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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. सिद्धभक्ति जिनके शुचि गुण परिचय पाकर वैसा बनने उद्यत हूँ। विधि मल धो-धो निजपन साधा वन्दू सिद्धों को नत हूँ ॥ निजी योग्यता बाह्य योग से कनक कनकपाषाण यथा। शुचि गुण-नाशक दोष नशन से आत्मसिद्धि वरदान तथा ॥१॥ गुणाभाव यदि अभाव निज का सिद्धि रही तप व्यर्थ रहे। सुचिरबद्ध यह विधि फल-भोक्ता कर्म नष्ट कर अर्थ गहे ॥ ज्ञाता-द्रष्टा स्व-तन बराबर फैलन-सिकुड़नशाली है। ध्रुवोत्पादव्यय गुणीजीव है यदि न सिद्धि सो जाली है ॥२॥ बाहर-भीतर यथाजात हो रत्नत्रय का खंग लिए। घाति कर्म पर महाघात कर प्रकटे रवि से अंग लिए । छतर चॅवर भासुर भामण्डल समवसरण पा आप्त हुये। अनन्त-दर्शन-बोध-वीर्य-सुख-समकित गुण चिर साथ हुये ॥३॥ देखें - जानें युगपत् सब कुछ सुचिर काल तक ध्वान्त हरें। परमत-खण्डन जिनमत-मण्डन करते जन-जन शान्त करें। निज से निज में निज को निज ही बने स्वयंभू वरत रहे। ज्योतिपुञ्ज की ‘ज्ञानोदय' यह जय-जय जय-जय करत रहे ॥४॥ जड़े उखाड़ी अघातियों की सुदूर फैली चेतन में। हुये सुशोभित सूक्ष्मादिक गुण अनन्त क्षायिक वे क्षण में ॥ और और विधि विभाव हटते-हटते अपने गुण उभरे। ऊर्ध्व स्वभावी अन्त समय में लोक शिखर पर जा ठहरे ॥५॥ नूतन तन का कारण छूटा मिला हुआ कुछ कम उससे। सुन्दर प्रतिछवि लिए सिद्ध हैं अमूर्त दिखते ना दृग से ॥ भूख-प्यास से रोग-शोक से राग-रोष से मरणों से। दूर दु:ख से शिव सुख कितना? कौन कहे जड़ वचनों से ॥६॥ घट-बढ़ ना हो विषय-रहित है प्रतिपक्षी से रहित रहा। निरुपम शाश्वत सदा सदोदित सिद्धों का सुख अमित रहा ॥ निज कारण से प्राप्त अबाधित स्वयं सातिशय धार रहा। परनिरपेक्षित परमोत्तम हैं अन्त-हीन वह सार रहा ॥७॥ श्रम निद्रा जब अशुचि मिटी है शयन सुमन आदिक से क्या? क्षुधा मिटी है तृषा मिटी है सरस अशन आदिक से क्या? रोग-शोक की पीर मिटी है औषध भी अब व्यर्थ रहा? तिमिर मिटा सब हुआ प्रकाशित दीपक से क्या अर्थ रहा? ॥८॥ संयम-यम-नियमों से नय से आत्म-बोध से दर्शन से। महायशस्वी महादेव हैं बने कठिन तपघर्षण से ॥ हुये हो रहे होंगे वन्दित सुधी - जनों से सिद्ध महा। उन सम बनने तीनों सन्ध्या उन्हें नमूँ कर-बद्ध यहाँ ॥९॥ अञ्चलिका दोहा सिद्ध गुणों की भक्ति का करके कायोत्सर्ग। आलोचन उसका करूँ ले प्रभु तव संसर्ग ॥१०॥ समदर्शन से साम्य बोध से समचारित से युक्त हुये। दुष्ट धर्म से पुष्ट हुये जो अष्ट कर्म से मुक्त हुये ॥ सम्यक्त्वादिक अष्ट गुणों से मुख्य रूप से विलस रहे। ऊर्ध्व स्वभावी बने तुरत जा लोक शिखर पर निवस रहे ॥११॥ विगत अनागत आगत के यूँ कुछ तो तप से सिद्ध हुये। कुछ संयम से कुछ तो नय से कुछ चारित से सिद्ध हुये ॥ भाव भक्ति से चाव-शक्ति से निर्मल कर-कर निज मन को। पूजूँ वन्दू अर्चन कर लूँ नमन करूँ सब सिद्धन को ॥१२॥ कष्ट दूर हो कर्म चूर हो बोधि-लाभ हो सद्गति हो। वीर-मरण हो जिनपद मुझको मिले सामने सन्मति ओ! ॥
  2. भक्ति पाठ आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज ने चतुर्विध संघ पर कृपा कर प्रातः स्मरणीय, फलतः नितान्त उपादेय नौ भक्तियों का अनुवाद हिन्दी भाषा में कर दिया है। इससे संस्कृत भाषा से अनभिज्ञ उपासक जन भी अर्थावबोधपूर्वक अपनी चेतना को सुस्नात और सिक्त कर सकेंगे। उपासक इन्हीं के पाठारम्भ से अपनी दिनचर्या आरम्भ करते हैं और इसी से सम्पन्न भी। इससे इनकी महत्ता स्पष्ट है। ये नौ भक्तियाँ हैं-सिद्धभक्ति, चारित्रभक्ति, योगिभक्ति, आचार्यभक्ति, निर्वाणभक्ति, नन्दीश्वरभक्ति, चैत्यभक्ति, शान्तिभक्ति तथा पञ्चमहागुरुभक्ति। पहली भक्ति है-‘सिद्धभक्ति' । पंच परमेष्ठियों (परमे तिष्ठति इति परमेष्ठी) में चार कक्षाओं के अधिकारी मनुष्य हैं और एक कक्षा के अधिकारी हैं मुक्त आत्माएँ। ये ही मुक्त आत्मायें ‘सिद्ध' कही जाती हैं। आठों प्रकार के कर्मों के क्षय से जब शरीर भी नहीं रहता तो उसे (विदेह/मुक्त) सिद्ध कहते हैं। ये ऊर्ध्वलोक के लोकाग्र में पुरुषाकार छायारूप में स्थित रहते हैं। इनका पुनः संसार में आगमन नहीं होता। ये सच्चे परम देव हैं। संसारी भव्यजीव वीतराग भाव की साधना से इस अवस्था को प्राप्त कर सकते हैं। वे ज्ञान शरीरी हैं। सिद्धभक्ति में इन्हीं के गुण-गण का वर्णन किया गया है। इसमें पूर्व में की गई उनकी साधना और उससे उपलब्ध ऊँचाइयों का विवरण है। दूसरी है-चारित्रभक्ति। इसमें रत्नत्रय में परिगणित चारित्ररूप रत्न की महिमा गाई गई है और उसकी सुगन्ध आचार में प्रस्फुटित हो, यह कामना व्यक्त की गई है। दर्शन, ज्ञान और चारित्र की सम्मिलित कारणता है-मोक्ष के प्रति । जैन शास्त्रों में इसके अन्तर्गत अत्यन्त सूक्ष्म और वर्गीकृत विवेचन मिलता है। आचार्यश्री ने भी बहुत से पारिभाषिक शब्दों का सांकेतिक प्रयोग किया है। उदाहरण के लिए कायोत्सर्ग, गुप्तियाँ, महाव्रत, ईर्या आदि समितियाँ, तेरहविध चारित्र, कर्म-निर्जरा 311 I तीसरी भक्ति है-योगिभक्ति । सनातनी विद्या की अभिव्यक्ति की दो धाराएँ हैं-शब्द और प्रातिभ। अभिव्यक्ति की दूसरी धारा श्रमणमार्ग की धारा है। तप एवं खेद के अर्थ वाली दिवादि गण में पठित ' श्रमु' धातु में ‘ल्युट्' प्रत्यय होने पर ‘श्रमण' शब्द निष्पन्न होता है। इसका अर्थ है-तपन या तप करना । पर धारा विशेष में यह योगरूढ़' है-यों यौगिक तो है ही। तप ही इस धारा की पहचान है। यह तत्त्व न तो उस मात्रा में ब्राह्मण धारा में है और न ही बौद्ध धारा में। योगिभक्ति में आचार्यश्री ने प्रबल तपोविधि का विवरण दिया है। कहा गया है ‘‘बाह्याभ्यन्तर द्वादशविध तप तपते हैं मद-मर्दक हैं।'' चौथी भक्ति है-आचार्यभक्ति। पंच परमेष्ठी में तृतीय स्थान आचार्य का है। अध्यात्ममार्ग के पथिक को आचार्य की अँगुली, उनका हस्तावलम्ब अनिवार्य है और यह उनकी भक्ति से ही सम्भव है। कहा गया है उपास्या गुरवो नित्यमप्रमत्तैः शिवार्थिभिः। तत्पक्षतार्थ्य-पक्षान्तश्चरा विघ्नोरगोत्तराः॥ सागारधर्मामृत २/४५ आचार्य रूप श्री सद्गुरु स्वयं दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और वीर्य-इन पाँच प्रकार के आचारों का पालन करते हैं और अन्य साधुओं से भी उसका पालन कराते हैं, दीक्षा देते हैं, व्रतभंग या सदोष होने पर प्रायश्चित्त कराते हैं। आस्रव के लिए कारणीभूत सभी सम्भावनाओं से अपने को बचाते हैं। इसमें आचार्य के छत्तीस गुण बताये गये हैं। पाँचवी भक्ति है- निर्वाणभक्ति । आचार्यश्री का संकल्प है निर्वाणों की भक्ति का करके कायोत्सर्ग। आलोचन उसका करूँ ले प्रभु तव संसर्ग ॥ ‘महावीर' पदवी से विभूषित तीर्थंकर वर्धमान का निर्वाणान्त पंचकल्याणक अत्यन्त शोभन शब्दों से वर्णित है। इन तीर्थंकर के साथ कतिपय अन्य पूर्ववर्ती तीर्थंकरों की निर्वाणभूमियाँ उनके चिह्नों के साथ वर्णित हैं। छठी भक्ति है-नन्दीश्वरभक्ति। यह १६ जून, १९९१ को सिद्धक्षेत्र मुक्तागिरि, बैतूल (म० प्र०) में अनूदित हुई थी जबकि शेष भक्तियाँ गुजरात प्रान्तवर्ती श्री विघ्नहर पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र महुआ, सूरत गुजरात में २२ सितम्बर, १९९६ को अनूदित हुई थीं। नन्दीश्वर-यह अष्टम द्वीप है। जो नन्दीश्वर सागर से घिरा हुआ है। यह स्थान इतना रमणीय और प्रभावी है कि उसका वर्णन पढ़कर स्वयं आचार्यश्री तो प्रभावित हुए ही हैं और भी कितने मुनियों तथा साधकों को भी यहाँ से दिशा मिली है। ऐसे ही परम पुनीत स्थानों में सम्मेदाचल, पावापुर का भी उल्लेखनीय स्थान है। ऐसे अनेक जिन भवन हैं जो मोक्षसाध्य के हेतुभूत हैं। चतुर्विध देव तक सपरिवार यहाँ इन जिनालयों में आते हैं। आचार्यश्री इन और ऐसे अन्य जिनालयों के प्रति सश्रद्ध नतशिर हैं। सातवीं भक्ति है-चैत्यभक्ति। आचार्यश्री ने बताया है कि जिनवर के चैत्य प्रणम्य हैं। ये किसी द्वारा निर्मित नहीं हैं अपितु स्वयं बने हैं। इनकी संख्या अनगिनत है। औरों के साथ आचार्यश्री की भी कामना है कि वे भी उन सब चैत्यों का भरतखण्ड में रहकर भी अर्चन-वन्दन-पूजन करते रहें ताकि वीर-मरण हो जिनपद की प्राप्ति हो और सामने सन्मति लाभ हो। आठवीं भक्ति है-शान्तिभक्ति। इस भक्ति में दु:ख-दग्ध धरती पर जहाँ कषाय का भानु निरन्तर आग उगल रहा हो, किसे शान्ति अभीष्ट न होगी ? तीर्थंकर शान्तिनाथ शीतल-छायायुक्त वह वट वृक्ष हैं, जहाँ अविश्रान्त संसारी को विश्रान्ति मिलती है। इसीलिए आचार्यश्री कहते हैं सोलहवें तीर्थंकर शान्तिनाथ को दृष्टिगत कर शान्तिनाथ हो विश्वशान्ति हो भाँति-भाँति की भ्रान्ति हरो। प्रणाम ये स्वीकार करो लो किसी भाँति मुझ कान्ति भरो ॥ इस संकलन की अन्तिम भक्ति है-पंच महागुरुभक्ति। इसमें अन्ततः पंच परमेष्ठियों के प्रति उनके गुणगणों और अप्रतिम वैभव का स्मरण करते हुए आचार्यश्री कामना करते हैं कष्ट दूर हो कर्मचूर हो बोधिलाभ हो सद्गति हो। वीरमरण हो जिनपद मुझको मिले सामने सन्मति हो ॥ इन विविध विध भक्तियों में जिनदर्शन सम्मत सर्वविध चिन्तन का सार आ गया है- विशेष कर आत्मचिन्तन का। इस प्रकार आचार्यश्री की निर्झरिणी लोकहितार्थ निरन्तर सक्रिय है।
  3. एकीभाव स्तोत्र (मन्दाक्रांता छंद) मेरे द्वारा, अमित भव में, प्राप्त नो कर्म सारे, तेरी प्यारी, जबकि स्तुति से, शीघ्र जाते निवारे। मेरे को, क्या, फिर वह न ही, वेदना से बचाती? स्वामी! सद्यः लघु दुरित को क्या नहीं रे भगाती? ॥१॥ वे ही हर्ता दुख तिमिर के दिव्य-भानू-जिनेश, ऐसे सारे गणधर कहें आपको ज्यों दिनेश। पै है मेरे मुदित मन में वास तेरा हमेशा, तो कैसी ओ! फिर हृदय में रे! रहे पाप दोषा ॥२॥ जो कोई भी विमल मन से मन्त्र से स्तोत्र से या, भव्यात्मा ज्यों भजन करता आपका मोद से या। श्रद्धानी के अहह उसके देह वल्मीक से त्यों सारी नाना वर-विषमयी व्याधियाँ दौड़ती जो ॥३॥ आने से जो अमर पुर से पूर्व ही मेदिनी भी, स्वामी! तेरे सुकृत बल से हेमता को वरी थी। पै मेरे तो मन-भवन में वास जो आपका है, कोढी काया कनक मय हो देव! आश्चर्य क्या है? ॥४॥ तेरे में ही सब विषय संबंधिनी शक्ति भी है, स्वामी! जो है प्रतिहत नहीं, लोक बंधू तभी हैं। मैं कोढ़ी हूँ चिर हृदय में आप मेरे बसे हैं, कैसे काया-जनित-मल दुर्गन्ध को हा! सहे हैं ॥५॥ जन्मों से मैं भ्रमण करता भाग्य से अत्र आया, कर्मों ने तो भव विपिन में हा! मुझे रो रुलाया। मैं तो तेरे नय-सरसि में देव! गोता लगाता, कैसे है औ! फिर अब मुझे दुःख दावा जलाता? ॥६॥ होता तेरे चरण युग सान्निध्य से पद्म देख! लक्ष्मी-धामा, सुरभित तथा हेम जैसा सुरेख। पै मेरा जो मन तव करे स्पर्श सर्वांग को का, तो क्या पाऊँ न फिर अब मैं सौख्य मोक्षादिकों का? ॥७॥ प्याला पीया वच अमृत का आपके भक्ति से है, जो पाया भी मनुज जब आशीष को आपसे है। प्रायः स्वामी! अतुल सुख में लीन भी है यहाँ पे, कैसे पीड़ा दुरित मय कांटे उसे दे वृथा पै ॥८॥ व्योमस्पर्शी मणिमय तथा मान का स्तम्भ भाता, आँखों का ज्यों विषय बनता, मानको त्यों नशाता। आया ऐसा सुबल उसमें आपके संग से है, स्वामी! देखो वह इसलिए ही खड़ा ठाट से है॥