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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. आज हबीबगंज जैन मंदिर में स्थित हथकरघा के शोरूम *श्रमदान का उदघाटन समारोह https://www.facebook.com/www.vidyasagar.guru/photos/a.484024778600589.1073741828.484016608601406/642612389408493/?type=3 सम्मानीय धर्मप्रेमी बंन्धुओ सादर?? जय जिनेन्द्र परम पूज्य आचार्य भगवन् १०८ श्री विद्यासागर जी महराज के परम आर्शीवाद से समाज मे रोजगार और शुद्ध वस्त्र की परिकल्पना का सपना साकार हो रहा है कल दिनांक 13 मई 2018 दिन रविवार को हबीबगंज जैन मंदिर में स्थित हथकरघा के शोरूम *श्रमदान का उदघाटन समारोह है जिसमें मुख्य अतिथि माननीय केंन्द्रीय मंत्री सुश्री उमा भारती जी,भोपाल के लाडले महापौर श्री आलोक शर्मा जी एवं श्रीमति सुधा मलैया जी के शुभ सानिध्य में होने जा रहा है ? सुबह 8 बजे से श्री शाँतिं विधान एवं 9:30 बजे से उदघाटन का कार्यक्रम होगा यह सभी कार्यक्रम वाणी भूषण प्रतिष्ठाचार्य बाल ब्र विनय भैया जी के निर्देशन में होंगे। ?? आप लोग सपरिवार इष्टमित्र सहित पधार कर आचार्य भगवन की परिकल्पना को साकार करें, क़ार्यक्रम पश्चात स्वल्प आहार की व्यवस्था की गई है, आपके आभारी रहेगें, निवेदन: सकल दि० जैन समाज भोपाल, 09425005740 9826430536,
  2. ब्रह्मचारी विद्याधर को जिन पावन करकमलों ने मुनि - आचार्य विद्यासागर बनाया ऐसे दादागुरु महाकवि आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज के 46वें समाधि दिवस पर संयम स्वर्ण महोत्सव समिति द्वारा प्रस्तुत हैं डाक्यूमेंट्री महाकवि आचार्य ज्ञानसागर जी -डाक्यूमेंट्री भाग 3 भाग 3 https://vidyasagar.guru/videos/view-291-video/ भाग 2 https://vidyasagar.guru/videos/view-290-video/ भाग 1 https://vidyasagar.guru/videos/view-289-video/
  3. ब्रह्मचारी विद्याधर को जिन पावन करकमलों ने मुनि - आचार्य विद्यासागर बनाया ऐसे दादागुरु महाकवि आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज के 46वें समाधि दिवस पर संयम स्वर्ण महोत्सव समिति द्वारा प्रस्तुत हैं डाक्यूमेंट्री महाकवि आचार्य ज्ञानसागर जी -डाक्यूमेंट्री भाग 2 भाग 3 https://vidyasagar.guru/videos/view-291-video/ भाग 2 https://vidyasagar.guru/videos/view-290-video/ भाग 1 https://vidyasagar.guru/videos/view-289-video/
  4. ब्रह्मचारी विद्याधर को जिन पावन करकमलों ने मुनि - आचार्य विद्यासागर बनाया ऐसे दादागुरु महाकवि आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज के 46वें समाधि दिवस पर संयम स्वर्ण महोत्सव समिति द्वारा प्रस्तुत हैं डाक्यूमेंट्री महाकवि आचार्य ज्ञानसागर जी -डाक्यूमेंट्री भाग 1 भाग 3 https://vidyasagar.guru/videos/view-291-video/ भाग 2 https://vidyasagar.guru/videos/view-290-video/ भाग 1 https://vidyasagar.guru/videos/view-289-video/
  5. अहिंसा के दो पहलू और उसकी सार्थकता किसी को नहीं मारना चाहिये या कष्ट नहीं देना यह अहिंसा का एक पहलू है; तो दूसरा पहलू है कि किसी भी कष्ट में पड़े हुये के कष्ट को निवारण करने का यथाशक्य प्रयत्न करना। ये दोनों ही बातें साधक में एक साथ होना चाहिये तभी वह अहिंसक बन सकता है। अधिकांश देखने में आता है कि आज की दुनिया के लोग कीड़े-मकोड़े सरीखों को ही मारने में पाप समझते हैं। कर्तव्य पथ प्रदर्शन तो ठीक है परन्तु किसके साथ में कैसा व्यवहार करना चाहिये; मेरे इस बर्ताव से सामने वाला बन्धु निराकुल होने के बदले कहीं उल्टा कष्ट से तो नहीं घिर जायेगा इस बात का विचार बहुत कम होता है। इसी से हरेक देश, हरेक समाज, हरेक जाति और हरेक घर नरक जैसा बनता चला जा रहा है। प्रायः हरेक आदमी का यही रवैया हो लिया है कि दूसरे आदमी काम खूब करें और खाना बहुत कम खावें बल्कि न खावें तो और भी अच्छा है, किन्तु मुझे