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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. दुनियाँ में आकाश की प्रसिद्धि के किस्से प्रचलित हैं, वह आकाश असीम है, निर्लेपमय है, इसी को कहा जाता है आवरण रहित। इसी प्रकार दिगम्बर साधु आवरण रहित जीवन शैली से सहित होकर जीवन जीता है। पूज्य गुरुदेव भी इसी परिधि के अन्दर अपना स्थान बनाये रखे ठण्ड हो, गर्मी हो फिर भी कोई आवरण की बात नहीं है क्योंकि २२ वर्षों में शीत परीषह, ऊष्ण परीषह को रखा गया है। उसी का पालन करते हुए परीषहों को सहन करते हुए कर्म क्षय की परिपालना में अपने समय का सदुपयोग करने वाले धरती के तप:पूत संज्ञा को प्राप्त है। आपका धरती ही बिछौना है आकाश ही ओढ़ना है। आकाश अपने में किसी बाह्य तत्त्व को नहीं चिपकने देता, इसी तरह आपके इस रत्नत्रय जीवन की भूमिका में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र इन तीन रत्नों के अलावा आपकी आत्मा को बाह्य वस्तु आच्छादित नहीं करती क्योंकि आप मोह-माया से रहित हैं। और आत्मा के मोह में लगे हुए हैं। इन ५० वर्षों में अपने शिष्यों के लिए, अपनी शिष्याओं के लिए, अपने भक्तों के लिए, श्रावकों के लिए यही उपदेश दिया गगन के समान निर्लेप बनो, लेप से रहित बनो, आत्मा का हनन बाह्य वस्तुओं के सहयोग से हमेशा होता आया है, होता रहेगा इसलिए गगन की शिक्षा का आलम्बन लेते हुए गुरुदेव नजर आते हैं।
  2. आगम की नीतियों से प्रीति की परम्परा पुरातन परम्परा का घोषक है। आगम के वाक्य को अक्षरशः पालन करने की परम्परा ही स्पष्टवादी नीति का निर्धारण करने वाली दिगम्बर आम्नाय की स्वच्छ परम्परा रही जहाँ पर शिथिलता का अनुसरण न कर स्पष्ट साफ सुथरी समीचीन अर्थात् सही रूप को धारण कर कर्म के खण्डन की ओर दृष्टि रखने वाले गुरुदेव जैसी साधना, चर्या, मूलाचार, आचारसार, मूलाराधना, भगवती आराधना, षट्खण्डागम, श्रीधवल, श्री जयधवल इन आद्य ग्रन्थों में जो चर्या व्यवस्था उसी के अनुसार स्पष्ट रूप से चलना और चलाने का कार्य चल रहा है। कभी चर्या के मामले में समझौता नहीं करते उनकी स्पष्ट नीति है। सामायिक के समय सामायिक करो, प्रतिक्रमण के समय प्रतिक्रमण करो। मौन के समय गुप्ति का पालन करो, आहार चर्या के समय आहार करो। केशलोंच के निर्धारित समय के अनुसार अपनी क्षमता के बल के अनुसार उत्तम-मध्यम-जघन्य रीति से करने की नीति से चला करते हैं। यही कार्य की कुशलता कुशलक्षेम का परिचायक बनती है। मोक्षमार्ग अपने सहारे का स्वाश्रित मार्ग है, गुरु तो एक निमित्त मात्र हैं। कर्ता तो साधक ही है जो साधन के अभाव में साधना की मुख्यता को स्थान देता है। उसी में गुरु को प्रीति उत्पन्न होती है यह स्पष्ट तय हो चुका है। आचार्य विद्यासागर साधना के क्षेत्र में कठोरता के परिचायक साधक के रूप में चतुर्थकालीन चर्या के परिपालक आचार्यों की श्रेणी में गिने जाते हैं। रात-दिन के भेद को छोड़ मार्ग की थकान को छोड़ आत्मध्यान की लगन की परिशीलता में जतन के समान कर्मों के पतन की नीति इन ५० वर्षों में संघ और समाज श्रावक-श्राविकायें, मुनि-आर्यिका सबके लिये व्रत की नीति के स्पष्ट पालन के संकेत जारी होते रहे हैं।
  3. अरिहंतों के पथ के अनुशरण से मोक्षमार्ग पनपता है या यूँ कहो मोक्ष द्वार खुलता है। इसी अनुश्रुति को ध्यान में रखते हुए आचार्य गुरुदेव ने कर्म हनन की पद्धति को स्वीकारा जो संसार विच्छेद की परम्परा को बढ़ाने में एक साधन का कार्य कर आत्मा को साधक कार्य में लगाकर मोक्ष की कुंजी प्रदान करने वाली परम्परा तीर्थंकर प्रभु के द्वारा अक्षुण्ण रूप से चली आ रही है। इन्हीं अरिहंतों की स्तुति, वंदना, ध्यान का विषय बनाकर कार्य की वह पद्धति कोई भी न करे, जिसे वह काम करो भाई, अरिहंतों की प्रतिमाओं का ध्यान धरो भाई। अरिहंत स्वरूपी आत्मा निष्कर्मा निकल परमात्मा जिनकी आत्मा में से कर्मों के चिपकन का विच्छेद उनकी ही आत्म साधना के द्वारा सहज होता रहता है। इस अवस्था में शरीर से प्रयोजन छूट जाता है। परीषहों की राह पर चलते हुए भी परीषह का मान न रखकर अरिहंतों का ध्यान ही आत्मध्येय को प्रदान करने वाला आत्मसंतुष्टि का प्रदाता आत्मा से मोह परिणाम छुड़ाकर आत्मा को मोहक, मनोहर पद से विभूषित करने वाला यह अर्हत् पथ अनुगामी परम्परा का मार्ग आचार्य गुरुदेव अपनी गुरु परम्परा आचार्य शांतिसागर से लेकर आचार्य वीरसागर, आचार्य शिवसागर, आचार्य ज्ञानसागर तक उसी निर्वाह से निर्वाण की युक्ति का अनुसरण करते-करवाते हुए नित्य निरंतर चले आ रहे हैं और अंत तक चलने का लक्ष्य निर्धारित कर लोगों में सम्यक्त्व समीचीन देव अरिहंत स्वामी की आराधना-साधना की नीतिपरक स्तुति का प्रचलन गतिमान कर आगम के देवता प्रथम परमेष्ठी अरिहंत परमेष्ठी। अरहंत, अरुहंत यह सब एकार्थवाचक अरिहंत परमात्मा के स्वरूप के घोषक परमात्मा माने जाते हैं। इन ५० वर्षों में गुरुदेव ने संघ से लेकर समाज तक उत्तर से लेकर दक्षिण तक अर्हत् पथानुगामी के नाद की धुनि से झलंकृत किया है।
  4. भोजन से संतुष्ट पुत्र माँ की स्तुति किये बिना रहता नहीं है। ऐसे ही गुणीजन मुनियों की स्तुति किये बिना संतुष्ट नहीं रह सकते। गुरुदेव अपने गुरु पूर्वाचार्यों की स्तुति करके ही संतुष्टि को प्राप्त कर आत्म-संतुष्टि में समा जाते हैं। इस विशेष गुण के कारण ही मुनि जगत् के चहेते आपश्री आचार्य विद्यासागर नाम से विख्यात होने से सारे लोग आपको आचार्यश्री के नाम से जानते हैं। आपके दर्शन के बिना, आपके प्रवचन के बिना आपको आहार दान दिये बिना श्रावकों का मन संतुष्ट नहीं होता है। तो वे आपके संघ आकर चौका लगाकर आहार दान की परम्परा का निर्वाह करते हुए नजर आते हैं तो कभी प्रवचन सुनते हुए नजर आते हैं। कभी आकर चरणों की सेवा करते हुए नजर आते हैं, कभी आपकी स्वाध्याय की कक्षा के श्रोता के रूप में नजर आते हैं। ये सब कार्य श्रावकों की संतुष्टि के कारण हो सकते हैं इसलिए आप भी कृपा कर उन्हें आहार दान का अवसर प्रदान कर श्रावकधर्म के निर्वाह में सहयोग प्रदान करने वाले हैं। इसी क्रम में प्रवचन कर जिनवाणी का दान करने वाले श्रुतदानी के रूप में भी जाने जाते हैं। कभी वैय्यावृत्ति का अवसर प्रदान कर कर्म की निर्जरा में साधक कारण बन संतुष्टि प्रदाता बन जाते हैं। जैन समाज के लोग किसी अन्य मुनि, आचार्य को भले न मानें लेकिन विद्यासागर नाम संतुष्टि का समाधान वाचक शब्द बन लोगों के मानस पटल पर छा गया है। जैसे आकाश में पूर्णिमा का चन्द्रमा प्रकाश प्रदान कर संतुष्टिदायक माना जाता है। इसी तरह गुरुदेव अपने शिष्य-शिष्याओं को समय-समय पर दर्शन प्रदान कर आत्म-संतुष्टि देकर उनकी साधना में सहयोग के वाची मुनियों के नायक संतुष्टि के प्रदाता ५० वर्षों से देश के कोने-कोने से आने वाले भक्तों को, समाजजनों को दर्शन, प्रवचन, आहार-दान, वैय्यावृत्ति, शास्त्रदान, औषधिदान, अभयदान चारों प्रकार के दानों से संतुष्टि प्रदान करते नजर आते हैं।