९॥ काया को छू तव जब हवा, जो लता को हिलाती, सद्यः ही है जन-निचयकी रोग धूली मिटाती। ध्यानी के तो उर जलज पे आप बैठे यदा हैं, पाता है तो वह स्वधन आश्चर्य भी क्या तदा है॥१०॥ मेरे सारे भव भव दुखों को विभो जानते हैं, होती क्लांती सतत जिनकी याद से हा! मुझे हैं। विश्वज्ञाता सदय तुमको भक्ति से आज पाया, हूँ मैं तेरा मम हृदय में ठीक विश्वास लाया ॥११॥ स्वामी-जीवं-धरवदन से आपके मंत्र को जो, कुत्ता पाता जबकि सुनके अंत में सौख्यको यों। मालाको ले सतत जपता आपके मंत्र को जो, आशंका क्या फिर अमर हो इंद्रता को वरे तो? ॥१२॥ कोई ज्ञानी वर चरित में लीन भी जो सदा है, तेरी श्रद्धा यदि न उसमें तो सभी हा वृथा है। भारी है रे! शिव-सदन के द्वार पे मोह ताला, कैसे खोले, उस बिन उसे, हो सके जो उजाला ॥१३॥ तेरा होता यह यदि न वाक्दीप तत्त्वावभासी, जो है स्वामी! वरसुखद औ मोक्षमार्ग प्रकाशी। छाई फैली शिवपथ जहाँ मोहरूपी निशा है, पाते कैसे फिर तब उसे हाय? मिथ्या दिशा है॥१४॥ आत्मा की जो द्युति अमित है मोद दात्री तथा है, मोही को तो वह इह न ही प्राप्य हा! यो व्यथा है। पै सारे ही लघु समय में आपके भक्त लोग, पाते हैं तव स्तवन से जो उसे धार योग ॥१५॥ भक्ती गंगा नय-हिमगिरी से समुत्पन्न जो है, पैरों को छु तव अरुशिवां बोधि में जा मिली है। मेरा स्वामी! सुमन उसमें स्नान भी तो किया है, तो काया में विकृति फिर भी क्यों रही देव! हा! है॥१६॥ ध्याऊँ भाऊँ जब अचल हो, आपको ध्येय मान, ऐसी मेरी यह मति तदा आप औ मैं समान। मिथ्या ही पे मम मति विभो! कर्म का पाक रे है, तो भी दोषी तव स्तवन से मोक्ष लक्ष्मी वरे है॥१७॥ वाणीरूपी जलधि जग में व्याप्त तेरा जहाँ पे, सप्ताभंगी लहर-मल-मिथ्यात्व को है हटाते। ज्ञानी ध्यानी मथकर उसे चित्तमंदार से वे, सारे ही हैं द्रुत परम पीयूष पी तृप्त होते ॥१८॥ श्रृंगारों को वह पहनता जन्म से जो कुरूप, बैरीयों से परम डरता जो धरे शस्त्र भूप। अष्टांगों से मदन जब तू और बैरी न तेरे, तेरे में क्यों कुसुम पट हो शस्त्र तो नाथ! मेरे॥१९॥ सेवा होती तव अमर से आपकी क्या प्रशंसा, सेवा पाती उस अमर की पे प्रशंसा जिनेशा। धाता, त्राता धगपति तथा मोक्षकांता-सुकांत, ऐसे गावे तव यश यहाँ तो प्रशंसा नितांत ॥२०॥ तेरी वाणी तव चरण तू दूसरों सा न ईश, तो कैसा हो तव स्तवन में जो हमरा प्रवेश। तो भी स्वामी! यह स्तुति सदा आपके सेवकों को, होगी प्यारी अभिलषित को और देगी सुखों को ॥२१॥ रागी द्वेषी जिनवर नहीं, ना किसी की अपेक्षा, मेरे स्वामी? वर सुखद है मार्ग तेरा उपेक्षा। तो भी तेरी वह निकटता कर्महारी यहाँ है, ऐसी भारी विशद महिमा दूसरों में कहाँ है? ॥२२॥ कोई तेरा स्तवन करता भाव से है मनुष्य, होता ना ही शिवपथ उसे वाम स्वामी? अवश्य। जाते जाते शिव सदन की ओर जो आत्म ध्याता, मोक्षार्थी तो तव-समय में यो न संदेह लाता ॥२३॥ जो कोई भी मनुज मन में आपको धार ध्याता, भव्यात्मा यों अविरल प्रभो! आप में लौ लगाता। जल्दी से है शिव सदन का श्रेष्ठ जो मार्ग पाता; श्रेयोमार्गी वह तुम सुनो! पंचकल्याण पाता ॥२४॥ ज्ञानी योगी स्तुति कर सके ना यदा वे यहाँ हैं, तो कैसे मैं तव स्तुति करूं पै तदा रे मुधा है। तो भी तेरे स्तवन मिष से पूर्ण सम्मान ही है, आत्मार्थी को विमल सुख का, स्वर्ग का वृक्ष ही है ॥२५॥ हैं वादिराज वर-लक्षण पारगामी, है न्याय-शास्त्र सब में बुध अग्रगामी। हैं विश्व में नव रसान्वित काव्य धाता, हैं आपसा न जग भव्य सहाय दाता ॥२६॥ त्रैलोक्य पूज्य यतिराज सुवादिराज, आदर्श सादृश सदा वृष-शीश-ताज। वन्दूँ तुम्हें सहज ही सुख तो मिलेगा, ‘विद्यादिसागर' बनूं दुख तो मिटेगा ॥
  4. (वसंततिलका छन्द) कल्याण-खाण-अघनाशक औ उदार, हैं जो जिनेश-पद-नीरज विश्वसार। संसारवार्धि वर पोत! स्ववक्षधार, उन्हें यहाँ नमन मैं कर बार-बार ॥१॥ रे! रे! हुवा स्तवन ना जिनदेव जी का, धीमान से जब बृहस्पति से प्रभू का। तो मैं उसे हि करने हत जा रहा हूँ, क्यों धृष्टता अहमता दिखला रहा हूँ ॥२॥ मेरे समान लघु-धी कवि लोग सारे, सामान्य से तव सुवर्णन भी विचारे। कैसे करे अहह! नाथ! नहीं करेंगे, उल्लू दिवान्ध रवि को न यथा लखेंगे ॥३॥ है आपको विगतमोह मनुष्य जाना, भो! किन्तु जो तव गुणों उसने गिना ना। तूफान से जलविहीन समुद्र हो तो, वार्धिस्थ रत्नचय का अनुमान है क्या? ॥४॥ मैं स्तोत्र को तव विभो! करने चला हूँ, हैं आप नैक-गुणधाम, व मन्द-धी हूँ। तो बाल भी जलधि की सुविशालता को, फैला स्वहस्त युग को कहता नहीं क्या? ॥५॥ गाये गये तव न भो! गुण योगियों से, मेरा प्रवेश उनमें फिर हन्त कैसे? है हो गई इक यहाँ स्थिति जो अनोखी, गाते स्व वाणि बल से फिर भी विहंग ॥६॥ जो स्तोत्र हे! जिन! सुदूर रहे महात्मा! तेरा हि नाम जग को दुख से बचाता। संतप्त भी पथिक जो रवि ताप से यों, होता सुशान्त जलमिश्रित वायु से है ॥७॥ होते हि वास तव भव्य सुचित्त में त्यों, होते प्रभो शिथिल हैं घनकर्मबन्ध। आते हि चन्दन-सुवृक्ष-सुबीच मोर; हैं दौड़ते सकल ज्यों अहि एक ओर ॥८॥ हो देखते झट जिनेन्द्र! तुझे मनुष्य, होते सुदूर सहसा दुख से अवश्य। गंभीर शूर वसुधापति को यहाँ जो, हैं चोर देख सहसा द्रुत भागते यों ॥९॥ कैसे जिनेश तुम तारक हो जनों के, जो आपको हृदय से धर, पार होते। वा चर्मपात्र जल में तिरता परन्तु, पात्रस्थ वायु बल है उस कर्म में ही ॥१०॥ ब्रह्मा महेश मद को नहिं जीत पाये, भो! आप किन्तु उसको क्षण में जलाये। है ठीक! अग्नि बुझती जल से यहाँ पे, पीया गया न जल क्या? बड़वाग्नि से पै ॥११॥ स्वामी! महान गरिमायुत आपको वे, संसारि जीव गह, धार स्व-वक्ष में औ। कैसे सु आशु भवसागर पार होते, आश्चर्य! साधुजन की महिमा अचिन्त्य ॥१२॥ भो! क्रोध नष्ट पहले जब की बता दो, कर्मोंघ नष्ट तुमसे फिर बाद कैसे? है ठीक ही हरित पूरित भूरुहों को, शीतातिशीत हिम क्या? न यहाँ जलाता ॥१३॥ शुद्धात्मरूप! तुमको जिन! ढूँढ़ते हैं, योगी सदा हृदय नीरज कोश में वे। है ठीक ही, कमल बीज प्रसूतस्थान, अन्यत्र क्या मिलत है? तजकर्णिका को ॥१४॥ छद्मस्थ जीव तव देव! सु ध्यान से ही, यों शीघ्र देह तज वे परमात्म होते। पाषाण जो कनक मिश्रित ईश! जैसा, संयोग पा अनल का द्रुत हेम होता ॥१५॥ भो नित्य भव्य उर में जिन! शोभते हो, कैसे सुनाश करते? उस काय को क्यों? ऐसा स्वभाव रहता समभावियों का, जो हैं महापुरुष विग्रह को नशाते ॥१६॥ जो आपको जिन! अभेद विचार से है, आत्मा से ध्यान करता, तुम-सा हि होता। जो नीर को अमृत मान, उसे हि पीता, क्या नीर जो न उसके विष को नशाता ? ॥१७॥ हे वीतराग! तुमको परवादि लोग, ब्रह्मा-महेश-हरि रूप वि जानते हैं। है ठीक काचकमलामय रोग वाले, क्या शंख को विविध वर्णमयी न जानें? ॥१८॥ धर्मोपदेश जब हो जन दूर होवे, सान्निध्य से हि तब, वृक्ष अशोक होते। है भानु के उदय से जन मोद पाते, उत्फुल्ल क्या तरु-लता दल हो न पाते ॥१९॥ वर्षा यहाँ सुमन की करते हि देव, आश्चर्य! वे कुसुम सर्व अधोमुखी क्यों? है ठीक ही, सुमन बंध सभी हि जाते, नीचे मुनीश! तुमको लख के सदैव ॥२०॥ गंभीर वक्ष जलराशि विनिर्गता जो, हे भारती, तव उसे करते सुपान। हैं भव्य, जीव फलतः मुदमोद होते; औ शीघ्र ही जनन मृत्युविहीन होते? ॥२१॥ स्वामी मनो! नम सुभक्ति सुभाव से ज्यों, स्वर्गीय चामर कलाप हि बोलता है। जो भी करें नमन साधु वराग्र को भो! होगा हि निर्मल तथा वह ऊर्ध्वगामी ॥२२॥ गंभीर भारति-विधारक आपको त्यों, औ श्याम! हेममणिनिर्मित आसनस्थ! आमोद से निरखते सब भव्य मोर, स्वामी! सुमेरु पर मोर पयोद को ज्यों ॥२३॥ भो! आपके हि शित मण्डल ज्योति से जो, देखो हुवा छबि विहीन अशोक वृक्ष। सान्निध्य से फिर विभो तब वीतराग! क्या भव्य चेतन न रागविहीन होते? ॥२४॥ ये आपके अमर दुंदुभि हैं बताते, आके करो अलस छोड़ जिनेन्द्र सेवा। जो आप हैं वह शिवालय सार्थवाह, इत्थं विचार मम है अरु ठीक भी है॥२५॥ जाज्वल्यमान तुमसे त्रय लोक देख, नष्टाधिकार वह चन्द्र हताश होके। यों तीन छत्र मिष से तुम पास आके, सेवा प्रभो शशि यहाँ करता हि तेरी ॥२६॥ संपत्ति से भरितलोक समान आप, कान्ति प्रताप यश का अरु हैं सुधाम। हेमाद्रि दिव्य मणि निर्मित साल से ज्यों, शोभायमान भगवन् इह हो रहे हैं ॥२७॥ देवेन्द्र की जिन! यहाँ नमते हुए की, माला, सुमोच मणिमण्डित मौलियों की। लेती सुआश्रय सदा तव पाद का है, अन्यत्र ना सुमन वासव, ठीक भी है॥२८॥ हैं नाथ! आप भववारिधि से सुदूर, तो भी स्वसेवक जनाऽऽकर को तिराते। है आपको उचित पार्थिव भूप सा भी, आश्चर्य कर्मफल शून्य तथापि आपि ॥२९॥ त्रैलोक्यनाथ जिन हैं। धनहीन भी हैं। हैं आप अक्षर विभो! लिपिहीन भी हैं। ना आप में करण बोध शतांश में भी, विज्ञान है विशद किन्तु जगत्प्रकाशी ॥३०॥ धूली अहो कमठ ने नभ में उड़ा दी, तो भी ढकी तव विभो! उससे न छाया। देखो! जिनेश वह ही फलतः दुरात्मा, धिक् धिक् महान दुख को बहुकाल पाया ॥३१॥ भो! दैत्य से कमठ से घनघोर वर्षा, अश्राव्य गर्जनमयी तुमपें हुई भी। पै आप पे असर तो उसका पड़ा ना, पै दैत्य को नरक में रु पड़ा हि जाना ॥३२॥ धारे हुए सकल थे गलमुंड माला, जो त्यागते अनल को मुख से निराला। भेजा कुदैत्य तव पास पिशाच ऐसे, पै दैत्य के हि दुखकारण हो गए वे ॥३३॥ वे जीव धन्य महि में त्रयलोकनाथ! प्रातः तथा च अपराह्नविभो! सु सन्ध्या। उत्साह से मुदित हो वर भक्ति साथ, शास्त्रानुकूल तव पाद से पूजते हैं॥३४॥ ना आप आज तक भी श्रुतिगम्य मेरे, मानें मुनीश! भववारिधि में हि ऐसा। आ जाय मात्र सुनने तव नाम मन्त्र, आता समीप फिर भी विपदा फणी क्या? ॥३५॥ तेरी न पादयुग पूजन पूर्व में की, जो हैं यहाँ सुखद ईप्सित-वस्तु-दाता। ऐसे विचार मम है फलतः मुनीश, देखो हुवा अब अनादर पात्र मैं हूँ ॥३६॥ मोहान्धकार सु तिरोहित लोचनों से, देखा न पूर्व तुमको जिन! एक बार। ऐसा न हो यदि विभो! मुझको बतादो; क्यों पाप कर्म दिन-रैन मुझे सताते ॥३७॥ देखे गये श्रवणगम्य हुये व पूजे; पै भक्ति से न चित में तुमको बिठाया। हूँ दुःख भाजन हुवा फलतः जिनेश! रे! भावहीन करणी सुख को न देती ॥३८॥ संसार-त्रस्त-जन-वत्सल औ शरण्य, हे नाथ! ईश्वर दया-वर -पुण्य-धाम! हूँ भक्ति से नत, दया मुझमें दिखा के; उद्युक्त हो दुरित अंकुर को जलाने ॥३९॥ हैं आप जीत वसुकर्म सुकीर्तिधारी, पा, पाद कंज युग को यदि आपके मैं। स्वामी! सुदूर निज चिंतन से रहूँ तो; हूँ भाग्यहीन, व मरा, अयि तात! वन्द्य ॥४०॥ श्री पार्श्वनाथ! भवतारक! लोकनाथ! सर्वज्ञदेव! व विभो! सुरनाथ वन्द्य! रक्षा अहो! मम करो, करुणासमुद्र; संसारत्रस्त मुझको, उस छोर भेजो ॥४१॥ पादारविन्द युग-भक्ति-सुपाक, कोई, है तो यहाँ तव विभो भववार्धिपोत! मेरे लिये इह तथा परजन्म में भी हैं आप ही व शरणागत पाल स्वामी ॥४२॥ रोमांचितांगयुत जो तप भव्य जीव, एकाग्र हो तव मुखांबुज में अली से। हैं स्रोत की सुरचना करते यहाँ पे; ऐसे यथाविधि जिनेन्द्र! विभो! शरण्य ॥४३॥ जननयन कुमुदचन्द्र!, परमस्वर्गीय भोग को भोग। वे वसुकर्म नाशकर, पाते शीघ्र मोक्ष को लोग ॥४४॥