काम बहुत कम करना पड़े और खाने को मनचाहा खूब मिले। बस इसी हिंसामय दुर्विचार से ईर्ष्या और द्वेष की आग धधक रही है जिसमें सारा ही विश्व झुलसा जा रहा है। परस्पर प्रेम का भाव हम लोगों के दिल में से उठता जा रहा है। प्रेम अहिंसा का संजीवन माना गया है। जबकि किसी के प्रति हार्दिक प्रेम भावना होती है तो अपने आप यह विचार आने लगता है कि इसे कहीं परिश्रम न करना पड़े। मैं ही मेरे अथक परिश्रम से कार्य को सम्पन्न कर लूँ और उसका फल हम दोनों मिलकर भोगे। इस प्रकार प्रेम रूप अमृत स्रोत से ही अहिंसा रूप वल्लरी पल्लवित होती है।
  6. अहिंसा की आवश्यकता जैसे पापों में सबसे मुख्य हिंसा है वैसे ही धर्माचरणों में सबसे पहला नम्बर अहिंसा का है। जिस किसी के दिल में हिंसा से परहेज या अहिंसा भाव नहीं है तो समझ लेना चाहिये कि वहां सदाचार का नामोनिशान भी नहीं है। अहिंसा का सीधा सा अर्थ है, किसी भी प्राणी का वध नहीं करना। जीना सबको प्रिय है, मरना कोई नहीं चाहता। अतः अहिंसा कम से कम अपने आपके लिये सबको अभीष्ट है। जो खुद अहिंसा को पसन्द करे परन्तु औरों के लिये हिंसामय प्रयोग करे उसे प्रकृति मंजूर नहीं करती, रूष्ट ही रहती है। जिससे कि विप्लव मचाता है जैसा कि प्रायः आजकल देखने में आ रहा है। आज का अधिकांश मानव स्वार्थ के वश होकर दूसरों को बरबाद करने की ही सोचता रहता है। किसी ने तो टेलीफोन का उद्घाटन करके हलकारे की रोजी पर कुठाराघात किया है तो कोई खरादि के पुतलों द्वारा लिखा पढ़ी का काम लेना बताकर क्लर्क लोगों की आजीविका का मूलोच्छेद करने जा रहा है। किसी ने कूकर चूल्हा खड़ा करके अपने आप खाना बनाना बताकर पूंजीवादियों की पीठ ठोकते हुये बिचारे खाना बनाने वाले रसोईदारों का बेकार बनाने पर कमर कसली है। इसी प्रकार रोज एक से एक नई तजबीज खड़ी की जा रही है। जिनसे गरीबों के धन्धे छिनते जा रहे है और धनवान लोग फैशनबाज आराम-तलब एवं लापरवाह होते जा रहे हैं। बन्धुओं ! जरा आप ही सोचकर कहिये कि उपर्युक्त बातों का और फिर हाल ही क्या होता है? किस लिए ऐसा किया जाता है या होता है? क्या काम करने वाले लोगों की कमी है? किन्तु नहीं। क्योंकि किसी प्रकार के काम करने वाले की बाबत आप आवश्यकता निकाल कर देखिये कि आपके पास एक नहीं बल्कि पचासों प्रार्थना-पत्र आ पहुंचेंगे कि आपके यहां अमुक कार्य करने मैं आ रहा हूं, सिर्फ आपकी आज्ञा आ जानी चाहिये इत्यादि। हां, यह जरूर कहा जा, सकता है कि नये-नये आविष्कारों को जन्म दिये बिना विज्ञान की तरक्की नहीं हो सकती, परन्तु वह विज्ञान भी किस काम का जो समाज को भूखों मारने का कारण बन कर घातक सिद्ध हो रहा हो। वह जंगली जीवन भी अच्छा जहां कि कम से कम और कुछ भी नहीं तो फल फूल तो खाने को मिल जावें तथा वृक्षों के पत्ते तन ढांकने को मिल जावें। वह महलों का निवास किस काम का जहां पर चकाचौंध में डालने वाले अनेक प्रकार के दृश्य होकर भी भूखे के लिये पानी नदारत हो, बल्कि जहां अपना खाना ले जाकर भी खाया जाता हो तो महल मैला हो जाने के भय से छीन कर फेंक दिया जावे। मेरी समझ में आज का विज्ञान भी ऐसा ही है जो हमें अनेक प्रकार की आश्चर्यकारी चीजें तो अवश्य देता है, परन्तु इसने आम जनता की रोटियां छीन ली हैं ओर छीनता ही जा रहा है। कहीं राकेट बनाकर उड़ाने में समय खोया जा रहा है तो कहीं अणुबम के परीक्षण में जनता के धन और जीवन को बरबाद किया जा रहा है। सुना है कि एक अणुबम को तैयार करने में सत्रह अरब रुपया खर्च होता है। जिसका कि निर्माण जन-संहार के लिये होता है। द्वितीय महायुद्ध के समय अमेरिका ने जापान पर अणुबम का प्रयोग किया था। जिसकी सताई हुई जनता आज तक भी नहीं पनप पाई है। अभी-अभी परीक्षण के हेतु एक बम समुद्र में डाला गया जिससे ऋतु वैपरीत्य होकर कितनी बरबादी हो रही है, यह पाठकों के समक्ष में है। मतलब यह है कि विज्ञान के साथ-साथ अगर अहिंसा की भावना भी बढ़ती रहे तब तो विज्ञान गुणकारी हो किन्तु आज तो परस्पर विद्वेषभाव अहंकार आदि की बढ़वारी होती जा रही है। अत: विज्ञान तरक्की पर होकर भी घातक होता जा रहा है।