  5. दुनियाँ में वाहन बहुत मिलेंगे और देखे भी होंगे लेकिन निजी वाहन एक आत्मज्ञानी के पास ही पाया जाता है, जो तत्त्वज्ञान के माध्यम से नित्य चलता रहता है। कभी भी रुकता नहीं है, दिन-रात चलता ही रहता है, न कोई रुपया-पैसा खर्च होता है। वह तो तत्त्व-चिंतन की अनुभूति आत्म-आनंद की निमग्नता से सहज ही शरीर और भोगों से विरक्त बना रहता है। कभी मन के कोने में विषय पदार्थों की गन्ध भी पहुँच नहीं पाती। सात तत्त्वों के चिन्तन से देह और आत्मा दोनों कांतिमय बनी रहती है। जो साधक निरंतर तत्त्व के अन्वेषण में लगा रहता है। वह आने वाले प्रत्येक साधक को तत्त्व की प्रेरणा देकर विषय पदार्थों से विरक्ति पैदा कर आत्मशक्ति के भावों में समाहित करने वाले आचार्य गुरुदेव अपने शिष्यों के लिये यही मार्ग निर्देश देते रहते हैं। विकथाओं से बचो और तत्त्वाभ्यास से आत्मकथा में समाकर निज का उपकार कर निज का वाहन बनो, निज का वाहन ही निजता की ओर आता है तो परालम्बन छूट जाता है। स्वालम्बन ही मोक्ष का साधन है। एक चिन्तन अनेक चिंताओं को भस्म कर देता है। एक चिन्ता अनेक चिन्ताओं को जन्म देती है। इसीलिए गुरुदेव कहते हैं-चिंता छोड़ो चिन्तन करो। चिन्तन आत्मगत परिणति का नाम है। चिन्ता शरीर, विषय भोगों की परिणति की समाहिता का नाम है। जो आत्म समाहिता के परे ही ले जाने वाला साधन है। चिंतक कभी अपने चिन्तन को लेखन का रूप प्रदान कर शास्त्र और पोथी के रूप में जैन वाङ्मय को समाहित कर देता है। यही श्रुत-सेवा का मार्ग ही श्रुत की आराधना, उपासना की ओर इंगित करता है। जो श्रुत से अपनी आत्मा को सिंचित करते रहते हैं, वे ही समीचीन तत्त्वज्ञानी इन ५० वर्षों से अपने संघ, अपनी आत्मा और समाज को निरंतर आत्म-तत्त्व की दृष्टि प्रदान करते हुए नजर आते हैं।
  6. चारित्र की सुंदरता के तीन साधन-ज्ञान, ध्यान, तप। जिसकी वृद्धि सम्यग्ज्ञान से सहित होती है। तप दृष्टि रखकर तप के साधन से जीवन को पवित्र उज्ज्वल बनाकर अपनी आत्मा में ध्यान की अग्नि उत्पन्न करता है। इसी तरह आचार्य गुरुदेव ज्ञान के माध्यम से अपने को विजी/व्यस्त बनाये रखते हैं। यही योगी का वास्तविक विजनेस/व्यापार हुआ करता है। ज्ञान के माध्यम से तप की ओर सहज आना हो जाता है। योगी जान से मन को रमाते हैं। तप से कर्मों को जलाते हैं। ध्यान से आत्मा की विशुद्ध परिणामों में समा जाते हैं। संसार की ऊब से बचने के लिए योगी के पास कभी ज्ञानमय परिणति से लोगों को सम्यग्ज्ञान में लगा देते हैं। कभी तप की परिणति से लोगों को तपस्या के क्षेत्र में लगा देते हैं। कभी ध्यान की परिणति से साधक को आत्मध्येय की ओर लगा देते हैं। इन ५० वर्षों में गुरुदेव के पास अनेक युवक-युवतियाँ आयीं जो ज्ञान के पिपासु थे, उन्हें गुरुदेव ने उनकी योग्यता के अनुसार ज्ञान का रस पिलाया। जो ज्ञान को नहीं; तप और चारित्र को चाहते थे, उन्हें रत्नत्रय का व्रत प्रदान किया और आत्मध्यान की साधना के सूत्र जीवात्मा के अंदर विकसित किये। ज्ञान एक ऐसा समाधान है जो संसार के विकल्पों से बचाकर आत्म-समाधान की ओर लगा देता है। जो दुनियाँ के विवादों से बचाकर आत्मवाद की ओर अग्रसर कर निर्विवाद परम्परा का उद्घाटन करता है। ध्यान एक ऐसी विशेष ज्योति प्रकाश की ओर ले जाता है, जिसे आत्मप्रकाश कहते हैं। इसी प्रकाश को प्राप्त करने में अपने समय का खर्च गुरुदेव करते हैं। और अपने शिष्यों को भी इसी ओर आने की रहने की नित्य प्रेरणा देते रहते हैं। समाज में उन्हें ज्ञान-ध्यान-तप की मूर्ति के रूप में ५० वर्षों से जाना जा रहा है।
  7. साधुता का सा समता वाचक, ममता परित्यागी, ममता का त्याग ही, शरीर से निर्ममत्वपना, आत्मा में साम्यभाव, निजचेतना की परख की ललक में तत्पर बना रहता है। दीन-दुखियों के प्रति भी वही करुणा का, दया का, साम्यभाव ही मैत्री का भाव सुख दुख की घड़ियों में निराकुल बनाकर शांत, प्रसन्नचित्त ही एकाग्रता में सहयोगी होता है। समता का भाव ही सामायिक चारित्र कहा जाता है। इसी सामायिक चारित्र की भूमिका में प्रतिपल समता रस का पान करते हुए २८ मूलगुणों का निर्दोष रीति से पालन कर कभी भी अन्य लोगों के द्वारा अशब्द, शब्दों के प्रयोग से साम्यभाव उनका स्थिर बना रहता है। कभी भी उनका मन विचलित नहीं होता क्योंकि साम्यभाव की धारणा ही साधुता की डोर हुआ करती है। समता के बिना साधुता शून्य के घेरे में समाहित हो जाती है। गुरुदेव बड़ी-बड़ी समस्याओं को धैर्य के प्रयोग से समाधान पा लेते हैं। इसलिए वे धीरवान हैं, वीरवान हैं, समता से परिपूरित हैं इसलिए वे समतावान हैं, समता के गुण से संतोष गुण भी आत्मा में समाहित होता चला जाता है यह सुख और शांति का साम्राज्य फैलाती चलती है। ठण्डी, गर्मी, वर्षा इन सब ऋतुओं की प्रतिकूलता समता के अभ्यास से सहन करने की शक्ति एक दुर्बल बल वाले व्यक्ति के अन्दर भी आ जाती है। घर की शांति के लिए भी समता के प्रयोग से अशांति दूर होती है। देश की अशांति भी समता के प्रयोग से शांति में बदल जाती है। फिर अनंतकालीन आत्मा की अशांति समता के प्रयोग से आत्मध्यान की प्राप्ति में कारण बनती है। ध्यान का मूल्य, निज स्वभाव की प्राप्ति का मूल्य, चेतना में निमग्न होने का मूल्य समता का भाव ही होता है। दुनियाँ के सारे झगड़ों की जड़ को ५० वर्षों से गुरुदेव ने अपने निजी समताभाव से विनष्ट कर दिया, नष्ट कर दिया, समाप्त कर दिया।
