माह तक तो अन्नाजी से कुछ भी बात कह पाना कठिन हो गया था। यहाँ परिवार का वातावरण एकदम अशांत एवं हलचल पूर्ण हो गया था। वहाँ महावीर भैया दो दिन की यात्रा पूर्ण कर अजमेर पहुँचने वाले थे। दीक्षा पूर्व की तैयारी - यहाँ अजमेर में सर सेठ साहब के नेतृत्व में दीक्षा की तैयारियाँ ज़ोर-शोर से होने लगीं। सम्पूर्ण अजमेर में स्थान-स्थान पर स्वागत-द्वार बनाए गए। दीक्षा समारोह के लिए आकर्षक एवं विशाल सभा मंडप का निर्माण किया गया। श्रमण संस्कृति को प्रकाशित करने वाले सुंदर-सुंदर वाक्य लिखे गए। दीक्षा की तैयारी में आबाल-वृद्ध रम गए। उस समय अजमेर नगर की सुंदरता ऐसी लग रही थी मानो भगवान् ऋषभदेव के जन्म के समय देवों द्वारा सजाई गई अयोध्या नगरी ही हो। जैन समाज में मुनि दीक्षा के प्रति विशेष जिज्ञासा व्याप्त हो गई। हाथी पर निकलेगी सवारी - सरस्वती के भंडार मुनि श्री ज्ञानसागरजी के कानों में दीक्षा की तैयारियों की चर्चा पहुँच गई। उन्होंने मुस्कराकर सहज ही पूछ लिया- ‘राजकुमार तो हाथी पर चलते हैं, तुम्हारे राजकुमार किस पर चल रहे हैं ?' समाज को संकेत समझते देर न लगी। फिर क्या था, समाज उत्साह से भर गई। और निश्चय किया कि बाल ब्रह्मचारी विद्याधर को राजकुमार की तरह सजाकर हाथी पर बैठाकर ही बिनौली निकालनी है। विद्याधर तो विद्याधर थे। पूर्व का कमाया हुआ पुण्यरूपी मित्र उनके साथ था। अजमेर में उसी समय एक सर्कस आया हुआ था। यद्यपि सर्कस वालों से बिनौली हेतु छः दिन के लिए हाथी लेना सहज न था। फिर भी इसके लिए छगनलालजी पाटनी ने कांग्रेस के प्रमुख व्यक्ति श्री केसरीचन्दजी चौधरी ओसवाल से चर्चा की। वह बोले- हमारे पास हाथी कहाँ ?' उन्हें बताया कि सर्कस आया है। वह तब छगनलालजी को पुलिस सुपरिटेंडेंट के पास ले गए। पुलिस सुपरिटेंडेंट ने हँसकर कहा- ‘हाथी हमारी जेब में थोड़े ही है।' चौधरीजी बोले- ‘आपकी जेब में ही है। आपकी अनुमति के बिना सर्कस वाले शहर में बँटा भी नहीं गाड़ सकते।' उन्होंने आश्वासन दिया कि मैं कोशिश करता हूँ।' इस तरह माणिकचन्दजी सोगानी, अध्यक्ष राजस्थान कांग्रेस कमेटी एवं सेल्सटेक्स ऑफीसर मदनलालजी काला आदि के सहयोग से हाथी मिलने की स्वीकृति हो गई। अब हाथी पर निकलेगी राजकुमार विद्याधर की सवारी। आज से ५० वर्ष पूर्व कुछ ही समय में हाथी की व्यवस्था लगाना कोई सहज न था, पर विद्याधर के पुण्य एवं जैन समाज, अजमेर के पुरुषार्थ से मुनि श्री ज्ञानसागरजी का आशीर्वाद सफलीभूत हुआ। श्रृंगार से किया इंकार - जब बिनौली निकलने को हुई तब सेठ भागचंदजी सोनी ने ब्रह्मचारीजी से निवेदन किया कि वह आज सेरवानी मोडतुर्ग लगाकर राजशाही वेशभूषा में हाथी पर विराजमान होवें, जिससे बिनौली की शोबा और बड जाएगी | ब्रह्मचारीजी बोले - ‘जब हम पूरे कपड़े ही छोड़ रहे हैं, तो और कपड़े पहनें ही क्यों ? सेठ साहब ने गुरु महाराज से भी कहा। पर ब्रह्मचारीजी मौन रहे। उन्होंने राजशाही वेश-भूषा को स्वीकार नहीं किया, तब सोनीजी ने अपनी हवेली से सोने-चाँदी के हार, मुकुट लाकर बड़ी नम्रता पूर्वक दीक्षार्थी को पहना दिए। इसके लिए ब्रह्मचारीजी मना न कर सके। सफेद धोती-दुपट्टे में सोने-चाँदी के हार मुकुट एवं तिलक से सजे-धजे दीक्षार्थी राग से विराग की कहानी कह रहे थे। बिनौली के छह दिन - बिनौली अजमेर नगर के स्थान-स्थान से निकाली गई। विद्याधर को राजकुमार की भाँति सजाया गया। विद्याधर तो विद्याधर, जिस हाथी पर उन्हें बैठाना था उस हाथी को भी समाज ने जीभरकर सजाया था। इसी बीच जब विद्याधर को सजाया जा रहा था, तब किसी श्रावक ने मुनि श्री ज्ञानसागरजी महाराज से पूछ लिया- ‘महाराज! आपकी भी बिनौली निकली थी ?' महाराज हँसकर बोले- ‘क्या बूढ़ों की भी बारात निकलती है ?' मुनि दीक्षा के समय गुरुवर श्री ज्ञानसागरजी लगभग ६८ वर्ष के थे, एवं उनकी क्षुल्लक, एलक आदि दीक्षाएँ क्रमशः हुई थीं। अजमेर का वातावरण एकदम प्रशस्त बन गया था। ब्रह्मचारी विद्याधर की बिनौली २५ जून से ३० जून तक छह दिन लगातार अजमेर नगर के विभिन्न स्थानों से सायं ७ बजे से निकाली जाती थी। जून, दीक्षा के दिन प्रातः ७.३० पर निकाली गई थी। बिनौली निकालने का सौभाग्य २५ जून को सेठ मिश्रीलाल, मीठालालजी पाटनी को, २६ जून को सेठ राजमल मानकचन्द चाँदीवालजी को, २७ जून को सेठ पूरणलालजी गदिया वालों को, २८ जून को सेठ माँगीलाल रिखभदासजी बड़जात्या (फर्मनेमीचंद, शांतिलाल बड़जात्या) को, २९ जून को समस्त दिगम्बर जैन जैसवाल पंचायत केसरगंज वालों को एवं ३० जून जिस दिन दीक्षा थी, उस दिन प्रात:काल की बिनौली का महान् सौभाग्य सेठ श्री हुकुमचंदजी दोसी को प्राप्त हुआ था। दिगम्बर एवं श्वेताम्बर जैन समाज सभी में बिनौली निकालने के समय का उत्साह गज़ब का था। अजमेर की गलियों में पैर रखने की जगह शेष न थी। अजमेर की जनता ने दीक्षोन्मुख ब्रह्मचारी विद्याधरजी को जब ट्यूबलाइटों से घिरे हुए हाथी पर अपनी सादी पोशाक, धोती और दुपट्टे में हार, मुकुट से सजे वीतरागता की ओर अग्रसर होने वाली मुद्रा में देखा, तो वह वाह-वाह कर उठी। इस तरह विद्याधर के उद्बोधन एवं सर सेठ साहब की घोषणा से विरोध के बादल हट जाने से हर्ष एवं उत्साह की घटाएँ भर आई थीं। पाँचवें दिन तो बिनौली के लिए एक नहीं, सात-सात हाथी लाए गए। तीन सर्कस के और चार हाथी जयपुर से बुलवाए गए थे, जो विशेष आकर्षण के केन्द्र बन गए थे। दीक्षा के दिन प्रात:काल तो ९ हाथी, ११ घोड़े, ११ बग्घियाँ,५ ऊँट,७ बैण्ड टोलियाँ एवं५ ढोल-नगाड़े की टोलियाँ शोभायात्रा में शोभा बढ़ा रही थीं। इस अवसर पर बिनौली में भेंट स्वरूप ढाई हजार रूपए प्राप्त हुए थे, जिनका उपयोग शास्त्र प्रकाशन में करने का निर्णय लिया गया। महावीर भैया बने दीक्षा के साक्षी - २९ जून की शाम को आठ बजे महावीर भैया, मल्लू भैया के साथ अजमेर पहुँच जाते हैं, और विद्याधर भैया की शाम को निकलने वाली अंतिम बिनौली देखने का सौभाग्य प्राप्त कर | लेते हैं। जिस समय वह अजमेर में सोनीजी की नसिया का पता लगा रहे थे, तभी नसियाजी के पास वाले तिराहे से एक विशाल जुलूस निकल रहा था। उसमें हजारों-हजार लोगों की भीड़, सजी-धजी बग्घियाँ, हाथी, घोड़ा, ऊँट आदि की सवारी, नगाड़े, बैण्ड पार्टियाँ एवं रंगबिरंगे जलते हुए ट्यूबलाइट और गैस बत्ती के लैम्प सड़क के दोनों ओर से जुलूस के आगे-आगे चल रहे थे। महावीर भैया एवं मल्लू भैया दोनों एक चबूतरे पर चढ़कर उस जुलूस को देखने लगे। जुलूस की भव्यता देख उन्होंने एक व्यक्ति से पूछा- “यह क्या हो रहा है ?' उत्तर मिला-‘बिनौली निकल रही है। वह बिनौली नहीं समझते थे। उन्हें तो ऐसा लग रहा था जैसे किसी राजा-महाराजा के यहाँ की बारात निकाली जा रही हो। पर तभी हाथी पर अपने प्यारे-लाड़ले छोटे भाई को सजे-धजे रूप में बैठे देखा, तो अचंभित रह गए। और स्वयं को भी नाचती-गाती टोली में शामिल होने से नहीं रोक पाए। तभी विद्याधर की दृष्टि महावीर भैया द्वारा पहनी हुई ‘गाँधी टोपी' पर पड़ी।