  7. कोई भी अपने विचारों से ही भला या बुरा बनता है। "परिणाममेव कारणमाहुः खलु पुण्य पापयो: प्रज्ञाः" ऐसा श्री पुरुषार्थसिद्धयुपाय में कहा गया है। अर्थात मनुष्य जैसे अच्छे या बुरे विचार करता है वैसा स्वयं बना रहता है वह नि:संदेह बात है। विचार मनुष्य का सूक्ष्म जीवन है तो कार्यकरण उसका स्थूल रूप। मनुष्य का मन एक समुद्र सरीखा है, जिसमें कि विचार की तरंगे निरंतर चलती रहती हैं। पूर्व क्षण में कोई एक विचारों वाला होता है तो उत्तर क्षण में कोई और दूसरा। जैसे किसी को देखते ही विचारता है कि मैं इसे मार डालू परन्तु उत्तरण क्षण में विचार सकता है कि अरे मैं इसे क्यों मारूं- इसने मेरा क्या बिगाड़ किया है? यह अपने रास्ते है तो कर्तव्य पथ प्रदर्शन मैं अपने रास्ते इत्यादि हां, जबकि यह बुरा है, काला है, देखने में भद्दा है, मेरे सामने क्यों आया? यह मारा जाना चाहिये, ऐसी अनेक क्षणस्थायी एकसी विचारधारा बनी रहती है, तब उसी के अनुसार बाह्य चेष्टा भी होने लगती है। आंखे लाल हो जाती हैं, शरीर कांपने लगता है। वचन से कहता है इसे मारो, पकड़ो, भागने न पावे एवं स्वयं उसे मारने में प्रवृत्त होता है तो आम लोगों कहने लगते हैं कि यह हिंसक है, हत्यारा है, इस बेचारे रास्ते चलते को मारने लग रहा है। हां, यदि कहीं वही चित्त कोमलता के सम्मुख हुआ तो उपर्युक्त विचारों के बदले वहां इस प्रकार के विचार हो सकते हैं कि अहो ! देखो यह कैसा गरीब है, जिसके कि पास खाने को अन्न ओर पहनने को कपड़ा भी नहीं है। जिससे कि इसकी यह दयनीय दशा हो रही है। मैंने तो अभी खाया है, ये रोटियां बची हुई है इसे दे देता हूं ताकि यह खाकर पानी पी ले। तथा मेरे पास अनेक धोती और कुरते हैं उनमें से एक-एक इसे दे दें, सो पहन ले तो अच्छा ही है एवं मैंने तो नया खांचा बना ही लिया है, वह पुराना खांचा जो पड़ा है इसे दे दें। पानी की बाढ़ आ जाने से सड़क पर गड्ढे पड़ गये हैं, जिससे आने जाने वालों को कष्ट होता देखकर सरकार की तरफ से उसकी मरम्मत का काम चालू है जहां कि काम करने को मैं जाया करता हूं वहीं इसे भी ले चलू, ताकि यह भी धन्धे पर लग जावे तो ठीक ही है। यद्यपि इन विचारों को कार्यान्वित करने में प्रासंगिक प्राणी वध होना संभव ही नहीं बल्कि अवश्यम्भावी है फिर भी ऐसा करने वाला हिंसक नहीं किन्तु दयालु है। क्योंकि वह अपने कर्तव्य का पालन कर रहा है अपने से होने योग्य एक गरीब भाई की मदद कर रहा है। उसके कष्ट को दूर करने में समुचित सहयोग दे रहा है। प्राणि वध तो उसके ऐसा करम में होता है सो होता है वह क्या करें? वह उसका उत्तरदायी नहीं है। मनुष्य अपने करने योग्य कार्य करे। उसमें भी जो जीव वध हो उसके द्वारा भी यदि हिंसक माना जावे तब तो फिर कोई भी अहिंसक हो ही नहीं सकता। क्योंकि आहार निहार और विहार जैसा क्रिया तो जब तक छद्मस्थ अवस्था रहती है तब तक साधु महात्मा लोगों को भी करनी ही पड़ती है। जिसमें जीव वध हुए बिना नहीं रहता अत: यही मानना पड़ता है कि जहां जिसके विचार जीव मारने के हैं, वहीं वह हिंसक, हत्यारा या पापी है, किन्तु जिसके विचार किसी को मारने के नहीं है और उसके समुचित आवश्यक कार्य करने में कोई जीव यदि मर भी जाता है तो वह हिंसक नहीं है।