  8. लोभ रिक्त जीवन जीने की अवधारणा संत परम्परा की निर्लोभवृत्ति का परिचायक भाव है। बचपन से सुनते आये हैं-लालच बुरी बला है। सन्तों की दृष्टि कषाय से रहितपना ही त्याग-तपस्या की परिपूर्ति में सम्यक् साधना की भाँति सहयोग प्रदान करता रहता है। शिष्यों के संग्रह की कामना से रहित होकर मोक्ष की परिपाटी आत्मा की आत्मोन्नति के व्यवधान से रहित कार्य करने के लिए ही उत्साहित रहते हैं। शिष्य का परीक्षण करना, उसकी धर्मपिपासा को बढ़ाकर उसके गुण-अवगुण आदि की परख के माध्यम से उसे व्रत आदि प्रदान करते हैं। आकुलता रहित होकर एकदम से कभी भी शिष्य की मनोकामना पूर्ण नहीं हो पाती क्योंकि वे उसके मनोभावों को पढ़ने में लगे रहते हैं। गुरुदेव कभी भी ये नहीं सोचते कि यह अन्य संघ में जाकर दीक्षित हो जायेगा। यही उनकी निरीहता, लोभ रहित गुण ही उनकी प्रसिद्धि और धर्म की प्रभावना का कारण है। जनहितकारी कार्यों की श्रेणी में प्रवेश कराकर शिष्यों के भावों की पूर्ति करने वाले एवं आहार पानी भी निर्लोभ भाव से नीरस, अल्पाहार को ग्रहण करना, रस परित्याग, ऊनोदर आदि तपों को तपते हुए यह भी उनकी आहार के प्रति निर्लोभ वृत्ति है। बैठने-उठने वाले आसन सिंहासन, पाटे, तखत आदि का परिवर्तन देखकर यही कहते हुए पाये जाते हैं कि यह पाटा या तखत क्यों बदला? वह कहाँ है? और नया छोड़ पुराने पाटे पर बैठने का जिनका मन बना रहता है यह आसनों के प्रति निर्लोभ वृत्ति है।५० वर्ष बीत गये वही पुरानी धर्मध्यान दीपक, नित्यपाठ संग्रह, जिससे वह प्रतिक्रमण भक्ति आदि का पाठ किया करते हैं, नई-नई पुस्तक आने पर पुरानी पुस्तक को नहीं छोड़ते, यह उनकी ग्रन्थों के प्रति निर्लोभ वृत्ति है। ऐसी निर्लोभ वृत्ति के लिये विद्यासागर नाम विख्यात है। अपने शिष्यों के लिये भी निर्लोभ वृत्ति के व्रत के पालन का संदेश देते रहते हैं।
  9. आत्म-परिणाम के प्रशस्त भावों की भंगिमा ही बाह्य में क्रिया रूप में दर्शित होती है। प्रशस्त भाव ही आत्मा की निर्मलता, कर्मों के दहन की पुण्य के बंध की क्रिया की विधि है। जब यही प्रशस्त भाव बाहर से छूटकर अन्दर आत्मध्यान में समाहित होने लगते हैं तो बाहर की प्रशस्तता से बँधा हुआ पुण्य छूटने लगता है। जैसे थोड़े से पुरुषार्थ के द्वारा मूंगफली के दाने से कवच अलग हो जाता है और पुरुषार्थ वृद्धिंगत होता है तो मूंगफली के दाने का छिलका भी अलग हो जाता है। इस प्रकार आत्मा पाप-पुण्य के कर्मों से रहित होकर शुद्ध-चैतन्य रूप में प्रकट हो जाती है। इसी प्रकार परम वीतरागी गुरुदेव अपने भावों की प्रशस्तता के साथ, बाह्य चर्या को भी प्रशस्त बनाकर जैसे-जिनेन्द्र स्तुति करते समय मनोयोग की स्थिरता के साथ भाव-विभोर होकर चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति करते हुए ऐसे जान पड़ते हैं, जैसे साक्षात् समन्तभद्र स्वामी ही स्तुति कर रहे हों। जब भगवान् की वंदना के लिए जिनालय में प्रवेश करते हैं उस समय गद्गद् भावों से भगवान् की वंदना पंचाङ्ग नमस्कार विधि से करते हैं। तब समझ में आता है कि एक भक्त भगवान् के द्वारे भक्ति कर रहा है और वो भक्ति में लीन होकर ऐसे लगते हैं जैसे भगवान् की मुद्रा में समाहित हो गये हैं। यही भक्ति की प्रशस्तता ही निज स्वरूप का भान कराती है। जब गुरुदेव नंदीश्वर भक्ति का पाठ करते हैं, उस समय ऐसे खो जाते हैं जैसे नंदीश्वर की वंदना करने चले गये हों। इसी तरह सामायिक करने के बाद जब सामायिक पाठ आचार्य अमितगति द्वारा रचित पढ़ा करते हैं, तब कोई भक्तजन दर्शन करने आते हैं तो उन्हें ऐसा ही जान पड़ता है, जैसे सी.डी. प्लेयर ही चल रहा हो। यह तन्मयता ही आत्ममय भावों को प्रकट करने वाली क्रिया जान पड़ती है। इसी तरह जब प्रतिक्रमण करते हैं, उस समय द्रव्य प्रतिक्रमण से भाव प्रतिक्रमण की ओर गमन कर जाते हैं। तब समझ में आता है गुरुदेव ५० वर्षों से समग्र क्रियाओं में प्रशस्त भावों से युक्त नजर आते हैं।
  10. स्वाध्याय को परम तप कहा है क्योंकि स्वाध्याय का परिणाम स्व की ओर आना है। सच्चे स्वाध्याय से स्व का अध्याय खुलता है। इसी स्वाध्याय की निष्ठा के साथ आत्मप्रतिष्ठा की ओर दृष्टि रखने वाले गुरुदेव आलस का त्यागकर, ज्ञान की आराधनारूपी स्वाध्याय के तप की धारणा के साथ कर्मों को काटने का आयाम स्व एवं पर हित में आगम के अध्ययन से प्रयोग में लाते हुए नजर आते हैं। यह स्वाध्याय ११ अंग, १४ पूर्व से परिपूरित है, जो जिनदेव के द्वारा कहा गया है और गणधरस्वामी के द्वारा गूंथा गया है। अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य-आगम की वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय, धर्मोपदेश ये सभी स्वाध्याय नाम के तप हैं। इन्हीं तपों में गुरुदेव मन को लगाकर आत्मध्यान, आत्महित, परहित की आराधना में अपने आपको विजी बनाये रखते हैं। जो पढ़ा है, उसे ही प्रयोग में लाकर, चारित्र के रूप में पालन करते हैं एवं शिष्यों को भी इसी अनुरूप परिवर्तित होने की प्रेरणा वाणी के माध्यम से प्रदान कर जिनवाणी के अनुशरण में अपने को लगाये रखते हैं। सच्चा तत्त्वज्ञान जानने के लिये द्रव्यानुयोग को स्वयं पढ़ना, औरों को पढ़ाना, फिर पुण्य-पाप के फल को जानने के लिए प्रथमानुयोग को पढ़ना, फिर शुद्धोपयोग की प्राप्ति के लिये अध्यात्म शास्त्र में लीन होते हुए साक्षात् आत्मसाक्षात्कार करते रहते हैं। गुणस्थान आदि जीवों का व्यवहार जानने के लिए करणानुयोग यह सब सम्यग्ज्ञान का अभ्यास है। इसी में मनवचन-काय की प्रवृत्ति को लगाकर निवृत्ति के अभ्यास में अपने को लगाकर स्वतत्त्व की और गमन करने की निजता में प्रतिपल खोये हुए नजर आते हैं। दुनियाँ को गौण कर मोक्ष के आयाम में लगे रहते हैं इसीलिए निर्दोष रीति से व्रतों का पालन करना और उन्हीं अनुभूत व्रतों का उपदेश देना यह कर्ममल को शोधन करने की विधि, शास्त्रों से जानकर, भक्तिपूर्वक, विनयपूर्वक श्रुत का सुखकारी लाभ आत्मा में समाहित कर तन की थकान को यों ही दूर कर देते हैं। एक-एक अर्थों को, शब्दों को शुद्धि के साथ शुद्ध उच्चारण के साथ ग्रहण कर प्रदान करते हुए देखा जा सकता है। इन ५० वर्षों में स्वाध्याय के अनुरूप ही चर्या का पालन यही इनकी स्वाध्यायनिष्ठता का प्रतिफल है।