  5. एकीभाव स्तोत्र (1971) आचार्य वादिराज प्रणीत संस्कृत भाषाबद्ध इस कृति का ‘मन्दाक्रान्ता छन्द' में पद्यबद्ध भाषान्तरण आचार्यश्री द्वारा किया गया है। इस कृति में यह कहा जा रहा है कि जब आराधक के हृदय में आराध्य से एकीभाव हो गया है, तब यह भव-जलन कैसे हो रही है ? “कैसे है औ! फिर अब मुझे दुःख दावा जलाता ?'' ॥६॥ रचयिता का हृदय पुकार उठता है जो कोई भी मनुज मन में आपको धार ध्याता, भव्यात्मा यों अविरल प्रभो! आप में लौ लगाता। जल्दी से है शिव सदन का श्रेष्ठ जो मार्ग पाता; श्रेयोमार्गी वह तुम सुनो! पंचकल्याण पाता ॥२४॥ इस काव्य का पद्यानुवाद भी आपने मदनगंज-किशनगढ़, अजमेर (राज.) में सन् १९७१ के चातुर्मास काल में किया है।
  6. कल्याणमन्दिर स्तोत्र (1971) ‘कल्याणमंदिर स्तोत्र' आचार्य कुमुदचन्द्र, अपरनाम श्री सिद्धसेन दिवाकर द्वारा विरचित है। इसका पद्यानुवाद आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज ने मदनगंज-किशनगढ़, अजमेर (राज.) में सन् १९७१ के वर्षायोग में किया। इस स्तोत्र को पार्श्वनाथ स्तोत्र भी कहते हैं। मूल स्तोत्र एवं अनुवाद दोनों ही वसन्ततिलका छन्द में निबद्ध हैं। इस कृति में उन कल्याणनिधि, उदार, अघनाशक तथा विश्वसार जिन-पद-नीरज को नमन किया गया है जो संसारवारिधि से स्व-पर का सन्तरण करने के लिए स्वयम् पोत स्वरूप हैं। जिस मद को ब्रह्मा और महेश भी नहीं जीत सके, उसे इन जिनेन्द्रों ने क्षण भर में जलाकर खाक कर दिया। यहाँ ऐसा जल है जो आग को पी जाता है। क्या वड़वाग्नि से जल नहीं पिया गया है? स्वामी! महान गरिमायुत आपको वे, संसारि जीव गह, धार स्व-वक्ष मेंऔ। कैसे सु आशु भवसागर पार होते; आश्चर्य! साधुजन की महिमा अचिन्त्य ॥१२॥
  7. (लय-मेरी भावना) नील कमल के दल-सम जिन के युगल-सुलोचन विकसित हैं, शशि-सम मनहर सुख कर जिनका मुख-मण्डल मृदु प्रमुदित है। चम्पक की छवि शोभा जिनकी नम्र नासिका ने जीती, गोमटेश जिन-पाद-पद्म की पराग नित मम मति पीती ॥१॥ गोल- गोल दो कपोल जिन के उजल सलिल सम छवि धारे, ऐरावत-गज की सुण्डा सम बाहुदण्ड उज्वल-प्यारे। कन्धों पर आ, कर्ण-पाश वे नर्तन करते नन्दन हैं, निरालम्ब वे नभ-सम शुचि मम गोमटेश को वन्दन है ॥२॥ दर्शनीय तव मध्य भाग है गिरि-सम निश्चल अचल रहा, दिव्य शंख भी आप कण्ठ से हार गया वह विफल रहा। उन्नत विस्तृत हिमगिरि-सम है स्कन्ध आपका विलस रहा, गोमटेश प्रभु तभी सदा मम तुम पद में मन निवस रहा ॥३॥ विंध्याचल पर चढ़कर खरतर तप में तत्पर हो बसते, सकल विश्व के मुमुक्षु-जन के शिखामणी तुम हो लसते। त्रिभुवन के सब भव्य कुमुद ये खिलते तुम पूरण शशि हो, गोमटेश मम नमन तुम्हें हो सदा चाह बस मन वशि हो ॥४॥ मृदुतम बेल लताएँ लिपटीं पग से उर तक तुम तन में, कल्पवृक्ष हो अनल्प फल दो भवि-जन को तुम त्रिभुवन में। तुम पद-पंकज में अलि बन सुर-पति गण करता गुन-गुन है, गोमटेश प्रभु के प्रति प्रतिपल वन्दन अर्पित तन-मन है ॥५॥ अम्बर तज अम्बर-तल थित हो दिग अम्बर नहिं भीत रहे, अंबर आदिक विषयन से अति विरत रहे, भव-भीत रहे। सर्पादिक से घिरे हुए पर अकम्प निश्चल शैल रहे, गोमटेश स्वीकार नमन हो धुलता मन का मैल रहे ॥६॥ आशा तुम को छू नहिं सकती समदर्शन के शासक हो, जग के विषयन में वांछा नहिं दोष मूल के नाशक हो। भरत-भ्रात में शल्य नहीं अब विगत-राग हो रोष जला, गोमटेश तुममें मम इस विध सतत राग हो, होत चला ॥७॥ काम-धाम से धन-कंचन से सकल संग से दूर हुए, शूर हुए मद मोह-मारकर समता से भर-पूर हुए। एक वर्ष तक एक थान थित निराहार उपवास किये, इसीलिए बस गोमटेश जिन मम मन में अब वास किये ॥८॥ दोहा नेमीचन्द्र गुरु ने किया प्राकृत में गुण-गान। गोमटेश थुति अब किया भाषा-मय सुख खान ॥१॥ गोमटेश के चरण में, नत हो बारंबार। विद्यासागर कब बनूँ, भवसागर कर पार ॥२॥
  8. गोमटेश अष्टक (1979) ‘गोमटेस थुदि' में जैन शौरसेनी प्राकृत भाषा में आठ पद्य हैं, जिनमें भगवान् गोमटेश की स्तुति है। ‘गोमटेस थुदि' का संस्कृत रूपान्तर गोमटेश स्तुति' ही इस बात को पुष्ट करता है। इस स्तुति की रचना दशवीं शताब्दी में गोम्मटसार जैसे परम गम्भीर जैनदर्शन शास्त्र के प्रणेता महान् आचार्यश्री नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने की थी। वे जैन-दर्शन के पारंगत, प्राकृत भाषा के मर्मज्ञ एवं सुविख्यात उद्भट विद्वान् आचार्य थे। दक्षिण भारत में अवतरित होकर उन्होंने समस्त भारत को अपनी कृतियों से ज्ञानालोकित कर दिया था, जिसका प्रकाश आज तक जैनाजैन पंडितों के लिए चमत्कार जनक है। यह स्तुति-काव्य आकार में अत्यन्त लघु है, परन्तु बड़ा ही भक्ति-प्रवण, कमनीय भावावलि से संपृक्त एवं मनोरम है; लगता है आचार्य नेमिचन्द्र का हृदय ही द्रवित होकर वाणी का रूप ले इसमें साकार हो गया है। यह काव्य अत्यन्त मनोहारी और कण्ठस्थ करने योग्य है, यह काव्य उपजाति वृत्त में निबद्ध है, किन्तु आचार्यश्री ने इसका पद्यानुवाद ज्ञानोदय छन्द में श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र थूबौन जी, गुना (म० प्र०) में सन् १९७९ के चातुर्मासकाल में किया है। इस कृति में गोमटेश बाहुबली भगवान् का स्तवन हुआ है काम धाम से धन-कंचन से सकल संग से दूर हुए, शूर हुए मद-मोह-मार कर समता से भरपूर हुए। एक वर्ष तक एक थान थित निराहार उपवास किये; इसीलिए बस गोमटेश जिन मम मन में अब वास किए ॥८॥
  9. योगसार (वसंततिलका छंद) ज्ञानी, वशी परम पावन ध्यान ध्याके, जो अष्ट कर्म-मय ईंधन को जला के। सारे हुए परम आतम विश्वसार, वन्दूं उन्हें नमन मैं कर बार-बार ॥१॥ जो घाति कर्म रिपु को क्षण में भगाये, अर्हन्त होकर अनन्त चतुष्क पाये। तो लाख बार नम श्री जिन के पदों में, पश्चात् कहूँ सरस श्राव्य सुकाव्य को मैं ॥२॥ है भद्र! भव्य भव से भयभीत भारी, जो चाहते परम सुन्दर मुक्तिनारी। संबोधनार्थ उनको समचित्त साथ, पद्यावली रचित है मुझसे सुखार्थ ॥३॥ जो काल है वह अनादि, अनादि जीव, संसार सागर अनन्त व्यथा अतीव। मिथ्यात्व से भ्रमित हो सुख को न पाया, संसारिजीव दुख जीवन ही बिताया ॥४॥ संसार के भ्रमण से यदि भीत है तू, शीघ्रातिशीघ्र तज तो, पर भाव को तू। ध्या, स्वच्छ, अच्छवअतुच्छ निजात्म को तू, पाले अनन्त जिससे शिव सौख्य को तू ॥५॥ आत्मा यहाँ त्रिविध हैं बहिरंतरात्मा, आदेय ध्येय ‘परमातम' है महात्मा। तू अंतरात्म बन के परमात्म ध्या रे, दे! दे! सुशीघ्र बहिरातम को विदा रे! ॥६॥ मिथ्यात्व से भ्रमित जो जिन धर्म द्रोही, है मानता परम आतम को न मोही। होता वही नियम से बहिरात्म प्राणी, गाती सदैव इस भांति सुवीर वाणी ॥७॥ जो देखता परम आतम को यहाँ है, ओ रोष तोष पर को तजता अहा है। होता सुपंडित वही अयि! वीर नाथ! संसार त्याग, रमता शिव नारि साथ ॥८॥ अत्यंत शांत गतक्लांत नितांत शुद्ध, जो है महेश, शिव, विष्णु, जिनेश, बुद्ध। ज्ञानी उन्हें परम आतम हैं बताते, सिद्धांत के मनन में दिन जो बिताते ॥९॥ देहादि जो सकलभिन्न सुसर्वथा है, 'आत्मा' कहे मनुज तो उनको, व्यथा है!! वे ही सभी अबुध हैं बहिरात्म जीव, संसार बीच दुख को सहते अतीव ॥१०॥ जो अत्र मित्र निज पुत्र, कलत्र सारे, ये तो कभी न मम हो सकते विचारे। यों जान, ओ अयि सुजान! तथा च मान, तू आत्म को सतत आतम रूप जान ॥११॥ हे भव्य जीव! यदि तू निजको लखेगा, तो शीघ्र मुक्ति-ललना-पति तू बनेगा। औ अन्यको हि यदि आतम' तू कहेगा, तो हा! अगाध भवसागर में गिरेगा ॥१२॥ इच्छा विहीन बन तू यदि योग धार, है आत्म को निरखता जग को विसार। तो आशु मुक्ति रमणी तुझको वरेगी, क्या! क्या कहूँ वह कभी न तुझे तजेगी ॥१३॥ है जीव कर्म गहता परिणाम से ही, पाता निजीय पद को परिणाम से ही। तो भव्य जीव किससे शिव सौख्य ढोता, तू जान ठीक! किससे वह बंध होता ॥१४॥ धिक्कार! हाय! यदि आतम को विसार, तू पुण्य का चयन हो करता अपार। तो हंत! सातिशय सौख्य नहीं मिलेगा, संक्लेश भाव करता, दुख ही सहेगा ॥१५॥ आदर्श सादृश निजातम दर्श, त्याग, कोई न अन्य शिवकारण, भव्य! जाग। ऐसा सदा समझ निश्चय से सुयोगी! तो शीघ्र ही सुख मिले भव-मुक्ति होगी ॥१६॥ जो मार्गणा व गुणधान विकल्पसारे, हैं शास्त्र से कथित वे व्यवहार से रे! पे आत्म को समझ निश्चय से विशुद्ध, होगा सुखी सहन से, द्रुत सिद्ध, बुद्ध ॥१७॥ गार्हस्थ्य कार्य घर में करते हुए भी, जो जानते सतत हेय अहेय को भी। ध्याते तथाऽनुदिन वीर जिनेंद्र को हैं, पाते सुशीघ्र सब वे शिव सौख्य को हैं ॥१८॥ चिंतो विशुद्ध मन से अविराम ध्याओ, हे भव्य! आप जिन को निज चित्त लाओ। सारे अनन्त गुणधाम अहो! बनोगे, तो एक साथ जिससे सबको लखोगे ॥१९॥ शुद्धात्म में व जिन में कुछ भी न भेद, ऐसा सदा समझ तू द्रुत आत्म वेद। संसार पार करना यदि चाहता है, भा भावना सहज की यह साधुता है ॥२०॥ जो हैं जिनेन्द्र सुन! आतम है वही रे! ‘सिद्धांतसार' यह जान सदा सही रे! यों ठीक जानकर तू अयि भव्ययोगी! सद्यः अतः कुटिलता तज मोह को भी ॥२१॥ जो है यहाँ परमआतम हूँ वही मैं, वे ही विभो! परम आतम जो सुधी में। ऐसा अरे! समझ नाम सदैव योगी? ला चित्त में क्षण न अन्य विकल्प को भी ॥२२॥ शुद्धप्रदेश युत जो त्रयलोकपूर्ण, आत्मा उसे समझ जान उसे न चूर्ण। निर्वाण प्राप्त करले जिससे मुमुक्षु! आत्मीय सौख्य गह ले अयि! भव्य भिक्षु ॥२३॥ आत्मा त्रिलोक सम निश्चय से यहाँ है,देह प्रमाण, व्यवहारतया तथा है। जो जानता सतत ईदृश आत्म को है, पाता सुशीघ्र भव-वारिधि तीर को है॥२४॥ चौरासि योनिगत दुःसह दु:ख पाया, औ दीर्घ काल भव में भ्रमता बिताया। सम्यक्त्व दिव्य धन को इसने न पाया, देही, जिसे धरम ना अबलों सुहाया ॥२५॥ जो है सचेतन-निकेतन और शुद्ध, वे दिव्य ज्ञानमय श्री जिन नाथ बुद्ध। आत्मा उन्हें समझ, जान अरे सदा तू, हे भव्य! बोल शिव को यदि चाहता तू ॥२६॥ होगा तुझे न सुख ओ तबलौं न मुक्ति, सानन्द तू न करता जबलौं स्वभक्ति। जो दीखता अब तुझे वर सौख्य सार, तू धार शीघ्र उसको करके विचार ॥२७॥ जो हैं जिनेश, शिव हैं त्रैलोक ध्येय, आत्मा वही व उसकी महिमा अमेय। ऐसा यहाँ कथन निश्चय से किया है, विश्वास धार इसमें, भ्रम तो वृथा है॥२८॥ चारित्र मूढ़ जन यद्यपि धारते हैं, प्रायः सभी व्रत तपादिक साधते हैं। शुद्धात्म-ज्ञान जबलों गहते नहीं हैं, ना मोक्ष मार्ग तबलों तप व्यर्थ ही हैं ॥२९॥ जो भी दिगम्बर वशी बन योग धार, शुद्धात्म को यदि लखें जग को विसार। संसार त्याग सब वे द्रुत मोक्ष पाते, ऐसे सदैव सब सन्मति शास्त्र गाते ॥३०॥ चारित्र, शील व्रत औ तप भी करारी, ये सर्व ही न तबलों शिव सौख्यकारी। शुद्धात्म ध्यान जबलौं मुनि को न होता, जो आशु साधुकुल को सुख पूर्ण देता ॥३१॥ है पुण्य से अमर हो बहता विलास, औ पाप से नरक में करता निवास। पै पुण्य पाप तज जीव निजात्म ध्याता, तो शीघ्र ही परम पावन मोक्ष पाता ॥३२॥ चारित्र शील व्रत संयम जो यहाँ हैं, वे सर्व ही कथित रे? व्यवहार से हैं। हे! जीव, एक वह कारण मोक्ष का है, विज्ञान, जो परम सार त्रिलोक का है॥३३॥ जो आत्म भाव बल से निज को जनाते, स्वामी! कभी न मन में परभाव लाते। वे सर्व मोक्ष-पुर को सहसा पधारे, धारे अनंत सुख को, सबको निहारे ॥३४॥ ये द्रव्य हैं छह यहाँ अरु नौ पदार्थ, हैं सात तत्त्व जिनदर्शित ये यथार्थ। व्याख्यान तो यह हुआ व्यवहार मात्र, तू जानले अब उन्हें बन साम्य पात्र ॥