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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. आज परम पूज्य दादा गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के समाधि दिवस के मंगल अवसर पर विजय नगर, इंदौर में भक्तों ने गुरु पूजन सहित आचार्य छत्तीसी विधान सानंद संपन्न किया। शाम को गुरुवर दादा गुरु आचार्य ज्ञान सागर जी महाराज के जीवन वृत्त और कृतित्व पर प्रश्न मंच और भजन संध्या का आयोजन किया जा रहा है। - ब्र. विजयलक्ष्मी दीदी, इंदौर
  2. परम पूज्य आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज के परम आशीर्वाद और मुनिश्री क्षमासागरजी की प्रेरणा से आयोजित जैन प्रतिभा सम्मान - २०१८ Young Jaina Award - 2018 आवेदन पत्र आमंत्रित है... मैत्री समूह प्रति वर्ष समूचे भारतवर्ष में शिक्षा के क्षेत्र में विशिष्ट योग्यता प्राप्त करने वाले जैन छात्र - छात्राओं को Young Jaina Award से सम्मानित करता है। वर्ष 2018 में 10वीं मैं - 85% 12वीं में विज्ञान (Science) संकाय में - 80%, वाणिज्य (Commerce), कला (Arts) संकाय में - 75% या उससे अधिक अंक अर्जित करने वाले और राष्ट्र स्तरीय प्रतियोगिता परीक्षा अथवा प्रशासनिक सेवा में चयनित जैन छात्र - छात्राओं के आवेदन आमंत्रित है। अपना आवेदन फ़ॉर्म 31 जुलाई 2018 के पूर्व www.MaitreeSamooh.com पर ऑनलाइन (online) भर सकते हैं। खेल में राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त करने वाले, विकलांग या अपने राज्य में मेरिट सूची में स्थान पाने वाले छात्र / छात्राओं के लिए निर्धारित अंक सीमा की बाध्यता नहीं रहेगी। आवेदन फ़ॉर्म की लिंक : https://goo.gl/8f3k8o आवेदन की अंतिम तारीख : 31 जुलाई 2018 अवार्ड सम्बंधित पूछताछ: +91 94254 24985 ‭+91 88977 43363‬ +91 89836 94093 ‭+91 97735 36530‬ मैत्री समूह +91 76940 05092 +91 94254 24984
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  4. सत्य परमेश्वर है मैं जब बालबोध कक्षा में पढ़ रहा था तो एक दोहा मेरी किताब में आया। साँच बरोबर तप नहीं, झूठ बरोबर पाप। जाके मन में साँच है, वाके मन में आप॥ इसमें आये हुए आप शब्द का अर्थ अध्यापक महोदय ने परमेश्वर बतलाया जो कि मेरी समझ में नहीं आया। मैं सोचने लगा साँच तो झूठ का प्रतिपक्षी है, बोलचाल की चीज है, उसका ईश्वर के साथ में क्या संबंध हुआ? परन्तु अब देखता हूं कि उनका कहना ठीक था। क्योंकि दुनियां के जितने भी कार्य हैं वे सब सत्य के भरोसे पर ही चल रहे हैं। आप लोगों की धारणा भी यही है कि दुनियां का नियन्ता या कर्ता-धर्ता परमेश्वर है। ऐसी हालत में यह ठीक ही है कि सत्य ही परमेश्वर है जिसके कि सर्वथा न होने पर विश्व के सारे काम ठप्प हो जाते हैं। महात्मा गांधी ने जब सत्याग्रह का काम चालू किया तो सबसे पहले उन्होंने यही कहा कि जो लोग परमेश्वर पर भरोसा रखते हों वे ही लोग मेरे इस आन्दोलन में शामिल होवे। इस पर किसी भद्र पुरुष ने सवाल किया कि क्या फिर आपके इस काम में जैन लोग न आवें? क्योंकि वे लोग ईश्वर को नहीं मानते हैं, परन्तु महात्माजी ने कहा कि तुम भूलते हो क्योंकि जो सत्य और अहिंसा को मानता है वह ईश्वर को अवश्य मानता है। मतलब यह कि जैन लोग ईश्वर को नहीं मानते सो बात नहीं किन्तु उनके विचारानुसार ईश्वर हमारे हरेक कार्य करने वाला हमारा कोई नौकर नहीं है किन्तु पदार्थ परिणमानशील स्वभाव है जिसका कि दूसरा नाम सत्य है। उस पर भरोसा लाकर अपना काम खुद करते हैं। हमें जब जो काम करना होता है तब अपने साहस, धैर्य और प्रयत्न से उसके योग्य साधन सामग्री को जुटाकर एवं उसकी बाधक सामग्री से बचते हुए रहकर उसे कर बताते हैं। हां, हम छद्यस्थों की बुद्धि की मन्दता से उपर्युक्त प्रयत्न में जो कुछ कमी रह जाती है तो उतनी ही उस कार्य में सफलता कम मिलती है एवं प्रयत्न विपरीत हो जाने पर कार्य भी विपरीत होता रहता है। हां, कितने ही कार्य जैसे वर्षा का होना, सर्दी का फैलना, गर्मी का पड़ना आदि कार्य उपर्युक्त सत्य के आधार पर तत्काल के वातावरण को पाकर ही सम्पन्न होते रहते हैं उन्हें प्राकृतिक कहा जाता है। परन्तु उपर्युक्त वातावरण के समुद्गम में भी हम सरीखे प्राणियों का अहिंसा भाव उपयोगी होता है। इस तरह से सत्यनारायण को विश्व का सम्पादक तथा अहिंसा उसकी शक्ति है ऐसा कहा जावे तो कोई अनहोनी बात नहीं है।
  5. सत्यवादी के स्मरण रखने योग्य बातें जो सत्य का प्रेमी हो, सचाई पर भरोसा रखता हो, उसे चाहिये कि वह किसी भी की तरफदारी कभी न करे। अपने गुण अपने आप न गावे। दूसरे के अवगुण कभी प्रकट न करे। किसी की कोई गोपनीय बात कभी देखने जानने में आ जावे तो औरों के आगे कभी न कहे। हमेशा नपे तुले शब्द कहे एवं अपने आप पर काबू पाये हुए रह तभी वह अपने काम में सफल हो सकता है। उदाहरण स्वरूप हमें यहां सत्यवादी श्री हरिश्चन्द्र का स्मरण हो आता है जो कि शयन दशा में दे डाले हुए अपने राज्य को भी त्याज्य समझ लेते हैं। कर्तव्य पथ प्रदर्शन और फिर उसको उत्सर्ग करने के प्रतिफलस्वरूप में बनारस के कालू भंगी के यहां कर्मचारी हो रहने को भी अपना सौभाग्य समझते हैं। इधर उन्हीं के समान उनकी पत्नी जो कि एक गृहस्थ के यहां नौकरानी बनकर अपना गुजर-बसर करने लग रही थी, उसके पुत्र रोहितास को सर्प काट जाता है जिससे उसकी मृत्यु हो जाती है। उसकी लाश को वह (रानी) ले जाकर जब हरिश्चन्द्र घाट पर जलाने लगती है तो हरिश्चन्द्र अपने मालिक कालू के द्वारा निश्चित