  11. स्वतत्त्व के जानकार परतत्त्व से निर्मोहता स्व अर्थात् आत्मतत्त्व, पर अर्थात् शरीर के प्रति निर्मोह एवं आत्मा के राग में रंगे रहकर भेदविज्ञान की ओर लगे रहते हैं। शरीर अलग है, आत्मा अलग है। गुरुदेव स्वसमयपरसमय, स्वमत-परमत के जानकार हैं। जैसे जैन आगम के समग्र को जानते हैं और उसके प्रयोग में, उपयोग में चित्त की शुद्धि में, चेतना की अनुभूति में लगे रहते हैं। इसी प्रकार परसमय, परमत का भी ज्ञान रखते हैं। जैसे गीत, वेद, पुराण आदि। एक बार अमरकंटक प्रवास के समय अन्य साधुओं का आना होता था। वहाँ के बाबा कल्याणदास, मौनी बाबा, नारद मुनि, बर्फानी बाबा, सुखदेवानंद, रामकृष्ण आश्रम के बाबा गण आचार्यश्री से आकर धर्म चर्चा किया करते थे। एक दिन एक बाबा ने भगवत् गीता का एक श्लोक बोला तो वह भूल गये, तब आचार्य गुरुदेव ने उनके श्लोक को पूरा कर दिया। तब समझ में आया गुरुदेव परसमय, परमत के भी ज्ञाता हैं। उसी समय एक बाबा ने कहा-हम तो सनातन हैं तो गुरुदेव बोले इसलिए तनातनी मची रहती है। इस प्रकार हँसी-हँसी में भी आत्मबोध करा दिया करते हैं। इसी क्रम में तिलवाराघाट में प्रवास के समय योगगुरु बाबा रामदेव दर्शन करने आये। आचार्य संघ को दिगम्बर रूप में देखकर बाबा गद्गद् होकर नतमस्तक हो गये। चर्चा के दौरान गुरुदेव ने परसमय, परमत के खजाने से निकालकर एक श्लोक अपने मुखारबिंद से बाबा रामदेव के सामने प्रकट किया नाहं रामो न मे कामः, भोगेषु न च मे मनः। किन्त्वहं कामये शक्तिं, नित्यमेव जिन यथा॥ न मैं राम हूँ, न मेरे अन्दर कुछ इच्छायें हैं एवं भोगों में भी मेरा मन नहीं है, किन्तु उन भोगों की इच्छा की शांति हो ऐसी कामना नित्य करता हूँ, जिनेन्द्र भगवान् के समान। गुरुदेव से यह श्लोक सुनकर बाबा रामदेव अभिभूत हुए। जैसे स्वसमय, स्वमत की साधना में लगे हुए हैं वैसे ही परसमय, परमत की साधना के ज्ञाता गुरुदेव ने कहा-ये बाबा लोग आते रहते हैं और इनके यहाँ नाम साधना चलती रहती है। जिसमें राम-राम का जाप जपते रहते हैं। ५० वर्षों से स्वमत, स्वसमय, परमत, परसमय के ज्ञाता अपने शिष्यों के लिये भी स्वमत की जानकारी के बाद ही परमत की जानकारी की अनुमति देते हुए स्वपर समयज्ञ संज्ञा को प्राप्त कर दृश्यमान हो रहे हैं।
  12. तृतीय काल का अवसान होने वाला था। उसी समय स्वर्गों का वैभव छोड़ के आदिनाथ प्रभु का अयोध्यापुरी में जन्म हुआ, यहाँ से तीर्थ का प्रवर्तन प्रारंभ हुआ। तृतीयकाल (जघन्य भोगभूमि) के अवसान होने पर चतुर्थकाल (कर्मभूमि) का प्रारंभ से तीर्थ का प्रवर्तन चलता रहा और यह धारा काल की अवधि को लेकर चौबीसों तीर्थंकरों तक ज्यों की त्यों चलती रही। पंचमकाल का प्रारंभ होने के पहले भगवान् महावीर का जन्म हुआ। यह धारा केवली, श्रुतकेवली, अनुबद्धकेवली आदि के रूप में प्रवाहमान रही। पंचमकाल आते-आते बहुत समय बाद जब पंडितों का युग था। उस समय मुनिराजों का दर्शन दुर्लभ हो गया था। तब उनकी कविताओं में या रचनाओं में ये पंक्तियाँ अंकित होने लगी “ते गुरु मेरे उर बसो'' फिर आचार्य श्री शांतिसागरजी ने इस मुनि परम्परा को पुनः जीवित किया। यह परम्परा लगातार चलती रही। इसके बाद में अब बूढ़े साधुओं के रूप में देखने मिलने लगी। ऐसा समझ में आने लगा। धर्म का कार्य बूढ़े लोगों का ही है। आज वर्तमान में शांतिसागर महाराज की परम्परा को पुनः जीवित करने वाले आचार्य विद्यासागरजी बाल ब्रह्मचारी युवा के रूप में २१ वर्ष की अल्प वय में दीक्षित हुए। तब से यह मोक्ष का द्वार खुलता हुआ सा नजर आने लगा। बाल ब्रह्मचारी युवकों को भरी जवानी में दीक्षा प्रदान कर मुनि धारा को प्रवाहमान कर दिगम्बरत्व, वीतराग मार्ग के साक्षात् दर्शन करा कर बाल ब्रह्मचारिणी बहनों को ब्राह्मी-सुंदरी, सीता, अंजना आदि की आर्यिका प्रव्रज्या की धारा को प्रवाहमान बनाया। ५० वर्षों से गुरुदेव ने बुंदेलखण्ड के गाँव-गाँव से पाँव-पाँव चलकर रत्नत्रय की योग्यता रखने वालों को धर्म के भाव से भरकर मोक्ष के द्वार में प्रवेश के काबिल बना दिया।
  13. आगम में गारव शब्द का वर्णन आता है, उन्हें तीन प्रकार से व्याख्यायित किया गया है-१. रस गारव, २. ऋद्धि गारव, ३. सात गारव। यह गारव आत्मा के अन्दर एक ऐसी परिणति को उत्पन्न करता है, जो मान कषाय की सूक्ष्म परिणति जिसे अहंकार के नाम से भी जाना जाता है। पुण्य से साधन सम्पन्नता प्राप्त होने पर भी कभी जिन का मन फूलता नहीं है, ऐसे गारव से रहित जीवन जीने वाले गुरुदेव जब आहारचर्या के लिये श्रावक के चौके में जाते हैं, उस समय श्रावक थाली में ५० प्रकार के व्यंजनों को दिखाता है, फिर भी अंगुली के इशारे से सभी को हटा देते हैं और नीरस आहार जिसमें नमक-मीठा नहीं ग्रहण करते हैं। ये दोनों रस भोजन के राजा कहे जाते हैं। हरी सब्जी, फल रहित आहार को ग्रहण करते हैं। जब वही आहार कोई भक्त श्रावक ग्रहण करते हैं तो वह आहार स्वादिष्ट लगता है। यह आगम में ऋद्धियों का वर्णन है, उन्हीं का प्रभाव जानो। भले ही ऋद्धि आज नहीं हैं। आचार्यश्री जिस भी तीर्थक्षेत्र पर पहुँच जाते हैं, वहाँ उनके तप के प्रभाव से धन की वर्षा होने लगती है। भीड़ उमड़ने लगती है, क्षेत्र का विकास होने लगता है फिर भी कभी मन में ये भाव नहीं आता कि मैं इसका कर्ता हूँ या ये मेरे द्वारा हो रहा है, मैं नहीं आता तो ये क्षेत्र वीरान पड़े होते। इस प्रकार मानसिक प्रसन्नता के भाव से दूर रहते हैं। गुरुदेव लौकिक शिक्षा में कक्षा नौवीं तक पढ़े हैं और पढ़े-लिखे लोग उनके चरणों में पड़े रहते हैं। लौकिक पढ़ाई की हीनता के बावजूद ४-५ वर्षों में आचार्य ज्ञानसागरजी से आगम का अथाह ज्ञान आत्मसात किया फिर भी ज्ञानऋद्धि से प्रभावित नहीं हुए। इसी क्रम में आगे कहना चाहूँगा, सातावेदनीय की तीव्र उदीरणा होते हुए भी जंगल में जाते हैं, मंगल हो जाता है। चौकों की लाइन लग जाती है, कभी मन के कोने में विचारों की गूंज नहीं आ पाती कि ऐसे भी साधु हैं, जिनके लिये चौकों की पंक्ति नहीं मिलती। ऐसे भाव से रहित होना सात गारव से निरपेक्ष है।५० वर्षों से रस, ऋद्धि, सात गारव से निरपेक्ष एवं निर्लिप्त दृष्टि बनाकर आत्म साधना में लीन रहकर अपने शिष्यों को इसी प्रकार की दूरी बनाकर रहने का संदेश देते हैं।