३५॥ सारे अचेतन-निकेतन बोध रिक्त, तो जीव चेतन सुधा सम सार युक्त । सानन्द जान जिसको मुनि भव्य वृंद, संसार पार करते बनते अबंध ॥३६॥ है जानता यदि सुनिर्मल आत्म को तू, औ छोड़ता उस सभी व्यवहार को तू। तो शीघ्र ही वह मिले भव का किनारा, ऐसे जिनेश कहते यह योग सारा ॥३७॥ जो भेद संनिहित जीव अजीव में है, जो भी मनुष्य उसको यदि जानते हैं। है ज्ञात निश्चित उन्हें जग तत्त्व सर्व, ऐसे मुनीश्वर कहें जिनमें न गर्व ॥३८॥ आत्मा अहो! परम केवल-बोध-धाम, ऐसा सुजान! नित जान तथैव मान। कल्याण-खान-शिव की यदि कामना है, हे भव्य! साधुजन की यह बोलना है॥३५॥ तो कौन पूजन, समाधि करे करावे, औ मित्रता हृदय में किस संग लावे। संघर्ष कौन किस संग करे महात्मा, देखो जहाँ वह वहाँ दिखता निजात्मा ॥४०॥ स्वामी! यहाँ सुगुरु के परसाद द्वारा, जो आत्म को न लखता जबलों सुचारा। हा! हा! कुतीर्थ करता, तबलों अहा है, तो धूर्तता, कुटिलता, करता वृथा है ॥४१॥ त्रैलोक्य संस्तुत जिनेश न तीर्थ में है, वे सिद्ध, शुद्ध न जिनालय में बसे हैं। रे? जान तू जिनप तो तन गेह में है, ऐसा सदा श्रुत विशारद बोलते हैं ॥४२॥ है देव यद्यपि तनालय में यथार्थ, जाते तथापि जन मंदिर दर्शनार्थ। वैसी विचित्र घटना यह है अभागो? जैसा सुसिद्ध बनने पर भीख माँगो ॥४३॥ हे मित्र! देव जिन मंदिर में नहीं है, पाषाण लेप लिपि कागद में नहीं है। वे है अनादि तनमंदिर में प्रशान्त, या जान, मान तज, हो जिससे न क्लांत ॥४४॥ कोई कहे जिनप तो मठ तीर्थ में है, कोई कहे गिरि जिनालय में बसे हैं। पै देव को बुध तनालय में बताते, ऐसे अभिज्ञ बिरले महि में दिखाते ॥४५॥ तू है जरा मरण से यदि भीत भारी, तो नित्य धर्म कर जो वर सौख्यकारी। तू धर्म रूप रस का इक-घूट लेगा, जल्दी जरा, जीवन, मृत्यु विहीन होगा ॥४६॥ होता न धर्म वह पुस्तक पिच्छिका से, ना प्राप्त हो पठन पाठन की क्रिया से। होता न धर्म मठ-मंदिर वास से भी, तो प्राप्त हो न कचकुंचन कर्म से भी ॥४७॥ जो राग रोष, पर को तज योग धार, है आत्म में ठहरता, जग को विसार। होता वही धरम तो शिव सौख्य देता, ऐसे कहें जिनप जो अघ कर्म जेता ॥४८॥ है आयु तो गल रही, गलता न चित्त, आशा तथा न गलती दिन-रैन मत्त। व्यामोह तो स्फुरित है हित आत्म का ना, मोही सदा दुख सहे निज को न जाना ॥४९॥ तल्लीन ज्यों विषय को मन भोगने में, त्यों हो सुलीन यदि आतम जानने में। तो क्या कहें? यति-जनो? वह मोक्ष पाता, योगी समूह इस भाँति सदैव गाता ॥५०॥ जैसा सछिद्र वह जर्जर श्वभ्र गेह, वैसा अचेतन, घृणास्पद, निंद्य देह। भा भावना इसलिए निज! आत्म की तू, संसार पार करके बन रे सुखी तू ॥५१॥ संसार में सकल हैं निज कार्य व्यस्त, ना आत्म को समझते अब दुःख त्रस्त। निर्भ्रान्त कारण यही शिव को न पाते, ऐसा न हो तुम सभी दुख क्यों उठाते ॥५२॥ वे मूर्ख हैं समय को पढ़ते हुए भी, जो जानते समय मात्र न आत्म को भी। सारे अरे! इसलिए बहिरात्म जीव, पाते न मोक्ष, सहते दुख ही अतीव ॥५३॥ हो जाय विज्ञ यदि मुक्त मनेन्द्रियों से, पृष्टव्य शेष न उन्हें कुछ भी किसी से। हो जाय बंद यदि राग प्रवाह सारा! तो आत्म भाव प्रगटे स्वयमेव प्यारा ॥५४॥ मोहाभिभूत व्यवहार विपत्तिखान, तू जीव अन्य जड़ पुद्गल अन्य जान। शुद्धात्म को गह अतः तन-मोह छोड़, विज्ञान-लोचन जरा अब? भव्य? खोल ॥५५॥ जो जीव को विमल धाम न मानते हैं, श्रद्धा समेत उसको नहिं जानते हैं। होंगे न मुक्त, न मिले सुख, दुःख पाते, ऐसा सदैव जिनदेव हमें बताते ॥५६॥ घी दूध उत्तम दही अरु दीप माला, ज्योतिर्मयी स्फटिक औ रवि भी निराला। पाषाण रत्न रजतानल हेम जो हैं, दृष्टांत वे समझ नौ अब जीव के हैं ॥५७॥ आकाश सादृश तनादिक को सदैव, जो भिन्न ही समझता अयि वीर देव! तो शीघ्र ब्रह्म पद को वह यों गहेगा, आलोक से जग प्रकाशित ही करेगा ॥५८॥ आकाश है अमित जो वर शुद्ध जैसा, है शास्त्र में कथित आतम ठीक वैसा। तू व्योम को जड़ अचेतन नित्य जान, पै आत्म को विमल चेतनधाम मान ॥५९॥ जो जीव दृष्टि रखके निज नासिका पे, शुद्धात्म को हृदय में लखता यहाँ पे। लज्जामयी जनन को फिर ना धरेगा, तो देह धार स्तन पान नहीं करेगा ॥६०॥ शुद्धात्म को परम-सुन्दर-देह जानो, दुर्गंध-धाम तन को जड़, हेय मानो। रे! मूर्तमान तन को अपना कहो न, व्यामोह को तज, रहो, निज में हि मौन ॥६१॥ जो आत्म को स्वबल से जब जानता है, तो कौनसी सफलता मिलती न हा! है। होता अहो उदित केवल बोध भानु, स्थायी मिले सुख, उसे शिर मैं नमाऊँ ॥६२॥ योगीन्द्र! आशु तजके पर रूप भाव, जो जानते सहज से अपने स्वभाव। अज्ञान नाशकर, केवल बोध पावें, सिद्धत्व छोड़ फिर वे भव में न आवें ॥६३॥ है धन्य विज्ञ वह पंडित धैर्यवान, जो राग रोष तज के पर हेय मान। है जानता, निरखता निज आत्म को ही, जो है विशुद्धतम लोक अलोक बोधी ॥६४॥ हे भव्य जीव! सुन तू मुनि हो व गेही, जो भी निवास करता निज आत्म में ही। तो शीघ्र सिद्धि सुख का वह लाभ लेता, ऐसा कहें जिनप जो शिव मार्ग नेता ॥६५॥ रे! तत्त्व को विरल मानव मानते हैं, तो तत्त्व का श्रवण भी बिरले करे हैं। है लाख में इक मनुष्य सुतत्त्व ध्यानी, धारे उसे विनय से बिरले अमानी ॥६६॥ माता, पिता, सुत सुता, वनिता-कदंब, मेरे नये, दुरित कारण ही कुटुम्ब। ऐसा विचार करता, यदि भव्य संत, संसार नाश कर के बनता अनन्त ॥६७॥ योगीन्द्र! इन्द्र व नरेन्द्र फणीन्द्र सारे, ना जीव को शरण वे सब हैं विचारे। ऐसे विचार मुनि तो निज को जनाते, आधार आत्महित का निज को बनाते ॥६८॥ देही सदा जनमता मरता अकेला, होता दुखी, जब सुखी तब भी अकेला। कोई न संग उसका जब श्वभ्र जाता, निस्संग होकर तथा शिव सौख्य पाता ॥६९॥ हे! मित्र बोल अब तू यदि नित्य एक, तो अन्य भाव तज हो निज एकमेक। स्थायी अपूर्व सुख जो फलतः मिलेगा, विज्ञान सूर्य तुझको द्रुत ही दिखेगा ॥७०॥ ज्यों आप पाप कहते बस पाप को ही, प्रायः परन्तु सब त्यों कहते विमोही। पै जो कुपाप कहते उस पुण्य को भी, वैसे मनुष्य बिरले बुध भव्य कोई ॥७१॥ ज्यों बंध-कारक तुझे वह लोह बेड़ी, त्यों बंध-कारक यहाँ यह हेम बेड़ी। जो भी शुभाशुभ-विभाव-विहीन होता, होता विमुक्त भव से, शिव सौख्य ढोता॥७२॥ तेरा दिगम्बर यदा मन जो बनेगा, तू भी उसी समय-ग्रंथ विहीन होगा। तू अन्तरंग बहिरंग निसंग नंगा, तो मोक्ष मार्ग मिलता, बन तू अनंगा ॥७३॥ सुस्पष्ट बीज दिखता वट वृक्ष में ज्यों, होता प्रतीत वट भी उस बीज में त्यों। दीखे उसी तरह जो तन में जिनेश, त्रैलोक्य पूज्य, जिनकी महिमा विशेष ॥७४॥ मैं हूँ वही जिनप जो वर बोध कोष, यों भावना सतत भा तज क्रोध रोष। ना अन्य मन्त्र इसको तज, मोक्ष पंथ, संसार का विलय हो जिससे तुरन्त ॥७५॥ दो, तीन, चार, छह, पाँच तथैव सात, ये सर्व लक्षण विभो! गुणसार साथ। होते अवश्य जिनमें जब स्पष्ट रूप, तू जान नित्य उनको परमात्म रूप ॥७६॥ जो राग रोष तज के धर नग्न भेष, सद् ज्ञान दर्शन गुणान्वित हो जिनेश! अध्यात्म लीन रहते शिव सौख्य पाते, ऐसे सदैव जिनदेव हमें बताते ॥७७॥ है तीन से विकल जो मुनि मौन युक्त, अर्थात् विमोह अरु राग प्रदोष रिक्त। सद् ज्ञान आचरण दर्शन पा स्वलीन, पाता प्रमोक्ष इस भाँति कहें प्रवीन ॥७८॥ संज्ञाविहीन बन चार कषाय मार, जो धारता वर अनंत चतुष्क भार। आत्मा उसे समझ तू भवभीत भिक्षु, होता अतः परम पावन हे! मुमुक्षुः ॥७९॥ जो पंच इन्द्रियजयी तज पंच पाप, औ सर्व प्राण युत है जिनमें न ताप। होते क्षमादि दशलक्षण धर्म युक्त, आत्मा उन्हें समझ निश्चय वीर भक्त ॥८०॥ आत्मा हि दर्शन-मयी अरु ज्ञान-धाम, चारित्र का सदन है नयनाभिराम। औ त्याग रूप व्रत-संयम शील-झील, ऐसा सदा समझ तू बन तू सुशील ॥८१॥ जो आत्म को वे पर को नित जानता है, नित शीघ्र पर को वह त्यागता है। संन्यास-धारक वही गुरु ओ महान, ऐसे कहे जिनप केवलज्ञानवान ॥८२॥ रत्नत्रयान्वित वशी महि में पवित्र, होता वही सुखद तीर्थ सदैव अत्र। तो मोक्ष का सुगम कारण भी वही है, ना अन्य मन्त्र शिव हेतु न तंत्र भी है॥८३॥ अर्थावलोकन सदा जिससे अहा! हो, योगी उसे कहत दर्शन वे यहाँ भो! विज्ञान है सहज आतम जो पवित्र, तो बार-बार निज चिंतन ही चरित्र ॥८४॥ आत्मा जहाँ गुण वहीं सब विद्यमान, षड् केवली सब कहें जिनमें न मान। योगी अतः परम उत्तम योग धार, है आत्म को निरखते जग को विसार ॥८५॥ व्यापार बन्द कर इन्द्रिय ग्राम का भी, निस्संग हो तज परिग्रह नाम का भी। तू काय से वचन से मन शुद्धि साथ, ध्या आत्म, शीघ्र बन जा शिव-नारिनाथ ॥८६॥ है बद्ध को समझता यदि तू प्रमुक्त, होता सुनिश्चय अतः द्रुत बंध युक्त। तू स्नान स्वीय सर में यदि रे! करेगा, तो आशु मुक्ति-ललना-पति तू बनेगा ॥८७॥ सम्यक्त्वभूषित सुधी न कुयोनि पाता, या तो यदा कुगति में यदि हाय! जाता। सम्यक्त्व का पर न दोष वहाँ दिखाता, प्राचीन कर्म रिपु को वह तो नशाता ॥८८॥ जो भव्य सर्व व्यवहार विमोचता है, ओ आत्म में रमण भी करता रहा है। सम्यक्त्वमंडित वही, मुनि मौन-धारी, संसार त्याग, वरता, वह मोक्षनारी ॥८९॥ सम्यक्त्व में प्रथम जो बुध भी वही है, औ तीन लोक भर में वह मुख्य भी है। पाता वही परम केवल ज्ञान को है, आदेय, शाश्वत, अपूर्व प्रमाण जो है॥९०॥ आत्मा सुमेरु सम हो जब जो ललाम, वार्धक्य मृत्यु परिशून्य, गुणैक-धाम। भाई! तदेव वह कर्म न बांधता है, प्राचीन कर्मरिपु को पर मारता है॥९१॥ हे! मित्र! जो हरित पूरित पद्म -पत्र, होता न लिप्त जल से जिस भाँति अत्र। आत्मीय भाव रत है यदि जो सदीव, ना लिप्त कर्म रज से उस भाँति जीव ॥९२॥ जो विज्ञ होकर यहाँ शिव सौख्य लीन, है बार बार लखता निज को प्रवीन। स्वामी वही सहज से वसु कर्म नाश, पाता अपूर्व अविनश्वर जो प्रकाश ॥९३॥ आत्मा पवित्रतम जो पुरुषानुरूप, आलोक पूर्ण वह है, गुण मुख्य स्तूप ॥ जाज्वल्यमान अपनी वर ज्योतिगम्य, मैं क्या कहूँ वचन से, वह दिव्य रम्य ॥९४॥ शुद्धात्म को, अशुचिधाम शरीर से जो, है भिन्न ही समझता, निज बोध से यों। अत्यन्त लीन उस शाश्वत सौख्य में हो, है जानता वह समस्त जिनागमों को ॥ ९५॥ जो जानता न निज निर्मल आत्म को है, औ त्यागता दुखमयी न विभाव को है। होगा विशारद जिनागम में भले ही, पाता न मोक्ष वह तो भव में रुले ही ॥९६॥ संकल्प-जल्प व विकल्प विकार-हीन, जो हैं यहाँ परम श्रेष्ठ समाधि-लीन। आनन्द काऽनुभव वे करते नितांत, वे ही अतः परम सिद्ध सदा प्रशान्त ॥९७॥ पिंडस्थध्यान फिर दिव्य पदस्थध्यान, रूपस्थध्यान भजनीय त्रितीय जान। तू रूपरिक्त उस अंतिम ध्यान को भी, निस्संग हो समझ तो भव-मुक्ति होगी ॥९८॥ हे मित्र! बोधगुण मंडित जीव सारे, जो लोग ईदृश सदा सम भाव धारे। सामायिकी तुम सभी समझो उसी को, ऐसा जिनेश कहते महि में सभी को ॥९९॥ जो रोष-तोषमय सर्व विकार भाव, है, शीघ्र त्याग, धरता वर साम्य भाव। सामायिकी नियम से वह ही कहाता, ऐसा निरंतर यहाँ ऋषि वृंद गाता ॥१००॥ हिंसादि पंच विध निंद्य कुपाप छोड़, जो आत्म को अचल मेरु रखे अडोल। होता चरित्र उसका वह जो द्वितीय, देता प्रमोक्ष, सुख जो अति श्लाघनीय ॥१०१॥ मिथ्यात्व राग विमदादि कल्याण से जो? सम्यक्त्व की विमलता बढ़ती उसे भी। जानो सदैव परिहार-विशुद्धिरूप, होता प्रमोक्ष जिससे सुख तो अनूप ॥१०२॥ जो सूक्ष्म लोभ हटने पर सूक्ष्मभाव, है आत्म का नियम से करता बचाव। होता वही परम सूक्ष्म चरित्र शस्य, है धाम नित्य सुख का शिव का अवश्य ॥१०३॥ आत्मा सुसिद्ध शिव, निश्चय से महात्मा, होता वही विमल जो अरहंत नामा। आचार्य वर्य, उवझाय सुपूजनीय, स्वामी! वही नियम से मुनि वंदनीय ॥१०४॥ आत्मा हि ईश्वर वही शिव, विष्णु बुद्ध, ब्रह्मा, महेश, परमातम, सिद्ध, शुद्ध। होता अनंत, वृष, शंकर भी जिनेश, पूजूँ नमूं स्तव करूँ उसका हमेश ॥१०५॥ पूर्वोक्त सार्थक सुलक्षण युक्त जो हैं, संक्लेशहीन सुखरूप जिनेश ओ है। है आत्म में न उनमें कुछ भी विभेद, निर्भीत ही सतत तू इस भाँति वेद ॥१०६॥ जो शुद्ध-बुद्ध अब लों जिन हो चुके हैं, ये सिद्ध जो विमल संप्रति हो रहे हैं। होंगे भविष्य भर में निजदर्श से ही, तू जान ईदृश अतः तज मोह मोही! ॥१०७॥ पद्यावली रचित थी निज बोधनार्थ, योगींद्रदेव यति से वर चित्त साथ। मैंने वसंत-तिलका वर वृत्त-द्वारा, भाषामयी अब उसे कर दी सुचारा ॥१०८॥ है योगसार श्रुतसार व विश्वसार, जो भी इसे बुध पढ़े, सुख तो अपार। मैं भी इसे विनय से पढ़, आत्म ध्याऊँ, “विद्यादिसागर' जहाँ डुबकी लगाऊँ ॥१०९॥