‘गाँधी टोपी' देखकर वह उस भीड़ में भी अपने बड़े भैया को पहचान गए। और अपने पीछे बैठे पंडित श्री विद्याकुमारजी सेठी को इशारे से बताया कि महावीर भैया आ गए। पंडितजी ने उन्हें अपने साथ उसी हाथी पर बैठा लिया। ‘गुरु एवं शिष्य' से महावीर भैया की वार्ता - बिनौली के बाद महावीर भैया एवं मल्लू भैया दीक्षार्थी विद्याधर भैयाजी के साथ गुरुवर श्री ज्ञानसागरजी के कक्ष में गए। वहाँ उपस्थित श्रावकों ने गुरुवर को उनका परिचय दिया। गुरुवर ने खुश होकर उनके सर पर पिच्छी से आशीर्वाद दिया। और विद्याधर की ओर देखकर इशारे से कहा- ‘इन्हें लेने आए हो ?' महावीर भैया ने हाथ जोड़कर कहा- ‘हाँ माता-पिता ने हमें इनको एक बार घर ले जाने के लिए ही भेजा है।' मुस्करा उठे गुरुवर और इशारे से कहा- ‘वह जाए, तो ले जाओ उसे।' महावीर भैया ने बिना अवसर गंवाए पास में बैठे विद्याधर को कन्नड़ भाषा में समझाना शुरू कर दिया। घर की सारी स्थिति बताई, सब तरह से समझाया और अंत में कहा- ‘बस एक बार माता-पिता के पास चलो, फिर जो निर्णय करना हो सो कर लेना।' ब्रह्मचारी विद्याधर बोले- “देखो भैया! मैं पिताजी का स्वभाव जानता हूँ। मैं तो आपके भरोसे ही घर से निकला हूँ, आप घर के मुखिया हैं, इसलिए माता-पिता एवं भाई-बहनों का ध्यान रखना। अंत में बोले- ‘इसी मुनि वेश से ही इस जीवन को अंतिम विदाई देना है। मुनि बनकर ही इस भव से पार होना है। यह सब सुनकर महावीर भैया मौन हो गए। और करुण दृष्टि से गुरुवर की ओर देखने लगे। गुरुवर ने सांत्वना रूप में कुछ भाव इशारे में व्यक्त किए, जिन्हें महावीर भैया न समझ सके। तब विद्याधर भैया ने उसे स्पष्ट करते हुए कहा- ‘भैया! गुरुवर कह रहे हैं कि प्रत्येक जीव अपना आत्म कल्याण करने के लिए स्वतंत्र है।' महावीर भैया मौन बने रहे, और करते भी क्या। क्योंकि भाई का वैराग्य तो सुमेरु की तरह अचल था। उपसंहार एक सच्चे मोक्षपिपासु ने अपनी वर्तमान पर्याय का लक्ष्य जैनेश्वरी श्रमण दीक्षा को प्राप्त करना बना लिया था। अब वह अपने लक्ष्य के अधिक निकट पहुँच चुका था। एक भव्य जीव जब जैनेश्वरी श्रमण दीक्षा अंगीकार करता है, तब गुरुदेव उसके उत्तमांग (मस्तक) पर दीक्षा संस्कार करते हैं। उन संस्कारों में साधु के मूलगुणों को भी दीक्षार्थी में प्रत्यारोपित कर दिया जाता है। इससे उनके चारों ओर एक चक्र बना जाता है, जिसके बाहर गमन करना नहीं होता। आपके आहार, विहार, निहार यहाँ तक कि विचार के प्रति एक संयम की रेखा खीचीं गई होती है, जो बंधन रूप नहीं, अवलंबन रूप हुआ करती है। जिस तरह बेल को बाँधकर लकड़ी का सहारा देकर ऊर्ध्वगामी बना दिया जाता है, उसी प्रकार संयम (चारित्र) का बंधन देकर शुद्ध भावों के सहारे श्रमण ऊर्ध्वगामी होकर अपने मोक्षरूपी लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। जिस प्रकार लगाम लगाने के बाद भी घोड़े की दोनों आँखों की तरफ़ सायवान (पट्टा) लगा दिया जाता है, ताकि उसे सिर्फ़ सामने का रास्ता ही दिखे, इधर-उधर न दिखे। उसी प्रकार सम्यग्दर्शन होने के बाद उसकी सुरक्षा के लिए सम्यक्चारित्र की आवश्यकता होती है, जिससे स्वच्छन्द न हों एवं दृष्टि बिल्कुल सुदृढ़ बनी रहे। ब्रह्मचारी विद्याधर अपने सम्यक्त्व को सुरक्षित रखने हेतु अपनी आत्मा का ऊर्ध्वगमन कराने की तीव्र भावना को हृदय में सँजोए जैनेश्वरी दीक्षा की प्राप्ति हेतु विशाल जुलूस के साथ कार्यक्रम स्थली की ओर प्रस्थान करते हैं। वैराग्य ऐसा घर है, जिसमें किसी भी व्यवस्था की आवश्यकता नहीं पड़ती। एक बार वैराग्य हो गया, तो बंधन छूट जावेगा। और बंधन नहीं रहा, तो फिर मुक्ति हो जावेगी।
  9. ज्ञानाष्टक इस भद्र भारतवर्ष में, थे ज्ञान में नेता गुरू। इस लोक में सबसे अधिक, स्वाधीनता रखते गुरू॥ स्वाधीनता ही सन्त का, भूषण बना इस लोक में। इस लोक में परलोक में, सब लोक में दिखते गुरू ॥१॥ थे ज्ञानासागर पूज्य गुरुवर, आन जिनकी ज्ञान थी। उन ज्ञान ने उस ज्ञान से, ज्योति जगायी ज्ञान थी। जिस ज्योति ने लाखों जगायी, ज्योतियाँ अब ज्ञान की। जलती रहेगी ज्योति नित, अब ज्ञान की उर ध्यान की ॥ २ ॥ जिनके न मन में राग था, न द्वेष रखते थे कभी। उनके चरण में ढोक देते, आर्य जन तो आज भी॥ आजाद थे आजाद वे कल आज भी आजाद हैं। मैं भी करूं बन्दन उन्हीं का, ज्ञानधारी ज्ञान हैं॥ ३ ॥ फैली जगत की भ्रान्तियों का, आप हो निरसन किये। भारत में सोये ज्ञान की, ज्योति जगाकर चल दिये। | होते कहीं जो आज गुरुवर, देश के भू-भाग में । तो देश का कुछ और का कुछ और होता वेश था॥ ४॥ वे सौम्य मुद्रा ज्ञान गुरुवर, ज्ञानधारी ये रहे। कोई विषय उनसे छिपा हो, बात ऐसी न कहे ।| हस्तामलक वत ही उन्हें, सारा विषय प्रत्यक्ष था। कोई कहीं से पूछ जाये, पर न पारावार था॥५॥ ऐसे गुरु की ज्ञान महिमा, वाणी कहे थकती नहीं। महिमा कहूं कहता चलू, कहता रहूं, गुरु आपकी॥ मेरे हृदय में बसे रहे, वो ज्ञान के सागर गुरु। जग में तुम्हारा नाम होवे, काम होवे मम गुरु ॥ ६ ॥ साधु तुम्हारी लोक में करते प्रशंसा नित्य है। जो ज्ञान में उर ध्यान में, तल्लीन तत्पर नित्य हैं। इस लोक में परलोक में, जयवन्त गुरुवर ज्ञान हो। ऐसी हमारी भावना, शिव लोक में जयवन्त हो ॥ ७ ॥ वे ही चरण हैं वास करते, नित्य ही इस दास में। उस वास से इस 'दास' में आती नयी है चेतना ॥ हे ज्ञानासागर मम गुरुवर, आये थे तारण तरण। जय हो तुम्हारी प्राण प्यारे, ज्ञानासागर, ज्ञानासागर ॥ ८ ॥