की हुई टैक्स वसूल किये बिना जलाने नहीं देते हैं। अपने मन में जरा भी संकोच नहीं करते हैं कि यह मेरे पुत्र की लाश है और मेरी ही स्त्री इसे जला रही है। बल्कि सोचते हैं जब मेरे मालिक ने टैक्स निश्चित कर रखा है और उसकी वसूली के लिए मुझे यहां नियत किया है फिर भले कोई भी क्यों न हो उससे टैक्स वसूल करना मेरा धर्म है। ओह! कितना ऊँचा आदर्श है? जिसे स्मरण कर हृदय विभोर हो जाता है। परन्तु उन्हीं की संतान प्रति-संतान आज के इन भारतवासियों की तरफ जब हम निगाह डालते हैं तो रूलाई भी आ जाती है, क्योंकि आज के हम तुम सरीखे लोग दो-दो पैसे में अपने ईमान-धर्म को बेचने के लिए उतारू हो रहते हैं? बल्कि कितने ही लोग तो बिना मतलब ही झूठी बातें बनाने में प्रवृत्त होकर अपने आपको धन्य मानते हैं। परन्तु उन्हें सोचना चाहिये कि सत्य के बिना मनुष्य का जीवन वैसा ही है जैसा कि बकरी के गले में हो रहने वाले स्तन का होता है।
  6. सत्य की पूजा आमतौर पर जैसा का तैसा कहने को सत्य समझा जाता है। परन्तु भगवान महावीर ने वाचनिक सत्य की अपेक्षा मानसिक सत्य को अधिक महत्त्व दिया। हम देखते हैं कि काणे को काणा कहने पर वह चिढ़ उठता है, उसके लिये काणा कहना यह सत्य नहीं, किन्तु झूठ बन जाता है क्योंकि उसमें वह अपनी अवज्ञा मानता है। है भी सचमुच ऐसा ही। जब उसे नीचा दिखाना होता है तभी कोई उसे काणा कहता है। मानो अन्धे को अन्धा कहने वाले का वचन तो सत्य होता है फिर भी मन असत्य से घिरा हुआ होता है। क्षुद्रता को लिए हुए होता है। अन्यथा तो आइये, सूरदासजी! इन मिष्ट शब्दों में उसका आमंत्रण किया जा सकता है। हाँ, वहीं कोई छोटा बच्चा बैठा हो और उसकी मां उससे कहे कि बेटा! यह अन्धा है, इसे इसकी आखों से दीखता नहीं है। इस पर फिर बच्चा कहे कि अरे यह अन्धा है? इसे इस की आंखों से दीखता नहीं है? तो यह सुनकर औरों की ही तरह उस अन्धे को भी दु:ख नहीं होगा प्रत्युत वह भी प्रसन्न ही होगा क्योंकि बच्चे के मन में फितूर नहीं किन्तु वह सरल होता है। वह तो जैसा सुनता है या देखता है वैसा ही कहना जानता है, बनावटीपन उसके पास बिल्कुल नहीं होता। बालक के सरल और स्वाभाविक बोलने पर जब लोग हंसते हैं तो मेरे विचार में वह बालक उन्हें हंसते देखकर अपने विकासशील हृदय में सोचता है। कि मेरे इस बोलने में कुछ कमी है इसीलिये ये सब मेरा उपहास कर रहे हैं। बस इसीलिये वह अपने उस बोलने में धीरे-धीरे बनावटीपन लाने लगता है। मतलब यह हुआ कि सत्य बोलना तो मनुष्य को प्राकृतिक धर्म है किन्तु झूठ बोलना सीखना पड़ता है। लोग कहते हैं कि दुनियादारी के आमदी का काम असत्य बोले बिना नहीं चल सकता। परन्तु उनका यह विश्वास उलटा है क्योंकि किसी के काय के होने या करने में सत्य क्यों रोड़ा अटकाने लगा, बल्कि यो कहना चाहिये कि सत्य के बिना काम नहीं चल सकता। जो लोग व्यर्थ के प्रलोभन में पड़कर असत्य के आदी बने हुए हैं, उन्हें भी अपने असत्य पर सत्य का मुलम्मा करना पड़ता है तभी गुजर होती है। फिर भी उनके मन में यह भय तो लगा ही रहता है कि कहीं हमारी पोल न खुल जावे। ऐसी हालत में फिर सत्य ही की शरण क्यों न लेनी चाहिये। जिससे कि नि:संकोच होकर चला जा सके। कुछ देर के लिये कहा जा सकता है कि इस व्यर्थ भरी दुनिया में सत्यप्रिय को आर्थिक हानि उठानी पड़ती है, सो भी कब तक? जब तक लोगों को यह पता न हो जावे कि यहां पर असत्य को कोई स्थान नहीं है। लोग सोचते हैं कि दुनिया दुरंगी है और उसी दुनिया में ही यह भी रहता है। अतः उस दुरंगेपन से बच कैसे सकता है? बस इसीलिये सत्यवादी को लोग कसौटी पर कस कर देखना चाहते हैं एवं जहां वह उनकी कसौटी पर खरा उतरा कि फिर तो लोग उसका पीछा नहीं छोड़ते। एक समय की बात है कि एक मारवाड़ी भाई श्री आचार्य 108 श्री वीरसागर जी महाराज के दर्शन करने के लिये आया। महाराज ने उससे पूछा क्या धन्धा करते हो? तो जवाब मिला कि आसाम में कपड़े की दुकान है। महाराज ने कहा सत्य से व्यापार करो तो अच्छा हो। इस पर वह हिचकिचाहट करने लगा महाराज ने फिर कहा, कम से कम तुम छ: महीने के लिए ऐसा करो, समझो कि बैठा खा रहा हूं। तब उसने कहा, हां, इतना तो मैं कर सकता हूं। सत्यवादी को इस बात पर ध्यान रखना होता है कि मेरे साथ में जिसका लेन-देन हो उसे अच्छा सौदा मिले वे दो पैसे कम में मिले तथा प्रेम का बर्ताव हो। बस उसने ऐसा ही करना शुरू किया। फिर भी जो कि पहले से मोल मुलाई करते जा रहे थे उन्हें एकाएक उस पर विश्वास कैसे हो सकता था? अत: फिर ग्राहक लौट कर जाने लगे। मगर जब देखा कि उस दुकान से और दुकान पर हरेक चीज के एक दो पैसे अधिक ही लगते हैं तो लोगों के दिल में उसकी दुकान के प्रति प्रतिष्ठा जम गई । फिर क्या था? उत्तरोत्तर रोज अधिक से अधिक संख्या में ग्राहक आने लगे और बेबूझ होकर सौदा लेने लगे।