  14. धर्मध्यान की भूमिका आर्त और रौद्रध्यान के त्याग से प्रारम्भ होती है। जिसने चित्त की प्रसन्नता प्राप्त की हो, जो इस लोक व परलोक की अपेक्षा से रहित हो, २२ परीषहों का विजेता हो, जो क्रिया योग के अनुष्ठान में स्नातक हो, जैसे सिद्धों की आराधना की भक्ति का अनुष्ठान, ध्यान के उद्यम में लगे रहना, महा सामर्थ्यवान पुरुषों के सामर्थ्य का विषय होता है। अशुभ लेश्यायें बुरी भावनाओं को अलविदा करने वाला धर्मध्यान का पात्र होता है। गुरुदेव साधुता को प्राप्त कर गुणों के कीर्तन में शुभ की प्रवृत्ति में, शास्त्र के अभ्यास में, चित्त की स्थिरता में, वैराग्य से भरे भावों में समाये रहते हैं। इसी बाह्य और अंतरंग चिह्न के द्वारा धर्मध्यान को जाना जा सकता है। जो गंध-दुर्गंध में साम्यभाव को रखता है, अल्प भोजन, अल्प मलमूत्र आदि योग्यता से सहित धर्मध्यानी महात्मा, समता से भूषण, संयम के आभूषण, आर्त-रौद्रध्यान के त्यक्ता, सामायिक चारित्र में लीन रहने वाले, प्रतिक्रमण में एक पाठ आता है इसी पाठ की भावना में गुरुदेव अपने को समाहित रखते हैं-समता सर्वभूतेषु....धर्मध्यान का ध्याता, आत्म तत्त्व का ज्ञाता, इन्द्रिय काम से रहित, इन्द्रिय भोगों से विरक्त, परिग्रह के त्यागी, जिन आज्ञा में चलने वाले, संयम और तप के आश्रय में रहने वाले, प्रमाद से विरक्ति को धारण करने वाले, ये सब कारण ध्यान की सिद्धि की प्राप्ति के साधन हैं। कषाय का निग्रह, व्रत की धारणा, इन्द्रिय विजय, मनोविजय, गुरु के उपदेश की पालना, तत्त्व का श्रद्धान, निरन्तर मन की स्थिरता के अभ्यास में लगे रहना, मन की शुद्धता केवल ध्यान से प्राप्त होती है, जो कर्ममल नि:संदेह काटती रहती है। आचार्यश्री धर्मध्यान की इन समस्त योग्यताओं से परिपूरित धर्मध्यान की परिभाषाओं के घेरे में रहकर अन्य घेरों से अपने को बचाये रखने वाले, शुभ का चिन्तन करने वाले, अशुभ से रागद्वेष की परिणति से अपने को बचाने वाले, माध्यस्थभाव के समाहित इन सबसे ऊपर उठकर शुद्ध ध्यान की परिणति में चेतना के आनंद में मग्नता के भाव में ५० वर्षों से साधना करते हुए हमेशा शिष्यों को शुद्ध धर्मध्यान की प्राप्ति की प्रेरणा देने वाले धर्मध्यानी महात्मा हैं।
  15. आत्मा में, मन में, शरीर में हलचल मचाने वाली हैं तो पाँच इन्द्रियाँ हैं। इन्द्रिय अपनी माँग के लिये मनुष्य के अन्दर हलचल मचा देती है, दिमाग को चक्कर में डाल देती है। जिह्वा इन्द्रिय है इसलिए किसी भी इन्द्रिय को चाहे मत रोको पर अपनी जिह्वा इन्द्रिय को अवश्य लगाम लगाओ क्योंकि बेलगाम जिह्वा बहुत दुख देती है। रसना इन्द्रिय के वश में होने से सब इन्द्रियाँ वश में हो जाती हैं। आचार्य गुरुदेव ने रस परित्याग करके रसना इन्द्रिय को जीतकर अन्य इन्द्रियों पर यों ही लगाम लगा दी। जैसे उन्मार्गगामी दुष्ट घोड़ों का लगाम के द्वारा निग्रह करते हैं, वैसे ही गुरुदेव ने तत्त्वज्ञान की भावना से इन्द्रियरूपी अश्वों का निग्रह कर मन की एकाग्रता को ज्ञान के द्वारा बचाये रखकर पाँचों इन्द्रियों के विषयों को यों ही चकनाचूर करने की सामर्थ्य त्याग के भाव से सहज ही स्वाध्याय के उद्यम चिन्तन के द्वारा इन्द्रियों से मुख मोड़कर मन को जीतने वाले, इन्द्रिय संयम को धारण करने वाले, प्राणि संयम को धारण करने वाले, रस परित्याग करने वाले, इष्ट-अनिष्ट दोनों के भाव से ऊपर आत्म स्वभाव में रहकर नीरस में रस का आनन्द लेने वाले बेरस को इन्द्रियों को इतना ही प्रदान करते हैं, जिससे इन्द्रियाँ पुष्ट न हों, मन चंचल न हो और धर्मध्यान का क्रम बना रहे और अनुप्रेक्षाओं के चिन्तन में सदा लगे रहना इसलिए आप कभी शारीरिक भोजन के बारे में नहीं आत्मा की खुराक के बारे में चिन्तन करते हैं। आत्मा की खुराक इन्द्रिय रहितोऽहम् की भावना से चलती है। इन्द्रियों से ऊपर उठकर चलने वाला ही भेदविज्ञान की ओर जाने की योग्यता रखता है। इन्द्रियों का पोषण करने वाला आत्म पोषण से वंचित रहता है इसलिए आचार्य गुरुदेव कभी इन्द्रियों की बात नहीं मानते। वे इन्द्रियों के दास नहीं बनकर आत्मा की बात मानते हैं। इन्द्रियों पर विजय करने वाले हैं। शरीर थकने पर लेटने का विचार आते ही यही कहते हुए नजर आते हैं कि शरीर कहता है कि आराम करो पर आत्मा कहती है कि सामायिक करो, ध्यान करो और ध्यान में बैठ जाते हैं। इन ५० वर्षों में गुरुदेव का यही संदेश रहा इन्द्रियों की नहीं आत्मा की सुनने वाला इन्द्रिय विजेता होता है, वही जितेन्द्रिय कहलाता है।
  16. विश्व के सभी जीवों के कल्याण हित के बारे में सोचना, दया करना, वात्सल्य, अनुकम्पा, अहिंसा आदि दृष्टि ऐसे भव्य जीवों के अन्तर्मन में पलती रहती है। वे ही महापुरुष भवसागर से पार करने या विशुद्ध पद को इन भावनाओं से सहज प्राप्त कर विश्वकल्याण का उद्देश्य अवश्य ही पूरा कर लेते हैं। चाहे वे पृथ्वीकायिक जीव हों, करुणा, दया, हितैषी की जब भी इन जीवों पर दृष्टि पड़ती है वह यही विचार करता है कि अनन्तकाल से ये जीव एकेन्द्रिय पर्याय में पड़े हुए हैं। अपन भी कभी इन पर्यायों में जन्म लेकर निकल आये, ये कब निकलेंगे और आत्म तत्त्व को पाकर निज का पान कर पायेंगे। कहीं भी धर्म के नाम पर या पेट भरने के नाम पर जीभ के स्वाद के लिये जीवों का वध किया जाता है तो ऐसे विश्व हितैषी पुरुष के मन में तड़पन होने लगती है। दया, करुणा से रोम-रोम रोमांचित हो उठता है वे गंभीरता के सागर में निमग्न हो आत्म स्वरूप के बारे में सोचने लगते हैं। वे ऐसे कोई भी आदेश नहीं देते जिससे किसी भी प्रकार के जीवों की विराधना की सम्भावना हो। स्वहस्त कार्य को सम्पादन करके जीव दया पालन करते हुए यही कामनाभावना में लगे रहते हैं सुखी रहें सब जीव जगत के, कोई कभी नहीं घबरावे। वैर पाप अभिमान छोड़ जग, नित्य नये मंगल गावे॥ घर-घर चर्चा रहे धर्म की, दुष्कृत दुष्कर हो जावे। ज्ञान चरित्र उन्नत कर अपना, मनुज जन्म फल सब पावे॥ गुरुदेव का जीवन ५० वर्षों से अहंकार भाव, क्रोध भाव, ईर्ष्या भाव इन सबसे रिक्त सरल, सत्य व्यवहार के द्वारा जीवों के उपकार और जगत् में मैत्रीभाव, दीन दुखियों पर करुणाभाव, दुर्जन कुमार्गियों पर क्षोभ न रखकर साम्यभाव की परिणति में जीते हुए नजर आ रहे हैं।
  17. खजुराहो १७ जुलाई २०१८. आज मंगलवार प्रात: संयम स्वर्ण महोत्सव समापन समारोह में धर्मनायक, संघनायक, लोकनायक और संस्कृति नायक जैनाचार्य श्री विद्यासागर जी ने अपने संक्षिप्त उद्बोधन में कहा कि गुरु जी ने मुझे धर्म मार्ग पर प्रवृत्त कर दिया। भाग्यशाली हूँ कि मुझ अपढ़, अनगढ़, जिसे कुछ नहीं आता था उसे स्वीकार कर लिया। मैं तो ठेठ बाँस था, गुरु कृपा से बाँसुरी बन गया। गुरू ने दीया दे दिया मुझे । मुझे न भाषा का और न भाव का ज्ञान था, किंतु गुरु ने सब कुछ समझा और स्नेह दिया। अाज के जीवन में प्रचार-प्रसार, विज्ञापन का बोलबाला है। बहुत कुछ ग़लत दिशा में है, जिससे भारतीयता पर आधारित शिक्षा-प्रणाली से बचा जा सकता है। गुरु जी के द्वारा अंकुरित बीज से समाधान संभव है। आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज को उनके गुरु आचार्यश्री १०८ ज्ञानसागर जी महाराज ने आषाढ़ शुक्ल पंचमी तदनुसार ३० जून १९६८ को मुनि दीक्षा प्रदान की थी। संयम वर्ष से राष्ट्रीय संयम स्वर्ण महोत्सव समिति ने सर्वोदय सम्मान नामक एक पुरस्कार आरंभ किया है जिसमें समाज के उन नायकों का सम्मान किया जाता है जो विज्ञापन की चकाचौंध से दूर रहकर भारतीय संस्कृति, सभ्यता और जीवन पद्धति के संरक्षण में लगे हुए हैं। आज के इस पावन दिवस पर ऐसे ही ९ व्यक्तित्वों को सम्मानित किया गया जिनमें सर्वश्री 1.