  10. महाराजा रामसिंह महाराजा रामसिंह जयपुर स्टेट के एक प्रसिद्ध भूपाल हो गये हैं। जो कि एक बार घोड़े पर बैठकर अकेले ही घूमने को निकल पड़े। घूमते-घूमते बहुत दूर जंगल में पहुँच गये तो दोपहर की गर्मी से उन्हें प्यास लग आई। एक कुटिया के समीप पहुँचे जिसमें बुढ़िया अपनी टूटी सी चारपाई पर लेटी हुयी थी। बुढ़िया ने जब उन्हें अपने द्वार पर आया हुआ देखा तो वह उनके स्वागत के लिए उठ बैठी और उन्हें आदर के साथ चारपाई पर बैठाया। राजा बोले कि माताजी मुझे बड़ी जोर से प्यास लग रही है अत: थोड़ा पानी हो तो पिलाइये। बुढिया ने अतिथि सत्कार को दृष्टि में रखते हुए उन्हें निरा पानी पिलाना उचित न समझा। इसलिये अपनी कुटिया के पीछे होने वाले अनार के पेड़ पर से दो अनार तोड़कर लायी और उन्हें निचोड़ कर रस निकाला तो एक डबल गिलास भर गया जिसे पीकर राजा साहब तृप्त हो गये। कुछ देर बाद उन्होंने बुढ़िया से पूछा- तुम इस जंगल में क्यों रहती हो तथा तुम्हारे कुटुम्ब में और कौन हैं? जवाब मिला कि यहां जंगल में भगवान भजन अच्छी तरह से हो जाता है। मैं हूं और मेरे एक लड़का है जो कि जलाने के लिये जंगल में लकड़ियां काट लाने को गया हुआ है। यह जमीन जो मेरे पास बहुत दिनों से है पहले ऊसर थी अतः सरकार से दो आने बीघे पर मुझे मिल गई थी। जिसको भगवान के भरोसे पर परिश्रम करके हमने उपजाऊ बना ली है। अब इसमें खेती कर लेते हैं जिससे हम दोनों मां बेटों का गुजर बसर हो जाता है एवं आए हुए आप सरीखे पाहुणे का अतिथि सत्कार बन जाता है। यह सुन राजा का मन बदल गया। सोचने लगे ऐसी उपजाऊ जमीन क्यों दो आने बीघे पर छोड़ दी जाये। बस फिर क्या था उठकर चल दिये और जाकर दो रुपये बीघे का परवाना लिखकर भेज दिया। अब थोड़े ही दिनों में अनार के जो पेड़ उस खेत में लगाये हुए थे वे सब सूखे से हो गये और वहां पर अब खेती की उपज भी बहुत थोड़ी होने लगी। बुढ़िया बेचारी क्या करें लाचार थी। कुछ दिन बाद महाराज रामसिंह फिर उसी घोड़े पर सवार होकर उधर से आ निकले। बुढ़िया बेचारी क्या करें लाचार थी। कुछ दिन बाद महाराज रामसिंह फिर उसी घोड़े पर सवार होकर उधर से आ निकले। बुढ़िया की कुटिया के पास आ ठहरे तो बुढ़िया उनका सत्कार करने के लिये पेड़ पर से अनार तोड़कर लाई परन्तु उन्हें बिंदाकर देखा तो बिल्कुल शुष्क, काने कीड़ोंदार थी। अतः उन्हें फेंक कर और अच्छे से फल तोड़कर लाई तो उनमें से भी कितने ही तो सड़े गले निकल गये। तीन चार फल जरा ठीक थे। उन्हें निचोड़ा तो मुश्किल से आधा गिलास रस निकल पाया। यह देखकर महराज रामसिंह झट से बोल उठे कि माताजी ! दो तीन वर्ष पहले जब मैं यहां आया था तो तुम्हारे अनार बहुत अच्छे थे, दो अनारों में से ही भरा गिलास रस का निकल आया था। अब की बार यह क्या हो गया? बुढ़िया ने जवाब दिया कि असवारजी! क्या कहूं? निगोड़े राजा की नीयत में फर्क आ गया, उसी का यह परिणाम है। उसे क्या पता था कि जिससे मैं बात कर रही हूं वह राजा ही तो है। वह तो उन्हें एक साधारण घुड़सवार समझकर सरल भाव से ऐसा कह गई । राजा समझ गये कि बुढ़िया ने अपने परिश्रम से जिस जमीन को उपजाऊ बनाया था उस पर तुमने अपने स्वार्थवश हो अनुचित कर थोप दिया, यह बहुत बुरा किया। बन्धुओ! जहां सिर्फ जमीनदार की बुरी नियत का यह परिणाम हुआ वहां आज जमीनदार और काश्तकार दोनों ही प्राय: स्वार्थवश हो रहे हैं। ऐसी हालत में जमीन यदि अन्न उत्पन्न करने से मुंह मोड़ रही है तो इसमें आश्चर्य ही क्या है? हम देख रहे हैं कि हमारे बाल्यजीवन में जिस जमीन में पच्चीस-तीस मन बीघे का अन्न पैदा हुआ करता था वही आज प्रयत्न करने पर भी पांच छ: मन बीघे से अधिक नहीं हो पाता है। जिस पर भी आये दिन कोई न कोई उपद्रव आता हुआ सुना जाता है। कहीं पर टिड्डियां आकर खेत को खा गई तो कहीं पानी की बाढ़ आ गई या पाला पड़कर फसल नष्ट हो गई इत्यादि यह सब हम लोगों की ही दुर्भावनाओं का ही फल है। यदि हम अपने स्वार्थ को गौण करके सिर्फ कर्तव्य समझकर परिश्रम करते रहे तो ऐसा कभी नहीं सकता।
  11. मौत क्या चीज है? एक सेठ था जिसके पूर्वोपार्जित पुण्य के उदय से ऐहिक सुख की सब तरह की साधन-सामग्री मौजूद थी। अतः उसे यह भी पता नहीं था कि कष्ट क्या चीज होती है? उसका प्रत्येक क्षण अमन चैन से बीत रहा था। अब एक रोज उसके पड़ोसी के यहां पुत्र जन्म की खुशी में गीत गाये जाने लगे जो कि बड़े ही सुहावने थे, जिन्हें सुनकर उस सेठ का दिल भी बड़ा खुश हुआ। परन्तु संयोगवंश थोड़ी देर बाद ही वह बच्चा मर गया तो वहां पर गाने के स्थान पर छाती और मूड कूट-कूट कर रोया जाने लगा। जिसे सुनकर सेठ के मन में आश्चर्य हुआ। अतः उसने अपनी माता से पूछा कि मैया यह क्या बात है? थोड़ा देर पहिले जो गाना-गाया जा रहा था वह तो बहुत ही सुरीली आवाज में था मगर अब जो गाना गाया जा रहा है वह तो सुनने में बुरा प्रतीत हो रहा है। | माता ने कहा, बेटा! यह गाना नहीं किन्तु रोना है। थोड़ी देर पहिले जिस बच्चे के जन्म की खुशी में गीत गाये जा रहे थे वही बच्चा अब मर गया है जिसे देखकर उसके घर वाले अब रो रहे हैं सेठ दोड़ा और जहां वह बच्चा मरा हुआ पड़ा था तथा लोग रो रहे थे वहां गया। उसने उस मरे हुए बालक को देखा और खूब गौर से देखा। देखकर वह बोला कि क्या मरा है? इसका मुंह, कान, नाक, हाथ, आंखे और पैर आदि सभी तो ज्यों का त्यों है फिर आप लोग रो क्यों रहे हैं ? तब उन रोने वालों में से एक आदमी कहने लगा कि सेठ साहब आप समझते नहीं हो, तुमने दुनिया देखी नहीं है इसीलिये ऐसा कहते हो। देखो अपने लोगों का पेट कभी ऊंचा होता है और कभी नीचा लेकिन इसका नहीं हो रहा है। अपनी छाती धड़क रही है परन्तु इसकी छाती में धड़कन बिल्कुल नहीं है। मतलब कि हम लोगों के इन जिन्दा शरीरों में एक प्रकार की शक्ति है। जिससे कि जीवन के सब कार्य सम्पन्न होते हैं जिसका कि नाम है आत्मा। वह आत्मा इसके शरीर में नहीं रही है अत: यह मुर्दा यानी बेकार हो गया है। हम लोगों के शरीर में से वह निकल जाने वाली है सो किसी की दो दिन पहले और किसी की दो दिन पीछे अवश्य निकल जावेगी एवं हमारे ये शरीर भी इसी प्रकार मुर्दा बन जावेंगे, मौत पा जावेंगे। आत्मा जिसका कि वर्णन ऊपर आ चुका है जिसके कि रहने पर शरीर जिन्दा और न रहने पर मुर्दा बन जाता है और वह आत्मा अपने मूल रूप में सास्वत है, कभी भी नष्ट होने वाली है और अमूर्तिक है उसमें न तो किसी प्रकार का काला पीला आदि रूप है, न खट्टा मीठा, चरपरा आदि कोई रस है। न हलका भारी, रूखा, चिकना, ठण्डा गरम और कड़ा या नरम ही है। न खुशबूदार या बदबूदार ही है। हां सिर्फ चेतनावान है, हरेक चीज के गुण दोषों पर निगाह करने वाला है। जिसमें अवगुण समझता है उनसे दूर रहकर गुणवान के पीछे लगे रहना चाहता है। यह इसकी अनादि की टेव है जिसकी वजह से नाना तरह की चेष्टाएं करने लग रहा है। उन चेष्टाओं का नाम ही कर्म हे। उन कर्मों की वजह से ही शरीर से शरीरान्तर धारण करता हुआ चला आ रहा है, इसी का नाम संसार चक्र है। संसार चक्र में परिभ्रमण करता हुआ आत्मा इतर जीवात्मा को कष्ट देने वाला बनकर नरक में जन्म लेता है तो वहाँ स्वयं अनेक प्रकार के घोर कष्ट सहन करता है। अपने ऐश आराम की सोचते रहकर छल वृत्ति करने वाला पशु या पक्षी बनता है तो वहां अपने से अधिक