दुनियाँ में आकाश की प्रसिद्धि के किस्से प्रचलित हैं, वह आकाश असीम है, निर्लेपमय है, इसी को कहा जाता है आवरण रहित। इसी प्रकार दिगम्बर साधु आवरण रहित जीवन शैली से सहित होकर जीवन जीता है। पूज्य गुरुदेव भी इसी परिधि के अन्दर अपना स्थान बनाये रखे ठण्ड हो, गर्मी हो फिर भी कोई आवरण की बात नहीं है क्योंकि २२ वर्षों में शीत परीषह, ऊष्ण परीषह को रखा गया है। उसी का पालन करते हुए परीषहों को सहन करते हुए कर्म क्षय की परिपालना में अपने समय का सदुपयोग करने वाले धरती के तप:पूत संज्ञा को प्राप्त है। आपका धरती ही बिछौना है आकाश ही ओढ़ना है। आकाश अपने में किसी बाह्य तत्त्व को नहीं चिपकने देता, इसी तरह आपके इस रत्नत्रय जीवन की भूमिका में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र इन तीन रत्नों के अलावा आपकी आत्मा को बाह्य वस्तु आच्छादित नहीं करती क्योंकि आप मोह-माया से रहित हैं। और आत्मा के मोह में लगे हुए हैं। इन ५० वर्षों में अपने शिष्यों के लिए, अपनी शिष्याओं के लिए, अपने भक्तों के लिए, श्रावकों के लिए यही उपदेश दिया गगन के समान निर्लेप बनो, लेप से रहित बनो, आत्मा का हनन बाह्य वस्तुओं के सहयोग से हमेशा होता आया है, होता रहेगा इसलिए गगन की शिक्षा का आलम्बन लेते हुए गुरुदेव नजर आते हैं।