  8. हिंसा का स्पष्टीकरण इस जीव को मार दें, पीट दें या यह मर जावे, पिट जावे, दु:ख पावे इस प्रकार के विचार का नाम भावहिंसा है और अपने इस विचार को कार्यान्वित करने के लिये किसी भी तरह की चेष्टा करना द्रव्यहिंसा है। भावहिंसा पूर्वक ही द्रव्यहिंसा होती है। बिना भाव हिंसा के द्रव्यहिंसा नहीं होती और जहां भावहिंसा होती है वहां द्रव्यहिंसा यदि न भी हो तो भी वह हिंसक या हत्यारा ही रहता है। उदाहरण के लिये मान लीजिये कि एक शस्त्रचिकित्सक है, डॉक्टर है और वह किसी घाव वाले रोगी को नीरोग करने के लिये उसके घाव को चीरता है। घाव के चीरने में वह रोगी मर जाता है तो वहां डॉक्टर हिसंक नहीं होता। परन्तु पारधी शिकार खेलने के विचार को लेकर जंगल में जाता है। और वहां उसकी निगाह में कोई भी पशु पक्षी नहीं आता और लाचार होकर उसे यों ही अपने घर को लौटना पड़ता है, फिर भी वह हिंसक है, हत्यारा है। भले ही उसने किसी जीव को मारा नहीं है, फिर भी वह हिंसा से बचा हुआ नहीं है। क्योंकि प्राणियों को मारने के विचार को लिये हुये है। ऐसा हमारे महर्षियों का कहना है। इसी को स्पष्ट समझने के लिये हमारे यहां एक कथा है कि - स्वयं भूरमण समुद्र में एक राघव मच्छ है, जो बहुत बड़ा है। वह जितनी मछलियों को खाता है, खा लेता है, और पेट भर जाने के बाद भी मुँह में अनेक मछलियां जाती हैं और वापिस निकलती रहती हैं। उन मछलियों को जीवित निकली देखकर उस मच्छ की आंखों पर जो एक तन्दुल मच्छ होता है वह सोचता है। कि मच्छ बड़ा मूर्ख है जो इन मछलियों को जीवित ही छोड़ देता है, और यदि मैं इस जैसा होता तो सबको हड़प जाता। बस इसी दुर्भाव की वजह से वह मरकर घोर नरक में जा पड़ता है।
  9. सहानुभूति दृष्टिपथ में आने वाले शरीरधारियों को हम दो भागों में विभक्त कर सकते हैं। (१) मनुष्य (२) पशु पक्षी। इनमें से पशु पक्षी वर्ग की अपेक्षा से आम तौर पर मनुष्यवर्ग अच्छा समझा जाता है, सो क्यों? उसमें कौनसा अच्छापन है? यही यहां देखना है। खाना-पीना, नींद लेना, डरना, डराना और परिश्रम करना आदि बातें जैसी मनुष्य में है वैसी ही पशु-पक्षियों में भी पाई जाती है। फिर ऐसी कौनसी बात है जिससे मनुष्य को पशु-पक्षियों से अच्छा समझा जाता है? बात यह है कि मनुष्य में सहानुभूति होती है, जिसका कि पशु-पक्षियों में अभाव होता है। पशु को जब भूख लगती है तो खाना चाहता है और खाना मिलने पर पेट भर खा लेता है। उसे अपने पेट भरने से काम रहता है और उसे अपने साथियों की कुछ फिकर नहीं होती। उसकी निगाह में उसका कोई साथी ही नहीं होता जिसकी कि वह अपने विचार में कुछ भी अपेक्षा रखे। मनुष्य का स्वभाव इससे कुछ भिन्न प्रकार का होता है। वह अपनी तरह से अपने साथी की भी परवाह करना जानता है। यदि खाना मिलता है तो अपने साथी को खिलाकर खाना चाहता है। वस्त्र भी मिलता है को साथी को पहनाकर फिर आप पहिनना ठीक समझता है। आप भले ही थोड़ी देर के लिये भूखा प्यासा रह सकता है परन्तु अपने साथी को भूखा प्यासा रखना या रहने देना इसके लिए अनहोनी बात है। बस इसी का नाम सहानुभूति है। जिसके बल पर मनुष्य सबका प्यारा ओर आदरणीय समझा जाता है। हां यदि मनुष्य में सहानुभूति न हो तो फिर वह पशु से भी भयंकर बन जाता है। क्रूर से भी क्रूर सिंह भी प्रजा में इतना विल्पव नहीं मचा सकता जितना कि सहानुभूति से शून्य होने पर एक मनुष्य कर जाता है। सिंह तो क्रूरता में आकर दो चार प्राणियों का ही संहार करता है किन्तु मनुष्य जब सहानुभूति को त्यागकर एकांत स्वार्थी बन जाता है। तो वह सैकड़ों, हजारों आदमियों का संहार कर डालता है। कपट वचन के द्वारा लोगों को भ्रम में डालकर बरबाद कर देता है। लोगों की प्राणों से प्यारी जीवन निर्वाह योग्य सामग्री को भी लूट खसोट कर उन्हें दुखी बनाता है। मनचलेपन में आकर कुलीन महिलाओं पर बलात्कार करके उनके शीलरत्न का अपहरण करता है। भूतलभर पर होने वाले खाद्य पदार्थ वगैरह पर अपना ही अधिकार जमाकर सम्पूर्ण प्रजा को कष्ट में डाल देता है।