बलशाली अन्य प्राणियों द्वारा बञ्चना पूर्वक कष्ट उठाता है। हां, अगर औरों के भले की सोचता है तो उसके फलस्वरूप स्वर्ग में जन्म लेकर सुख साता का अनुभव करने वाला बनता है। परन्तु संतोष भाव से अपना समय बिताने वाला मानव बनता है। इस मानव जन्म में अपने आपके उद्धार का मार्ग यदि वह चाहे तो ढूंढ निकाल सकता है। लेकिन अधिकांश जीवात्मा तो मानव जन्म पाकर भी मोह माया में ही फंसे रहते है। इस शरीर के संबंधियों को अपना संबंधी मानकर मानकर उनमें मेरामेरा करने वाला और बाकी के दूसरों को पराये मानकर उनसे नफरत करने वाला होकर रहता है। कोई विरला ही जीव ऐसा होता है जो कि शरीर से भी अपने आप (आत्मा) को भिन्न मानता है एवं जब कि आप इस शरीर से तथा इतर सब पदार्थों से भी भिन्न है। ऐसी हालत में पराये गुण दोषों पर लुभाने से क्या हानि लाभ होने वाला है। पराये गुण दोष पर में होते हैं उनसे इसका क्या सुधार बिगाड़ हो सकता है? क्यों व्यर्थ ही उनके बारे में संकल्प विकल करके अपने उपयोग को भी दूषित बनावे? तटस्थ हो रहता है। उसके लिये फिर इस संसार में न कोई भी सम्पत्ति ही होती है और न कोई विपत्ति ही, वह तो सहज तथा सच्चिदानन्द भाव को प्राप्त हो रहता है। समता के द्वारा ममता को मिटा डालता है। क्षमा से क्रोध का अभाव कर देता है। विनीत वृत्ति के द्वारा मान का मूलोच्छेद कर फेंकता है। अपना तन, मन और वचन से प्राप्त किये हुये सरल भाव से कपट को पास में भी नहीं आने देता है और निरीहता के द्वारा लोभ पर विजय प्राप्त कर्म निजयी बन कर आत्मा से परमात्मा हो लेता है फिर सूके हुये घाव पर खरूंट की भांति उसका यह शरीर भी अपने समय पर उससे अपने आप दूर हो जाता है। आगे लिये फिर कभी शरीर धारण नहीं करना पड़ता। ॥ ॐ शान्ति॥ यही एक कर्त्तव्य है सुखी बने सब लोग। रोग शोक दुर्भोग का कभी न होवे योग । यही एक कर्तव्य है कहीं न हो संत्रास। किसी जीव के चित्त में, सब ले सुख की सांस । यही एक कर्तव्य है कभी न हो दुष्काल। भूप और अनुरूप भी सभी रहें खुशहाल। इति शुभं भूयात्
  12. समाधिकरण जिसने भी जन्म पाया है, जो भी पैदा हुआ है उसे मरना अवश्य होगा, यह एक अटल नियम है। बड़े-बड़े वैज्ञानिक लोग इस पर परिश्रम कर के थक लिये कि कोई भी जन्म लेता है तो ठीक, मगर मरता क्यों हैं? मरना नहीं चाहिये। फिर भी इस में सफल हुआ हो ऐसा एक भी आदमी इस भूतल पर नहीं दिख पड़ा रहा है। धन्वन्तरिजी वैष्णवों के चौबीस अवतारों में से एक अवतार माने गये हैं। कहा जाता है कि जहां वे खड़े हो जाते थे, वहां की जड़ी बूटियां भी पुकार-पुकारकर कहने लगती थीं कि मैं इस बीमारी में काम आती हूं, मैं अमुक रोग को जड़ से उखाड़ डालती हूं। मगर एक दिन आया कि धन्वन्तरि खुद ही इस भूतल पर से चल बसे । जड़ी बूटिया यहीं पड़ी रहीं और धन्वन्तरि शरीर त्याग कर चले गये, उनका औषधिज्ञान इस विषय में कुछ भी काम नहीं आया। मुसलमानों में भी लुकमान जैसे हकीम हुए हैं जो कि चौदह पीरों में से एक पीर कहे जाते हैं। मगर मौत आकर उनका भी लुकमा कर देगी। जैसे सिंह हिरण को और बाज तीतर को धर दबाता है, वैसे ही मौत मनुष्यों को एवं सभी शरीरधारियों को हड़प लेती है। वह कब किसको अपना ग्रास बनायेगी यह निश्चित रूप से हम तुम सरीखा नहीं जान सकता है। अनेक लोग मौत से बचने के लिए टोणा-टामण, जन्तर-मन्तर करते हैं। ताबीज बनाकर गले में बांधते हैं। फिर भी मौत अपना दाव नहीं चूकती, समय पर आ ही दबाती है। उससे बचने के लिए शरीरधारी के पास कोई चारा है ही नहीं। ऐसी हालत में समझदार आदमी मौत से डर कर क्यों भागे; और भाग कर जावे भी कहां, उसके लिए जगह भी कहां तथा कौन-सी है जहां कि वह उससे बचा रहे? हां, तो इसका क्या यह अर्थ है कि गले में अंगुली डाल कर मर जाना चाहिये? सो नहीं, क्योंकि ऐसा करना तो नर से नारायण बना देने वाले इस मानव शरीर के साथ विद्रोह करना है, चिन्तामणि रत्न को हथोड़े की चोट से बरबाद करना है। यह पहले दर्जे की बेसमझी है। परन्तु इसको किराये की कोठरी के समान समझते हुए रहना चाहिये। जैसे किसी को कुछ अभीष्ट करना हो और उसके पास अपना नियत स्थान न हो वह किसी किराये के मकान में रह कर अपने उस कार्य का साधन किया करता है। सिर्फ वहां पर रहकर अपना कार्य कर बताने पर दृष्टि रखता है, न कि उस मकान का मालिक ही बन बैठता है। मकान को तो मकानदार जब भी खाली करवाना चाहे करवा सकता है। यह उसे बेउजर खाली कर देने को तैयार रहता है। क्योंकि मकान उसका है। हां जब तक उसमें रहे यथा शक्य झाड़-पौंछ कर साफ-सुथरा किये रहे, यह उसकी समझदारी है। | जीवात्मा ने भी भगवान का भजन कर अपना कल्याण करने को इस शरीर रूपी कुटिया को अपना स्थान बनाया है तो इसमें रहते हुए इसके सम्मुख अनेक तरह के भले और बुरे प्रसंग आ उपस्थित होते हैं। उनमें से बुरे को बुरा मानकर उनसे दूर भागने की चेष्टा करना और भलों को भला मानकर उसके पीछे ही लगा रहना- उस उलझन में फंस जाना ठीक नहीं। किन्तु उन दोनों तरह के प्रसंगों में तटस्थ रूप से सुप्रसन्न होकर निरन्तर परम परमात्मा का स्मरण करते रहना चाहिये। फिर यह शरीर यदि कुछ दिन टिका रहे तो ठीक और आज ही नष्ट हो जावे तो भी कोई हानि नहीं, ऐसे सुप्रसिद्ध पुरुष के लिए मौत का कोई डर नहीं रह जाता, जिस मौत के नाम को सुन कर भी संसारी जीव थर-थर कांपा करते हैं।
  13. बड़ा दान यद्यपि आमतौर पर लोग एक रूपया देने वाले की अपेक्षा पांच रूपये देने वाले को और पांच देने वाले की अपेक्षा पचास तथा पांच सौ देने वाले को महान दानी कहकर उसके दान की बड़ाई किया करते हैं। मगर समझदार लोगों की निगाह में ऐसी बात नहीं है क्योंकि एक आदमी करोड़पति, अरबपति जिसकी अपने खर्च के बाद भी हजारों रूपये रोजाना की आमदनी है वह आड़े हाथ भी किसी को यदि सौ रूपये दे देता है तो उसके लिए ऐसा करना कौनसी बड़ी बात है। हां, कोई गरीब भाई दिन भर मेहनत मजदूरी करके बड़ी मुश्किल से कही अपना पेट पाल पाता है वह आदमी अपनी उन दो रोटियों में से आधी रोटी भी किसी भूखे को देता है तो वह उसका दान बड़ा दान है उसकी बड़ी महिमा है। वह महाफल का दाता होता है। एक समय की बात है, मैं कलकत्ते में काम किया करता था, वहां कांग्रेस का सालाना जलसा हुआ, जिसके अन्त में महात्मा गांधीजी ने कांग्रेस की सहायता करने के लिये आम जन के सम्मुख अपील रखी। जिसको लेकर किसी मकानदार ने अपना एक मकान कांग्रेस को दिया तो किसी धनवान ने लाख रूपये , किसी ने पचास हजार रूपये इत्यादि। इतने में एक खोचा मटिया आया और बोला कि महात्मा जी! मैं भी ये आठ आने पैसे जो कि दिन