आदिलाबाद आंध्र प्रदेश में स्थित कला के स्वर्गीय रविंद्र शर्मा गुरुजी - कला ,कारीगरी एवं सामाजिक व्यवस्था के जानकार; 2.श्री एच वाला सुब्रमण्यम संगम एवं तमिल साहित्य के गैर हिंदी भाषी सुप्रसिद्ध अनुवादक. आपने दक्षिण भारत में हिंदी के प्रचार एवं प्रसार में निर्णायक भूमिका निभाई है; 3. टिहरी उत्तराखंड प्रदेश से आए हुए श्रीमान विजय जड़धारी जी. विजय जी चिपको आंदोलन की उपज है, और वर्तमान में बीज बचाओ आंदोलन से जुड़े हुए है; 4. श्रीराम शर्मा जी मध्य प्रदेश से संबंध रखते हैं, आपके पास भारतीय राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राम आंदोलन के तमाम महत्वपूर्ण दस्तावेज यथा पत्र पत्रिकाएं ,अखबार एवं ऐतिहासिक महत्व की वस्तुओं का अद्भुत संग्रह है; 5. बाबा आया सिंह रियारकी महाविद्यालय जिला गुरदासपुर पंजाब के संचालक गण. महिला शिक्षा के बाजारीकरण के खिलाफ एक स्वदेशी प्रयोग, एक ऐसा अकादमिक संस्थान जो बालिकाओं के लिए बालिकाओं के द्वारा बालिकाओं का महाविद्यालय है; 6. महाराष्ट्र राज्य के गढ़चिरौली जिले के मेडा लेखा गांव के भूतपूर्व सरपंच श्री देवाजी तोफा भाई. आपने गांधीवादी संघर्ष कर प्राकृतिक संसाधनों पर ग्राम वासियों के अधिकारों को सुनिश्चित किया. आप का नारा है हमारे गांव में, हम ही सरकार; 7. राजस्थान उदयपुर के भाई रोहित जो विगत कई वर्षों से जैविक कृषि में संलग्न है और अपने प्रयोगों के माध्यम से इसे युवा पीढ़ी में लोकप्रिय भी कर रहे हैं; 8. छत्तीसगढ़ के शफीक खान जो जीवदया, शाकाहार, नशामुक्ति और गौरक्षा के क्षेत्र में अभूतपूर्व कार्य कर रहे हैं; 9.गुजरात से अभिनव शिल्पी श्री विष्णु कांतिलाल त्रिवेदी। जिन्होंने ने अनेक भव्य मंदिरों का निर्माण किया है। पुरस्कार में श्रीफल, दुशाला, प्रशस्ति पत्र, प्रतीक चिन्ह, श्रमदान निर्मित खादी के वस्त्र और ५१ हजार रुपये की राशि प्रदान की गई। कार्यक्रम में प्रतिभास्थली ज्ञानोदय विद्यापीठ जबलपुर, डोंगरगढ़, रामटेक, पपौरा जी और इंदौर की ३०० से अधिक छात्राओं ने अपने मनभावन प्रस्तुतियों से उपस्थित विशाल संख्या में उपस्थित गुरू भक्तों का मन मोह लिया। दोपहर के प्रवचनों में गुरुदेव ने महाराजा छत्रसाल द्वारा कुंडलपुर के बड़े बाबा की प्राचीन प्रतिमा के संरक्षण में उनके योगदान का उल्लेख किया, संयम के महत्व पर प्रकाश डाला और आचार्यश्री १०८ ज्ञानसागर जी महाराज के प्रति अपनी विनयांजलि प्रकट की। समारोह में राष्ट्रीय संयम स्वर्ण महोत्सव समिति के पदाधिकारियों में सर्वश्री अशोक पाटनी (आरके मार्बल्स), प्रभात जी मुंबई, राजा भाई सूरत, विनोद जी जैन कोयला, पंकज जैन, पारस चैनल की उल्लेखनीय उपस्थिति रही| राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के सदस्य सुनील सिंघी, श्रीमती ललिता यादव, मध्यप्रदेश शासन राज्य मंत्री, पिछड़ा वर्ग तथा अल्पसंख्यक कल्याण और अहमदाबाद शहर के महापौर श्री गौतम भाई शाह ने आचार्यश्री को श्रीफल भेंट कर आशीर्वाद प्राप्त किया. संयम स्वर्ण महोत्सव के पावन दिवस पर केंद्रीय मंत्री सुश्री उमा भारती ने आचार्य श्री आशीर्वाद प्राप्त किया और उनसे अनुरोध किया कि आचार्य श्री आप इस वर्ष अपना चातुर्मास खजुराहो में ही करें साथ ही उन्होंने आचार्य श्री से हथकरघा, भारतीय भाषाओं, भारतीय संस्कृति और सभ्यता के बारे में विचार विमर्श किया.
  18. मन-वचन-काय इन तीनों योगों के व्यवहार में गुप्त हो जाना ही अशुभ प्रवृत्ति को रोक देता है। यही व्यवहार नय से बहिरंग साधन धर्म अनुष्ठानों की विचार संहिता परिपुष्ट बनाता है। मिथ्यादर्शन आदि से आत्मा के प्रतिपक्षी तत्त्व को रत्नत्रय रूपी स्वरूप में अपनी आत्मा को सुरक्षित रख ख्याति, लाभ आदि विषयों में निस्पृह रहते हैं। आचार्य गुरुदेव ने राग-द्वेष से अवलम्बित समस्त संकल्पों को मन को बाँधने की, तन को साधने की, समता के आलम्बन से भावों को स्थिरता प्रदान कर सिद्धान्त सूत्र अध्यात्म ग्रन्थों के पठन-पाठन में, लेखन कार्य में, अपनी सम्पूर्ण बुद्धि को मनोयोग पूर्वक लगाकर मनोगुप्ति का पालन करते हुए नजर आते हैं। उनकी मन की एकाग्रता ही ध्यान-सामायिक का सहयोगी साधन आत्मस्वरूप चेतन में गहराई में समा देता है। इसी प्रकार वचनों को वश में कर लगाम लगाते हुए प्रवृत्ति के समय वचनों का प्रयोग करना। मौन धारण कर मौन की यात्रा में लगे रहना, बोलने की आवश्यकता पर सीमित शब्दों का प्रयोग करना, यह उनकी वचन गुप्ति है। इसी प्रकार पद्मासन, पर्यंकासन, कायोत्सर्ग मुद्रा, इनके द्वारा काया की स्थिरता को हवा के झोकों में भी यथावत् बनाये रखना, यही काय गुप्ति की साधना, रोग आने पर भी समता ध्यान की साधना बरकरार बनाये रखना। आहार के समय, कभी भी दाता के आहार से असंतुष्ट नहीं होना यह मूलाचार की साधना के द्वारा अधःकरण दोष से बचने की बहुत अच्छी साधना आपके द्वारा स्वीकार है। प्रतिक्रमण पाठ करते हुए यह द्रव्य प्रतिक्रमण का रूप है। प्रतिक्रमण का सूत्र इत्थिकहाए, अत्थकहाए, भत्तकहाए, रायकहाए, चोरकहाए, मतलब यह हुआ ५० वर्षों से गुरुदेव स्त्रीकथा, विकथा, भोजनकथा, राजकथा, चोरकथा इन सबसे दूर हैं। इसलिए वे अपने में भरपूर हैं। हमेशा तीन गुप्तियों का मन, वचन, काय से पालन करते हुए नजर आ रहे हैं।
