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दूसरे की कमाई खाना गृहस्थ के लिए कंलक है।


संयम स्वर्ण महोत्सव

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दूसरे की कमाई खाना गृहस्थ के लिए कंलक है।

 

यह बात है कि ठीक क्योंकि कमाई करने के योग्य होकर भी जो दूसरों की ही कमाई खाता है वह औरों को भी ऐसा ही करने का पाठ सिखाता है एवं जब और सब लोग भी ऐसा ही करने लग जावें तो फिर कमाने वाला कौन रहे? ऐसी हालत में फिर सभी भूखे मरें, निर्वाह कैसे हो? इसीलिये न्यायवृत्ति वाला महानुभाव औरों की कमाई की तो बात ही क्या खुद अपने पिता की कमाई पर भी निर्भर होकर रहना अपने लिये कलंक की बात मानता है। जैसा कि

 

उत्तमं स्वार्जित वित्त मध्यमम् पितुरर्जितं ।

अधर्म भ्रातवित्तं स्यात्स्त्रीवित्तं चाधमाधमं॥ १॥

 

इस नीति वाक्य से स्पष्ट होता है और इस विषय में उदाहरण हमारे पुरातन साहित्य में बहुतायत से मिलते हैं। एक शाहजहां नाम का मुसलमान बादशाह हो गया है। उसकी बेगम नूरजहां अपने हाथों से खाना बनाया रखती थी। एक रोज रोटिया बनाते समय उसके हाथ जल गये। फिर भी वह उसी प्रकार रोज खाना बनाती रही। किन्तु एक दिन उसके हाथों में पीड़ा अधिक बढ़ गयी जिससे रोटी भी बनाने में वह बहुत कष्ट अनुभव करने लगी। बादशाह जब खाना खाने के लिये आया तो वह रो पड़ी, बादशाह ने पूछा क्या बात है? रोती क्यों हो? बेगम बोली आप ही देख रहे हो मेरे हाथों में पीड़ा बहुत है। 

 

कर्तव्य पथ प्रदर्शन जिससे रोटियां बनाने में अड़चन पड़ती है। कम से कम जब तक मेरे हाथ ठीक न हो जाये तब तक एक बान्दी का प्रबन्ध कर दें ताकि वह खाना बना दिया करे। जवाब मिला कि बात तो ठीक है परन्तु अगर बान्दी रखी जाय तो उसे उसका वेतन कहां से कैसे दिया जावे? बेगम ने आश्चर्य से कहा बादशाह सलामत यह आप क्या कर रहे हैं जब कि आपके अधिकार में दिल्ली की बादशाहत है फिर भला आपके पास पैसों की क्या कमी है? खजाने भरे पड़े हैं। बादशाह बोला कि खजाने में जो पैसा है वह पिता की दी हुई धरोवर है जो कि प्रजा के उपयोग की चीज है, उस पर मेरा जाती अधिकार क्या हो सकता है? मैं तो रूमाल रोजमर्रा तैयार कर लेता हूं, उसकी आय से मेरा और तुम्हारा गुजर बसर होता है वही मेरी सम्पत्ति है।

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