  7. अहिंसा का महात्म्य जो किसी को भी कभी नहीं मारना चाहता उसे भी कोई क्यों मार सकता है। जिसकी आन्तरिक भावना निरन्तर यही रहती है कि किसी को भी कोई तरह का कष्ट कभी भी न होवे तथा इसी विचारानुसार जिसकी बाहरी चेष्टा भी परिशुद्ध होती है उसकी उस पुनीत परिणति का प्रभाव होता है कि उसके सम्मुख में आ उपस्थिति हुआ एक खूख्वार प्राणी भी जरासी देर में शान्त हो जाता है। उसके ऊपर आयी हुई आपत्ति भी उसके आत्मबल से क्षण भर में सम्पत्ति के रूप में परिणत हो जाती है। इस बात के उदाहरण हमारे पुरातन में भरे हुए हैं। वारिषेण पर चलाया हआ खड्ग उसका कुछ भी बिगाड़ न कर सका, सोमासती को मारने के लिये लाया हुआ काला नाग उसके छूते ही फूलमाला बन गया और एक गठरिया में बांधकर तालाब में डाले गये राजकुमार और यमदण्ड चाण्डाल, इन दोनों में से राजकुमार तो मगरमच्छ द्वारा भक्षण कर लिया गया किन्तु यमदण्ड चाण्डाल बाल-बाल बच गया, इत्यादि ये सब अहिंसा के ही प्रभाव हैं। सुना जाता है कि दिग्विजय के लिए प्रस्तुत हुआ सिकन्दर जब भारत से वापस लौट चला तो रास्ते में उसकी एक परमहंस महात्मा से भेंट हुयी। उन्हें देखते ही सिकन्दर के रोष का ठिकाना न रहा। वह बोला अबे बे अदब! तू इस प्रकार लापरवाह होकर कैसे खड़ा है? तुझे मालूम नहीं कि सामने से कौन आ रहा है? खबरदार हो, संभल जा वरना तो फिर देख यह तलवार आती है। इस प्रकार कहते हुए तलवार निकालकर वह उनके ऊपर लपका। महात्मा तो अपने ध्यान में मस्त थे। परमात्मा से प्रार्थना कर रहे थे कि भगवान् सबको सुबुद्धि दे। वे क्यों उसकी बात सुनने लगे। अतः उसी प्रकार नि:शक खड़े रहे। तब सिकन्दर के मन में एकाएक परिवर्तन हो गया कि आहे! यह तो खुदा का रूप है, प्रकृति की देन है, अपने सहजभाव से खड़ा है, मैं क्यों व्यर्थ ही इस पर रोष कर रहा हूं? एवं वह अपनी तलवार को वापिस म्यान में रखकर उनके चरणों में गिर पड़ा और बोला- कि प्रभो ! मैं समझता था कि मुझे कोई नहीं जीत सकता परन्तु आपने मुझे जीत लिया है। फिर भी मै इस पराजय को अपना सौभाग्य समझता हूं। इसी प्रकार ईसा के पूर्व छठी शताब्दी में एक लुटेरा हो गया है, वह जिसे भी पाता था उसकी हाथों का अंगुलियों को जला दिया करता था और उसके पास के माल को छीन लिया करता था। इसलिये लोग उसे अंगुलिमाल कहते थे। वह किसी भी राजा महाराजा से नहीं पकड़ा जा सकता था। एक बार महात्मा बुद्ध उधर होकर जाने लगे तो लोग बोले महात्मन् इधर को मत जाइये, इधर में तो अंगुलिमाल है जो कि बड़ा भयंकर है। परन्तु उन्होंने लोगों के कहने को नहीं सुना और चले ही गये। जब अंगुलिमाल ने देखा तो बोला अबे! कौन है? खड़ा रह, कहां जा रहा है? बुद्ध ने चलते-चलते जवाब दिया मैं तो खड़ा ही हूं, तू चलता है, सो तू खड़ा रह। अंगुलिमाल ने कहा, बड़ा विचित्र आदमी है। चला जा रहा है और बोलता है कि खड़ा तो हूं? बुद्ध ने कहा- भाई मैं ठीक तो कह रहा हूं, दुनिया के लोगों को ठहरने के लिए जो बात होनी चाहिये मैं तो उसी बात पर स्थित हूं परन्तु तू इसके इधर-उधर जा रहा है अत: तुझे उसको सम्भालना चाहिये। बस इतना सुनना था कि अंगुलिमाल के विचारों में बिल्कुल परिवर्तन हो गया। अहो ! मैं शरीर से मानव होकर भी मानवता से बिल्कुल दूर हूं। मुझे इन महात्मा के निकट रहकर मनुष्यता का पाठ पढ़ना चाहिये। इस तरह सोचकर उनका परम शिष्य बन गया।
  8. हिंसा के रूपान्तर चीन देश में बौद्धों का निवास है, उन लोगों को विश्वास है कि किसी भी प्राणी को मार कर नहीं खाना चाहिये। मुर्दा माँस के खाने में कोई दोष नहीं है। वहां ऐसी प्रवृत्ति चल पड़ी है कि जिस बकरे वगैरह को खाने की जिसकी दृष्टि होती है वह उसके मकान में ढकेल कर कपाट बन्द कर देता है और दो चार दिन में तड़फड़ा करके जब वह मर जाता है तो उसे खा लिया जाता है। कहने को कहा जाता है कि मैंने इसे नहीं मारा है, यह तो अपने आप मर गया हुआ है। परन्तु उस भले आदमी को सोचना चाहिए कि यदि वह उसे बन्द न करता तो वह क्यों मरता? अत: यह तो उस प्राणी को मारने के साथ-साथ अपने आपको धोखा देना है, सो बहुत बुरी बात है। हां, माता अपने पुत्र में कोई बुरी आदत देखती है तो उसको छोड़ने को कहती है, और नहीं मानता है तो धमकाने के लिये कभी-कभी उसे रस्से वगैरह से भी कुछ देर के लिये बांध देती है या मकान के अन्दर बन्द कर देती है, सो ऐसा करना हिंसा में शुमार नहीं होना चाहिये क्योंकि यह तो उसको सुधारने के लिये किया जाता है। अन्तरंग में उसके प्रति उसका करूणाभाव ही होता है। देखो ! माता अपने बच्चे को जब चपेट मारने लगती है तो दिखती बड़े जोर से है किन्तु बच्चे के गाल के समीप आते ही उसका वेग बिल्कुल धीमा पड़ जाता है क्योंकि उसके दिल में दया और प्रेम का भाव होता है ताकि वह सोचती है कि यह डर कर सुधर जावे जरूर, किन्तु इसके चोट नहीं आने पाये। सो ऐसा तो करना ही पड़ता है, परन्तु कभी-कभी ऐसा होता है कि मनुष्य अपना बैर-भाव निकालने के लिए अपने कमाजोर पड़ोसी को मुक्कों ही मुक्कों की मार से घायल कर डालता है। या कोई पशु उसकी धान की ढेरी में मुँह दे जावे तो रोष में आकर ऐसी लाठी वगैरह की चोट मारता है कि उसकी टांग वगैरह टूट जाती है तो ऐसा करना बुरा है। पशु पालक लोग बैलों को बधिया कर लेते हैं या उनके नाक में नथ डालते हैं। वनचर लोग सुरभि गाय की पूंछ तरास लेते हैं या हाथी के दांत काट लेते हैं यह भी एक तरह की हिंसा है। क्योंकि ऐसा करने में उस पशु को पूरा कष्ट होता है और काटने वाले की केवल स्वार्थपूर्ति है। हां, किसी भी रोगी को डाह वगैरह दिया जाता है वह बात दूसरी है। किसी से भी शक्ति से अधिक काम लेना सो अतिभारारोपण है जिस पशु पर पांच मन वजन लादा जा सकता है, उस पर लोभ-लालच के वश हो छ: मन लाद देना। जो चलते-चलते थक गया है, चल नहीं सकता है, उसको जबरन हण्टर को जोर से चलाते ही रहना। किसी भी नौकर-चाकर से रुपये की एवज में सत्रह आने का काम लेने का विचार रखना इत्यादि सब बातें ही हिंसा से खाली नहीं हैं। हम देखते है कि प्रायः भले-भले रईस लोग भी, जब उनका नौकर बीमार हो जाता है और काम नहीं आता है तो उसका इलाज कराने की सोचना तो दूर किनार रहा प्रत्युत उसकी उस दिन की तनखा भी काट लेते हैं। भला जरा सोचने