  19. मुनि परम्परा आचार्य श्री शांतिसागरजी से प्रारम्भ होकर फिर आचार्य वीरसागरजी, आचार्य शिवसागरजी, आचार्य ज्ञानसागरजी, आचार्य शांतिसागरजी (छाणी), आचार्य महावीरकीर्तिजी, आचार्य विमलसागरजी, मासोपवासी आचार्य सन्मतिसागरजी, आचार्य वर्धमानसागरजी, आचार्य अभिनन्दनसागरजी, आचार्य विद्यानंदजी इन सभी आचार्य परम्परा में आचार्य विद्यासागरजी महाराज के नाम से उनकी चर्या से सभी परिचित हैं। ऐसे और भी अनेक आचार्य, मुनि जिनके मुख से समय-समय पर ध्वनि निकलती आयी है-“यदि चतुर्थकाल की चर्या देखना है तो आचार्य विद्यासागरजी को देखो, उनके दर्शन करो।'' मुनियों में महान्, गुणियों में महान्, विद्वानों की सभा में भी या उनके समूह में भी आचार्य गुरुदेव का नाम अवश्य लिया जाता है। उनके दर्शन, प्रवचन, तत्त्वचर्चा के लिए विद्वान्, स्वाध्यायीजन हमेशा लालायित रहते हैं। साधु की निरीहता, निजता, निष्कामता, स्वहित कार्यशैली देखकर कौन नहीं उनको देखना, सुनना, नाम लेने से चूक सकता है। मुनि आदर्शों को कायम बनाये रखना, जैसे श्मशान में, नदी के किनारों पर, पहाड़ की चोटियों पर, वृक्षों के नीचे, शिलाओं पर, निर्जर स्थानों में, साधना और निवास करना यह मुनि माहात्म्य को प्रकट करने वाली बातें सबके कानों में समाहित होकर मन श्रद्धा से भर देती है। वहीं बैठे-बैठे मस्तक झुक जाता है। लोगों के सपनों के विषय भी बन जाते हैं। जिन लोगों के सपने में ऐसे गुण सम्पन्न, चर्या सम्पन्न, त्याग सम्पन्न, षट् आवश्यक सम्पन्न, चारित्र शिरोमणि के दर्शन होते हैं तो उसका आगे का भव अपने आप ही सफलता के सूत्र में बँधता चला जाता है। व्यक्तियों से बात तो करते हैं लेकिन कोई तत्त्वज्ञानी हो तो उनके इस तत्त्व ज्ञान की रुचि ने उन्हें तत्त्वज्ञानियों का चहेता बना दिया है। मुनियों की ऊँचाइयों को छूने वाले, मुनियों की मणियों की माला में ५० वर्षों से उनका नाम ज्यों का त्यों बना नजर आ रहा है।
  20. सिद्धों को मानना, उनकी कामना में मन के उपयोग को स्थिर कर कर्म के क्षय की विधि में समा जाना ही उस निराकार, अशरीरी परमात्मा की आत्मा को ध्यान का विषय बनाना अपने हाथ की हथेलियों को मिलाकर हाथ की रेखाओं में सिद्धशिला की मान्यता को स्थापित करना और अंगुलियों को सिद्धों की कायोत्सर्ग मुद्रा की परिकल्पना से अनंत सिद्धों का दर्शन बचपन से अभी तक करते चले आ रहे हैं। संघ में भी मुनियों के बीच में बैठकर आँख बंद करके ऐसा ही अनुभव करते हैं। मैं अनंत सिद्धों के बीच में बैठा हूँ। आत्मा का स्वरूप सिद्धों जैसा ही है। आत्मा अनंत निराकारमय शरीर रहितोऽहं की भावना से जब भी ध्यान सामायिक करते हैं तब यही भाव रहता है-मैं तो आत्मा हूँ शरीर नहीं। आत्मा शरीर से भिन्न है। सिद्धों के गुणों की स्तुति चलती ही रहती है। वे क्षायिक सम्यक्त्व, अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतवीर्य, सूक्ष्मत्व, अवगाहनत्व, अगुरुलघुत्व, अव्याबाधत्वरूप सुख ये आठ गुण सिद्धों की आत्मा में समाहित होते हैं। इन्हीं गुणों की प्राप्ति के लिये ही सारी चर्या और साधना निरंतर चल रही है। जो तप से सिद्ध हुए हैं उनके तप का ध्यान करते हुए तप सिद्धों की आराधना करना। जो नय से सिद्ध हुए हैं उनके नय का चिंतन करना यह नय सिद्धों की आराधना है। जो संयम से सिद्ध हुए हैं उनके विशुद्ध संयम भाव का चिंतन करना, इस प्रकार संयम सिद्धों की आराधना करते हुए जो चारित्र से सिद्ध हुए हैं, उनके विशुद्ध चारित्र को अपने ध्यान का विषय बनाना, यह चारित्र सिद्धों की आराधना है। जो ज्ञान से सिद्ध हुए हैं, उनके ज्ञान को नमन करना यह ज्ञान सिद्धों की स्तुति है। जो दर्शन से सिद्ध हुए हैं, उनके दर्शन का स्मरण करना इस प्रकार दर्शन सिद्धों की आराधना हुई। इस प्रकार ५० वर्षों से गुरुदेव भूतकाल, भविष्यकाल एवं वर्तमानकाल तीनों कालों के सिद्धों की आराधना करते हुए सिद्धों की श्रेणी में खड़े हुए नजर आ रहे हैं।
  21. धर्म का मार्ग, धर्म का पालन सबके लिये योग्यता के अनुसार ही चलता है। गुरुदेव की सामर्थ्य पंचम युग में चतुर्थ युग की चर्या का पालन करते हुए सबका ख्याल रखते हुए चर्या का प्रतिपादन जो रात में चारों प्रकार के आहार का त्याग नहीं कर सकता तो वह तीन प्रकार के आहार के त्याग से भी अपनी चर्या का निर्वाह कर सकता है। जो रात में चारों प्रकार के आहार का त्याग करता है और व्रत प्रतिमारूप लेने की क्षमता नहीं है तो यह भी उसके लिये महत्त्वपूर्ण है। जो व्रत प्रतिमा लेकर अपनी चर्या का पालन करते हैं उनका गुणस्थान बदल जाता है। आगे और चर्या का पालन करता है तो उसके लब्धिस्थान, विशुद्धिस्थान बदलते चले जाते हैं और कुछ नहीं तो होटल आदि का खानपान भी छोड़ देता है तो भी वह पापों से बचता चला जाता है। बच्चे हैं उनके व्रत अलग, बूढ़े हैं उनके व्रत अलग, लेकिन गुरुदेव की चर्या सदा एक सी बनी रही। नियमों की सरलता के कारण लोगों में आहार दान की प्रवृत्ति का विकास हुआ। उनकी नीति है अपना बनाकर त्याग के प्रति रुचि बनाकर त्याग कराओ। इसी को कहते हैं बहुजन हितकर चर्या। सभी को सुख देने वाली, सभी के मन की मुरादें पूरी करने वाली। कोई भी दान से वंचित न रह जाये, कोई व्रतों के नियमों के पालन से वंचित न रह जाये। शुरूआत में नियमों की कठोरता के कारण लोगों के अन्दर धर्म से दूरी बढ़ने लगती है और वह धर्म की चर्या, क्रिया, पूजन पाठ अभिषेक, साधु सेवा, आहारदान ये सब बूढ़ों तक सीमित रह जाता है। युवाओं में, युवतियों में, छोटे बच्चों में गुरुदेव ५० वर्षों से धर्म की हवा भरने का अपनी सहज, सरल बहु हित चर्या से करते हुए नजर आ रहे हैं।
  22. मनुष्य, मनुष्ययोनि में जन्म तो ले लेता है। यदि जन्म होने के बाद चारित्ररूपी व्रत गुरुओं के द्वारा मिल जाते हैं तो मनुष्य का जीवन एक चारित्रनिष्ठ पुरुष की संज्ञा पा जाता है। चारित्र जन्म से लेकर वृद्ध अवस्था तक वृद्धिंगत होता चला जाता है तो सुखदुख में साम्यभाव की अवधारणा मजबूत बनती चली जाती है। यही मार्ग जीवन में गम्भीरता, उदासीनता, शांत रहने के भाव में समा देता है। समुद्र में कितने रत्न होते हैं, यह समुद्र भी नहीं जान पाता है। कितनी प्रतिकूलता में भी वह गंभीर और शांत बना रहता है। थोड़ी भी विकृतियाँ उसके अंदर समाहित होने की कोशिश करती हैं, वह उसे कचरे के समान तट के किनारे बहुत जल्दी फेंक देता है। तब कहीं वह बहुत लंबे समय तक अपने इस विराट् रूप में स्थिर बना रहता है। वह अपने तट का विस्तार ही करता चला जाता है न कि संकोच। इसी प्रकार १२ प्रकार के तप, १३ प्रकार का चारित्र, २८ मूलगुणों को धारण करने वाले समुद्र के समान गंभीर चारित्र के सागर में समाहित होने वाले आचार्य परमेष्ठी इस चारित्र के सागर में अपनी आत्मा को निमग्न कर परभाव से स्वभाव में लगे रहना ही जिनमार्ग का चारित्र ही मोक्षमार्ग का दिग्दर्शन कराकर इस चारित्र रूपी जहाज में न जाने कितने नौजवानों, नवयुवतियों को अपने जैसा चारित्र का मार्ग प्रशस्त कर समुद्र के समान धीर-गंभीरता, सहजता-सरलता के रूप में ढालने के लिए कटिबद्ध हैं। प्रतिकूल हवा में भी चारित्र का जहाज संसार के समुद्र में बिना लड़खड़ाये आत्मविश्वास, समर्पण, अनुभव की प्रबलता के सहारे, बिना रोक-टोक के ५० वर्षों से विरोधियों के विपरीत बुद्धि वालों के, विपरीत मार्ग वालों के होते हुए भी निष्पन्द होकर समुद्र के समान धीर-गम्भीर चारित्र की अवधारणा में चलने वाले, चलाने वाले गुरुदेव जयवन्त हों, जयशील हों।
