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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

पशु पालन


संयम स्वर्ण महोत्सव

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पशु पालन

 

सुना जाता है कि एक न्यायालय में न्यायाधीश के आगे पशुओं में और मनुष्यों में परस्पर में विवाद छिड़ गया। मनुष्यों का दावा था कि पशुओं की अपेक्षा से हम लोगों का जीवन बहुमूल्य है। पशुओं ने कहा कि ऐसा कैसे माना जा सकता है बल्कि कितनी ही बातों को लेकर हम सब पशुओं का जीवन ही तुम्हारी अपेक्षा से अच्छा है। देखो कि गजमुक्ता सरीखी कितनी ही बेशकीमती चीजें, तुम्हें पशुओं से ही प्राप्त होती है। इसी तरह कवि लोग जब कभी तुम्हारी प्रेयसी के रूप का वर्णन करते हैं तो मृगनयनी, गजगामिनी इत्यादि रूप से पशुओं की ही उपमा देकर बताते हैं। बल पराक्रम भी तुम्हारी अपेक्षा से हम पशुओं में ही प्रशंसा योग्य माना गया हुआ है। इसीलिये जब तुम्हें बलवान बताया जाता है तो पुरुषसिंह नरशार्दूल वगैरह कह कर पुकारा जाया करता है।

 

और तो क्या, पशु का मृत शरीर भी प्राय: कुछ न कुछ तुम्हारे काम में आता ही है। जैसे कि मृतक पशु के चमड़े के जूते बनते हैं जिन्हें पहन कर तुम आसानी से अपना मार्ग तय कर पाते हो। तुम्हारा शरीर तो किसी के कुछ भी काम नहीं आता बल्कि साथ में दस बारह मन लक्कड़ और दस बारह गज कपड़ा और ले जाता है। इस पर मनुष्य लोग बहुत झेपे और अपना दावा वापिस उठाने को तैयार हो गये। तब न्यायाधीश बोला कि भाई ! तुम कहते हो सो तो सब ठीक है परन्तु एक बात खास है जिसकी वजह से मनुष्य बड़ा और भला गिना जाता है और वह यह कि पशुवर्ग परिश्रमशील होकर भी वह अपने आपकी रक्षा का प्रबन्ध खुद नहीं कर सकता किन्तु मनुष्य में इस प्रकार की विचारशीलता है कि वह अपनी रक्षा का तथा पशु की रक्षा का भी प्रबन्ध करने में समर्थ होता है।

 

देखो एक बुढ़िया थी, जिसके पास एक गाय भी रहती थी। चौमासे के दिन आये तो वर्षा होना शुरू हुई । एक दिन वर्षा ऐसी हुई कि मूसलाधार पानी पड़ने लगा । झड़ी लग गयी जिससे लोग घर के बाहर निकलने में असमर्थ थे। रोज बाजार में हरी घास आया करती थी जिसे कि मोल लेकर बुढ़िया अपनी गाय को चरा लिया करती थी। मगर उस दिन बाजार में जब घास ही नहीं आई। तो क्या हो? पशु को क्या डाला जावे? बुढ़िया के पास दैव गति से सूखी घास, भूसा भी न थी ताकि वही डाल कर पशु को थोड़ा संतोष दे लिया जावे। अतः गाय भूखी ही खड़ी रही। उसे भूखी खड़ी देखकर बुढ़िया सोच में पड़ गई। कहने लगी कि हे भगवान! क्या करू? गौ भूखी है, यह भी तो मेरे ही भरोसे पर है। यह पहले खाले तो बाद में मैं खाऊंगी ऐसा संकल्प कर वह भगवन् भवगन् करने लगी। इतने में ही एक घसियारा आया उस बरसते हुए मेंह में, और बोला कि मांजी ! क्या तुम्हे अपनी गाय के लिए घास चाहिए? अगर हां तो यह लो, इतना कहकर घास गाय के आगे डाल दी। बुढ़िया बहुत खुश हुई और बोली बेटा। बहुत अच्छा किया, ले अपने घास के पैसे ले जा। माजी पैसे फिर कभी ले जाऊंगा ऐसा कहते हुऐ घसियारा दौड़ गया तो आज तक नहीं आया। आता भी भी कैसे? वह कोई घसियारा थोड़े ही था वह तो उस बुढ़िया की पवित्र भावना का ही रूप था।

 

मतलब यह कि आश्रित के खान-पान का प्रबन्ध करके स्वयं भोजन करना ही मनुष्य का कर्तव्य जिसमें भी वह आश्रित भी यदि मनुष्य हैं तो वह तो अपना खाना आप कह कर भी हम से ले सकता है, पशु तो बेचारा स्वयं मूक होता है उसकी तो फिक्र हमें ही करना चाहिए तभी हम मनुष्य कहलाने के अधिकारी हो सकते है। उसके करने योग्य परिश्रम तो उससे हम करा लेवें और खाना खिलाने के समय उसे हम भूल जावें यह तो घोर अपराध है।

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