की बात है, अगर आपकी मोटर या बाइसिकल खराब हो जावे तो उसकी मरम्मत करावेंगे या नहीं? यदि कहें कि उसको को दुरुस्त कराना ही होगा तो फिर नौकर जो आप ही सरीखा मानव है वह उस निर्जीव बाइसिकल से भी गया बीता हो गया है? ताकि आप उसकी परवाह न करें। इसको काम रते-करते कितनी देर हो गयी है, भोजन का समय हो गया है, भूख लग आयी होगी, इस बात पर कोई ध्यान न देकर सिर्फ अपना काम हो जाने की ही सोचते रहना निर्दयता से खाली नहीं है। परन्तु इसके साथ में हम यह भी देखते हैं कि अधिकांश नौकर लोग भी मुफ्त की नौकरी लेना चाहते हैं। काम करने से भी जी चुराते हैं, मालिक का काम भले ही बिगड़े या सुधरे इसकी उन्हें कोई परवाह नहीं होती है। बल्कि यही सोचते हैं कि कब समय पूरा हो और कब मैं यहां से चलू सो यह भी बुरी बात है और पाप है। सिद्धान्त तो यह कहता है। मालिक और नौकर में परस्पर पिता पुत्र का सा व्यवहार होना चाहिये।
  9. राजनीति और धर्मनीति इन दोनों में परस्पर विरोध है। क्योंकि धर्म तो अहिंसा का पालन करने एवं इसे अन्त तक अक्षुण्ण रूप निभा दिखलाने को कहते हैं। परन्तु राजाओं का काम अपने राज्य शासन को बनाये रखना होता है। अत: उसके लिए येनकेन रूपेण अपने पक्ष को प्रबल बनाते चले जाना और अपने विरोधियों का का दमन करते रहना होता है। इसलिए राज्यसत्ता हिंसापूर्ण पापमय हुआ करती है। ऐसा कुछ लोग समझ बैठे हैं, किन्तु विचार करने पर यह ठीक प्रतीत नहीं होता है क्योंकि धर्म जो कि विश्व के कल्याण की चीज है उसे अपने जीवन में उतारने का नाम नीति है। राजा प्रजा का पालक होता है। सम्पूर्ण प्रजा को पापपडंक से बचाकर उसे धर्म के पथ पर समारूढ़ करा देना ही राजा का काम है, प्रजा में सभी तरह के लोग होते हैं अत: जो लोग अपने मनचलेपन से उत्पथ की ओर जा रहे हों उन्हें नियन्त्रित करने के लिए विधान करना शिष्टों का अनुग्रह करना, उन्हें सत्पथ की ओर बढ़ने के लिए प्रोत्साहन देना और दुष्टों की दुष्टता को निकालकर शिष्टता के सम्मुख होने को उन्हें बाध्य करना यह राजनीति है। इसलिए यह धर्म से विरुद्ध कैसे कही जा सकती है? यह तो धर्म को प्रोत्साहन देने वाली है। हाँ, इतनी बात आवश्यक है कि धर्म तत्त्व सदा अटल है परन्तु नीतितत्त्वों में देश, काल की परिस्थिति के अनुसार परिवर्तन होता रहता है। फिर भी उस संविधान का कलेवर जितना भी हो वह सारा का सारा ही जन-समाज के हित को लक्ष्य में लेकर किया हुआ होना चाहिये। उसका एक भी विधेयक ऐसा नहीं हो जो कि किसी के भी व्यक्तिगत स्वार्थ को लेकर रचा गया हो।
  10. अहिंसा की निरूक्ति हिंसा के अभाव का नाम अहिंसा है। हनन हिंसा, इस प्रकार हन धातु से हिंसा शब्द निष्पन्न हुआ है जो कि हन धातु सकर्मक है। यानी किसी को भी मार देना, कष्ट पहुंचाना, सताना हिंसा है। परन्तु किसी भी अबोध बालक का पिता, गलती करते हुऐ अपने उस बच्चे की गलती सुधारने के लिए उसे डराता, धमकाता है और फिर भी नहीं मानने पर उसे मारता, पीटता है। अब शब्दार्थ के ऊपर ध्यान देने से पिता का यह काम हिंसा में आ जाता है एवं यह हिंसक बनकर पापी ठहरता है जो कि किसी भी प्रकार किसी को भी अभीष्ट नहीं है। अत: उस दुर्गुण से बचने के लिए हमारे महापुरुषों ने इसमें एक विशेषता स्वीकार की है। वह यह कि किसी को भी बरबाद कर देने की दृष्टि से उसे कष्ट दिया जावे तो वह हिंसा है। जैसा कि उमास्वामी महाराज के प्रमत्त योगात्प्राणज्यपरोपणं हिंसा' इस सूत्र से स्पष्ट है। मतलब यह है कि जो उसके पालन-पोषण का पूर्ण अधिकारी है वह बालक के जीवन को निराकुल बनाने के लिए सतत् प्रयत्नशील रहता है। तो बालक जबकि अपने भोलेपन के कारण उसके जीवन को समुन्नत बनाने वाली भलाई की ओर न बढ़कर प्रत्युत बुराइयों में फंसने लगता है तब ऐसा करने से रोकने के लिए उसे डांट बताना पिता का कर्तव्य हो जाता है। इस प्रकार अपने कर्तव्य का निवार्ह करता हुआ पिता पुत्र का मारक नहीं किन्तु, संजीवक, संरक्षण होकर उसके द्वारा सदा के लिए समादरणीय होता है।
  11. एक भील का अटल संकल्प महाभारत में एक जगह आया है कि बाण-विद्या की कुशलता के बारे में द्रोणाचार्य की प्रसिद्धि सुनकर एक भील उनके पास आया और बोला कि प्रभो ! मुझको बाण विद्या सिखा देवें। द्रोणाचार्य ने जवाब दिया कि मैं अपनी विद्या क्षत्रिय को ही सिखाया करता हूं यह मेरा प्रण है। अत: मैं तुझे सिखाने के लिए लाचार हूं। इस भील ने कहा प्रभो ! मेरा भी यह दृढ़ संकल्प है कि मैं आप से ही विद्या सीखूंगा ऐसा बोलकर चला गया और द्रोणाचार्य की मूर्ति बनाकर उसके आगे बाण चलाना सीखने लगा। कुछ दिन में वह अर्जुन से भी अधिक प्रवीण हो गया। एवं उसकी फैलती हुई बाण विद्या की कीर्ति को सुना तो घूमते फिरते हुए द्रोणाचार्य एक रोज उसके पास आये और बोले कि भाई ! तुमने यह विद्या किससे सीखी है। उत्तर में यह कहते हुए कि प्रभो ! मैंने आपसे ही सीखी है। यह देखिये आपकी मूर्ति बना कर रख छोड़ी है। द्रोणाचार्य के चरणों में गिर गया। द्रोणाचार्य बोले यदि ऐसा तो इसकी दक्षिणा मुझे मिलनी चाहिए। जबाव मिला आप जो चाहें सो ही लीजिये। द्रोणाचार्य बोले और कुछ नहीं सिर्फ अपने दाहिने हाथ का अंगूठा दे दो। भील ने झट अंगूठा काटकर दे दिया। द्रोणाचार्य हंसे ओर बोले कि भील अब तुम बाण कैसे चलाओगे? गुरु कृपा चाहिए, ऐसा कहता हुए भील ने पैर के अंगूटे से बाण चला दिया द्रोणाचार्य ने उसकी पीठ ठोकते हुए कहा शाबास बेटे! किन्तु किसी भी प्राणी की हिंसा करने में इस विद्या का दुरुपयोग मत करना। जबाव मिला कि