मन-वचन-काय इन तीनों योगों के व्यवहार में गुप्त हो जाना ही अशुभ प्रवृत्ति को रोक देता है। यही व्यवहार नय से बहिरंग साधन धर्म अनुष्ठानों की विचार संहिता परिपुष्ट बनाता है। मिथ्यादर्शन आदि से आत्मा के प्रतिपक्षी तत्त्व को रत्नत्रय रूपी स्वरूप में अपनी आत्मा को सुरक्षित रख ख्याति, लाभ आदि विषयों में निस्पृह रहते हैं। आचार्य गुरुदेव ने राग-द्वेष से अवलम्बित समस्त संकल्पों को मन को बाँधने की, तन को साधने की, समता के आलम्बन से भावों को स्थिरता प्रदान कर सिद्धान्त सूत्र अध्यात्म ग्रन्थों के पठन-पाठन में, लेखन कार्य में, अपनी सम्पूर्ण बुद्धि को मनोयोग पूर्वक लगाकर मनोगुप्ति का पालन करते हुए नजर आते हैं। उनकी मन की एकाग्रता ही ध्यान-सामायिक का सहयोगी साधन आत्मस्वरूप चेतन में गहराई में समा देता है। इसी प्रकार वचनों को वश में कर लगाम लगाते हुए प्रवृत्ति के समय वचनों का प्रयोग करना। मौन धारण कर मौन की यात्रा में लगे रहना, बोलने की आवश्यकता पर सीमित शब्दों का प्रयोग करना, यह उनकी वचन गुप्ति है। इसी प्रकार पद्मासन, पर्यंकासन, कायोत्सर्ग मुद्रा, इनके द्वारा काया की स्थिरता को हवा के झोकों में भी यथावत् बनाये रखना, यही काय गुप्ति की साधना, रोग आने पर भी समता ध्यान की साधना बरकरार बनाये रखना। आहार के समय, कभी भी दाता के आहार से असंतुष्ट नहीं होना यह मूलाचार की साधना के द्वारा अधःकरण दोष से बचने की बहुत अच्छी साधना आपके द्वारा स्वीकार है। प्रतिक्रमण पाठ करते हुए यह द्रव्य प्रतिक्रमण का रूप है। प्रतिक्रमण का सूत्र इत्थिकहाए, अत्थकहाए, भत्तकहाए, रायकहाए, चोरकहाए, मतलब यह हुआ ५० वर्षों से गुरुदेव स्त्रीकथा, विकथा, भोजनकथा, राजकथा, चोरकथा इन सबसे दूर हैं। इसलिए वे अपने में भरपूर हैं। हमेशा तीन गुप्तियों का मन, वचन, काय से पालन करते हुए नजर आ रहे हैं।