  10. आस्तिक्य भाव उपासक जानता है कि जो जैसा करता है वह वैसा ही पाता है। जहर खाता है, सो मरता है और जो मिश्री खाता उसका मुँह मीठा होता है। सिंह, जो कि लोगों को बर्बाद करने पर उतारू होता है तो वह खुद ही बर्बाद होकर जंगल के एक कोने में छिप कर रहता है। गाय जो कि दूध पिलाकर लोगों को आबाद करना चाहती है इसलिये वह लोगों के द्वारा आबादी को प्राप्त होती है। लोग उसका बड़े प्यार से साथ में पालन-पोषण करते हुए पाए जाते हैं। हम देखते हैं कि जो औरों के लिये गड्ढा खोदता है वह स्वयं नीचे को जाता है किन्तु महल चिनने वाला विश्वकर्मा ऊपर को चढ़ता है। इससे हमें समझ लेना चाहिये कि जो दूसरों का बुरा सोचता है वह खुद बुरा बनता है, किन्तु जो दूसरों के भले के लिये प्रयत्न करता है वह भलाई पाता है। एक समय की बात है एक राजमंत्री था वह वायु सेवनार्थ निकला तो एक जगह कुछ लड़के खेलते हुये मिले। उन सबमें एक लड़का बहुत चतुर और बुद्धिमान तथा सुलक्षण था। अत: उसे बुलाकर राजमंत्री अपने पास पुत्रभाव से रखने लगा। थोड़े दिनों के बाद प्रसंग पाकर राजा ने मंत्री से पूछा कि बताओ इस दुनिया का रंग कैसा है। और इसके साथ में मेरा कब तक, कैसा क्या संबंध है? जिसको सुनकर मंत्री घबराया, उसे इसका कुछ भी उत्तर नहीं सूझ पड़ा। परन्तु लड़का दौड़ा और एक पंचरंगे फूलों का गुलदस्ता लाकर उसने राजा के आगे रख दिया, एवं राजा के सिर पर जो ताज था उसे लेकर झट ही उसने अपने सिर पर रख लिया। इस पर लोग हंसने लगे, किन्तु राजा ने उन्हें समझाया कि लड़के ने बहुत ठीक कहा है कि जैसे इस गुलदस्ते में पांच रंग के फूल हैं वैसे ही यह दुनियां भी पांच परिवर्तन रूप पंचरगी है ओर इस दुनियां के साथ में मेरा राजापने का संबंध जभी तक है जब तक कि यह ताज मेरे सिर पर है जिसके कि रहने या न रहने का पल भर का भी कोई भरोसा नहीं है। तुम लोग व्यर्थ ही ऐसे क्यों हँसते हो? यह लड़का बड़ा बुद्धिमान है। मैं मेरे मंत्री का उत्तराधिकार इसे देता हूं। जब तक ये मंत्री जी हैं तब तक है इनके बाद में यही मेरा मंत्री होगा। ऐसा सुनते ही मंत्री के दिल को बड़ी चोट पहुंची। वह सोचने लगा कि हाय, यह तो बुहत बुरा हुआ। यह मंत्री बनेगा तो फिर मेरा जायन्दा लड़का तो ऐसे ही रह जायेगा वह क्या करेगा? क्या वह इसका पानी भरेगा? अत: इसे अब मार डालना चाहिये। इस प्रकार विचार कर वह एक भड़भूजे से मिला और बोला कि मैं अभी चने लेकर एक लड़के को भेजता हैं सो तुम उसको भाड़ में झोंक देना। भड़भूजा यह सुनकर यद्यपि कुछ संकोच में पड़ा क्योंकि इस तरह से एक बेकसूर बच्चे को आग में झुलसा देना तो घोर निर्दयता होगी। परन्तु वह बेचारा भड़पूँजा था, ओर इधर मंत्री का कहना था। अगर उसका कहना न करे तो रहे कहां? मंत्री ने जाकर उस लड़के से कहा कि आज मुझे भुंगडे खाने की जी में आ गई, तुम जाओ और उस भड़भंजे से यह चने मुंजवा लाओ। लड़का तो आज्ञाकारी था। वह चने लेकर रवाना हुआ। उधर उस मंत्री का जायन्दा लड़का मिल गया, वह बोला भैया तुम कहां जा रहे हो? पहला लड़का बोला- पिताजी ने चने दिये हैं सो मुंजवाने जा रहा हूं। इस पर दूसरा लड़का बोला- तुम यहीं ठहरो, इन लड़कों के साथ मेरी जगह गेंद खेलो, इन्हें मात दो, लाओ चने मैं भुजवा लाता हूं। ऐसा कहकर उसके हाथ से चने छीनकर दौड़ पड़ा और भूड़भूजे के पास गया तो जाते ही उसका काम तमाम हो गया। बन्धुओ ! व्यर्थ की ईर्ष्या के वश होकर मंत्री पराये लड़के को मारना चाहता था तो उसका खुद का प्राणों से प्यारा लड़का मारा गया। यही सोचकर उपासक पुरुष किसी भी दूसरे के लिए कुछ भी बुरा विचार कभी नहीं करता है। वृक्ष हो और उसकी छाया न हो तो उसका होना बेकार है। नदी में यदि जल न हो तो वह नदी भी सिर्फ नाम मात्र के लिए है। उसी प्रकार मनुष्य में अगर सच्चरित्रता नहीं तो उस मनुष्य का भी जीवन नि:सार ही होता है। चरित्रहीन मानव का जीवन सुगन्धहीन फूल जैसा है। मकान का पाया बहुत गहरा हो, दीवारें चौड़ी और संगीन हों, रंग रोगन भी अच्छी तरह से किया हो और सभी बातें तथा रीति ठीक हो, परन्तु ऊपर में यदि छत नहीं हो तो सभी बेकार। बैसे ही सदाचार के बिना मनुष्य में बलवीर्यादि सभी बातें होकर भी निकम्मी ही होती हैं। देखो रावण बहुत पराक्रमी था। उसके शारीरिक बल के आगे सभी कायल थे। फिर भी वह आज निन्दा का पात्र बना हुआ है। हम देख रहे हैं कि हर एक आदमी अपने लड़के का नाम राम तो बड़ी खुशी के साथ रख लेता है, किन्तु रावण का नाम भी सुनना पसन्द नहीं करता, सो क्यों? इस पर सोचकर देखा जावे तो एक ही कारण प्रतीत होता है कि रावण के जीवन में दुराचार की बदबू ने घर कर लिया था। जिससे कि रामचन्द्रजी हजारों कोस दूर थे, किन्तु सदाचार को अपने हृदय का हार बनाये हुये थे। यही बात है कि सारी दुनिया आज श्रीरामचन्द्रजी का नाम लेकर अपने को गौरवान्वित समझती है। हम भी यदि अपने जीवन को सार्थक बनाना चाहते हैं तो हमें चाहिये कि हम अपने अन्तरंग में सदाचार को स्थान दें।