प्रभो ! हिंसा करना तो कमीनापन है मैं कमीना नहीं हूं। इस पर द्रोणाचार्य हंसे। उनके हँसने का मतलब भील समझ गया। अत: वह बोला कि प्रभो ! यद्यपि मैं एक वनचर का लड़का हूं किन्तु मैं समझता हूं कि जन्म से कोई नीच और उच्च नहीं होता। जन्म तो सब का एक ही मार्ग से होता है। नीचता और उच्चता तो मनुष्यों के विचारों या कर्तव्य पर निर्भर है। जो आदमी एकान्त स्वार्थपरता को अपनाकर चोरी, चुगलखोरी जैसे दुष्कर्मों में फंसा रहता है वह मनुष्यता से दूर होने के कारण नीच बना रहता है। परन्तु जो मनुष्यता को समझता है वह इन दुर्गुणों से बिल्कुल दूर रह कर परोपकार, सेवाभाव आदि सद्दगुणों को अपनाता है एवं उच्च बनता है। मैं भी अपने आप को मनुष्य मानता हूं फिर आप ही कहे कि मैं मनुष्यता को कैसे भूल सकता हूँ? शस्र सम्धारण कर्ता को भी आज हिंसा का कारण मान कर हेय समझा जाने लगा है कि पूर्व जमाने में क्षत्रियता का भूषण होता हुआ चला आया है। पाषाण काल के अन्त में जब लोगों के लिए कृषि सम्पादन की आवश्यकता हुई तब दिव्य ज्ञानी भगवान् ऋषभदेव ने उसकी सुव्यवस्था के लिए मनुष्यमात्र को तीन भागों में विभक्त किया। १. क्षत्रिय। २. वैश्य। ३. शूद्र। उनमें से वैश्यों में जुम्मे खेती करने का और उसमें उत्पन्न हुयी चीजों को यहां वहां पहुंचाने का काम सौंपा गया। शूद्रों को उन्हीं चीजों को मुनष्यों के काम में आने योग्य बनाने का काम सौंपा गया और क्षत्रियों को सब की रक्षा के लिए नियुक्त किया गया था। तब उन सबको उनके योग्य हथियार बना कर दिये गये थे ताकि वे लोग आसानी से अपने-अपने कार्य को सुसम्पन्न कर सकें। जैसे-किसान के लिए हल, मूसल वगैरह। लोहार के लिए हथौड़ा, घन वगरैरह। वैसे ही क्षत्रिय के लिए तलवार, बन्दूक वगैरह दिये गये थे जिनके द्वारा क्षत्रिय वर्ग अपने प्रजा संरक्षण रूप कार्य में कुशलता पूर्वक उत्तीर्ण हो रहे हैं। एवं वास्तव में वह हिंसा का नहीं बल्कि अहिंसा का पोषक ही ठहरता है, यह बात दूसरी है कि वह अगर किसी सांसी बावरिया आदि हिंसक व्यक्ति के हाथ में आ जावेगा तो अवश्य ही हिंसा में प्रयुक्त होगा परन्तु वह उस हथियार का दोष नहीं, वह तो उस व्यक्ति के मनचलेपन का फल है, हां, आज की जनता का अधिकांश यह हाल है कि वह क्षत्रियता से दूर होकर स्वार्थपरायणता की ओर ही बड़ी तेजी से दोड़ी चली जा रही है। इसलिए शस्रवृत्ति भी अनुपयोगी ही नहीं प्रत्युत घातक बनती जा रही है। जब कोई किसी भी शस्त्रधारी को देखता है तो भय के मारे थर-थर कापं उठता है क्योंकि उसके मन में यह शस्त्रधर है, सबल है, अतः मेरी रक्षा करेंगे ऐसा विचार न आकर इसके स्थान पर यही भाव उत्पन्न होता है। कि यह कहीं मुझे मार न डाले। क्योंकि आज जहां तहां बलियानबलं ग्रसते वाली कहावत के अनुसार जो भी बलवान है वह अपने उस बल का दुरुपयोग दुर्बलों को हड़पने में करता हुआ देखा जाता है। इसलिए हमारी सरकार को भी यह नियम बनाना पड़ा है कि जो कोई भी शस्त्र रखना चाहे वह शस्त्र धारण करने से पहले इस बात को प्रमाणित कर दे कि “मैं उस शस्त्र के द्वारा संरक्षण का ही काम लूंगा, संहार करने को नहीं।'' एवं भले ही हमारी सरकार ने सर्वसाधारण को चुनौती दी है फिर भी मनचले आदमी समय पर अपनी काली करतूतों से बाज नहीं आते हैं।
  12. कुलक्रम निश्चित नहीं है कश्यपु के प्रहल्लाद हो, अग्रसेन के कंश। फिर कोई कैसे कहै, किसका कैसा वंश॥ चिरन्तर काल से चली आई हुई इस मनुष्य परम्परा में कोई आदमी सरल स्वभाव का होता है, किन्तु उसका लड़का बिलकुल वक्र स्वभाव वाला दीख पड़ता है। और अज्ञानी बाप का लड़का अतिशय तीक्ष्ण बुद्धि वाला पाया जाता है। हिरण्यकश्यपु एकान्त नास्तिक विचार वाला था किन्तु उसी का लड़का प्रहल्लाद परम आस्तिक था। एवं महाराज उग्रसेन जो कि परम क्षत्रिय थे, प्रजा वत्सल थे उनका लड़का कंस उनके बिलकुल विपरीत उग्र स्वाभाव का, घातक, प्रजा को निष्कारण ही कष्ट देने वाला हुआ। ऐसी हाल में कौन आदमी कैसे मां बाप का लड़का है इसका निर्णय कैसे किया जा सकता है? यद्यपि मूंगों से मूंग ही पैदा होते हैं, फिर भी उन्हीं में कोई-कोई धोरडु भी पैदा होता है जो कि न तो सीझता ही है और न भीजता ही। जिस खदान में पत्थर निकलते हैं उसी में कहीं कभी हीरा भी निकल आता है। यही कुलक्रम का हाल है।
  13. राम और रावण ये दोनों ही यद्यपि महाकुलोत्पन्न थे। महाशक्तिशाली थे। अनेक प्रकार के हथियारों को धारण करने वाले थे। फिर भी दोनों के कर्तव्य कार्य में बड़ा भारी अन्तर था। राम की शक्ति और उनके हथियारों का प्रयोग सदा परमार्थ, परोपकार के लिये हुआ करता था। किन्तु रावण की सारी चेष्टायें स्वार्थ भरी थीं। क्योंकि राम सुपथगामी के साथ दृढ़मना महापुरुष थे किन्तु रावण दुराभिलाषी था, मनचलेपन को लिये हुए था। श्री रामचन्द्र जी की शक्ति और हथियारों का प्रयोग सदा विश्वकल्याण के लिए हुआ करता था। किन्तु रावण की सभी क्रियायें औरों की तो बात ही क्या अपने कुटुम्ब के लोगों के भी विरुद्ध उनको कष्ट देने वाली होकर सिर्फ उसकी स्वार्थान्धता को ही पनपाने वाली थी, इसमें अगर कोई कारण था तो उसका मनचलापन ही था।