  10. योगसार (1971) आचार्य योगीन्द्र देव द्वारा रचित अपभ्रंश भाषाबद्ध ‘योगसार' का पद्यानुवाद राष्ट्रभाषा में आचार्यश्री द्वारा लोकहितार्थ किया गया है। जो 'वसन्ततिलका छन्द' में निबद्ध है। आचार्यश्री ने यह पद्यानुवाद मदनगंज-किशनगढ़, अजमेर (राज) में १९७१ के चातुर्मास काल में पूर्ण किया था। इसमें वास्तविक योग और उसके रहस्य पर प्रकाश डाला गया है। यह अनुवाद भी अत्यन्त समीचीन है। आचार्यदेव कहते हैं कि आत्मा तीन प्रकार की होती है-परमात्मा, अन्तरात्मा और बहिरात्मा। इनमें से बहिरात्मभाव को छोड़कर अन्तरात्मभाव ग्रहण करके परमात्मा का ध्यान करना चाहिए आत्मा यहाँ विविध है बहिरंतरात्मा, आदेय ध्येय ‘परमातम' है महात्मा। तू अन्तरात्म बन के परमात्म ध्या रे! दे! दे! सुशीघ्र बहिरातम को विदा रे॥६॥
  11. ( वसंततिलका छन्द) जो जानते अपर को अपरात्म रूप, औ आत्म को सतत वे सब आत्मरूप। स्वामी! अमेय अविनश्वर बोधधाम, हो बार-बार उन सिद्धन को प्रणाम ॥१॥ सम्माननीय जिनकी वह भारती है, अत्यन्त तीर्थ-कर संपति शोभती है। धाता महेश शिव सौगत नामधारी, वंदें उन्हें जिनप जो जग आर्त-हारी ॥२॥ शास्त्रानुसार निज बोध-बलानुसार,एकाग्र चित्तकर युक्ति मतानुसार। शुद्धात्म-तत्त्व उनको कहता यहाँ मैं, जो चाहते सहज सौख्य प्रभो सदा है ॥३॥ आत्मा यही त्रिविध है सब देहियों में, आदेय है परम आतम पे सबों में। तो अन्तरात्म शिवदायक है उपेय, धिक्कार हाय! बहिरातम निंद्य हेय ॥४॥ मेरा शरीर, धन औ सुत राजधानी, ऐसा सदैव कहता बहिरात्म प्राणी। रागादि से रहित हा वह अन्तरात्मा, है वंद्य, पूज्य, परमातम, निर्मलात्मा ॥५॥ जो बुद्ध, शुद्ध जिनके न शरीर साथ, अत्यन्त इष्ट जिन ईश्वर विश्वनाथ। है सिद्ध, अव्यय तथा वसु-कर्म रिक्त, है पूजनीय परमातम पूर्ण व्यक्त ॥६॥ जो है यहाँ सतत इन्द्रिय-भोगलीन, निर्भीत नित्य बहिरात्म स्वबोध हीन। है देह को इसलिए वह आत्म मान, संसार में दुख सदा सहता महान ॥७॥ धिक्कार मानव-तन-स्थित आत्म को ही, हैं मानते मनुज रूप सदा विमोही। तिर्यञ्च देह अरु देव शरीर पाते, तिर्यञ्च, देव क्रमशः निज को जनाते ॥८॥ लेते जहाँ नरक में जब जन्म भी है, तो मानते स्वयम को तब नारकी है। आत्मा प्रभो! परम निश्चय से न ऐसा, विज्ञान पूर्ण, निजगम्य अहो! हमेशा ॥९॥ जो पुद्गलात्मक तथा पर देह को ही, स्वामी! निजीय तन सादृश जान मोही। है मानता भ्रमित हो यह अन्य आत्मा' प्रायः अतः दुरित ही करता दुरात्मा ॥१०॥ जो आत्मबोध परिशून्य सदा रहा है, संपत्ति से मुदित तोषित हो रहा है। मेरी खरी मृगदृगी ललना यहाँ है, ऐसा विचार उसका भ्रम-पूर्ण हा! है॥११॥ मिथ्यात्व-जन्य उसकी इस भावना से, अज्ञान तीव्र बढ़ता, सुख हो कहाँ से ? तो देह को ‘निज' सदा वह मानता है, औ आत्म को वह कदापि न जानता है ॥१२॥ मिथ्यात्व भाव वश हो वह मूढ़ जीव, है आत्मबुद्धि रखता तन में सदीव। माता, पिता, सुत, सुता, वनिता व भ्राता, ये हैं यहाँ मम' सभी इस भाँति गाता ॥१३॥ आभूषणादिक जड़ात्मक नश्यमान, मोही इन्हें स्वयम के सुख हेतुमान। उत्कृष्ट स्वीय मणि को वह व्यर्थ खोता, लो! काँच में रम रहा, दुख बीज बोता ॥१४॥ संसार का प्रथम कारण देह-नेह, है रुद्ध हाय! जिससे यह बोध गेह। व्यापार-त्याग द्रुत इन्द्रिय-ग्राम का रे, हो आत्म में रत अतः यदि लोग सारे ॥१५॥ मैंने स्वभाव तज के निज भोग लीन, संसार में दुख सहा, वृष-बोध हीन। मैं ‘आत्म' हूँ न पहले इस भाँति जाना, पै सर्वथा विषय को सुख-हेतु माना ॥१६॥ जो अन्तरंग बहिरंग निसंग नंगा, होता नितान्त उसका वह योग चंगा। उत्कृष्ट आतम प्रकाशक योग-दीप, धारो इसे, शिव लसे, फलतः समीप ॥१७॥ जो भी मुझे नयन गोचर हो रहा है, ना जानता वह कभी जड़ तो रहा है। जो जानता वह न इन्द्रियगम्य आत्मा,बोले तदा किसलिए किस संग आत्मा ॥१८॥ मैं योग्य शिष्य दल को नित हूँ पढ़ाता, या ज्ञान को सुगुरु से सहसा बढ़ाता। उन्मत्त-सी यह यहाँ मम मात्र चेष्टा, मैं निर्विकल्प मम निश्चय से न चेष्टा ॥१९॥ चैतन्य को पर कभी तजता नहीं है, अग्राह्य को ग्रहण भी करता नहीं है। जो जानता निखिल को निज ज्ञान से ही, विज्ञान पूर्ण वह चेतन जीव'मैं' ही' ॥२०॥ स्वामी! सुदूर स्थित नीरस वृक्ष में ओ; जैसा सदा पुरुष का अनुमान जो हो। मिथ्यात्व के उदय से जड़ देह को ही 'आत्मा' पुरा भ्रमित हो समझा प्रमोही ॥२१॥ पश्चात् उसे निकट जा लख शुष्क ठूठ, ज्यों त्यागता वह उसे द्रुत मान झूठ। त्यों छोड़ता वितथ मान तनादिकों को, निस्सार हेय पर जो दुखकारकों को ॥२२॥ ना मैं नपुंसक नहीं नर दीन स्त्री न, दो भी न एक न अनेक तथा न तीन। मैं हूँ निजात्म बल से जब स्वात्म ध्याता, इत्थं तदा न मुझमें कुछ भेद नाता! ॥२३॥ शुद्धात्म-ध्यान बिन खेद! अनादि सोया, पाके उसे जग गया, बहु दुःख खोया। आनन्द जो मिल गया, निजगम्य रम्य, स्वामी! अतीन्द्रिय अपूर्णन शब्द-गम्य ॥२४॥ देखें यदा परम हृद्य निजात्म को मैं, रागादि भाव दुखदा द्रुत नष्ट होते। होती भयानक तदा न सुतेज आग, प्यारी नहीं कुसुम की लगती पराग ॥२५॥ ब्रह्माण्ड ही जब मुझे नहिं जानता है, क्या शत्रु-मित्र वह हो सकता तदा है। या जानता यदि मुझे लखता तथा है, तो भी न मित्र रिपु हो सकता अहा! है॥२६॥ शीघ्रातिशीघ्र बहिरात्म-पना विसार, औ अंतरात्म-पन को रुचि संग धार। संकल्प, जल्प व विकल्प-विहीन भी हो, पश्चात् सुपूज्य परमेश्वर रूप पाओ ॥२७॥ साधू सदैव वह तो निज आत्म ध्याता, सोऽहं, विशुद्ध जिन हूँ रट यों लगाता। होता निवास निज में इस धारणा से, क्यों रोष-तोष तब हो, दुख हो कहाँ से ? ॥२८॥ नादान, दीन, मतिहीन, स्वबोध-हीन, विश्वास धार जड़ में सुखमान लीन। है मान्यता यह अतः वह दुःख धाम, तो आत्म-ध्यान घर है, सुख का ललाम ॥२९॥ निश्चिन्त हो निडर, निश्चल अन्तरात्मा, व्यापार रोक करणावलिका महात्मा। जो भी जभी निरखता अरु जानता है, शुद्धात्म तत्त्व उसको वह भासता है॥३०॥ जो मैं वही परम आतम है महात्मा, ऐसा विचार करता वह अन्तरात्मा। मैं ही उपास्य मम हूँ स्तुति अन्य की क्यों? मैं साहुकार जब हूँ फिर याचना क्यों? ॥३१॥ मैंने सभी विषय को विष मान त्यागा, मेरा जिनेश जिस कारण भाग्य जागा। आनन्द-धाम मुझको अधुना मिला है, विज्ञान-नीरज अतः उर में खिला है॥३२॥ दुर्गन्ध-रक्त-मल-पूरित-देह को जो, है मानता न यति भिन्न निजात्म से ओ। निर्भीक यद्यपि करे तप भी करारी, तो भी उसे न वरती वह मुक्ति-नारी ॥३३॥ जो जानता तन तथा निज आत्म-भिन्न, होता नहीं वह कभी यति खेद-खिन्न। शीतातिशीत हिम से डरता नहीं है, संतप्त चूलगिरि पे तपता वही है ॥३४॥ योगीन्द्र का मन सरोवर है निहाल, ना हैं जहाँ कलुष राग तरंग जाल। स्वामी! वही निरखता निज आत्मतत्त्व, रागी नहीं वह कभी लखता स्वतत्त्व ॥३५॥ संक्षोभ-हीन मन आतम का स्वभाव, संमोह-मान-मय-मानस है विभाव। सारे अत: मलिन मानस को धुलाओ, आदर्श सादृश विशुद्ध उसे सजाओ ॥३६॥ मिथ्यात्व-मान ममतादिक कारणों में, होता सुलीन मन है विषयादिकों में। सिद्धान्त के मनन से मन हाथ आता, विज्ञान के उदय से पर में न जाता ॥३७॥ उद्विग्न क्षोभमय जो नित हो रहा है, मानापमान उसके मन में बसा है। सद्धर्म-लीन जब जो मुनि वीतराग, क्यों द्रोह मोह उनमें फिर रोष राग? ॥३८॥ अज्ञान का प्रबल कारण पा जिनेश, हो जाय तो यदि यदा रति राग द्वेष। भावे उसी समय स्वीय विशुद्ध तत्त्व, तो राग-द्वेष मिटते, मिटता ममत्व ॥३९॥ सम्बन्ध स्वीय तन से यदि प्रेम का हो, योगी सुदूर उससे सहसा अहा! हो। ज्ञान रूप तन में निज को लगावें, तो देह-प्रेम नशता, तब मोक्ष पावें ॥४०॥ अज्ञान-जन्य-दुख नाश स्वबोध से हो, पीड़ा अतीव वह क्यों न अनादि से हो। विज्ञान के विषय में यदि आलसी है, पाता न मोक्ष, उसका तप! ना सही है ॥४१॥ लक्ष्मी मिले, मिलन हो, मम हो विवाह, मूढ़ात्म को विषय की दिन-रैन चाह। ज्ञानी, वशी, विमल मानस, आत्मवादी, मूढ़ात्म सादृश नहीं, पर अप्रमादी ॥४२॥ जो आत्म-भक्ति च्युत होकर भोगलीन, त्यों कर्म जान फँसता रसलीन मीन। जो स्नान आत्म सर में करता तपस्वी, निर्मुक्त कर्म-रज से वह हो यशस्वी ॥४३॥ स्त्री नपुंसक औ नर लिंग को ही, 'आत्मा' सदैव इस भाँति कहे प्रमोही। पै आत्म अव्यय, अवर्य, अखण्डपिण्ड, ऐसा कहे सुबुध, ना जिनमें घमण्ड ॥४४॥ शुद्धात्म को सुबुध यद्यपि जानता है, ध्याता उसे अलस को तज देखता है। मिथ्यात्व का उदय पै यदि हाय! होता, सद्ध्यान शीघ्र नशता, वह भ्रष्ट होता ॥४५॥ काया अचेतन-निकेतन दृश्यमान, दुर्गन्ध-धाम पर है क्षण नश्यमान। तो रोष-तोष किसमें मम हो महात्मा!, मध्यस्थ हूँ इसलिए जब चेतनात्मा ॥४६॥ मूढ़ात्म केवल पटादिक छोड़ता है, ज्ञानी कषाय घट को झट तोड़ता है। सर्वज्ञ तो न तजता गहता किसी को, तो लाख बार मम वन्दन हो उसी को ॥४७॥ शुद्धात्म के शयन पे मन को सुलाओ, औ काय से वचन से निज को छुड़ाओ। रे! सर्व बाह्य व्यवहार तथा भुलाओ, अध्यात्म रूप सर में निज को डुबाओ ॥४८॥ जो आत्म-बोध परिशून्य शरीरधारी, भाता उसे स्वतन ही कल सौख्यकारी। जो स्वीय बोध पय को नित पी रहा हो, संसार क्षार जल में रुचि क्यों उसे हो? ॥४९॥ शुद्धात्म ध्यान तज अन्तर आत्म सारे, ना अन्य भाव मन में चिरकाल धारें। या अन्य भाव यदि हैं करते प्रवीण, वाक्काय से कुछ करें मन से कभी न ॥५०॥ जो भी मुझे सकल-इन्द्रिय गम्य हैं रे, निर्धात भिन्न मुझसे पर है, न मेरे। देखें समोद जब मैं निज में, तभी यों, है ज्योति दीख पड़ती, मम है वही जो' ॥५१॥ प्रारम्भ में कुछ दुखी निज ध्यान से हो, प्रायः सुखानुभव बाहर में उसे हो। अभ्यस्त तापस कहै निजमें हि तोष, संसार सागर असार विपत्ति कोष ॥५२॥ निर्ग्रन्थ होकर करो निज आत्म-गीत, पूछो तथा निजकथा गुरु से विनीत। चाहो उसे सतत हो उसमें विलीन, अज्ञान नाश जिससे तुम हो प्रवीण ॥५३॥ वाक्काय में निरखता निज को हि अज्ञ, तो देह का वचन का वह है न विज्ञ। ज्ञानी कहे मम नहीं यह देह भार, होता अतः वह सुशीघ्र भवाब्धि पार ॥५४॥ संभोग में सुख नहीं कहते मुमुक्षु, मोक्षार्थ योग धरते सब संत भिक्षु। अज्ञान भाव वश हो वह सर्व काल, संभोग में निरत हो बहिरात्म बाल ॥५५॥ अज्ञान रूप तम में चिरमूढ़ सोये, भोगे कुयोनिगत-दुःख अतीव रोये। ऐसी दशा च उनकी दयनीय क्यों है? वे आत्म बोध तज के परलीन क्यों है? ॥५६॥ योगी सदा तप तपे निज में रहेंगे, सद्ध्यान ध्या परिषहादिक भी सहेंगे। ‘मेरा शरीर' इस भाँति नहीं कहेंगे, कोई प्रबन्ध परसंग नहीं रखेंगे ॥५७॥ मोही नहीं समझते निज शक्ति को भी, ओ जानते न मम उत्तम बोध से भी। तो क्यों अहो! अबुध को उपदेश मेरा, होगा नहीं उदित सूर्य नहीं सबेरा ॥५८॥ सद्बोध शिष्य-दल को जब मैं दिलाऊँ, स्वामी! निजानुभव मैं तब हा! न पाऊँ। ना शब्दगम्य, निजगम्य, अमूर्त हूँ मैं, कैसे?किसे! कब उसे! दिखला सकूँ मैं ॥५९॥ संतुष्ट बाह्य धन में कुपथाभिरूढ़, उत्कृष्ट स्वीय-धन-विस्मृति से ‘‘प्रमूढ़''। चारित्र धार तपते तजते कुभोग, पाते प्रमोद निज में ‘मुनि' सन्त लोग ॥६०॥ ना! जानता वह कभी सुख-दुःख को है, स्वामी! अचेतन-निकेतन देह जो है। मिथ्यात्वभाव वश हो तनकी सुसेव, मोही नितान्त करता फिर भी सदैव ॥६१॥ देहादि में निरत हैं जबलौं हि जीव, निर्भीत दुःख सहता तबलौं अतीव। शुद्धात्म ध्यान तुझको जब हो खुशी है, तेरे तदा निकट ही शिव-कामिनी है ॥६२॥ ज्यों वस्त्र को पहन मार्दव स्पर्श शस्य, हैं मानते न निज को ‘बलवान् मनुष्य'। ना मानते सुबुध त्यों निज देह देख, सन्तुष्ट पुष्ट निज को बलवान् सुरेख ॥६३॥ होता यदा वसन है यदि जीर्ण-शीर्ण, कोई तदा समझते निज को न क्षीण। काया जरा समय में यदि कांति हीन, ज्ञानी तदा समझते निज को न क्षीण ॥६४॥ है मूल्यवान पट भी यदि नष्ट होता, संसार में अबुध भी न कदापि रोता। देहावसान यदि हो मम तो खुशी है, मेरा नहीं मरण यों कहते वशी हैं ॥६५॥ हैं पंक से मलिन यद्यपि शुक्ल वस्त्र, पै मानते मनुज तो निज को पवित्र। तो देह में रुधिर पीव पड़े सड़े भी, योगी स्वलीन फिर भी, तपते खड़े ही ॥६६॥ जो आत्म-चिन्तन सदा करता नितान्त, निस्पन्द ही जग उसे दिखता प्रशान्त। होता वही 'जिन' अतः गतक्लांत विज्ञ, मोही सदा दुख सहे बहिरात्म अज्ञ॥६७॥ जो राग-रोष करता गहता शरीर, तो बार-बार मरता सह, दुःख पीर। प्रत्येक काल जिस कारण कर्म ढोता, तो जानता न निज को भव बीच रोता ॥६८॥ प्रत्येक काल जड़ पुद्गल वर्गणाएँ, जाती, प्रवेश करती तन में परायें। तो पूर्वसा इसलिए तन दीखता है, मोही निजीय कहता उसको वृथा है॥६९॥ काला न मैं ललित , लाल नहीं अनूप, रोगी न पुष्ट अति हृष्ट नहीं कुरूप। पै नित्य, सत्य अरु मैं वर बोध-धाम, मेरा अतः विनय से मुझको प्रणाम ॥७०॥ जो ग्रन्थ त्याग, उर में शिव की अपेक्षा, मोक्षार्थ मात्र रखता, सबकी उपेक्षा। होता विवाह उसका शिवनारि-संग, तो मोक्ष चाह यदि है बन तू निसंग ॥७१॥ संसर्ग पा अनल का नवनीत जैसा, नोकर्म पा पिघलता बुध ठीक वैसा। योगी रहे इसलिए उनसे सुदूर, एकान्त में विपिन में निज में जरूर ॥७२॥ मैं जा रहूँ नगर में, वन में कभी न, ऐसा विचार करता, बहिरात्म दीन। ज्ञानी न ईदृश विचार स्वचित्त लाता, निश्चिन्त हो सतत किन्तु निजात्म ध्याता ॥७३॥ निस्सार पार्थिव तनादिक काऽनुराग, है बीज अन्य तन का द्रुत भव्य! जाग। तो बीज मोक्ष द्रुम का निज भावना है, भावो उसे यदि तुम्हें शिव कामना है॥७४॥ आत्मा हि कारण सदा भव का रहा है, जाता वही नियम से शिव को तथा है। है आत्म का गुरु अतः स्वयमेव आत्मा, कोई न अन्य इस भाँति कहे महात्मा ॥७५॥ होता यदा जड़ तनादिक का वियोग, भारी विलाप करते बहिरात्म लोग। मैं तो मरा मरण!! हाय! महा समीप, ऐसे कहे न जिनके उर-बोध-दीप ॥७६॥ प्राचीन वस्त्र तज वस्त्र नवीन लेते, स्वामी! यथा मनुज मात्र न खिन्न होते। योगी तथा न डरता यदि काय जाता, मेरा नहीं मरण है इस भाँति गाता ॥७७॥ जो भी यहाँ विषय भोग करें करावें, शुद्धात्म ध्यान च्युत होकर कष्ट पावें। जो मौन सर्व व्यवहारिक कार्य में हैं, वे ही स्वदर्शन करें, निज में रमे हैं ॥७८॥ तो देख बाह्य धन वैभव और अंग, ओ! आत्म को निरख के निज अन्तरंग। निस्सार जान जड़ को पर औ अमेध्य, छोड़े उसे बुध सुशीघ्र बने अवद्य॥७९॥ जो जोग धार, वन जीवन है बिताता, प्रारम्भ में जग उसे ‘मद' सा दिखाता। पश्चात् वही निरस-ठूठ समा दिखाता, अभ्यास से मुनि यहाँ निज वित्त पाता ॥८०॥ तत्त्वोपदेश पर को दिन-रैन देता, सद्बोध और सुनता जिन शास्त्र वेत्ता। पै देह भिन्न मम-जीव सदैव भिन्न, ऐसा न बोध यदि हो शिव मात्र स्वप्न ॥८१॥ शुद्धात्म ध्यान सर में निज को डुबाओ, दुर्गन्ध देह सर को सहसा भुलाओ। तो देह धारण पुनः जिससे न होवे, पावे विशुद्ध पद औ वसु कर्म खोवे ॥८२॥ निर्धान्त अत्र व्रत से वह पुण्य होता, अत्यन्त क्लांत! व्रतहीन कुपाप ढोता। दोनों विलीन जब हो तब मोक्ष भिक्षु, छोड़े व्रतेतर समा व्रत को मुमुक्षु ॥८३॥ संसार कारण व्रतेतर आद्य छोड़, वैराग्य पा विषय से निज को सुमोड़। छोड़े महाव्रत तदा मुनि मौनधारी, होती स्वहस्तगत है जब मोक्ष नारी ॥८४॥ संकल्प, जल्प व विचित्र विकल्प वृन्द, है दुःख मूल, जिससे वसु कर्म बन्ध। होता यदा जड़तया उसका विनाश, आत्मा तदा स्वपद-दिव्य गहे प्रकाश ॥८५॥ जो अव्रती वह सुशीघ्र बने व्रती ही, सज्ज्ञान में परम लीन रहे व्रती भी। संपन्न ध्यान क्रमशः स्वयमेव होगा, विज्ञान-पूर्ण मुनि यों भव-मुक्त होगा ॥८६॥ चारित्र बाहर तनाश्रित दीखता है, तो जीव का ‘भव' यही तन तो रहा है। जो मात्र बाह्य तप में रहता सुलीन, होता न मुक्त निज-निर्मल-भाव-हीन ॥८७॥ ये शैव वैष्णव तथा बहु जातियाँ हैं, सारी यहाँ जड़ तनाश्रित पंक्तियाँ हैं। जो मूढ़ जाति-मद है रखता सदैव, कैसा उसे शिव मिले अयि! वीर देव! ॥८८॥ मैं हूँ दिगंबर अतः शिवमार्गगामी, कोई नहीं मम समा बुध अग्रगामी। इत्थं प्रमत्त मुनि हो मद धारता है, पाता न मोक्ष पद को वह भूलता है॥८९॥ ज्ञानी सुयोग धरते तपते शिवार्थ, जो दूर हैं विषय से निज साधनार्थ। तो भोग लीन रहता दिन-रैन मोही, है त्याग का वह सदा अनिवार्य द्रोही ॥९०॥ निर्भ्रांत देह जड़ ही नित जानता है, मोहाभिभूत नर ईदृश मानता है। पंगु प्रदर्शित यथा पथ-रूढ़ अन्ध, ना दीखता पथिक को वह हाय! अन्ध ॥९१॥ जो अन्ध-खंज युग अन्तर जानते हैं, ज्यों अन्ध को नयनवान न मानते हैं। विज्ञान पूर्ण निज को मुनि मानते जो, आत्मानुरूप तन को नहिं जानते त्यों ॥९२॥ उन्मत्त सुप्त जन की वह जो क्रिया हो, मोही उसे भ्रम कहे यह अज्ञता ओ! पै रोष-तोषमय तामस-भाव को ही, हैं मानते 'भ्रम' अहो! गुरु जो अलोभी ॥९३॥ सिद्धांत हस्तगत यद्यपि है जिसे वो, सद्ध्यान हीन यदि हो शिव ना उसे हो। शुद्धात्म का अनुभवी यदि नींद लेता, तो भी अपार सुख पा, भव पार होता ॥९४॥ स्वामी! जहाँ मनुज बुद्धि लगी रही है, होती नितांत उसकी रुचि भी वहीं है। होती यदा रुचि जहाँ अयि भव्य! मित्र, होता सुलीन मन है वह नित्य तत्र ॥९५॥ स्वामी! जहाँ मनुज बुद्धि लगी नहीं है, होती वहाँ रुचि कभी उसकी नहीं है। होती तथा रुचि नहीं सहसा जहाँ है, होता सुलीन मन ना वह भी वहाँ है॥९६॥ छद्मस्थ भव्य जिसको नहिं भोग भाता, सिद्धात्म भक्ति करके वह मुक्ति जाता। बत्ती यथा अलग होकर दीप से भी, होती अहो द्युतिमयी उस संग से ही ॥९७॥ जो आत्म ध्यान करता दिन-रैन त्यागी, होता वही परम आतम वीतरागी। संघर्ष से विपिन में स्वयमेव वृक्ष, होता यथा अनल है अयि भव्य दक्ष! ॥९८॥ देखो! विशुद्ध पद को निज में सही यों, ध्याओ उसे वचन-गोचर भी नहीं जो। पाओ अतः परम पावन मोक्ष-धाम, आना नहीं इधर लौट वहीं विराम ॥९९॥ रे आत्म तत्त्व यदि भौतिक ही यहाँ हो, तो मोक्ष यत्न बिन ही सहसा अहा! हो। ऐसा न हो, तब सदा तप से सुमुक्ति, योगी दुखी न, जब जागरती स्वशक्ति ॥१००॥ होता यथा मरण यद्यपि स्वप्न में है, तो भी न नाश निज का परमार्थ से है। स्वामी! तथा मरण हो जब आयु अन्त, पै देह ही बदलता, नित मैं अनन्त ॥१०१॥ जो कायक्लेश बिन अर्जित आत्म ज्ञान, शीतादि कष्ट जब हो द्रुत नश्यमान। कायानुसार सब ही नित काय क्लेश, योगी सहे सतत वे धर नग्न भेष ॥१०२॥ विद्वेष राग करता यह ज्योंहि जीव, त्यों ही चले पवन भी तन में अतीव। औ वायु से सकल अङ्ग उपांग सारे, होते स्वकार्य रत नौकर से विचारे ॥१०३॥ निस्सार दैहिक विवर्त्त समूह को भी, 'आत्मा' कहे अबुध लोक सदा प्रमोही। स्वामी! वशी सुबुध तो पर को विसार, होते सुशीघ्र दुख पूर्ण-भवाब्धिपार ॥१०४॥ जो भी समाधि स्तुति को पढ़ आत्म, वेद, ‘मैं औ शरीर' इनमें कुछ भी न भेद। ऐसा विचार तजते बन अन्तरात्मा, पाते निजीय सुख को, बनते महात्मा ॥१०५॥ आचार्य पूज्यपाद स्तुति थे पूज्यपाद, वृषपाल, वशी, वरिष्ठ, थे आपके न रिपु, मित्र, अनिष्ट, इष्ट। मैं पूज्यपाद यति को प्रणमूँ त्रिसंध्या, ‘विद्यादिसागर' बनूं, तज दें अविद्या ॥
  12. समाधिसुधा-शतक (1971) आचार्य पूज्यपाद के द्वारा चित्त को विभाव परिणति से हटाकर स्वभाव में स्थिर करने के लिए समाधितंत्र ग्रन्थ का सृजन हुआ। आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज ने वसंततिलका छन्द के १०५ पद्यों में पद्यानुवाद करके अंत में रचनाकार के स्मरणपूर्वक स्व-नाम का उल्लेख करते हुए उनके श्री-चरणों में प्रणाम निवेदित किया है। अध्यात्म-परक छन्द का पद्यानुवाद दृष्टव्य काया अचेतन-निकेतन दृश्यमान, दुर्गन्ध-धाम पर है। क्षण नश्यमान। तो रोष-तोष किसमें मम हो महात्मा!, मध्यस्थ हूँ इसलिए जब चेतनात्मा ॥४६॥ समाधि-सुधा-शतकम् नामक यह पद्यानुवाद सन् १९७१ के मदनगंज-किशनगढ़, अजमेर (राजस्थान) में हुए वर्षायोग काल के दौरान पूर्ण हुआ था। इस कृति में उन देहानुरागी जीवों को चेतावनी दी गई है जिन्होंने मिथ्यात्व के उदय से जड़ देह को ही आत्मा समझ रखा है। ऐसा मोहग्रस्त रागी अपने स्वभाव' को कभी नहीं समझ सकता। अतः रचयिता कहते हैं जो ग्रन्थ त्याग, उर में शिव की अपेक्षा, मोक्षार्थी मात्र रखता, सबकी उपेक्षा। होता विवाह उसका शिवनारि-संग; तो मोक्ष चाह यदि है बन तू निसंग ॥७१॥ जो आत्म ध्यान करता दिन-रैन त्यागी, होता वही परम आतम वीतरागी। संघर्ष में विपिन में स्वयमेव वृक्ष; होता यथा अनल है अयि भव्य दक्ष! ॥९८॥