  11. करूणा का स्रोत उपासक के उदार हृदय सरोवर में करूणा का निर्मल स्रोत निरन्तर बहता रहता है। वह अपने ऊपर आई आपत्ति को तो आपत्ति ही नहीं समझता उसे तो हँसकर टाल देता है परन्तु वह जब किसी दूसरे को आपत्ति से घिरा हुआ देखता है तो उसे सहन नहीं कर सकता है। वह उसकी आपत्ति को अपने ही ऊपर आई हुई समझता है। अतः जब तक उसे दूर नहीं हटा देता तब तक उसे विश्राम कहां? भाण्डों ने श्रीपाल को जब अपना भाई बेटा कहकर बतलाया तो गुणमाला के पिता ने रूष्ट होकर श्रीपाल के लिये सूली का हुक्म लगा दिया, तो वे सहर्ष सूली पर चढ़ने को तैयार हो गये। परन्तु जब सत्य बात खुल गई और राजा को पता चला कि भांड़ो ने धवल सेठ के बहकाने से झूठी बात बनाई है। तब फिर उसने अपने पूर्व आदेश को बदल कर उन भोंड़ों के लिये कत्ल का हुक्म दिया। जिसे सुनकर श्रीपाल कुमार कांप गये और बोले कि हे प्रभो! आप क्या कर रहे हैं जो कि बेचारों के लिये ऐसा कर रहे हैं? इनका इसमें क्या अपराध हुआ है? ये तो खुद ही गरीबी से दबे हुए हैं, और गरीबी के बोझ को हल्का करने के लिये इन्होंने ऐसा कहना स्वीकार कर रखा है। जो बेचारे आर्थिक संकट के सताये हुये हैं, उन्हें प्रजा के स्वामी कहला कर भी आप और भी सतावें, मरे हुओं को मारें, यह तो मेरी समझ में घोर अन्याय है। प्रत्युत इसके आपको तो चाहिये कि आप इन्हें कुछ पारितोषक देकर संतुष्ट करिये ताकि आगे के लिए ये लोग इस धन्धे को छोड़कर उसके द्वारा अपना जीवन निर्वाह करने लगे। राजा ने ऐसा ही किया और इस असीम उपकार से भाण्ड लोग श्रीपालजी के सदा के लिए ऋणी हो गये।
  12. संवेगभाव महात्मा लोगों ने निर्णय कर बताया है कि शरीर भिन्न है तो शरीरी उससे भिन्न। शरीरी चेतन और अमूर्तिक है तो शरीर जड़ और मूर्तिक, पुद्गल परमाणुओं का पिंड, जिसको कि यह चेतन अपनी कार्यकुशलता दिखाने के लिए धारण किये हुए है। जैसे बढ़ई वसोला लिए हुए रहता है काठ छीलने के लिये, सो भोंटा हो जाने पर उसे पाषाण पर घिसकर तीक्ष्ण बनाता है और उसमें लगा हुआ बैंता अगर जीर्ण-शीर्ण हो गया हो तो दूसरा बदलकर रखता है। वैसे ही उपासक भी अपने इस शरीर से भगवद्भजन और समाज सेवा सरीखे कार्य किया करता है। अतः समय पर समुचित भोजन तथा वस्त्रों द्वारा इसे सम्पोषण भी देता है। परन्तु उसका यह शरीर भगवद्भजन सरीखे पुनीततम कार्य में सहायक न होकर प्रत्युत उसके विरुद्ध पड़ता हो तो बेकार समझकर उपासक भी इससे उदासीन होकर रहता है। राजा पुष्पपाल की लड़की मदनसुन्दरी जो कि आर्यिकाजी के पास पढ़ी थी। वह जब विवाह योग्य हुई तो पिता ने पूछा, बेटी कहो! तुम्हारा विवाह किस नवयुवक के साथ में किया जावे? लड़की ने कहा- हे भगवन् ! यह भी कोई सवाल है? मैं इसके बारे में क्या कहूं? आप जैसा भी उचित समझे उसी की सेवा में मुझे तो अर्पण कर दें, मेरे लिये तो वही सिर का सेहरा होगा। इस पर चिढ़कर राजा ने उसका विवाह श्रीपाल कोढ़िया के साथ कर दिया। यह बात मंत्री मुसाहिब आदि को बहुत बुरी लगी, अत: वे सब बोले कि प्रभो ! ऐसा न कीजिये। परन्तु मदनसुन्दरी बोली कि आप लोग इस आदर्श कार्य में व्यर्थ ही क्यों रोड़ा अटका रहे हैं। पिताजी तो बहुत ही अच्छा कर रहे हैं जो कि इन महाशय की सेवा करने का मुझे अवसर प्रदान कर रहे हैं। वस्तुत: शरीर तो आप लोगों का और मेरा भी सभी का ऐसा ही है जैसा कि इन महाशय का है। सिर्फ हम लोगों को लुभाने के लिये हमारे शरीरों पर चमड़ी लिपटी हुई है, किन्तु इनके शरीर की चमड़ी में छेद हो गये हैं ताकि भीतर की चीज बाहर में दीखने लगी रही है और कोई अन्तर नहीं है। अतएव इनकी सेवा करके मुझे मेरा जन्म सफल कर लेने दीजिये। भगवान आपका भला करेंगे।
