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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

न्यायोचित वृत्ति


संयम स्वर्ण महोत्सव

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न्यायोचित वृत्ति

 

सबसे पहले तो वह है कि जमीन में हल जोतकर अन्न पैदा किया जाय, वह इसी विचार से कि मैंने जिसका अन्न कर्ज लेकर खाया है वह ब्याज बाढ़ी सुदा चुका दिया जावे एवं बाल बच्चों सहित मेरा उदर पोषण हो जावे और द्वार पर आये हुये अतिथि का स्वागत भी हो जावे। हां कहीं- मैं खेती तो करता हूं परन्तु इसमें उत्पन्न हो गया हुआ अन्न यदि अधिकांश उसी के यहां चला जावेगा जिसके यहां का अन्न मैंने पहले से लेकर रखा है, ठीक तो जब हो कि वह मर जावे ताकि मुझे उसे न देना पड़े और सारा अन्न मेरे ही पास में रह जावे जिससे कि मैं अन्नधिपति बन कर भूतल पर प्रतिष्ठा पाऊँ, इस तरह का विचार आ गया तो वह खेती करना अन्यायपूर्ण हो जाता है।

 

खेती दुनिया के लोगों की परमावश्यक वस्तुओं को उत्पन्न करने वाली है। अतएव खेती करना अपना कर्तव्य समझकर उसे तरक्की देना, अच्छी से अच्छी हो, ज्यादा से ज्यादा अन्न और भूसा पैदा हो इसकी कोशिश करना, उसे हर तरह की विघ्न बाधाओं से बचाये रखने की चेष्टा करना यह तो एक भले किसान का कर्तव्य होता है। मगर मेरी खेती को चर जाने वाले ये बन्दर हिरण बगैरह पैदा ही क्यों हुए? ये अगर नष्ट हो जावे, दुनिया में इनकी सत्ता ही न रहे तो अच्छा हो- इस प्रकार की संकीर्ण भावना रखना सो कृषकता का दूषण है। 

 

क्योंकि दुनिया तो प्राणियों के समूह का नाम है जिसमें सभी प्राणी अपनाअपना हक रखते हैं। अपनी-अपनी जगह सभी सार्थक हैं। फिर भला यह कौनसी समझदारी है कि मनुष्य अपने स्वार्थ के वश होकर औरों का सत्यानाश चाहे। मनुष्य को तो चाहिये कि अपने कर्तव्य का पालन करे, होगा तो वही जो कि प्रकृति को मंजूर है। यहां पर हमें एक बात का स्मरण हो आता है जो कि चरित्र चक्रवर्ती शूरी 108 आचार्य श्री शान्तिसागर महाराज के गृहस्थ जीवन की है।

 

श्री शान्तिसागर महाराज का जन्म पटेल घराने में हुआ था जिसका परम्परागत धन्धा खेती करना था। उनके पिता ने उन्हें खेती की रखवाली करने पर नियत किया। अत: पिता की आज्ञा से आप रोज खेत पर जाया करते थे। एक दिन एक बिजार आया और उनके खेत में चरने लगा। कुछ देर में उन्होंने उसे निकालकर दबर हटा दिया मगर थोड़ी देर बाद फिर उन्हीं के खेत में चरने लगा। एवं वह अभ्यासानुसार रोज वहीं आकर चरने लगा कुछ दिन बाद उनके पिता खेत पर आये और देखा तो बिजार चर रहा है खेत में ! देखकर पिता बोले भैया तुम क्या रखवाली करते हो? देखो! बिजार खेज को बिगाड़ रहा है। जवाब मिला कि पिताजी ! पिताजी मैं क्या करूं? मैं तो इसे बहुत निकालता हूं मगर यह बार-बार यहीं पर आ जाता है। क्या बात है? दुनिया में धन सीर का है इसके हिस्से का यह भी खा जावेगा, अपना है सो रह जावेगा। पिता ने अपने मन में कहा बड़ा अजीब लड़का है! खैर, सुना जाता है कि वहां और सालों से भी अधिक अन्न उत्पन्न हुआ। ठीक है नेक नीयत का फल सदा अच्छा ही होता है। मगर कच्चे दूध से पोषण पये हुये इस मानव को विश्वास भी कैसे हो। यह तो समझता है कि मेरी मेहनत से जो कुछ भी कमाता हूं वह सब मेरा है। उसमें दूसरे का क्या हक है? मैं किसी दूसरे के धन को न हड़प जाऊँ यही बहुत है। परन्तु मेरे धन में से दूसरा कोई एक दाना भी कैसे खा सकता है? बस इस खुदगर्जी की वजह से ही यह अपने कार्यों में पूर्णरूप से सफल नहीं हो पाता है। प्रत्युत कभी-कभी तो इसको लाभ के स्थान पर नुकसान भुगतना पड़ता है।

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