  23. दुनियाँ में धर्म के मार्ग तथा धर्मात्मा बहुत देखने सुनने मिल जायेंगे। साक्षात् प्रकाश प्रदान करने वाला, धर्म को जानने वाला, उसको दिखाने वाले बहुत कम लोग हुआ करते हैं। इसके लिए बौद्धों ने मध्यम मार्ग चलाया क्योंकि वे परीषह को सहन करने में सक्षम नहीं थे। क्षुधा की बाधा, पिपासा की बाधा, एक बार भोजन करने वाली बात, परिग्रहरहितता, नग्नता, इनके दिमाग में न समा पाई। इन्होंने भी अपने आपको श्रमण कहा। मोक्षमार्ग साधक कहा। इसी प्रकार श्वेताम्बर सम्प्रदाय भी खड़ा हुआ जो दिगम्बरों से ही निकले। इन्होंने भी खान-पान की भिक्षावृत्ति में बदलाव किया और वस्त्रों को, कुप्य-भांडों को, उपकरण की संज्ञा प्रदान की। इन सबसे ऊपर उठने वाले तिलतुष मात्र भी परिग्रह नहीं रखने वाले, भरी जवानी में नग्नता को धारण कर निर्विकारता का साक्षात् दर्शन कराने वाले, बिना ओढ़ना के, बिना बिछौना के जीवनयापन करने वाले, बत्तीस अन्तरायों के भेद-उपभेद को पालकर ही भिक्षा को ग्रहण करना बाकी के बौद्ध, श्वेताम्बर भिक्षा शुद्धि से रहित, जीव-जन्तु बाल आदि को हटाकर भोजन को ग्रहण करने वाले, चर्या की कठोरता में सहजता-सरलता का दर्शन, जिनलिंग के द्वारा इस भ्रष्ट युग में निर्भीक होकर निर्दोष साधना, दीन-हीनता से रहित करने वाले, इसी के अनुरूप शिष्य-शिष्याओं से ब्रह्मचारी-ब्रह्मचारिणियों से जीव हिंसा से रहित ऐसे कूप का पानी ग्रहण करके इस मिनरल वाटर के युग में जिनचर्या का पालन सहज और सरलता से बाधा रहित निर्बाध चल रहा है। वाद में न विवाद में, राग में न द्वेष में विश्वास है दिगम्बर भेष में। यही साक्षात् मुक्ति को देने वाला भेष होता है। जो गुरुदेव के द्वारा ५० वर्षों से एक रूप में, एक तर्ज में चला आ रहा है।
  24. भगवान् की वाणी जब भी खिरती है तब चारों निकाय के देव सुनने के लिए समवसरण में पहुँचने लगते हैं। सभी जाति के तिर्यंच पशु-पक्षी आदि धर्मोपदेश सुनने के लिए पहुँचने लगते हैं। मनुष्य जाति के लोग स्त्री-पुरुष आदि। इसी प्रकार गुरुदेव जब विहार करते हैं तब लोग जात-पात का भेद भूलकर दर्शन और प्रवचन के लिए कतारबद्ध होकर आने लगते हैं और अपनी बुराइयों का विसर्जन कर, चरण छूकर आशीर्वाद पाकर आगे बढ़ते चले जाते हैं। किसी शहर में जब रुकना होता है या चातुर्मास करना होता है तब जैनेतर लोग भी नित्य दर्शन और प्रवचन के लिए अपने घरों से पैदल बिना जूते-चप्पल के चले आते हैं। जैसे भगवान् के आलय में प्रवेश करने की विधि होती है वैसे ही गुरु के आलय में पैर धोकर, मुख शुद्धि करके चमड़े की वस्तु बाहर रखकर, हाथ धोकर गुरु मंदिर में प्रवेश कर चरण छूकर अभयमुद्रा पाकर, मन्द-मन्द मुस्कान का दर्शन कर अपने को कृतकृत मानकर चले जाते हैं। जिस समय गुजरात के विघ्नहरण पारसनाथ महुआ क्षेत्र में चातुर्मास हुआ। उस समय सर्व जीवों के हितार्थ स्कूल में राम, हनुमान, पाण्डव आदि को लेकर रविवारीय प्रवचन होते थे। सबके हित की दृष्टि को रखते हुए सम्मेदशिखर में तीर्थरक्षा कमेटी को करेली के पंचकल्याणक, छिंदवाड़ा के पंचकल्याणक में समाज द्वारा मधुवन के आदिवासियों के हित के लिए जनकल्याणी योजना से लाभ पहुँचे इससे समाज ने राशि प्रदान की। यह गुरुदेव का हितदायक विचार था और भी कोई भूले भटके जैनेतर लोग आ जाते हैं, उन्हें भी समाज के द्वारा सहयोग के लिए प्रेरित करते हैं। इसी का उदाहरण महुआ चातुर्मास में विघ्नहरण पारसनाथ की स्कॉलरशिप योजना बनी। इसी तरह अमरकंटक में सबके लिए शरण मिले इसलिए वहाँ यात्रियों को कम राशि में प्रवास के लिए स्थान प्रदान किया जाता है। गुरुदेव के उपकारों की हितकारी कार्यों की भावों की तुलना करना कठिनतम कार्य रहा जो ५० वर्षों से आत्महित के साथ लोकहित का कुशलता से सम्पादन करते आ रहे हैं।
  25. साधना की आराधना में जिनका प्रतिक्षण निकल रहा हो उन्हें दुख का कभी सामना नहीं करना पड़ता। जब भी उन्हें उसका फल देखने में आता है। तो वह सुखमय ही होता है। उस सुख के फल में सुखी नहीं होते और दुख के फल में दुखी नहीं होते। उनके सुख का यही रहस्य है। जितना कायक्लेश की साधना, उपवास, ऊनोदर, बेला, तेला आदि की साधना आचार्यश्री कुण्डलपुर, नैनागिरि, मुक्तागिरि के चातुर्मास काल में किया करते थे। अपने आवश्यकों को निर्दोष रीति से पाला करते थे। नौ उपवास के समय भी उनके देह की कान्ति देखते ही बनती थी। इन दिनों में कभी उनके चेहरे पर उदासीनता, दुख, कष्ट की झलक नहीं, देह-आत्मा की भिन्नता देखने मिलती थी। प्रतिकूलता में भी अनुकूलता का अनुभव जीवन में बराबर बना रहता है। कितनी ही बार दंशमशक मच्छरों के आतंक को सहन किया फिर भी प्रतिकार का मन में भाव नहीं आना, यही शरीर से निर्ममत्वपना, निरीहवृत्ति है जो ध्यान में लवलीन करा देती है। कभी वैय्यावृत्ति के समय ऐसे भी प्रसंग बने, द्रोणगिरि आदि में शीतकाल के समय अमृतधारा को श्रावक लगाकर चले गये। साम्यभाव से शीत परीषह को सहनकर धर्म के सुख में निमग्न हो गये। उदयगिरि, खण्डगिरि प्रवास के समय चींटियाँ शरीर पर चढ़कर कष्ट पहुँचा रही थीं। फिर भी प्रतिकार नहीं। नुकीले पत्थरों पर बैठकर सामायिक में लीन होना, पत्थरों की चुभन को नहीं आत्म अनुभव की झलक को देखने में लगे रहना। इसलिए आप लोकोत्तर साधक माने जाते हैं। आप बिना साधन के विहार करते चले जाते हैं। जहाँ शाम हो जाती है, वहीं रुक जाते हैं। जंगल में भी मंगलगान होने लगता है। साधन रहित होने से लोग अपने आप साधन जुटाकर वहाँ कुटिया बना देते हैं, अपनी भक्ति कर लिया करते हैं। ये सब साधना की लोकोत्तरता बढ़ती हुई चली जा रही है। आपके नाम से ही शिष्यों को पहचाना जाता है लेकिन आप कभी भी इसे स्वीकार नहीं करते कि यह मेरे कारण हो रहा है बल्कि ऐसा मानते हैं कि हम सबके पुण्य के इकट्ठा होने से ऐसा हो रहा है। यह गुरु का प्रसाद जान पड़ता है। इतनी बड़ी प्रभावना में कर्ताबुद्धि नहीं लाना, यही उनकी लोकोत्तर साधना ५० वर्षों से लोक ख्याति का कारण बनी है इसलिए आप लोकोत्तर साधक हैं।
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