  13. उपासक का प्रशमभाव जैसा कि महात्माओं के मुंह से उसने सुना है, उसके अनुसार वह मानता है कि आत्मत्व के रूप में सभी जीव समान हैं, सबमें जानपना विद्यमान है। अव्यक्त रूप से सभी परमात्मत्व को लिए हुए हैं, प्रभुत्व शक्तियुक्त है एवं किसी के भी साथ में विरोध, वैमनस्य करना परमात्मा के साथ में विरोध करना कहा जाता है। परमात्मा से विरोध करना सो अपने आपके साथ ही विरोध करना है। अत: किसी के भी साथ में बैश्र विरोध करने की भावना ही उसके मन में कभी जागृत ही नहीं होती। उसके हृदय में तो सम्पूर्ण प्राणियों की उपयोगिता को समझते हुए प्रेम के लिए स्थान होता है। बल्कि वह तो यह मानता है कि दुनिया का कोई भी पदार्थ अनुपयोगी नहीं है। यह बात दूसरी कि मनुष्य उससे अनभिज्ञ हो। अतः अपनी चपलता के वश में होकर उसका दुरुपयोग कर रहा हो। एक बार की बात है - राजा और रानी अपने महल में सुकोमल सेज पर विश्राम कर रहे थे। इतने में राजा की नजर एक मकड़े पर पड़ी जो कि वहां महल की छत में अपने सहज भाव से जाला तान रहा था। राजा को उसे देखकर गुस्सा आया कि देखों यह बेहूदा जन्तु मेरे साफ सुथरे महल को गन्दा बना रहा है। अतः उसे मारने के लिए राजा ने तमंचा उठाया। परन्तु शीघ्रता के साथ उसका हाथ पकड़ कर रानी बोली, प्रभो ! यह आप क्या कर रहे हैं? आप इसे बेकार समझ रहे हैं, फिर भी अपनी-अपनी जगह सभी काम आने वाले हैं। समय पड़ने पर आपको इस बात का अनुभव होगा। रानी के इस प्रकार मना करने पर राजा मान गया, किन्तु राजा के मन में यह शंका बनी ही रही कि क्या यह भी कोई काम में आने वाला है? अस्तु दूसरे ही रोज राजा अपने मंत्री आदि के साथ घूमने को निकला तो पिछाड़ी से आकर एक कुत्ते ने राजा की जांघ में काट खाया। वैद्य से पूछा गया कि अब क्या करना चाहिए? जवाब मिला कि यदि कहीं मकड़ी का जाला मिल जावे तो उसे लाकर इस घाव में भर दिया जावे। बस वहीं इसकी एक लाजवाब दवा है। यह सुनकर राजा को विश्वास हुआ कि रात वाला रानी साहिबा का कहना ठीक ही था। मतलब यही कि अपनी-अपनी जगह सभी मूल्यवान हैं। अत: समझदार आदमी फिर क्यों किसी के साथ में मात्सर्यभाव को लेकर इसका मकलोच्छेद करना चाहें? क्योंकि न मालूम किसके बिना इसका कौनसा कार्य किस समय अटका रहे।
  14. श्रावक की सार्थकता श्रावक शब्द का सीधा सा अर्थ होता है, सुनने वाला एवं सुनने वाले तो वे सभी प्राणी हैं जिनके कान हैं। अत: ऐसा करने से कोई ठीक मतलब नहीं निकलता। हम देखते हैं कि किसी भी पंचायत या न्यायालय में कोई पुकारने वाला पुकारता है। उसकी पुकार पर ध्यानपूर्वक विचार करके यदि उसका समुचित प्रबन्ध नहीं किया जाता है तो वह कह उठता है कि यहां पर किसकी कौन सुनने वाला है? कितना भी क्यों न पुकारों। मतलब उसका यह नहीं कि वहां सभी बहरे हैं, परन्तु सुनकर उसका ठीक उपयोग नहीं, पुकारने वाले की पीड़ा का योग्य रीति से प्रतिकार नहीं, बस इसीलये कहा जाता है कि कोई सुनने वाला नहीं। हमारे पूर्वजों ने भी उसी को श्रावक कह पुकारा है जो कि आर्ष वाक्यों को न्यायालय के नियमों के रूप में अटल मान कर श्रद्धा पूर्वक स्वीकार किये हुये हो, जिसका हृदय विचार पूर्ण भावना से ओत-प्रोत हो। अत: किसी को भी कोई प्रकार की विपत्ति में पड़ा हुआ पाकर उसका वहां से उद्धार किये बिना जिसे कभी चैन नहीं हो एवं अपने तन,मन और धन के द्वारा सब तरह से समाज सेवा के लिए हर समय तैयार रहने वाला हो। वह खुद अनीति-पथ में पैर रखे यह तो कभी संभव ही नहीं हो सकता, प्रत्युत वह औरों को भी कुमार्ग में जाते हुए देखता है तो आश्चर्य में डूबा रहता है कि यह ऐसा क्यों