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उदारता का फल सुमधुर होता है


संयम स्वर्ण महोत्सव

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उदारता का फल सुमधुर होता है

 

रामपुर नाम के नगर में एक रधुवरदयाल नाम के बोहराजी रहते थे। जिनके यहां कृषकों को अन्न देना, जिसे खाकर वे खेती का काम करें और फसल पककर तैयार होने मन भर अन्न के बदले में पांच सेर, मन अन्न के हिसाब से बोहराजी को दे दिया करें बस यही धन्धा होता है। बोहराजी के दो  107 लड़के थे, एक गौरीशंकर दूसरा राधाकृष्ण बोहराजी के मरने पर दोनों भाई पृथक-पृथक हो गये और अपने-अपने कृषकों को उसी प्रकार अन्न देकर रहने लगे। विक्रम सम्वत् उन्नीस सौ छप्पन की साल में भयंकर दुष्काल पड़ा। बिल्कुल पानी नहीं बरसा। जिससे अन्न का भाव जो बाहर आने या दस आने मन का था वह बढ़ कर पांच रुपये मन हो गया। गौरीशंकर ने सोचा अब किसानों को बाढ़ी पर अन्न देकर क्यों खोया जावे? बेच कर रुपये कर लिए जावें। किसानों ने कहा बोहराजी ऐसा न कीजिये, इस दुष्काल के समय में हम लोग खाने के लिये दूसरी जगह कहां से लावेंगे? परन्तु गौरी शंकर ने इस पर कोई विचार नहीं किया। इधर राधाकृष्ण ने विचार किया कि यह अकाल का समय है, लोग अन्न के बिना भूखे मर रहे हैं, मेरे पास अन्न है यह फिर किस काम में आवेगा? अतः उसे ढिंढोरा पिटवा दिया कि चाहे वह मेरा किसान हो या कोई और हो, जिसको भी खाने के लिए अन्न चाहिए मेरे यहां से ले जावे। यह देखकर गौरीशंकर ने कहा कि राधाकृष्ण बेसमझ है जो कि इस समय अपने बेशकीमती अन्न को इस तरह लुटा रहा है।

 

गौरीशंकर ने अपने अन्न को बेच कर रुपये खड़े करना शुरू किया। किन्तु उसके यहां एक दिन चोरी हो गई तो उसने अपने रुपयों को जमीन में गाड़ रखा। छपनिया अकाल धीरे-धीरे समाप्त हो लिया। सत्तावन की साल में प्रकृति की कुछ ऐसी कृपा हुई कि समय-समय पर उचित वर्षा होकर खेती में अनाप-सनाप अन्न पैदा हुआ, जिससे आठ सेर के भाव से बढ़ते-बढ़ते अन्न का भाव रुपये का डेढ़मन हो लिया। गौरीशंकर ने इस समय अन्न खरीद कर रखने का मौका यह सोचकर जमीन में से अपने रुपयों को निकालकर देखा तो रुपयों के पैसे बन गये हुए थे। तब क्या करे अपने भाग्य पर रोने लगा। उधर राधाकृष्ण का अन्न जिन्होंने खाया था, प्रसन्न मन से मन की एवज में दो मन अन्न ले जाकर उसके यहां जमा कराने लगे जिससे अन्न की टाल लग गई।

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