अहिंसा में अपवाद
अहिंसा में अपवाद
पीछे बताया गया है कि त्रसों की हिंसा कभी नहीं करना चाहिए, फिर भी साधक के सम्मुख ऐसी विषम परिस्थिति कभी-कभी आ उपस्थित होती है। कि वह उसे हिंसा करने के लिए बाध्य करती है। मान लीजिये कि आप यात्रा को जा रहे हैं। एक कुलीन बहिन भी आपके भरोसे पर आपके साथ चल रही है। रास्ते में कोई लुटेरा आकर उस पर बलात्कार करना चाहता है। क्या आप उसे ऐसा करने देंगे? कभी नहीं। जहां तक हो सकेगा उसका हाथ भी उस बहिन को नहीं लगने देने के लिए आप डटकर उस डाकू का मुकाबला करेंगे और उसे मार लगायेंगे।
एक जच्चा है जिसके बच्चा होने वाला है। बहुत देर हो गई वह परेशान हो रही है। बच्चा और किसी भी उपाय से बाहर नहीं आता है तो फिर डॉक्टर उस बच्चे को खण्ड-खण्ड करके बाहर निकालता है क्या करे लाचार है। बच्चे को मार कर भी जच्चा को बचाता है। अपने जीवन में ऐसे और भी अनेकानेक प्रसंग उपस्थित होते हैं जहां पर गृहस्थ को अपने अभीष्ट को बचाये रखने के लिए तद्विरोधी अनिष्ट का परिहार करना ही पड़ता है। इस पर आज हमें ऐतिहासिक घटना का स्मरण हो आता है। विश्वशांति के अग्रदूत श्री वर्द्धमान स्वामी नाम की पुस्तक जो कि श्री दिगम्बरदास जैन मुख्यार सहारनपुर की लिखी हुई है, उसके तीसरे भाग पृष्ठ 426 में लेखक लिखता है-
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