  14. अहिंसक के लिये विरोध का क्षेत्र जो अहिंसक होता है वह स्वयं तो वीर बहादुर होता है। उसे किसी से भी किसी प्रकार का डर नहीं होता। परन्तु उसने जिन बुजदिलों या बाल वृद्ध आदि लोगों को संभाल रखने का संकल्प ले रखा है, उन लोगों पर यदि कोई मनचला आदमी अनुचित आक्रमण करके गड़बड़ी मचाना चाहता है तो उसे सहन कर लेना उसके आत्मत्व से बाहर की बात हो जाती है। अतः वह उसे उस गड़बड़ी को करने से रोकता है कहता सुनता है। यदि करने सुनने से मान जावे जब तो ठीक ही है। और नहीं तो फिर बल प्रयोग द्वारा भी उसका उसे प्रतिवाद करना पड़ता है। इसी का नाम विरोध है जो कि एक अहिंसक का कर्तव्य माना गया है। क्यों ऐसा न करने से अपने आश्रितों की रक्षा करने का और दूसरा कोई चारा नहीं होता। इस विरोध करने में आक्रमणकारी का कुछ न कुछ बिगाड़ अवश्य होता है जिसको कि लेकर विरोधक को हिंसक ठहराया जाया करता है। परन्तु वहां पर जितना भी बिगाड़ होता है उसका उत्तरदायी तो वह आक्रामक ही है। विरोधक तो अपने उन लागों की रक्षा करने का प्रयत्न करता है, जिनकी रक्षा करने का उसने प्रण ले रखा है एवं समर्थ है।
  15. जैन कौन होता है? ‘पक्षपातं जयतीति जिनः जिन एव जैनः' अर्थात् कोई भी महाशय यह तेरा है और यह मेरा, यह अच्छा है और यह बुरा। इस प्रकार के विच्छिन्न भावों को अपने मन में से निकाल बाहर कर देता है वें जो सदा सब तरफ सबके साथ एक-सी माध्यमिक व्यापक दृष्टि से देखने लगता है वह जैन कहलाता है। यह दुनियादारी का पामर प्राणी अनाया ही अपने शरीर और इन्द्रियों के सम्पोषण रूप स्वार्थ में संलग्न पाया जाता है जो कि शरीर नश्वर है। तथापित आत्मा अविनश्वर, किन्तु इसकी विचारधारा इस और नहीं जाती। यह तो अपनी मोटी बुद्धि से इस चलते फिरते शरीर को ही आत्मा समझे हुए है। अतः इसे बिगड़ने न देकर चिरस्थाई बनाये रखने की सोचता है एवं इसके काम में जो सहायता देने वाले हैं उन्हें अपने और अच्छे मानकर अपनाता है। किन्तु इससे विरुद्ध को पराये और बुरे समझकर उन्हें बरबाद करने में तत्पर हैं। एवं संघर्ष की जन्मदाता बना हुआ है शन्ति से दूर है। हाँ, मनुष्य अगर अपनी प्रज्ञा से काम ले तो इसकी समझ में आ सकता है कि शरीर और आत्मा भिन-भिन्न चीजें हैं, शरीर जड़ और नाशवान है तो मेरी आत्मा चैतन्य की धारक शाश्वत रहने वाले। एवं जैसी मेरी आत्मा है वैसी ही इन इतर शरीरधारियों की भी आत्मायें हैं ऐसे विचार को लेकर फिर वह जिसके किसी भी प्राणी को कष्ट हो ऐसी चेष्टा न करके ऐसी प्रक्रिया करता है। जिसमें कि प्राणीमात्र का हित सन्निहित हो। यानी जो स्वार्थ से दूर रहकर पूर्णतया परमार्थ की सड़क पर आ जाता है वही जैन कहलाता है, एवं इस प्रकार जैन बनने का हरेक मनुष्य को अधिकार है यदि वह उपर्युक्त रूप से आत्म-साधना को स्वीकार कर ले। बस ऐसा जिसे विश्वास हो वह जैन होता है जो कि अहिंसा में रुचि रखने वाला होता है हिंसा से परहेज करता है।
  16. जैन वीरों की देशभक्ति मुसलमानों ने गुजरात पर आक्रमण कर दिया। वहां के सेनापति आबूव्रती श्रावक थे। जो कि नित्य नियमपूर्वक प्रतिक्रमण किया करते थे। शत्रुओं से लड़ते-लड़ते उनके प्रतिक्रमण का समय हो गया जिसके लिए उन्होंने एकान्त स्थान पर जाना चाहा, परन्तु मुसलमानों की जबरदस्त सेना के सामने अपनी मुट्ठी भर फौज के पांव उखड़ते देखकर राष्ट्रीय सेवा के कारण रणभूमि को छोड़ना उचित न जाना और दोनों हाथों में तलवार लिए हौदे पर बैठे हुए बोलने लगें- ‘जे मे जीवा विराहिया एकगिन्दिया वा बे इन्दिया वा' इत्यादि जिसको सुनकर सेना सरदार चौंक उठे कि देखो ये रणभूमि में भी जहां तलवारों की खनाखन और मारो-मारो के भयानक शब्दों के सिवाय कुछ सुनाई नहीं देता, वहां एकेन्द्रिय दो इन्द्रिय जीवों तक से क्षमा चाह रहे हैं, ये नरम-नरम हलवा खाने वाले जैनी क्या वीरता दिखा सकते हैं। प्रतिक्रमण का समय समाप्त होने पर सेनापति ने शत्रुओं के सरदार को ललकारा कि ओ! इधर आ, हाथ में तलवार ले, खांडा संभाल। अपनी वीरता दिखा, होश कर मन की निकाल। धर्म का पालन किया हो तो धर्म की शक्ति दिखा वरना जान बचाकर फौरन यहां से भाग जा। इस पर शत्रुओं सरदार उत्तर भी देने न पाया था कि जैन सेनापति आबू ने इस वीरता और योग्यता से हमला किया कि शत्रुओं के छक्के छूट गये और मुसलमान सेनापति को मैदान छोड़ कर भागना पड़ा। फिर क्या था, गुजरात का बच्चा-बच्चा आबू की वीरता के गीत गाने लगा। उसको अभिनन्दन पत्र देते हुए रानी ने हंसी में कहा कि सेनापति। जब युद्ध में एकेन्द्रिय दो इन्द्रिय जीवों तक से क्षमा मांग रहे थे तो हमारी फोज घबरा उठी थी कि एकेन्द्रिय जीव से क्षमा मांगने वाला पंचेन्द्रिय मनुष्य को युद्ध में कैसे मार सकेगा। इस पर व्रती श्रावक आबू ने उत्तर दिया कि महारानीजी ! मेरे अहिंसा व्रत का संबंध मेरी आत्मा के साथ है। एकेन्द्रिय दोइन्द्रिय जीवों तक को बाधा न पहुंचाने का जो नियम मैंने ले रखा है वह मेरे व्यक्तिगत स्वार्थ की अपेक्षा से है। देश की सेवा अथवा राज्य की आज्ञा के लिए यदि मुझे युद्ध अथवा हिंसा करनी पड़े तो ऐसा करने में मैं मेरा धर्म समझता हूं क्योंकि मेरा यह शरीर राष्ट्रीय सम्पत्ति है। इसका उपयोग राष्ट्र की आज्ञा और आवश्यकता के अनुसार ही होना उचित है परन्तु आत्मा और मन मेरी निजी सम्पत्ति है। इन दोनों को हिंसा भाव से अलग रखना मेरे अहिंसा व्रत का लक्षण है। ठीक ही है, ऐसा किये बिना गृहस्थों का निर्वाह नहीं हो सकता। गृहस्थ ही क्या, कभी-कभी तो साधु महात्माओं तक को भी ऐसा करने के लिए बाध्य होना पड़ता है। पद्मपुराण में एक जगह वर्णन आता है कि रावण पुष्पक विमान में बैठकर आकाश मार्ग से कहीं जा रहा था तो रास्ते में कैलाश पर्वत पर आकर उसका विमान रुक गया। मेरे विमान को किसने रोक लिया, इस विचार से वह इधर-उधर देखने लगा तो नीचे पर्वत पर बाली मुनि को तपस्या करते हुए पाया और विचार किया कि इन्हीं ने मेरे विमान को रोका है। अतः रोष में आकर सोचने लगा कि मैं मेरे इस अपमान का इनसे बदला लूंगा, पर्वत सहित इनको उठाकर समुद्र में डाल दूंगा। और जब वह अपने इस विचार को कार्य रूप में परिणत करने के लिए पहाड़ के मूल भाग में पहुंच गया तो महर्षि ने सोचा यदि कहीं यह सफल हो गया तो बड़ा अनर्थ हो जावेगा। भरत चक्रवर्ती के बनाये हुए बहुमूल्य और ऐतिहासिक जिनायतन भी नष्ट हो जायेंगे तथा पर्वत में निवास करने वाले पशु-पक्षी भी मारे जावेंगे। उन्होंने अपने पैर के अंगूठे से जरा सा दबा लिया तब रावण दब कर रोने लगा। तब मन्दोदरी ने आकर महिर्ष से अपने पति की भिक्षा मांगी तो महर्षि ने पैर को ढीला किया।
