लोभ रिक्त जीवन जीने की अवधारणा संत परम्परा की निर्लोभवृत्ति का परिचायक भाव है। बचपन से सुनते आये हैं-लालच बुरी बला है। सन्तों की दृष्टि कषाय से रहितपना ही त्याग-तपस्या की परिपूर्ति में सम्यक् साधना की भाँति सहयोग प्रदान करता रहता है। शिष्यों के संग्रह की कामना से रहित होकर मोक्ष की परिपाटी आत्मा की आत्मोन्नति के व्यवधान से रहित कार्य करने के लिए ही उत्साहित रहते हैं। शिष्य का परीक्षण करना, उसकी धर्मपिपासा को बढ़ाकर उसके गुण-अवगुण आदि की परख के माध्यम से उसे व्रत आदि प्रदान करते हैं। आकुलता रहित होकर एकदम से कभी भी शिष्य की मनोकामना पूर्ण नहीं हो पाती क्योंकि वे उसके मनोभावों को पढ़ने में लगे रहते हैं। गुरुदेव कभी भी ये नहीं सोचते कि यह अन्य संघ में जाकर दीक्षित हो जायेगा। यही उनकी निरीहता, लोभ रहित गुण ही उनकी प्रसिद्धि और धर्म की प्रभावना का कारण है। जनहितकारी कार्यों की श्रेणी में प्रवेश कराकर शिष्यों के भावों की पूर्ति करने वाले एवं आहार पानी भी निर्लोभ भाव से नीरस, अल्पाहार को ग्रहण करना, रस परित्याग, ऊनोदर आदि तपों को तपते हुए यह भी उनकी आहार के प्रति निर्लोभ वृत्ति है। बैठने-उठने वाले आसन सिंहासन, पाटे, तखत आदि का परिवर्तन देखकर यही कहते हुए पाये जाते हैं कि यह पाटा या तखत क्यों बदला? वह कहाँ है? और नया छोड़ पुराने पाटे पर बैठने का जिनका मन बना रहता है यह आसनों के प्रति निर्लोभ वृत्ति है।५० वर्ष बीत गये वही पुरानी धर्मध्यान दीपक, नित्यपाठ संग्रह, जिससे वह प्रतिक्रमण भक्ति आदि का पाठ किया करते हैं, नई-नई पुस्तक आने पर पुरानी पुस्तक को नहीं छोड़ते, यह उनकी ग्रन्थों के प्रति निर्लोभ वृत्ति है। ऐसी निर्लोभ वृत्ति के लिये विद्यासागर नाम विख्यात है। अपने शिष्यों के लिये भी निर्लोभ वृत्ति के व्रत के पालन का संदेश देते रहते हैं।