  13. मंगलाचरण सुर-नर ऋषि-वर से सदा, जिनके पूजित-पाद। पूज्य-पाद को नित नमूँ, पाऊँ परम-प्रसाद ॥ जिस जीवन में पूर्ण रूप से, सब कर्मों का विलय हुआ, उसी समय पर सहज रूप से, स्वभाव रवि का उदय हुआ। जिसने पूरण पावन परिमल, ज्ञानरूप को वरण किया, बार-बार बस उस परमातम, को इस मन ने नमन किया ॥१॥ स्वर्ण बने, पाषाण-स्वर्ण का, स्वर्ण-कार का हाथ रहा, अनल-मिलन से जली मलिनता, समुचित-साधन साथ रहा। योग्य-द्रव्य हो योग्य-क्षेत्र हो, योग्य-भाव के योग मिले, आतम-परमातम बनता है भव-भव का संयोग टले ॥२॥ व्रत-पालन से सुर-पुर में जा, सुर-पद पाना इष्ट रहा, पर व्रत बिन नरकों में गिरना, खेद! किसे वह इष्ट रहा। घनी छाँव में, घनी धूप में, थित हो अन्तर पहिचानो, अरे! हितैषी व्रताव्रतों में कितना अन्तर तुम मानो ॥३॥ जिन-भावों से नियम रूप से, मिलता है जब शिवपुर है, उन भावों से भला! बता दो, क्या? ना मिलता सुर-पुर है। द्रुतगति से जो वाहन यात्रा, कई योजनों की करता, अर्ध-कोश की यात्रा करने, में भी क्या? वह है डरता ॥४॥ पंचेन्द्रिय-सुख होकर भी जो आतंकों से दूर रहा, युग-युग तक अगणित वर्षों तक, लगातार भर-पूर रहा। सुर-सुख तो बस सुरसुख जिसको, अनुभवते सुर-पुर-वासी, कहे कहाँ तक? किस विध? किसको? आखिर हम तो वनवासी ॥५॥ तन-धारी जीवों का सुख तो, मात्र वासना का जल है, दुख ही दुख है सुख-सा लगता, मृग-मरीचिका का जल है। संकट की घड़ियों में जिस विध, रोग-भयंकर, उस विध हैं, भोग सताते भोक्ताओं को, भोग हितंकर किस विध हैं? ॥६॥ पुरुष यहाँ उन्मत्त बना हो, जिसने मदिरापान किया, निज-का पर-का हिताहितों का, उसे कहाँ? हो ज्ञान जिया। मोह-भाव से घिरा हुआ यदि, जिसका भी वह ज्ञान रहा, स्वभाव को फिर नहीं जानता, यथार्थ में अज्ञान रहा ॥७॥ धन-तन केतन वतन उपावन, मात-पिता सुत-सुता अरे! परिजन पुरजन सहचर अनुचर, अग्रेचर रिपु तथा रहें। सुन-सुन सब ये आतम से अति भिन्न-स्वभावी-ज्ञात रहे, मूढ इन्हें नित निजी मानते भव में भटके भ्रान्त रहें ॥८॥ दिशा-दिशा से देश-देश से, उड़-उड़ पक्षी दल आते, डाल-डाल पर पात-पात पर, पादप पर निशि बस जाते। अपने-अपने कार्य साधने, उषा काल में फिर उड़ते, दिशा-दिशा में देश-देश में, कहाँ देखते फिर मुड़के ॥९॥ हत्यारा यदि हत्या करता, तुम क्यों? उस पर क्रोध करो, हत्यारे तो तुम भी हो फिर, कुछ तो मन में बोध धरो। त्र्यंगुल को निज पैरों से जो, कोई मानव गिरा रहा, उसी समय पर उसी दण्ड से, स्वयं धरा पर गिरा अहा ॥१०॥ दधिमन्थन के काल मथानी, मन्थन-भाजन में भ्रमती, कभी इधर तो कभी उधर ज्यों, क्षण भर भी ना है थमती। राग-द्वेष की लम्बी-लम्बी, डोरी से यह बँधा हुआ, ज्ञान बिना त्यों भव में भ्रमता, रुदन करे गल सँधा हुआ ॥११॥ भरे रीतते कुछ भरते घट, तब तक यह क्रम चलता है, घटी-यन्त्र का परिभ्रमण वह, जब तक रहता चलता है। इसी भाँति भवसागर में भी, एक आपदा टलती है, कई आपदायें आ सन्मुख, मोही जन को छलती हैं ॥१२॥ जिनका अर्जन बहुत कठिन है, संरक्षण ना सम्भव है, स्वभाव जिनका मिटना ही है, ये धन-कंचन-वैभव हैं। फिर भी निज को स्वस्थ मानते, धनपति धन पाकर वैसे, ज्वर से पीड़ित होकर जो जन, घृत-मय भोजन कर जैसे ॥१३॥ वन में तरु पर बैठा जैसा, मन में चिंतन करता है, वन्य-जन्तु अब जले मरे सब, आग लगी वन जरता है। पर की चिन्ता जैसी करता, अपनी चिन्ता कब करता? मूढ़ बना तन पुनि-पुनि धरता, मरता है पुनि-पुनि डरता ॥१४॥ काल बीतता ज्यों-ज्यों त्यों-त्यों आयु कर्म वह घटे बढे, धन का वर्धन धनी चाहते, प्रतिदिन हम तो बनें बढ़े। कहें कहाँ तक धनी लोग तो, जीवन से भी जड़ धन को, परम-इष्ट परमेश्वर कहते, धन्यवाद धन-जीवन को ॥१५॥ निर्धन धन अर्जित करता है, दान हेतु यदि वह नाना, दान कर्म का ध्येय बनाया, कर्म खपाना शिव पाना। कार्य रहा यह ऐसा जैसा, अपने तन पर करता है लेप पंक का कोई मानव, “स्नान करूंगा कहता है'' ॥१६॥ प्राप्त नहीं हो जब तक, तब तक, महा ताप कर काम-सभी, किन्तु प्राप्त हो जाने पर तो, कभी तृप्ति का नाम नहीं। अन्त-अन्त में तो क्या कहना? जिनका तजना सरल नहीं, सुधी रचे फिर काम-भोग में? जिनका मन हो तरल कहीं ॥१७॥ मलयाचल का चन्दन चूरण, चमन चमेली चातुरता, कुन्द पुष्प मकरन्द सुगन्धी, गन्ध-दार मन्दारलता। पदार्थ सब ये तन संगति से, गन्ध-पूर्ण भी गन्दे हों, सदा अहित कर तन का यदि तुम, राग करो तो, अन्धे हो ॥१८॥ तन का जो उपकारक है वह, चेतन का अपकारक है, चेतन का उपकारक है जो तन का वह अपकारक है। सब शास्त्रों का सार यही है चेतन का उद्धार करो, अपकारक से दूर रहो तुम, तन का कभी न प्यार करो ॥१९॥ एक ओर तो चिन्तामणि है, दिव्य रही, मन हरती है, और दूसरी ओर कांच की, मणिका जग को छलती है। ध्यान-साधना से ये दोनों, मानो भ्राता! मिलती हैं, आदर किसका बुधजन करते? आँखें किस पर टिकती हैं ॥२०॥ अपने-अपने संवेदन में, अमूर्त हो आतम भाता, रहा रहेगा त्रिकाल में है, अतः अनश्वर है भ्राता! तात्कालिक तन प्रमाण होता, अनन्त सुख का निलय रहा, लोकालोकालोकित करता, सदा लोक का उदय रहा ॥२१॥ चपल-स्वभावी सभी इन्द्रियाँ, इनको संयत प्रथम करो, मनोयोग से मनमाना मन, को भी मंत्रित तुरत करो। अपने में स्थित हो अपने को, अपनेपन से आप तथा, ध्याओ अपने आप भला फिर, ताप मिटे संताप व्यथा ॥२२॥ अज्ञानी की शरण-गहो तो, सुनो तुम्हें अज्ञान मिले, ज्ञानी-जन की उपासना से, ज्ञान मिले वरदान फले। जिसका स्वामी जो होता है, प्रदान उसको करता है, लोक नीति यह सुनी सभी ने, प्रमाण विरला करता है॥२३॥ योगी जन अध्यात्म योग से, चेतन में निर्बाध रहे, मनो-योग को वचन-योग को, काय-योग को साध रहे। परीषहों को, उपसर्गों को, सहते विचलित कब होते? कर्म-निर्जरा आस्रव-रोधक, संवर प्रचलित सब होते ॥२४॥ यू हि परस्पर दो दो में तो, होता है सम्बन्ध रहा, कर्म रहा मम 'कट, कट का मैं, कर्ता हूँ प्रतिबन्ध रहा। एकमेक जब ध्यान-ध्येय हो, आतम का ही आतम ओ! फिर किस विध सम्बन्ध बन्ध हो, दोपन ही जब खातम हो ॥२५॥ इसीलिए तुम पूर्ण यत्न से, निर्ममता का मनन करो, चिन्तन-मन्थन-आराधन भी, तथा उसी को नमन करो। जीव कर्म से बंधता तब है, ममता से जब मण्डित हो, बन्धन से भी मुक्त वही हो, निर्ममता में पण्डित हो ॥२६॥ एक अकेला निर्मम हूँ मैं, योगी को ही दिखता हूँ, शुद्ध-शुभ्र हूँ ज्ञानी होता, ज्ञानामृत को चखता हूँ। माया, ममता, मोह, मान, मद, संयोगज ये भाव अरे! भिन्न सर्वथा मुझसे हैं यूं, इनमें हम समभाव धरे ॥२७॥ असहनीय दुःखों का फल है, यह संसारी बना हुआ, संयोगज भावों का फल है, रागादिक में सना हुआ। इसी बात को जान मानकर उपकृत हूँ गुरुवचनों से, रागादिक को पूर्ण त्यागता, तन से, मन से, वचनों से ॥२८॥ मरण नहीं है मेरा मुझको, कहाँ भीति हो? किससे हो? व्याधि नहीं है मुझमें, मुझको, वृथा व्यथा फिर किससे हो? बाल नहीं हूँ, युवा नहीं हूँ, वृद्ध नहीं हूँ ज्ञात-रहे, ये पुद्गल की रहीं दशायें, चेतन मेरा साथ रहे ॥२९॥ मोह-भाव से विगत-काल में, मुझसे ये पुद्गल-सारे, बहुत बार भी, बार-बार भी, भोगे, छोड़े, उर धारे। वमनरूप-सम भोगों में अब, मेरा मन यदि फिर जाता, विज्ञ बना मुझको शोभा क्या? देता उत्तर लजवाता ॥३०॥ कर्म चाहता तभी कर्म-हित, कर्म-कर्म से जब बंधता, जीव चाहता तभी जीवहित, जीवन जिससे है सधता। अपने-अपने प्रभाव के वश, बलशाली हैं जब होते, स्वार्थ सिद्धि में कौन-कौन फिर, तत्पर ना हो? सब होते ॥३१॥ पर को उपकारों का अब ना, पात्र बनाओ भूल कभी, निज पर ही उपकार करो अब, पात्र रहा अनुकूल यही। करते दिखते सदा परस्पर, लौकिक जन उपकार यथा, करते दिखते अज्ञ निरन्तर, पर पर ही उपकार तथा ॥३२॥ गुरु का उपदेशामृत निज को, सर्वप्रथम तो पिला दिया, तदनुसार अभ्यास बढ़ाया, प्रयोग करता चला गया। निजानुभव से निज-पर अन्तर, तभी निरन्तर जान रहा, जान रहा वह मोक्ष सौख्य भी, अब तक जो अनजान रहा ॥३३॥ प्रशस्त-तम है अपनेपन में, जो उसका अभिलाषक है, स्वयं किसी उपदेश बिना भी इष्ट-तत्त्व का ज्ञापक है। जो कुछ अब तक मिला मिलेगा, निज हित का भी भोक्ता है, अतः समझ हूँ आतम का तो, आतम ही गुरु होता है ॥३४॥ अज्ञ रहा तो अज्ञ रहेगा, नहीं विज्ञता पा सकता, विज्ञ रहा तो विज्ञ रहेगा, नहीं अज्ञता पा सकता। केवल निमित्त धर्म द्रव्य है, गति में जैसा होता है, एक अन्य के कार्य विषय में, समझो वैसा होता है ॥३५॥ रागादिक लहरें ना उठतीं, जिनका मानस शान्त रहा, हेय तथा आदेय विषय में, तत्त्व-ज्ञान निर्भ्रांत रहा। योगी-जन निर्जन वन में जा, निद्रा-विजयी तथा बने, प्रमाद तज निज साधन कर ले, कालजयी फिर सदा बने ॥३६॥ तत्त्वों में जो परम तत्त्व है, आत्म तत्त्व जो सुख-दाता, जैसे-जैसे अपने-अपने, संवेदन में है आता। वैसे-वैसे भविकजनों को रुचते ना हैं भले-भले, पुण्योदय से सुलभ हुए हैं, भोग सभी पीयूष घुले ॥३७॥ पुण्योदय से सुलभ हुए हैं, भोग सभी पीयूष घुले, जैसे-जैसे भविकजनों को, रुचते ना हैं भले-भले। वैसे-वैसे अपने-अपने, संवेदन में है आता, तत्त्वों में जो परम तत्त्व है, आत्मतत्त्व जो सुख दाता ॥३८॥ इन्द्र-जाल सम स्वभाव वाला, पल-पल पलटन शीला है, सार-शून्य-संसार सकल है, नील-निशा की लीला है। इस विध चिन्तन करता योगी, आत्म-लाभ का प्यासा है, पल-भर भी यदि बाहर जाता, खेद खिन्न हो खासा है॥३९॥ जन, मन, तन-रंजन में जिसको, किसी भांति ना रस आता, अतः सदा एकान्त चाहता, मुनि बन वन में बस जाता। निजी कार्य वश कभी किसी से, कुछ कहना हो कहता है, कहकर भी झट विस्मृत करता, अपनेपन में रहता है॥४०॥ यदपि बोलते हुए दीखते, तदपि बोलते कभी नहीं, चलते जाते हुए दीखते, फिर भी चलते कभी नहीं। आत्म तत्त्व स्थिर जिनका उनकी, जाती महिमा कही नहीं, दृश्य देखते हुए दीखते, किन्तु देखते कभी नहीं ॥४१॥ यह सब क्या है? क्यों हैं? किस विध? कब से? किसका? है किससे? इस विध चिन्तन करता-करता, जो निज चिति में फिर-फिर से! अपनी काया की भी सुध-बुध, भूल कहीं खो जाता है, योग परायण योगी वह तो, एकाकी हो जाता है ॥४२॥ जो भी मानव निवास करता, जहाँ कहीं भी पाया है, नियम रूप से उसने अपना वहाँ राग दिखलाया है। भाव-चाव से जहाँ रम रहा, जीवन अपना बिता रहा, उसे छोड़कर कहीं न जाता, छन्द यहाँ यह बता रहा ॥४३॥ बाहर योगी जब ना जाता, बाहर का फिर ज्ञान कहाँ? बाहर का जब ज्ञान नहीं है, विषयों का फिर नाम कहाँ?। विषयों का जब नाम नहीं है, रागादिक का काम कहाँ? रागादिक का काम नहीं तो, बन्ध कहाँ? शिवधाम वहाँ ॥४४॥ पर तो पर है समझो भ्राता!, पर से अति दुख मिलता है, आतम तो आतम है भाता, आतम से सुख मिलता है। यही जानकर यही मानकर, महामना ऋषि सन्त यहाँ आत्म-साधना में रत रहते, सुख पाने गुणवन्त महाँ ॥४५॥ कभी स्व-पर को नहीं जानता, रहा अचेतन यह तन है, फिर तन का अभिनन्दन करता, मूढ़ बना तू चेतन है?। साथ चलेगा तुझको फिर ना, चउगतियों में छोड़ेगा, पापों से जोड़ेगा तुझको, भव-भव में हूँ रोयेगा ॥४६॥ बाहर के व्यवहार कृत्य से, तन-मन-वच से मुड़ता है, भीतर के अध्यात्म वृत्त से चेतन-पन से जुड़ता है। फलतः परमानन्द जागता, राग-भाग्य अब भाग चला, योगी का यह योग योग है, वीतराग पथ लाग चला ॥४७॥ आतम में आनन्द उदित हो, साधक को सन्तुष्ट करे, कर्मरूप ईन्धन को अविरल, जला जलाकर नष्ट करे ॥४८॥ जिसे अविद्या देख कांपती, पल-भर में बस नस जाती, महा-बलवती ज्ञान-ज्योति वह, कहलाती है, सुख लाती। बात करो तो करो उसी की, चाह उसी की करो सदा, मुमुक्षु हो तुम उसी दृश्य को, देखो उर में धरो सदा ॥४९॥ जीव सदा से अन्य रहा है, अन्य रहा तन पुद्गल है, तत्त्व ज्ञान बस यही रहा है, माना जाता मंगल है। फिर भी जो कुछ और कथन यह, सुनने सन्तों से मिलता, मात्र रहा विस्तार उसी का, तत्त्वज्ञान से तम मिटता ॥५०॥ सुधी सही इष्टोपदेश जै का, ज्ञान करे अवधान करे, मानपने अपमानपने का, समान ही सम्मान करे। निराग्रही मुनि बन वन में या, उचित भवन में वास करे, पाले निरुपम मुक्ति सम्पदा, भव्य भवों का नाश करे ॥५१॥ दोहा जहाँ अनेकों पूज्य जिन,-धाम एक से एक। रवि निज किरणों से करे, प्रतिदिन सौ अभिषेक ॥१॥ रामटेक को देखते, प्रकटे स्व-पर विवेक। विराम स्वातम में करो, विघटे विपद अनेक ॥२॥ ऋषि रसना रस गन्ध की, पौष शुक्ल गुरु तीज। पूर्ण हुआ अनुवाद है भुक्ति-मुक्ति का बीज ॥३॥