  17. अहिंसा अव्यवहार्य नहीं है किसी को भी मारना हिंसा है, न कि मरना। क्योंकि मरना तो कभी न कभी शरीरधारी को पड़ता ही है, हां, अपने आप जान-बूझकर पर्वत से पड़कर, कूप में पड़कर, तलवार खाकर या विष भक्षण कर मरना वह मरना नहीं है, किन्तु अपने आपको मारना है। जैसे दूसरों को मारना हिंसा है वैसे ही अपने आपको मारना भी हिंसा ही नहीं बल्कि घोर हिंसा है। जिसको आत्मघात बताकर महर्षियों ने उसकी घोर निन्दा की है और जब कि मारने का नाम हिंसा है तो फिर हिंसा किये बिना निर्वाह नहीं हो सकता यह विश्वास झूठा है। क्या किसी को मारे बिना किसी का काम नहीं बन सकता? नहीं ऐसी बात नहीं है। हां, कोई बहुत बड़ी या थोड़ी हिंसा करता है तो कोई हिंसा किये बिना भी रह सकता है। बल्कि अहिंसा के बिना किसी का भी गुजर नहीं हो सकता। एक बड़े से बड़ा पारधी जिसने प्राणियों को मारना ही अपना काम समझ रखा है। वह भी कम से कम, अपनी उसकी पक्ष करने वाले को तो नहीं मारता है। अतः यह तो मानना ही होगा कि अहिंसा सभी की उपास्य देवता है। हां, यह कहा जा सकता है कि अपने शरीर का निर्वाह अपने आप करने वाला आदमी भले ही मांस न खाये और खून या शराब पिये बिना रह जावे परन्तु साक सब्जी तो उसे खानी ही होगी और प्यास बुझाने के लिये स्वच्छ पानी भी पीना ही होगा। बस इसीलिए हमारे दिव्य ज्ञानी महिरिशियों ने बतलाया है कि कौटुम्बिक जीवन वाले लोगों को स्थावर हिंसा करना आवश्यक है, उसके बिना उनका निर्वाह नहीं हो सकता किन्तु उस हिंसा तो उनको कभी भी नहीं करना चाहिए।
  18. कोई किसी से जैसा कराना चाहे वैसा खुद करे सुशिक्षिता ने देखा कि अब मेरे जुम्मे कोई खास काम नहीं रहा है तो एक दिन वह चक्की तो घर में थी ही कुछ गेहूं लेकर पीसने बैठ गई। उसे ऐसा करते देखकर सास आई और बोली कि बहू आज यह क्या कर रही है? क्या पवन चक्की दुनिया से उठ गई? ताकि तू गेहं लेकर पीसने को बैठी है? इस पर सुशिक्षित बोली कि सासूजी आप या जेठानियां और तो कुछ करने नहीं देती, खुद करने लग गई हैं तो फिर मैं क्या करूं? काम नहीं करने से शरीर आलसी बन जाता है, दिन भर निठल्ला बैठे रहने से मन में अनेक प्रकार के खोटे विचार आते हैं। पीसने से कसरत भी कुछ सहज ही बन जाती है। ताकि शरीर और मन दोनों प्रसन्न ही रहते हैं। इसके अलावा पवन चक्की का आटा खाने से धार्मिक और आर्थिक हानि के साथ-साथ शारीरिक स्वास्थ्य भी बिगड़ता है। इसलिये मैंने ऐसा करना ठीक समझा है। सुशिक्षिता को ऐसा करती हुई सुनकर जिठानियों को तमाशा सा लगा अतः एक-एक करके वे सब भी उसके पास में आ खड़ी हुयीं और देखने लगीं। एक ने देखा कि यह तो बड़ी ही आसानी से चक्की को घुमा रही है एवं एक प्रकार का आनन्द का अनुभव कर रही है जरा मैं भी इसे घुमाकर क्यों न देखूं? ऐसे मन से उसके साथ आटा पीसने को बैठी और थोड़ी देर बाद बोली कि ओह, यह तो बहुत अच्छी बात है। यद्यपि थोड़ा परिश्रम तो इसमें होता है, सो तो हिंडोले पर हींड़ने में भी होता है, जो कि मनोविनोद के लिये किया जाता है। इनमें तो विनोद का विनोद और काम का काम तथा शरीर बिल्कुल फूल जैसा ही हलका बन जाता है। मैं भी रोजमर्रा थोड़ा बहुत पीसा करूंगी। फिर क्या था, फिर तो क्रम-क्रम से सभी पीसने लगीं। सुशिक्षिता ने फिर फुरसत पाई कि हाथ में बुहारी लेकर घर का कूड़ा कचरा साफ किया और फिर घड़ा लेकर कुएं पर पानी भरने को जाने लगी तो सासू ने प्रेम से कहा- बेटी यह क्या करती है? घर पर तो नौकर बहुत हैं, उनसे काम कराओ। जवाब में सुशिक्षिता ने कहा माताजी ! कोई व्यक्ति आप बैठा रहकर नौकरों से काम ले, मैं इसे अच्छा नहीं समझती, क्योंकि क्या उसके खुद के हाथ पैर नहीं हैं? अगर हैं तो क्यों होना चाहिये। ऐसा करना तो मेरी समझ में उन नौकरों के साथ में दुर्व्यवहार करना है, नौकर भी तो, समझदार के लिये भाई-बन्धुस्थानीय ही होते हैं। उन्हें तो इसलिये रक्खा जाता है कि समय पर मनुष्य से खुद से काम पूरा न किया जा सकता हो या जिस-जिस काम को वह नहीं कर सकता हो वह काम प्रेम-पूर्वक उनसे लेता रहे। कार्य करने से मनुष्य की प्रतिष्ठा कम नहीं होती प्रत्युत बढ़ती है। प्रतिष्ठा के कम होने का तो कारण है स्वार्थ-परायणता या विलासिता। सुशिक्षिता की ऐसी ज्ञान भरी बात सुनकर सेठानी को बड़ी प्रसन्नता हुई। वह मन में सोचने लगी कि अहो ! देखो इसके कितने ऊँचे विचार हैं, यह साक्षात भलाई की मूर्ति की प्रतीत होती है जिस की वजह से आज मेरे इस घर में शांति का साम्राज्य हो गया है जहां पर कि इससे पूर्व में कलह का आतंक छाया हुआ था। अब एक रोज सेठानी ने बाजार से मंगवाकर सब बहुओं को उनके साल भर के खर्च के योग्य छ: छः जोड़ा साड़ियों के दिये तो सुशिक्षिता अपने उन जोड़ों में से एक जोड़ा लेकर, हे जीजी ! मेरे पास पहले ही से बहुत सी साड़िया मेरी पेटी में धरी रखी हैं काम