व्यर्थ का पाप पाखण्ड
व्यर्थ का पाप पाखण्ड
कहते हुए सुना जाता है कि पेट पापी है इसी के लिए अनेक तरह के अनर्थ करने पड़ते हैं। जब हाथ-पैर हिला डुला कर भी मनुष्य पेट नहीं भरपाता है तो वह चोरी-चकोरी करके भी अपने पेट की ज्वाला को शान्त करना चाहता है, यह ठीक हे। इसी बात को लक्ष्य में रखकर हमारे महर्षियों ने स्थितिकरण अंग का निर्देश किया है। यानी समर्थ धर्मात्माओं को चाहिये कि आजीविका भ्रष्ट लोगों को उनके योग्य आजीविका बताकर उन्हें उत्पथ में जाने से रोकें ताकि देश में विप्लव न होने पावे।
कुछ लोग ऐसे भी होते हैं कि अपने पास में खाने के लिये अन्न तथा पहनने के लिए कपड़ा अच्छी तादाद में होने पर भी धनवान कहलाना चाहते हैं अतः धन के बटोरने के लिए अनेक प्रकार का पापारम्भ करते हुए देखे जा रहे हैं। इस रोग की दवा संतोष है, जो कि परिग्रह परिणाम रूप दवाखाने से प्राप्त होती है, परन्तु अधिकांश पाप पाखण्ड तो प्रजा में ऐसे फैले हुए हैं जिनका हेतु सिर्फ मनोविनोद के और कुछ नहीं है अतः उन्हें हमारे महर्षियों की भाषा में अनर्थदण्ड कहा गया है। जिनको कि रोकने के लिये मन पर थोड़ा सा अंकुश लगाने की जरूरत है एवं उनके रोकने से देश को हानि के बदले बड़ा भारी लाभ है। उन अनर्थदण्डों का न करना और न होने देना भी उपासक का कर्तव्य है।
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