भर मुटिया मजूदरी करने से मुझे प्राप्त हुये हैं, देश सेवार्थ कांग्रेस के लिये अर्पण करता हूं। क्या करूं अधिक देने में असमर्थ हूं रोज मजदूरी करता हूं। और पेट पालता हूं मगर मैंने यह सोचकर कि देश सेवा के कार्य में मुझे भी शामिल होना चाहिये, यह आज की कमाई कांग्रेस की भेंट कर रहा हूं। मैं आज उपवास से रह लूंगा और क्या कर सकता हूँ? इस पर गांधीजी ने उस भाई की भूरि-भूरि प्रशंसा की थी और कहा था कि हमारे देश में जब ऐसे त्यागी पुरुष विद्यमान हैं तो फिर हमारे देश के स्वतंत्र होने में अब देर नहीं समझना चाहिये हमारे पुराने साहित्य में भी एक कथा आती है कि एक मेहनतिया था जो कि मेहनत करके उसके फलस्वरूप कुछ अनाज लाया और लाकर उसने उसे अपनी घरवाली को दिया ताकि वह उसे साफ सुथरा करके पीस कर उसकी रोटियां बना ले। औरत ने भी ऐसा ही किया। उसने उसकी मोटी-मोटी तीन रोटियां बनाई क्योंकि उसके एक छोटा बच्चा भी था। अत: उसने सोचा कि हम तीनों एक-एक रोटी खाकर पानी पी लेंवेगे। रोटियां बन कर जब तैयार हुई तो मरद के दिल में विचार आया कि यह कमाना और खाना तो सदा से लगा ही हुआ है और जब तक जिन्दगी है लगा ही रहेगा। हमारे बुजुर्गों ने बताया है कि कमा खाने वाले को कुछ परार्थ भी देना चाहिये तो आज तो फिर यह मेरे हिस्से की रोटी किसी अन्य भूखे को ही दे लू, मैं आज भूखा ही रह लूंगा। इतने ही में उसे एक मासोपवासी क्षीणकाय दिगम्बर परमहंस साधु दिखाई दिये। तो उन्हें देखकर वह बोला कि साधु जी ! प्रणाम, मेरे पास रूखी सूखी और बिना नोन की जौ की रोटी है मैं मनसा वाचा कर्मणा आपके लिए देना चाहता हूं। आइये और आप इसे खा लीजिये। साधु तो मन और इन्द्रियों के जीतने वाले होते हैं। सिर्फ इस शरीर से भगवद्भभजन बन जावे इस विचार को लेकर इसे चलाने के लिये कुछ खुराक दिया करते हैं। जिस पर भी उन के तो आज ऐसा ही अभिग्रह भी था। अत: उन्होंने उसकी दी हुई रोटी को अपने हाथों में ली और खड़े-खड़े ही मौनपूर्वक खा गये। इतने में औरत ने भी विचार किया कि ऐसे साधुओं के दर्शन कहां रखे हैं। हम लोगों का बड़ा भाग्य है ताकि हमारा रूखा-सूखा अन्न आज इनके उपयोग में आ रहा है। लड़के ने भी सोचा कि आहे! ये तो हम लोगों से भी गरीब दीख रहे हैं। जिनके शरीर पर बिल्कुल कपड़ा नहीं, खाने के लिये कोई पात्र नहीं, रहने को जिनका कोई घर नहीं, इनके काम में मेरी रोटी आ गई इससे भली बात और क्या होगी? इस पर देवताओं ने भी अहो! यह दान महादान है ऐसा कहते हुए आकाश में से फूल बरसाये तथा जय-जय कार किया, सो ठीक ही है। परमार्थ के लिये अपना सर्वस्व अर्पण कर देना ही मनुष्य जन्म पाने का फल है अन्यथा तो फिर स्वार्थ के कीच में तो सारा संसार ही फंसा हुआ दीख रहा है।
  14. दान का सही तरीका आपने ‘‘राजस्थान इतिहास' देखा होगा। वहां महान उदयन का वृत्तांत लिखा हुआ है। वह मननशील विद्वान था, परन्तु दरिद्रता के कारण उसके पैर जमीन पर नहीं जम सके थे। अत: वह नंगे पैर मारवाड़ के रेतीले मैदान को पार करते हुए बड़े कष्ट के साथ सिद्ध पुर पाटन तक पहुंच पाया। उसने दो दिन से कुछ भी नहीं खाया था और शरीर पर मैले तथा फटे कपड़ों को पहने हुए था। उसका नाते रिश्तेदार या परिचित तो था ही नहीं जो कि उसके सुख-दुःख की उसे पूछता। थोड़ी देर बाद वह एक जैन धर्मस्थान के द्वार पर जा बैठा। यद्यपि वहां पर धर्म साधन करने के लिए अनेक लोग आते थे और ईश्वरोपासना तथा धर्मोपदेश सुनकर के जा रहे थे जिनमें कितने ही श्रीमान लोग भी थे जिनके गले में सोने के आभूषण और शीश पर सुनहरे काम की पगड़ियाँ चमक रही थीं, जो कि अपनी नामवरी के लिये तिजोरी खोल कर पैसे को पानी की भांति बहाने वाले थे मगर गरीब मुसाफिर की तरफ कौन देखने वाला था? हाँ, थोड़ी देर बाद एक बहन जी आयीं, जिनका नाम लक्ष्मीबाई था। वह यथा नाम तथा गुण वाली थी। उसने उसी दिन उदयन को विकल दशा में बैठे देखा तो पूछा कि यहां पर किस लिये आये हो? जवाब मिला कि रोजी की तलाश में। बहनजी ने फिर पूछा कि क्या तुम्हारी जान पहचान का यहां पर कोई है? जवाब मिला कि नहीं। क्षण भर विचार कर बहनजी ने कहा कि भाई जी फिर कैसे काम चलेगा? बिना जान-पहचान के तो कोई पास में भी नहीं बैठने देता है, उदयन ने कहा बहनजी। कोई बात नहीं, मैं तो अपने पुरुषार्थ और भाग्य पर भरोसा करके यहां पर आ गया हूं। अगर कोई अच्छा काम मिल गया तब तो अपने दो हाथ बताऊंगा, नहीं तो भूखा रहकर मर मिटूगा। इतना सुनते ही लक्ष्मीबाई बोली कि अभी भोजन किया है या नहीं? इस पर उदयन बोला कि बहनजी मुझे भोजन किये हुए दो रोज हो लिए हैं और न जाने कितने दिन ऐस ही निकल जावेंगे। परन्तु भूख की चिन्ता नहीं है अगर भूख की परवाह करता तो फिर मैं मेरे गाँव से इतनी दूर चलकर भी कैसे आ पाता? यह सुनते ही लक्ष्मीबाई का हृदय हिल गया, वह बोली कि तुम मेरे साथ चलो, भाई ! भोजन तो करो फिर जैसा कुछ होगा देखा जावेगा। उदयन ने कहा बहनजी आप तो ठीक ही कह रही हैं, मगर मैं आपके साथ कैसे चलूं? मैंनें आपके यहां का कोई भी कार्य तो किया नहीं, फिर आपके साथ मुफ्त रोटी खाने को कैसे चल सकता हूं? लक्ष्मी बाई बोली तुम ठीक कह रहे हो, मगर तुमने मुझे बहन कहा है और मैंने तुम को भाई, फिर भाई के लिए बहन की रोटी मुफ्त की नहीं होती किन्तु अभूतपूर्व भ्रातृ-स्नेह के उपहार स्वरूप होती है। अतः उसके खाने में कोई दोष नहीं है। तुम भले ही किसी भी कोम के, कोई भी क्यों न हो मगर धार्मिकता के नाते से जबकि तुम मेरे भाई हो और मैं तुम्हारी बहन फिर संकोच कैसा? तुम को तो सहर्ष मेरा कहना स्वीकार कर लेना चाहिये, अन्यथा तो फिर मेरे दिल को बड़ी ठेस लगेगी। भाई साहब! कृपा कर मेरा कहना स्वीकार कीजिये और मेरे साथ चलिये। लक्ष्मीबाई के इस तरह के स्वाभाविक सरल विनिवेदन का उदयन के हृदय पर बड़ा प्रभाव पड़ा। अतः वह उसके साथ हो लिया। घर जाकर लक्ष्मीबाई ने उदयन को प्रेम और आदर के साथ भोजन कराया तथा अपने पतिदेव से कह कर उसके योग्य कुछ समुचित काम भी उसे दिलवा दिया, जिसे पाकर उन्नति करते हुए वह धीरे-धीरे चल कर एक दिन वही सिद्धपुर पाटन के महाराज का महामंत्री बन गया। जिसने प्रजा के नैतिक स्तर को ऊँचा उठा कर उसे सन्मार्गगामिनी बनाया। मतलब यह कि वही सच्चा दान होता है जो कि दाता के सात्विक भावों से ओतप्रोत हो एवं जिसको दिया जावे उसकी आत्मा को भी उन्नत बनाने वाला हो तथा विश्वभर के लिए आदर्श मार्ग का सूचक हो।
