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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

व्यापार


संयम स्वर्ण महोत्सव

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व्यापार

 

व्यापार शब्द का अर्थ होता है किसी चीज को व्यापकता देना यानी आवश्यकताओं से अधिक होने वाली एक जगह की चीज को जहां पर उसकी आवश्यकता हो वहां पर पहुंचा देना एवं सब जगह के लोगों के लिए सब चीजों की सहूलियत कर देना ही व्यापार कहलाता है। व्यापार का मतलब जैसा कि आजकल लिया जाने लगा है धन बटोरना, सो कभी नहीं हो सकता है। किन्तु जनसाधारण के सम्मुख उसकी आवश्यक चीज को एक सरीखी दर पर उपस्थिति करना और उसमें जो कुछ उचित कमीशन कटौती मिले उस पर अपना निर्वाह करना ही व्यापार का सच्चा प्रयोजन है। उदाहरण के लिए जैसे हिन्दुस्तान टाईम्स वगैरह दैनिक समाचार-पत्रों के बेचने वाले लोग घूम-घूम कर बेचते हैं। डेढ़ आना या पांच पैसे जो उन पत्रों का मूल्य निश्चित किया हुआ है ठीक उसी मूल्य पर सबको देते हैं। शाम तक जितने पत्र उनके द्वारा  बिके, प्रति पत्र एक पैसे के हिसाब से उनका कमीशन मिल जाया करता है। जिससे उन बेचने वालों का गुजारा हो जाता है और पढ़ने वालों को घर बैठे पढ़ने के लिए पत्र मिल जाता है। सीधा पत्रालय से भी पत्र लिया जावे तो भी उन्हें उतने में ही मिलेगा। अत: उसकी विशेष हानि नहीं होती ताकि लेने वाले और बेचने वाले दोनों का सुभीता होता है।

 

आढ़तिया अपने साहूकार के माल को बाजार भाव से बेचता है या अपने ग्राहक को बाजार से परिश्रम कर माल दिलवाता हैं एवं लेने वाले और मालदार के बीच में विश्वास का सूत्रधार बनकर रहता है तथा उसने उचित आढ़तिया लेकर उस पर अपना निर्वाह करता है तो यह व्यापार है। मगर वही आढ़तिया कहलाने वाला व्यक्ति लोभवश होकर किसी प्रकार का बीच बचाव कर खाने लगता है तो ऐसा करना पाप है, और फिर वह व्यापारी न रह कर चोर कहलाने लायक हो जाता है।

 

बाजार के माल को हठात् अधिक दर में खरीद कर अपने यहां ही इकट्ठा कर खाना, किसी प्रकार की धौंस दिखा कर अपने माल को ऊँची दर से बेचना एवं दूसरे के माल को नीची दर से खरीदने की विचारधारा रखना, किसी एक को वही माल कम दर पर देना, किन्तु भोले भाई से उसी के अधिक दाम ले लेना इत्यादि चोरबाजारी पर व्यापार का कलंक है। हां, बाजार में जो माल बिकते-बिकते शेष बच रहा है और माल मालिक उसे बेचकर अपना पल्ला खलास करना चाहता है ऐसे माल को कुछ साधारण से कम दर में खरीद कर अपने पास संग्रह कर रखना बुरा नहीं बल्कि अच्छा ही है, ताकि यदि कोई कल को भी उस माल को लेने वाला आवे तो उसे भी आसानी से वह माल उसी साधारण दर पर दिया जा सके। इस प्रकार बाजार की सम्पन्नता बनी रहे।

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