में नहीं आती तो मैं अब इनका क्या करूंगी? अतः यह साड़ी जोड़ा आप ही ग्रहण करें, ऐसा कहते हुए बड़ी जेठानी को भेंट किया एवं एक-एक जोड़ा और जेठानियों को दिया तथा ननद को भी एक जोड़ा दे दिया जिससे वे सब बड़ी प्रसन्न हुयी। इधर सेठानी को यह बात मालूम हुई तो उसने पूछा कि बहू यह क्या किया? तो सुशिक्षिता बोली कि सासूजी आप ही देखती हैं कि मैं तो मेरे हाथ के कते हुए सूत से खुद ही बुनकर तैयार कर लेती हूं, उसी साड़ी को पहनती हूं। जो कि साल भर में दो साड़िया ही मेरे लिये पर्याप्त होती हैं किन्तु मैं साल भर में छह: सात साड़ियां तैयार कर लेती हूं जो कि मेरे पास सन्दूक में भरी रक्खी हैं। मैं तो उनमें से भी इनको देना चाहती हूं, परन्तु ये जीजी बाइयाँ भले घरानों की हैं। इन्हें ये साड़ियाँ पसन्द नहीं आती। आज आपने ये बेशकीमती साड़ियाँ मंगवाकर हम सबको पारितोषक रूप में दी तो आपका हाथ पाछा गिराना तो मैंने उचित नहीं समझा किन्तु मैं व्यर्थ ही इनका संग्रह करके क्या करती? अतः एक-एक जोड़ा मैंने इनको दे दिया। अब यह एक जोड़ा और शेष है इसको भी अगर आप अपने लिये रख लें तो बहुत अच्छा हो। आपके काम में आ जावेगा, वरना मेरे पास तो व्यर्थ ही पड़ा रहेगा। मैं तो मेरी हाथ की बुनी हुई साड़ियों में से भी कभी किसी नौकरानी को तो कभी किसी गरीब बहिन को दे दिया करती हूं। संग्रहवृत्ति, या फैशनबाजी को मैं मेरे लिये अच्छा नहीं समझती। वस्त्रादि चीजों को संग्रह कर रखने में मन उन्हीं वस्तुओं में चिपका रहता है। मोह उत्पन्न होता है। जो बहिने नित्य नई पोशाकें बदलना जानती हैं वे सब अपने पतिदेवों को व्यर्थ की परेशानी में डालने का काम करती हैं। क्योंकि अन्याय अनर्थ का न होता कार्य करके भी धन कमा लाकर उनकी हविस पूरी करने की ही चिन्ता रहती है। जो कि एक बड़ी भारी हिंसा है। जिसका उत्तरदायित्व उन मेरी फैशनबाज बहिनों के जुम्मे होता है, जिन्हें कि शोभा का प्रलोभन होता है। परन्तु उन्हें सोचना चाहिये कि शोभा तो गहनों और कपड़ों से न होकर समुचित नि:स्वार्थ सेवा और परोपकार आदि सद्दगुणों द्वारा होगी। इस प्रकार सुनकर सेठानी ने कहा कि बहू तेरा कहना ठीक है, आज से मैं तो यह प्रतिज्ञा करती हूं कि तेरे हाथ के बने हुए कपड़ों को ही पहिना करूंगी एवं सादगी से अपना जीवन बिताऊँगी।
  19. अपनी भलाई ही है औरों के सुधारने के लिये उसने सोचा यहां पर मुख्य लड़ाई काम करने की है। इन्हें इनके विचारानुसार काम करने में कष्ट का अनुभव होता है ये सब अपने को आलसी बनाये रखने में ही सुखी हुआ समझती हैं, यदि घर के धन्धों को मैं मेरे हाथ से करने लग जाऊँ तो अच्छा हो, मेरा शरीर भी चुस्त रहे और इन लोगों का आपस का झगड़ा भी मिट जाये, एक तीर्थ और दो काज वाली बात है। अब रोज एक जब कि सब जनी भोजनपान के अनन्तर आकर एक जगह बैठी तो सुशिक्षिता ने कहा कि सासूजी और जीजीबाइयो सुनो, मेरे रहते हुये आप लोग काम करो यह मेरे लिये शोभा की बात नहीं, अपितु मैं इसमें अपनी हानि और मेरा अपमान ही समझती हूं। यहां कोई विशेष काम भी नहीं है और मेरा अभ्यास कुछ ऐसा ही है कि काम करने में ही मुझे आनन्द मालूम होता है। अत: कल से घर का रसोई पानी का काम मैं ही कर लिया करूं, ऐसी आज्ञा चाहती हूँ। इस पर बडी जेठानी बोली कि कॅवराणी जी! अभी तो आपके खाने-पीने और विनोद कर बिताने के दिन हैं, फिर तो तुम्हें ही सब कुछ करना पड़ेगा ताकि करते-करते थक भी जाओगी। सुशिक्षिता नम्रता के साथ कहने लगी- जीजी कि मैं तुम्हारे पैर पड़ती हूं मुझे निराश मत करो, मेरे तो यही काम करने के दिन हैं, अभी से करने लगूंगी तो कुछ दिनों में आप लोगों के शुभाशीर्वाद से आगे को काम करने लायक रहूंगी। अन्यथा मैं तो आलसी बनी रहूंगी, तो फिर भविष्य में कुछ भी न कर सकूंगी। यथाशक्ति घर का काम करना मेरा कर्तव्य है। अत: दया कीजिये और मुझ से काम लीजिये। हां यह अवश्य हो कि मैं भूल जाऊँ तो बताते तथा होशियार अवश्य करते रहने की कृपा करें। अब वह रोज सबेरे उठती नहा धोकर भगवद्भजन करके भोजन बनाने में लगी रहती थी। अनेक तरह का सरस, स्वादिष्ट भोजन थोड़ी सी देर में तैयार कर लेती और सबको भोजन करवा कर बाद मैं आप भोजन किया करती थी। यदि कभी कोई पाहुणा आ गया और असमय में भी भोजन बनाना पड़ा तो बड़े उत्साह के साथ सही भोजन बनाया करती थी। यह देखकर सास ने एक दिन आश्चर्यपूर्वक पूछा कि बहू तू ऐसा क्यों करती है? सब काम अकेली ही क्यों किया करती है? तब सुशिक्षिता बोली कि सासूजी! आप यह क्या कह रही हैं? काम करने से कोई दुबला थोड़े ही हो जाता है। काम करने से तो प्रत्युत शरीर स्वस्थ रहता है। यह तो मेरे घर का कार्य है, मुझे करना ही चाहिये। कोई भी अपना काम करें इसमें तो बुराई ही क्या है? मनुष्यता तो इसमें है कि अपने घर का काम सावधानता से निबटा कर फिर पड़ौसी के भी काम में हाथ बटाया जावे। यह शरीर तो एक रोज मिट्टी में मिल जावेगा। हो सके जहां तक इसको दूसरों की सेवा में लगा देना ही ठीक है। सुशिक्षिता की जेठानियां भी यह सब बात सुन रही थी अतः वे सब सोचने लगी कि देखो हम लोग कितनी भूल कर रही है। पड़ोसिन के कार्य में हाथ बटाना तो दूर कितना रहा हम लोग तो अपने घर के कार्यों को भी इसी के ऊपर छोड़कर बेखबर हो रही हैं। जैसा ही घर में होने वाला कार्य इसका है, इससे पहिले हमारा भी तो है फिर हम लोगों को क्यों न करना चाहिये, जी क्यों चुराना चाहिये? बस अब सभी अपना-अपना कार्य स्वयं करने लगीं।
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