  15. दान अपनी कमाई में से देना किसी एक गांव का राजा मर जाने से उसकी एवज में उसके बेटे का राजतिलक होने लगा। जिसकी खुशी में वही उसने दान देना शुरू किया जिसे सुनकर बहुत से आशावान लोग वहां पर जमा हो गये। उन्हीं में एक पढ़ालिखा समझदार पण्डित भी था जिसने होनहार राजा की प्रशंसा में कुछ श्लोक सुनाए। राजा बड़ा खुश हुआ और बोला कि तुमको जो चाहिये सो लो। पण्डित ने कहा मैं अभी आप से क्या लू? फिर कभी देखा जावेगा। राजा ने कहा कि कुछ तो अभी भी तुमको मुझ से लेना ही चाहिये। पण्डित बोला कि यदि आप देना ही चाहते हैं तो एक रुपया मुझे दे दीजिये मगर वह आपका अपनी कमाई का होना चाहिये। इसको सुनकर और सब लोग तो कहने लगे कि इसने राजा से क्या मांगा? कुछ नहीं मांगा। परन्तु राजा ने सोचा कि इसने तो मुझसे बहुत बड़ा दान मांग लिया क्योंकि मेरे पास इस समय मेरा कमाया हुआ तो कुछ भी नहीं है। यह तो राज्य सम्पत्ति है वह तो या तो पिताजी की देन है या यों कहो कि इस पर आम प्रजा का अधिकार है। मेरा इसमें क्या है? अतः मैं मेरी मेहनत से कमाकर लाकर एक रुपया इसे दूं मैं उसके बाद ही इस राज्य- सिंहासन पर बेटुंगा। ऐसा कह कर कोई काम करने की तलाश में गांव से चला गया। इसे राजपुत्र या होनहार राजा समझ कर जिसके भी पास में गया तो उसका सम्मान खूब ही हुआ मगर उससे कोई भी काम कैसे लेवे और क्या काम लेवे? अत: बहुत देर तक चक्कर काटते-काटते वह एक लुहार की दुकान पर पहुंचा। लुहार लोहा गरम करके उसे घन से कूटने को था जो कि अकेला था, दूसरे किसी सहकारी की प्रतिक्षा में था। उसके पास जाकर बोला- कुछ काम हो तो बताओ? तब लुहार बोला- आओ मेरे साथ इस लोहे पर घन बजाओ और शाम तक ऐसा करो तो तुम्हें एक रूपया मिल जावेगा। राजपुत्र ने सोचा ठीक है परन्तु जहां उसने घन को उठाकर एक दो बार चलाया तो उसका शरीर पसीने में तर-बर हो गया। राजपुत्र बोला कि बाबा यह काम तो बड़ा कठिन है, जवाब मिला कि नहीं तो फिर रूपया कहीं ऐसे ही थोड़े ही मिल जाता है। खून का पानी हो जाता है तो कहीं पैसा देखने को मिलता है। राजपुत्र सुनकर दंग रह गया परन्तु और करता ही क्या? लाचार था। जैसे-तैसे करके दिन भर घन बजाकर रूपया लिया तथापि समझ जरूर गया कि आम गरीब जनता किस प्रकार परिश्रम कर पेट पालती है। हम सरीखे राजघराने वालें को इसका बिल्कुल भी पता नहीं है। अगर वह पण्डित ऐसा दान देने को न कहता तो मुझे भी क्या पता था कि प्रजा के लोगों का अपना, अपने कुटुम्ब का भरण-पोषण करने के लिए किस प्रकार कष्ट सहन करना पड़ता है? अस्तु, राजपुत्र वह रूपया ले जाकर पण्डित को देते हुए कहने लगा कि महाशय जी धन्य हैं, आपने मेरी आंखे खोल दी। पण्डित बोला, प्रभो! मुझे यह एक रूपया देकर उसके फलस्वरूप अब आप सच्चे राजा हो रहेंगे।
  16. दान करना दान का सीधा-सा मतलब है अपने तन मन और धन से औरों की सहायता करना। मनुष्य जीवन ही ऐसा है कि किसी न किसी रूप में दूसरे से सहायता लिए बिना उसका कुछ भी काम नहीं बन सकता है। जब कि औरों से सहायता लिए बिना निर्वाह नहीं तो फिर औरों की सहायता करना भी उचित ही है। अत: दान करना परमावश्यक है। परन्तु इसके साथ यह बात भी सही है कि मनुष्य लेना तो जानता है और देने में संकोच किया करता है। आम तौर पर देखने में आता है कि मनुष्य दोनों हाथों से कमाया करता है। मगर खाता एक हाथ से है, इसका मतलब यही कि मनुष्य काम-धन्धे में अपने दोनों हाथों पर भरोसा रखे, अपने कर्तव्य कार्य को दूसरे से करवा लेने का विचार अपने मन में कभी न आने दे। प्रकृति ने जब खुद को दो हाथ दिये हैं तो फिर क्यों व्यर्थ ही दूसरे के सहारे को टटोलता रहे? हरेक समुचित काम को सबसे पहले अपने आप खुद कर बनाने को तैयार रहे। हां, जो अपने दोनों हाथों की कमाई है उसमें से एक हाथ की कमाई को तो अपने शरीर के निर्वाह में और कुटुम्ब के पालन-पोषण में खर्च करे। शेष एक हाथ की कमाई को परमार्थ के लिए बचाकर रखे, उसे परोपकार के कार्यों में खर्च करे। लेने के स्थान पर किसी को कुछ देना सीखें ऐसा हमारे बुजुर्गों का कहना है। हर एक को चाहिये कि घर पर आये हुए आत्मा को होनहार परमात्मा मानकर उसका सत्कार करे और कुछ नहीं तो कम से कम मिष्ट सम्भाषण पूर्वक अपने पास बैठने को उसे जगह देवे। भूखे को रोटी खिलाकर प्यासे को पानी पिला दे। भूले भटके हुए को सही रास्ता बतला दे।
  17. उपवास का महत्व यह कोई नई बात नहीं है कि शरीर को स्थिर करने के लिए आहार की खास आवश्यकता होती है। जो कुछ हम भोजन करते हैं उसका रस रक्तादि बन कर हमारे शरीर को बनाये रखने में सहायक होते हैं। परन्तु वह भोजन भी प्राकृतिक और मितमात्रा में तथा समुचित रीति से खाया जाना चाहिये, नहीं तो वही भोजन लाभ के स्थान पर हानिकारक हो जाता है। भोजन शरीर का साधन है इसीलिये यह शरीरधारी भी भोजन का आदी बना है और इसीलिये हो सके जहां तक अच्छे से अच्छा स्वादिष्ट रूचिकर भोजन बनाकर खाया करता है। भोजन रूचिकर होने से कभी-कभी अत्यधिक मात्रा में भी खा लिया जाता है जिससे कि अजीर्ण होकर शरीर के रोगी बनने का अन्देशा रहता है। अतः उस अजीर्ण को दूर करने के लिए उपवास करने की अर्थात् भोजन न करने की आवश्यकता होती है। हां, उपवास करने में जिस प्रकार भोजन के त्याग करने की जरूरत होती है उसी प्रकार अपने मन और इन्द्रियों को भी वश में रखने की आवश्यकता पड़ती है, मन को वश में किये बिना जो भोजन त्याग कर दिया जाता अर्थात् खाना नहीं खाया जाता वह लंघन कहलाता है और लंघन से कभी-कभी लाभ के स्थान पर हानि हो जाया करती है। एक समय एक मोटी बुद्धि का आदमी अपनी औरत को मीलवा लाने के लिए ससुराल में गया। वहां उसके लिए अच्छे पदार्थ खाने के लिए बने तो स्वादिष्ट समझ कर उन्हें वह खूब खा गया। अतः अजीर्ण हो जाने से वैद्य ने उससे कहा, कम से कम आज भर के लिए तुम खाना मत खाओं ताकि तुम्हारा अजीर्ण पच कर ठीक हो जावे। इस पर उसने भोजन नहीं किया, मगर उसका मन भोजन के लिए ललचाता रहा अतः वह दिन भर तो सुसराल वालों की शर्म खाकर बिना खाये रहा। किन्तु जब रात हुयी तो सोचा कि कुछ न कुछ तो खाना ही चाहिये, नहीं तो फिर यह पहाड़ जैसा लम्बी रात कैसे कटेगी? इधरउधर देखा तो अपनी खटिया के नीचे चावलों की भरी थरिया रखी थी, उसमें से एक मुट्ठी भर कर मुंह में ले गया। इतने ही में घर वाली आ गयी तो अब उन्हें चबावे कैसे? उसके सामने शर्म के मारे वह मुंह फुलाये रहा। उसे ऐसी हालत में देख कर उसकी घर वाली ने अपनी मां को आवाज दी। दोनों गौर से देख कर कहने लगीं कि इनके तो कुछ रोग हो गया है जिससे गाल फूल गये हैं और मुंह खोला नहीं जाता है। डॉक्टर को बुलाया गया तो यथार्थ बात को समझते हुए भी अपनी डबल फीस अदा करने के विचार