हो रहा है? इस प्रकार मधुर और कोमल दिल वाला जो कोई हो जाता है वही श्रावक कहलाता है। भले ही वह परिस्थिति के वश होकर अपना कायिक संबंध कुछ लोगों के साथ में ही स्थापित किये हुए हो फिर भी अपनी मनोभावना से सब लोगों को ही नहीं अपितु प्राणी मात्रा को अपना कुटुम्ब समझता है- अत: किसी का भी कोई बिगाड़ कर देना या हो जाना उसकी निगाह में बहुत बात होती है। हां, सन्मार्ग के प्रति प्रगाढ़ श्रद्धावान होता है। अतः सन्मार्ग पर चलने वालों पर उसका विशेष अनुराग हुआ करता है एवं वह हर तरह से उनकी उपासना में निहित रहता है। इसलिये उपासक भी कहा जाता है।
  15. स्वार्थपरता सर्वनाश की जड़ है ऊपर लिखा गया है कि मनुष्य का जीवन एक सहयोगी जीवन है। उसे अपने आपको उपयोगी साबित करने के लिये औरों का साथ अवश्यम्भावी है, जैसे कि धागों के साथ में मिलकर चादर कहलाता है और मूल्यवान बनता है। अकेला धागा किसी गिनती में नहीं आता, वैसे ही मनुष्य भी अन्य मनुष्यों के साथ में अपना संबंध स्थापित करके शोभावान बनता है। यानी कि अपना व्यक्तित्व सुचारू करने के लिये मनुष्य को सामाजिकता की जरूरत होती है। अत: प्रत्येक मानव का कर्तव्य हो जाता है कि वह अपने आपके लिये जितना सुभीता चाह रहा हो उससे भी कहीं अधिक सुभीता औरों के लिये देने और दिलवाने की चेष्टा करे। परन्तु आज हम देख रहे हैं कि आज के मानव की गति इससे विलक्षण है। वह समाज में रहकर भी समाज की कोई परवाह नहीं करता है, उसे तो सिर्फ अपने आपकी ही चिन्ता रहती है। भूख लगी कि रोटियों की तलाश में दौड़ता है, प्यास लगी तो पानी-पीना चाहता है। जहां खाना-खाया, पानी-पीया और मस्त ! फिर लेट लगाने की सोचता है। क्या वह यह भी सोचता है कि कोई और भी भूखा होगा? बल्कि आप खा चुका हो और रोटियां शेष बच रही हों एवं भूखा भिखारी सम्मुख में खड़ा होकर खाने के लिये मांग रहा हो तो भी उसे न देकर आप ही उन्हें शाम को खा लेने की सोचता है। कहो भला ऐसे खुदगर्जी का भी कहीं कोई ठीक ठिकाना है? जिसका कि शिकार आज का अधिकांश मानव है। अपनी दो रोटियों में से एक चौथाई रोटी भी किसी को दे दें सो तो बहुत ऊँची बात है प्रत्त्युत यह तो दूसरे के हक की रोटी को भी छीन कर हड़प जाना चाहता है। इसी खुदगर्जी की आग में आज का मानव स्वयं जलकर भस्म होता हुआ देखा जा रहा है। एक समय की बात है कि एक साधु को मार्ग में गमन करते हुये चार बटोही मिले। साधु ने कहा भाइयो! इधर मत जाना क्योंकि इधर थोड़ी दूर आगे जाकर वहां पर मौत है। किन्तु उसके कहने पर उन लोगों ने कोई ध्यान नहीं दिया। अपनी धुन में आगे को चल दिये। कुछ दूर जाकर देखा तो अशरफियों का ढेर पड़ा था। उसे देखकर वे बड़े खुश हुये, बोले कि उस साधु के कहने को मान कर हम लोग वहीं रुक जाते तो यह निधान कहां पाते ! इसीलिए तो हम कहते हैं कि इन साधुओं के कहने में कोई न आवे। खैर! अपने को चलते-चलते कई दिन हो गये हैं, भूख सता रही है, अत: इन में से एक अशरफी ले जाकर एक आदमी इस पास वाले गांव में से मिठाई ले आवे। उसे खाकर, फिर इन शेष अशरिफयों के बराबर चार हिस्से करके एक-एक हिस्सा लेकर प्रसन्नतापूर्वक घर को चलेंगे। अब जो मिठाई लेने गया उसने सोचा कि मैं तो यहीं पर खालू और अब शेष मिठाई में जहर मिला कर ले चलूं ताकि इसे खाते ही सब मर जावें ताकि सब अशरफियां मेरे ही लिए रह जावें। उधर अन्य लोगों ने विचार किया कि आते ही उसे मार डालना चाहिये ताकि इन धन के तीन हिस्से ही करने पड़े एवं जब वह आया तो उन तीनों ने उसके माथे पर लट्ठ जमाया, जिससे वह मर गया और उसकी लाई हुई मिठाई को खाकर वे तीनों भी मर गये। अशरफियां वहां ही पड़ी रह गई। बन्धुओं ! यही हाल आज हम लोगों का हो रहा है। हम बांटकर खाना नहीं जानते, सिर्फ अपना ही मतलब गांठना चाहते हैं। और इस खुदगर्जी के पीछे मगरूर होकर सन्तों, महन्तों की वाणी को भुला बैठते हैं।
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