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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

कर्त्तव्य और कार्य


संयम स्वर्ण महोत्सव

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कर्त्तव्य और कार्य

 

शरीर के भरण-पोषण के लिये जो किया जाता है ऐसा खाना पीना, सोना, उठना वगैरह कार्य कहलाता है जिससे संसारी प्राणी चाह पूर्वक अनायास रूप से किया करता है। जो आत्मोन्नति के लिए प्रयत्नपूर्वक किया जाता है ऐसा भगवद्भजन, परोपकार आदि कर्तव्य होता है। कार्य तो इतर प्राणियों की भांति नामधारी मानव भी लगन के साथ करता है मगर वह कर्त्तव्य को सर्वथा भूले हुये रहता है। उसके विचार में कर्तव्य का कोई मूल्य नहीं होता परन्तु वही जब मानवता की ओर ढलता है तो कर्तव्य को भी पहिचानने लगता है। यद्यपि उसका चंचल मन कर्तव्यों की ओर न जाकर उसे कार्यों में लगे रहने के लिए बाध्य करता है फिर भी वह समय निकालकर हठात् अपने मन को कर्तव्य के साथ में जोड़ता है। भले ही उसका मन रस्से से बन्धे हुए भूखे बैल की तरह छटपटाता है और वहां से भागना चाहता है तो भी उसे रोक कर रखता है। इस तरह धीरे-धीरे अभ्यास करके वह अपने मन को कर्तव्यों पर जमाता है तो फिर कर्तव्य तो उसके लिए कार्यरूप हो जाते हैं और कार्य कहलाने वाली बातें कर्तव्य समझ कर करने योग्य ठहरती हैं।

 

मान लीजिये कि एक चिरकाल का बना हुआ सच्चा साधु है। वह समता वन्दना स्तवनादि आवश्यकों के नित्य ठीक समय पर सरलता के साथ करता रहता है, दिन में एक बार खाना और ऊपर रात्रि में जमीन पर सो लेना भी उसके लिए बताया गया है। किन्तु वह तो कभी उपवास, कभी बेला, कभी तेला आदि कर जाया करता है। जब देखता है। कि अब तो शरीर बिना भोजनादि दिये काम नहीं देता, इसे अब भोजन देना ही होगा, तब कभी देता है। शयन का भी यही हाल होता है कभी कुछ देर के लिए नींद ली तो ली, नहीं तो फिर सारी ही रात्रि भजन-भाव में बिता दी गयी। मतलब कहने का यह कि भोजनादि के बिना भले ही रहा जा सकता है परन्तु भगवद्भजन के बिना रहना किसी भी देश में ठीक नहीं। इस प्रकार इन्द्रिय एवं मनोनिग्रह रूप वृत्ति जहां हो रहती है वहां फिर खाना, पीना, सोना, उठना, चलना फिरना आदि सभी क्रियाएं आत्मोन्नति के पथ में साधनरूप से स्वीकार्य होकर आदर्शरूप बन जाती हैं।

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