से उसने उसके गाल पर नश्तर लगाया और नखचूटी से एक चावल खून में भिगोकर निकाल तथा दिखाते हुए कहा कि इनके तो अजीर्ण के कोप से मुंह में कीड़े पड़ गये हैं। अतः तुम दोनों बाहर चली जाओ, मुझे इन कीड़ों को धीरे-धीरे निकालने दो। मां बैटी अफसोस करती हुई चली गयी तो डॉक्टर ने कहा कि कम अक्ल ! अब तो इन चावलों को थूक दे, अगर भूखा नहीं रहा जाता है तो अब तुझे दूध पिला दिया जावेगा। उसने मिट्टी भरे सकोरे में थूक दिया। डॉक्टर ने उन पर और मिट्टी डाल दी और उन दोनों औरतों को बुलाकर कहा- जाओ इन विषैले कीड़ों को गढ़ा खोद कर दबा दो तथा इन्हें दूध पिलाओ। | मतलब इन सबका यह कि बिना मन को वश में किये जो उपवास किया जाता है उससे ऐसा ही दुरुपयोग होता है। हां, मन और इन्द्रियों को वश में रखकर जो उपवास किया जाता है तो उससे आत्मबल बढ़ता है। हमारे भारत के हृदय सम्राट महात्मा गांधीजी ने तो उपवास के बल पर बड़े-बड़े कार्य कर बताये थे। उनके सत्याग्रह, असहयोग और उपवास ये तीन ही खास प्रयोग थे। हमारे अर्थशास्त्रों में भी उपवास की बड़ी ही महिमा बतायी गयी है। साधु महात्मा लोगों के करने योग्य तपश्चरण में तो सबसे पहला नम्बर उपवास का ही रखा गया है किन्तु गृहस्थों को भी कम से कम एक सप्ताह में एक उपवास करने के लिए कहा गया है।
  18. पर्यालोचन मनुष्य विस्मरणशील होता है और उसके जुम्मे अपने शरीर को संभाल कर रखना, बाल बच्चों का लालन-पालन करना, अभ्यागतों का सत्कार करना, बुजुर्गों का टहल करना, दीन-दु:खियों की सेवा करना, मित्र दोस्तों के साथ प्रेम से सम्भाषण करना, भगवद्भभजन करना आदि अनेक तरह के कार्य लगे हुए होते हैं। उनमें से कौन-सा कार्य किस प्रकार से आज मुझे सम्पादित करना चाहिये, कौन से कार्य सम्पादित करने में मैंने क्या गलती खाई है, कहीं मैंने मेरे तन-मन-वचन और धन के घमण्ड में आकर कोई न करने योग्य अनुचित बर्ताव तो नहीं कर डाला है, मेरे रहन-सहन में किसी गरीब भाई का किसी भी प्रकार का कोई नुकसान तो नहीं हुआ है, तथा किसी भी बुजुर्ग का मेरे से कोई अविनय तो नहीं बन पड़ा है, इस प्रकार से सोच कर देखना। अगर कोई भी तरह की कुचेष्टा बन गयी हो तो भगवान को स्मरण कर उनके सम्मुख पश्चाताप करना और आगे के लिए कभी नहीं होने देने का दृढ़ संकल्प करना चाहिये। प्रतिदिन सुबह और सांयकाल को इस प्रकार संभाल करते रहने से मनुष्य की बुद्धि निर्मल बनी रहती है और वह सान पर चढ़ा कर तैयार की हुई तलवार के समान तीखी बनकर अपने करने योग्य कार्य को आसानी के साथ कर पा सकती है।
  19. रात्रि में भोजन करने से हानि अकबर बादशाह कौम से मुसलमान थे किन्तु हिन्दुओं के साथ भी उनका अच्छा संपर्क था। उनका प्रधानमंत्री बीरबल भी ब्राह्मण था। उनके पास और भी भले-भले हिन्दू रहते थे। एक दिन, दिन में खाने वाले किसी विचारशील हिन्दू आदमी ने उनसे कहा कि हुजूर! आप रात्रि में खाना खाते हैं यह ठीक नहीं कर रहे हैं। बादशाह बोले क्यों क्या हानि है? जवाब मिला कि हानि तो बहुत है। सबसे पहली हानि तो यही है कि रात्रि में अंधकार की वजह से भोजन में क्या है और क्या नहीं है यही ठीक नहीं पता चला करता है। तब बादशाह बोले कि दीपक के उजाले में अच्छी तरह से देखकर खाया जाये तो फिर क्या बात रह जाती है? जवाब मिला कि बात तो और भी है परन्तु अभी आप इतना ही करें कि दीपक के प्रकाश में अच्छी तरह से देखकर ही खाया करें। अब बादशाह रोज ऐसा ही करने लगे। एक रोज सजा हुआ थाल बादशाह के आगे टेबिल पर लाकर रखा गया तो बादशाह बोले कि दीपक लाओ तब देखकर खाया जायेगा। दीपक आया और देखा गया तो भोजन में घी और मीठे की वजह से जहरीली कीड़ियों का नाल लगा हुआ है। बादशाह को विचार आ गया तो नियम किया कि आगे के लिए रात्रि को न खाकर दिन में ही खाया जाये यही बात अच्छी है। | हाँ! यह कहा जा सकता है कि वह समय कुछ और था। आज तो स्थान-स्थान पर बिजली की रोशनी होती है जिसमें अच्छी तरह देखकर खा लिया जा सकता है, परन्तु ऐसा कहने वालों को इतना भी तो सोचना चाहिये। कि बिजली के प्रकाश में भी पंतगे, मच्छर वगैरह आकर भोजन में पड़ेंगे। जिनमें कितने ही मच्छर ऐसे भी होते हैं जिनके कि खाने में आ जाने से अनेक प्रकार के भयंकर रोग हो जाते है।
  20. रात्रि में भोजन करना मनुष्य के लिए अप्राकृतिक है शारीरिक शास्त्र जो कि मनुष्य स्वास्थ्य को दृष्टि में रख कर बना उसका कहना है कि दिन में पित्त प्रधान रहता है तो रात्रि में कफ। एवं भोजन को पचाना पित्त का कार्य है अतः मनुष्य को दिन में ही भोजन करना चाहिये। इसलिये वैद्य लोग अपने रोगी को लंघन कराने के अनन्तर जो पथ्य देते हैं वह कर्तव्य पथ प्रदर्शन रात्रि में कभी भी न देकर दिन में ही देते हैं। दिन में भी सूर्योदय से एक डेढ़ घण्टे बाद से लगातार मध्यान्ह के बारह बजे से पहले ही पथ्य देने का आदेश करते हैं क्योंकि पित्त का समुत्तम काल यही है। हां एक बार का योग्य रीति से खाया हुआ अन्न अधिक से अधिक छः घण्टे में पचकर फिर दुबारा खाने की प्रेरणा देता है। यानी दस बारह बजे के बीच में जिस आदमी ने भोजन किया है। उसे चार छ: बजे के बीच में फिर खाने की आवश्यकता हो जाती है। परन्तु अपरान्ह में जो किया जाये वह स्वल्प मात्रा में होना चाहिये ताकि वह कफ का काल आने से पहले पचा लिया जा सके। ऐसी हमें हमारे वैद्यक शास्त्र की आज्ञा है। रात्रि में कफ प्रधान, काम सेवन का और शयन का समय आ जाता है सो काम सेवन भी भोजनानन्तर में नहीं किन्तु भोजन का परिपाक होने पर करना ठीक होता है तथा शयन करना, नींद लेना तो भोजनानन्तर में बिल्कुल ही विरुद्ध कहा गया है। दिन में भी जब किसी रोगी को पथ्य दिया जाता है तो उसे उस अन्न के गहल से नींद आने लगती है फिर भी हमारे प्राणाचार्यों का कहना होता है कि अभी इसे नींद नहीं लेने देना अन्यथा तो यह खाया हुआ अन्न जहर बन जायेगा। दिनभर काम करके थे कुएं मनुष्य को अपनी थकान दूर करने के लिए कम से कम छ:घण्टे नींद लेना भी जरूरी माना गया है। अतः सूर्यास्त के समय सन्ध्या वन्दन करने के अनन्तर कुछ समय हास्यविनोद में बिताकर फिर रात्रि के दस बजे से लेकर चार बजे रात तक नींद लेनी चाहिये। चार बजे के बाद प्रातः काल में अपने शरीर रूप यंत्र के पुरजों को संशोधन कर साफ सुथरा बनाने के लिए भगवद्भजन पूर्वक शौच जाना और स्नान करना भी जरूरी हो जाता है। फलितार्थ यह निकला कि दिन के नौ दस बजे से लेकर दिन के चार पांच बजे तक का समय मनुष्य के लिए भोजन के योग्य होता है। उसमें त्यागी, ब्रह्मचारियों के लिए तो महर्षियों ने एक ही बार भोजन करने का आदेश दिया है। गृहस्थ लोग पूर्वान्ह में और अपरान्ह में इस तरह दो बार भोजन कर सकते हैं किन्तु जो लोग रात दिन में कई बार भोजन करते हैं, जब चाहा तभी खा लिया ऐसी आदत वाले होते हैं, वे लोग अपने मनचलेपन की वजह से मनुष्यता को भूले हुए हैं ऐसा हमारे महापुरुषों का कहना है। एवं जो लोग रात में भी खाने से ही धंधा रखते हैं उनमें और निशाचरों में तो फिर कोई भी अन्तर नहीं रह जाता है।
  21. नशेबाजी से दूर हो दुनिया की चीजों में से कुछ अन्न आदि चीजें तो ऐसी हैं जिनका संबंध मनुष्य की बुद्धि के साथ में नहीं होकर वे सब केवल शरीर के सम्पोषण के लिये ही खाये जाते हैं। ब्राह्मी, शंख पुष्पी आदि जड़ी बूटियां ऐसी हैं जो मनुष्य की बुद्धि को ठिकाने पर रखकर उसके बढ़ाने में सहायक होती है परन्तु भांग, तम्बाकू, चरस, गांजा, सुलफा वगैरह वस्तुएं ऐसी भी हैं जो उत्तेजना देकर मनुष्य की बुद्धि को विकृत बना डालती हैं। जिनके सेवन करने से काम वासना उद्दीप्त होती है। अतः ऐस चीजों को कामुक लोग पहले तो शौकिया रूप से सेवन करने लगते हैं मगर जिस चीज का उन्हें नशा करने की आदत हो जाती है वह चीज यदि नहीं मिले तो विकल हो उठते हैं। बाज-बाज आदमी तो नशे का इतना आदी हो जाता है कि उस नशे की धुन में अपने आपको भी भूलकर न करने लायक घोर अनर्थ करने को उतारू हो जाता है। एक बार की बात है कि एक अफीमची अपनी औरत को ले आने के लिए सुसराल को गया। वहां से अपनी प्राणप्यारी को लेकर वापस लौटा तो अपनी अफीम की डिबिया को वहीं भूल कर आ गया। रास्ते में जब उसके अफीम खाने का समय आया, देखे तो अफीम की डिबिया तो है नहीं। यह देखकर वह बड़ी चिन्ता में पड़ गया और वहीं पर एक वृक्ष के नीचे बैठ गया। औरत बोली कोई बात नहीं, गांव अब थोड़ी ही दूर रहा है अभी चले चलते हैं। मर्द ने कहा मेरे से तो अब बिना अफीम के एक पैंड भी नहीं चला जावेगा। स्त्री ने कहा यहां जंगल में अफीम कहां रखी है? फिर भी अफीमची ने नहीं माना। स्त्री बड़ी उलझन में पड़ी और इधर-दधर देखने लगी तो एक कुटिया दीख पड़ी, वहां गई तो उसमें एक आदमी बैठा पाया। जाकर बोली कि महाशय! क्या आपके पास में कुछ अफीम मिल सकती है? मेरे स्वामी अफीम खाया करते हैं, उनके पास अफीम नहीं रही है। वह बोला अफीम है। तो सही मगर वह मुफ्त में थोड़े ही मिलती है। स्त्री ने कहा आप जो उचित समझें वह मूल्य ले लीजिये और एक खुराक की दे दीजिये। कुटीचर ने कहा अफीम की एक खुराक का मूल्य एक बार एकान्तवा । यह सुनते ही स्त्री दंग रह गयी और अपने स्वामी के पास लौटकर आयी तो स्वामी ने फिर यही बात कहीं कि मैं क्या करूं? मैं तो अफीम के पीछे विवश हूं अतः जैसे हो वैसे ही मुझे अफीम लाकर दे तभी कुछ आगे की सूझेगी। बन्धुओ ! देखा आपने अफीमची का हाल ! अफीमची का ही नहीं सभी तरह के नशेबाजों का ऐसा ही हिसाब है! कोई कैसा भी नशा करने वाला क्यों न हो उसकी चेतना तो उस नशे के आधीन हुआ करती है। कम से कम तम्बाकू बीड़ी पीने वाले को ही ले लीजिये। उनके पास भी समय पर तम्बाकू न होगा तो वह भी चाहे जिससे तम्बाकू मांगकर पीना चाहेगा। इसीलिए कहावत भी प्रसिद्ध है कि - "अगर नहीं मांगना जानता भीख, तो तम्बाकू पीना सीख' तम्बाकू पीने वाला स्वयं यह अनुभव करता है कि इसकी ही वजह से मुझे खांसी, श्वासादि अनेक रोग हो रहे हैं, फिर भी वह उसे छोड़ने के लिये लाचार हो रहता है। मतलब यह कि नशेबाज आदमी धर्म, धन और शरीर तीनों का ही खो डालता है इसीलिये हमारे महर्षियों ने इसे दुर्व्यसन बताया है। उन सब नशों में शराब का नशा सबसे अधिक बुरा है। गुड़, महुआ आदि चीजों को सड़ाकर उनसे शराब बनायी जाती है जो कि बहुत से त्रस जीवों को कलेवरमय हुआ करती है अतः उसका पीने वाला प्रथम तो बहुत से त्रस जीवों की हिंसा का पातकी बनता है फिर शराब की लत भी ऐसी बुरी होती है कि जिसमें भी वह पड़ गई , छूटना दुश्वार हो जाता है, शराब के नशे में चूर हुआ मनुष्य पागल ही क्या बाज-बाज मौंके पर तो बिल्कुल बे-भाव ही हो रहता है। इस शराबखोरी में पड़कर कितने ही भले घराने भी बिगड़कर बरबाद हो गये हैं। शराब पीये हुए के मुंह से ऐसी बुरी दुर्गन्ध आती है कि कोई भी भला आदमी उसके पास बैठना नहीं चाहता है। शराब पीना या और भी किसी प्रकार का नशा करना व्यभिचार का तो मूल सूत्र है। साथ ही वह मांस खाने की प्रेरणा देता है, मांस खाने वाला शिकार करने को बाध्य होता है। शिकार करना चोरी या दगेबाजी से खाली नहीं है। हठात् किसी के प्राणधन को अपहरण करना तो सबसे बड़ी चोरी है। इस प्रकार शराबखोरी सब तरह के अनर्थों का प्रधान कारण है ऐसा सोचकर समझदारों को इससे सर्वथा दूर ही रहना चाहिए।
  22. दूध का उपयोग भोले भाई ही नहीं बल्कि कुछ पढ़े लिखे लोग भी ऐसा कहते हुए पाये जाते हैं कि जो दूध पीता है वह भी तो एक प्रकार से मांस खाने वाला है, क्योंकि दूध मांस से ही होकर आता है, फिर दूध तो पिया जाये और मांस खाना छोड़ा जाए यह व्यर्थ की बात है। उन ऐसा कहने वाले भले आदमियों को जरा सोचना चाहिये कि अन्न भी तो खाद में से पैदा होता है सो क्या अनाज को खाने वाला खाद को भी लेता है? नहीं, क्योंकि खाद के गुण -धर्म कुछ और हैं तो अन्न के गुण -धर्म कुछ और ही। अत: खाद जुदी चीज है तो अन्न उससे जुदी चीज। इसी प्रकार मांस जुदी चीज है और उसी जगह पैदा होने वाला दुध उससे जुदी चीज। मांस तमोगुण समुत्पादक है तो दूध सतोगुण सम्पादक। किसी के मांस को नोचा जावे तो कष्ट देने वाला हो रहता है। किन्तु दुध को अगर न निकाला जावे तो कष्ट देने वाला हो रहता है। मांस उस-उस प्राणी के शरीर का आधारभूत होता है तो दूध किसी के किसी समय कुछ काल तक के लिये। मांस हर समय हर हालत में कीटाणुओं का समुत्पत्ति स्थान होता है। तो ताजा दूध कीटाणुओं से रहित, इत्यादि कारणों से मांस अग्राह्य है किन्तु दूध ग्रहण करने योग्य। यहां पर एक तर्क और भी उठाया जा सकता है कि गाय का दूध निकालने वाला आदमी उसके बच्चे के हक को छीन लेता है। अत: वह ठीक नहीं करता, परन्तु इस ऐसा कहने वाले को जरा सोचना चाहिये कि अगर गाय के दूध पर सर्वथा उसके बच्चे का ही अधिकार है, वह उसी के हक की चीज है तो फिर जो उस गाय को पालता पोषता है उसका भी कोई हक है या नहीं। यदि कहा जावे कि कुछ नहीं, तो फिर वह उसे क्यों पालता-पोषता है? हां, जब तक कि बच्चा घास खाना न सीख जावे तब तक उसका ध्यान अवश्य रखना चाहिये। बाद में भी सारा का सारा ही न निकालकर कुछ दूध उसके लिये भी छोड़ते रहना चाहिए।
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