  14. दुष्टाष्ट कर्म दल को करके प्रनाश, पाया स्वभाव जिनने, परितः प्रकाश। जो शुद्ध हैं अमित, अक्षय बोधधाम, मेरा उन्हें विनय से शतशः प्रणाम ॥१॥ ज्यों ही यहाँ वर रसायन-योग ढोता, पाषाण जो कनक-मिश्रित, हेम होता। त्यों द्रव्य क्षेत्र अरु काल सुयोग पाता, संसारि-जीव परमात्मपना गहाता ॥२॥ चारित्र से अमर हो वह श्रेष्ठ ही है, होना कुनारक असंयम से बुरा है। तो भेद भी इन व्रताऽव्रत में अहा! है, ‘छाया-सुधूप' इनमें जितना रहा है ॥३॥ जो आत्म भाव शिव सौख्य यदा दिलाता, स्वर्गीय सौख्य वह क्या न तदा दिखाता। दो कोस भार सहसा जब जो निभाता, क्यों अर्द्ध कोस तक ले उसको न जाता? ॥४॥ है दीर्घ काल रहता, पल में न जाता, आतंकहीन अरु जो महि में न पाता। ओ नाकवासिसुख है मन-मोहनीय, क्या क्या कहूँ अमर सौख्य अवर्णनीय ॥५॥ जो दुःख और सुख है तनधारियों का, है व्याज मात्र तृण-बिन्दु, सुखेच्छुकों का। जैसे भगंदर, जलोदर, कुष्ट रोग, वैसे नितान्त दुखदायक हाय! भोग ॥६॥ विज्ञान जो अतितिरोहित मोह से है, ना जानता वह निजीय स्वभाव को है। जैसा यहीं मदक, भंग शराब को पी, ना जानता मनुज भक्ष्य अभक्ष्य को भी ॥७॥ माता, पिता अहित और सुता व गेह, औ मित्र, पुत्र, सुकलत्र व अर्थ देह। ये आत्म से सकल भिन्न सुसर्वथा हैं, पै मूढ़ स्वीय कहता इनको वृथा है॥८॥ पक्षी अहो! दश-दिशागत जो यहाँ पे, प्रत्येक वृक्ष पर वे बसते, जहाँ से। है स्वीय कार्य वश हो उड़ते उषा में, स्वच्छंद होकर असीम दशों-दिशा में ॥९॥ क्यों मूढ़ श्वान सम है करताति क्रोध, हंता जनों पर, अतः उसमें न बोध। जो खोदता अवनि को जब फावड़ा से, नीचे झुके वह तदैव निसर्गता से ॥१०॥ जो रागद्वेष करता, वसु कर्म ढोता, संसारि-जीव भव को अति ही बढ़ाता। अज्ञान से सुचिर है दुख ही उठाता, है नित्य दौड़ भव-कानन में लगाता ॥११॥ आपत्ति एक टलती जब लौं अहा! है, दूजी अहो! चमकती तब लौं वहाँ है। स्वामी! यहाँ स्थिति सदा घटियंत्र की सी, संसार सागर निमज्जित जीव की भी ॥१२॥ है नश्यमान व परिश्रम प्राप्त अर्थ, रक्षार्थ नेक बनते इसके अनर्थ। संतुष्ट हाय! इससे निज को मनुष्य, पी मानता घृत यथा ज्वरवान् अवश्य ॥१३॥ धिक्कार! मूर्ख लखता न निजापदा को, क्यों देखता वह सदा पर की व्यथा को। दावा सुव्याप्त वन में मृगयूथ को जो, रे देखता वह तरुस्थ मनुष्य है ज्यों ॥१४॥ हैं अर्थ को समझते निज से अमूल्य, सम्पत्ति हीन वह जीवन पर्ण तुल्य। श्रीमंत मानव सदा इस भाँति गाते, आदर्श जीवन धनार्जन में बिताते ॥१५॥ जो अर्थहीन वह मानव सर्वदा ही, दानार्थ अर्थ चुनता व सुखार्थ मोही। मैं स्नान हूँ कर रहा इस भाँति बोले, ओ पंक से स्वतन को निज हाथ धोले ॥१६॥ प्रारंभ में परम ताप अहो दिलाते, तो प्राप्ति में विषम आकुलता बढ़ाते। है अंत में कठिन त्याज्य कुभोग ऐसे, भोगें सकाम इनको बुध लोग कैसे? ॥१७॥ सौगंध्यपूर्ण वह चंदन है पवित्र, हा ज्यों देह संग करता बनताऽपवित्र। काया घृणास्पद अतीव तथा विनाशी, सेवा करें न इसकी ऋषि जो उदासी ॥१८॥ जो श्रेष्ठ मित्र उपकारक जीव का है, होता वही अनुपकारक देह का है। होती नितांत जिससे जड़ देह पुष्टि, होती कभी न उससे पर जीव पुष्टि ॥१९॥ है एक हाथ खल-खंड अहो दिखाता, तो रत्न अन्य कर में वर सौख्य दाता। दोनों मिले स्वपरिणामतया यहाँ पे, विद्वान का फिर समादर हो कहाँ पे? ॥२०॥ है देह के वह बराबर सौख्यधाम, आत्मा अमूर्त, नित नित्य उसे प्रणाम। औ देखता सकल लोक अलोक को है, विज्ञान गम्य, नहिं इन्द्रिय गम्य जो है ॥२१॥ एकाग्र चित्त-बल से सब इंद्रियों का, व्यापार बन्द करके दुखदायकों का। आत्मा स्वकीय घर में रह आत्म को ही, ध्यावे निजीय बल से तज मोह मोही ॥२२॥ सत्संग से परम बोध यहाँ कमाते, दुस्संग से अबुध हो, हम दुःख पाते। तो गंध छोड़ वह चंदन और क्या दे? जो पास हो उचित है वह ही सदा दे ॥२३॥ ना जानता परिषहादिक को विरागी, होता न आस्रव जिसे वह मोक्षमार्गी। अध्यात्म योग बल से फलतः उसी की, होती सही! नियम से नित निर्जरा ही ॥२४॥ मैं हूँ यहाँ परम निर्मल वस्त्र कर्ता, ऐसा पदार्थ युग में विधि-बंध भाता। आत्मा हि ध्यान अरु ध्येय यदा व ध्याता, तो कौन-सा फिर तदा पर संग नाता?॥२५॥ जो जीव मोह करता, वसु कर्म ढोता, निर्मोह भाव गहता, द्रुत मुक्त होता। शुद्धात्म को इसलिए दिनरैन ध्याओ, ओ! वीतरागमय भाव स्व-चित्त लाओ ॥२६॥ मैं एक हूँ, परम शुद्ध प्रबुद्ध ज्ञानी, वे ही मुझे निरखते, मुनि जो अमानी। ये राग, रोष, ममकार, विकार भाव, संयोग जन्य, जड़ हैं, मम ना स्वभाव ॥२७॥ संयोग पाकर तनादिक का यहाँ रे, संसारि जीव दुख भाजन हो रहा है। तो काय से वचन से मन से तनँ मैं, संमोह को, इसलिए निज को भऊँ मैं ॥२८॥ मेरा नहीं मरण है, फिर भीति कैसी? रोगी नहीं, फिर व्यथा किसकी हितैषी। मैं हूँ नहीं परम वृद्ध युवा न बाल, ये हैं यहाँ सकल पुद्गल के बवाल ॥२९॥ भोगे गये निखिल पुद्गल बार-बार, संसार-मध्य मुझसे, दुख है अपार। भोगू, उन्हें!! अब पुनः यह निंद्य कार्य!! उच्छिष्ट सेवन करे जग में अनार्य ॥३०॥ है कर्म कर्म सखि कों निज पास लाता, तो जीव आत्म-हित को नित चाहता वा। हो जाय स्वीय पद पे बलवान कोई, इच्छा निजीय हित की किसको न होई? ॥३१॥ हे! मित्र त्याग कर शीघ्र परोपकार, हो स्वोपकार रत तू जग को विसार। होता विमूढ़ पर के हित में सुलीन, मोही दुखी इसलिए मतिहीन दीन ॥३२॥ सत् शास्त्र के मनन से गुरु भाषणों से, विज्ञान रूप स्फुट नेत्र सहायता से। जो जानते स्वपर अन्तर को यहाँ है, जाने सदैव शिवको सब वे अहा! है ॥३३॥ विज्ञान रूप गुण से निजको जनाता, औ आप में रमण की अभिलाष लाता। धाता निजीय सुख का जग में तथा है, आत्मा वही 'गुरु' अतः निज आत्म का है॥३४॥ पाता अभिज्ञ न कभी इस अज्ञता को, तो अज्ञ भी न गहता उस विज्ञता को। धर्मास्तिकाय जग ज्यों गति हेतु मात्र, त्यों ही अभव्य जनको गुरु और शास्त्र ॥३५॥ विद्वेष, राग रति, मोह, विकार रिक्त, औ तत्त्व-बोध थित है जिसका सुचित्त। आलस्य हास्य तज औ निजगीत गावे, एकांत में वह निजात्म स्वभाव ध्यावे ॥३६॥ ज्यों विश्वसार परमोत्तर आत्म तत्त्व, विज्ञान में उतरता, वह साध्य तत्त्व। अच्छे नहीं विषय त्यों लगते यहाँ पे, जो प्राप्त हैं सहज यद्यपि रे! धरा पे ॥३७॥ ज्यों ज्यों नहीं विषय है निज को सुहाते, जो जीव को भव सरोवर में गिराते। त्यों त्यों अहो परम उत्तम साध्य तत्त्व, विज्ञान में उतरता वह आत्म तत्त्व ॥३८॥ आत्मा यदा निजनिरंजन रूप ध्याता, है इन्द्रजाल सम विश्व उसे दिखाता। अन्यत्र है मन कभी यदि स्वल्प जाता, तो क्या कहूँ वह तदा अति दुःख पाता ॥३९॥ प्यारा जिसे विपिन जो लगता यहाँ है, एकान्त वास करता वह तो सदा है। आत्मीय कार्य वश हो यदि बोलता है, तो शीघ्र ही तज उसे निज साधता है॥४०॥ विद्वेष, राग, रति से अति दूर जो हैं, वे बोलते यदि तथापि न बोलते है। ना देखते अपर को लखते हुए भी, जाते नहीं गमन वे करते हुए भी ॥४१॥ कैसे कहाँ व किसका यह कौनसा है, यो प्रश्न भी न करता निज में बसा है। है जानता न अपने तन को विरागी, जो योग लीन नित है पर वस्तु त्यागी ॥४२॥ जो जीव वास करता सहसा जहाँ है, निर्धान्त लीन रहता वह तो वहाँ है। जो भी जहाँ रमत मुद्दत से सदैव, अन्यत्र ना गमन हो उनका वृथैव ॥४३॥ ज्ञाता, अचेतनमयी तन का नहीं है, जो देह का स्मरण भी करता नहीं है। ज्ञानी वही, विविध कर्म न बाँधता है, होता प्रमुक्त उनसे, शिव साधता है॥४४॥ देहादि तो पर, अतः सब दुःख रूप, आत्मा निजीय सुखधाम, सुधास्वरूप। सारे अतः सतत सादर सन्त लोग, आत्मार्थ ध्यान धरते, तज सर्व भोग ॥४५॥ जो आत्म सौख्य तज इन्द्रिय भोग लीन, मूढात्म है जगत में वह भाग्य हीन। पाता अतः दुख सदा भव में नितांत, यों बार-बार तनधार अपार क्लांत ॥४६॥ शुद्धात्म को हि वह केवल ध्येय मान, सारे विकल्प तजता, द्रुत हेय, जान। योगी सुयोग बल से अति श्लाघनीय, पाता सुसौख्य जग जो बुध शोधनीय ॥४७॥ जो नित्य कर्ममय-इन्धन को जलाता, है आत्म जन्य सुख तो शिव रूप भाता। योगी अतः परिषहादिक से यहाँ पे, हैं खेदता न गहते, नित तोष पाते ॥४८॥ अज्ञान रूप तम को झट जो नशाती, है ज्ञान-ज्योति शिवमार्ग हमें दिखाती। आराधनीय वह है निज दर्शनीय, स्वामी! मुमुक्षु जन से जग शोधनीय ॥४९॥ है अन्य जीव जड़ पुद्गल अन्य भाता, है ‘तत्त्व सार' यह यों जिन शास्त्र गाता। जो भी अहो कथन अन्य यहाँ दिखाता, विस्तार मात्र इसका, इसमें समाता ॥५०॥ इष्टोपदेश पढ़ आदर से सुभव्य, ‘मानापमान' इनमें धर साम्य दिव्य। एकान्तवाद तज, ग्राम अरण्य में वा, धारे चरित्र, जिससे शिव-मिष्ट-मेवा ॥५१॥ गुरु स्मृति थे भव्य-पंकज-प्रभाकर पूज्यपाद, था आपमें अति प्रभावित साम्यवाद। वन्दें उन्हें विनय से मन से त्रिसंध्या ‘विद्या' मिले, सुख मिले, पिघले अविद्या ॥
  15. आचार्य पूज्यपाद कृत संस्कृत भाषाबद्ध ‘इष्टोपदेश' ग्रन्थ का आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज द्वारा भाषान्तरण ('वसन्ततिलका' एवं 'ज्ञानोदय' छन्द में पृथक्-पृथक् पद्यबद्ध) दो बार किया गया है। सर्वप्रथम सन् १९७१ के मदनगंज-किशनगढ़, अजमेर (राज) के चातुर्मासकाल में वसंततिलका छन्द में तथा द्वितीय पद्यानुवाद श्री शान्तिनाथ दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र रामटेक, नागपुर (महाराष्ट्र) में जहाँ स्व-पर विवेक जागृत होता है तथा स्वात्म में ध्यान करने से अनेक संकट विनष्ट हो जाते हैं, वीर निर्वाण संवत् २५१७ की पौष शुक्ला तृतीया, गुरुवार, २० दिसम्बर, १९९० के दिन यह अनुवाद पूर्ण हुआ। अनुवाद के आरम्भ में मंगलाचरण है जिसमें सुर-नर-मुनियों से पूजित पूज्यपाद स्वामी को नमस्कार किया गया है। जिससे अनुवादकर्ता अनुवाद के साफल्य रूप परम प्रसाद को प्राप्त कर सकें। अनुवाद सर्वथा सटीक है। भाषा, भाव, पादानुक्रम आदि सभी दृष्टियों से इसमें हम निर्दोषता पाते हैं। सत्-शास्त्र के मनन, श्रीगुरु के भाषण, विज्ञानात्मा स्फुट नेत्रों की सहायता से जो साधक यहाँ स्व-पर के अन्तर को जान लेता है वही मानों सभी प्रकार से परमात्मा रूप शिव को जान लेता है। सुधी वही होता है जो इष्टोपदेश का ज्ञान प्राप्त करे और अवधानपूर्वक उसे जीवन में उतारे। मान-अपमान में समान रहे। वन हो या भवन-सर्वत्र साधक को निराग्रही होना चाहिए। उसे चाहिए कि वह निरुपम मुक्ति-सम्पदा पा ले और भवों का नाश कर भव्यता प्राप्त करे। इस प्रकार इसमें अनिष्टकर स्थितियों से निवृत्ति और इष्टकर स्थितियों में प्रवृत्ति की बात है।
  16. भूल क्षम्य हो! लेखक कवि मैं हूँ नहीं, मुझमें कुछ नहिं ज्ञान। त्रुटियाँ होवें यदि यहाँ, शोध पढ़ें धीमान ॥ मंगल कामना बिना-भीति विच सदा वन में ज्यों मृगराज। ध्यान धरूं परमात्म का निश्चल हो गिरिराज ॥१॥ सागर सम गंभीर मैं बनूं चन्द्र-सम शान्त। गगन-तुल्य स्वाश्रित रहूँ हरूँ दीप-सम ध्वान्त ॥२॥ रवि सम पर-उपकार मैं करूँ समझ कर्तव्य। रखें न मन में मान-मद सुन्दर हो भवितव्य ॥३॥ चिर संचित सब कर्म को राख करूं बन आग। तप्त आत्म को शान्त भी करूं बनूं गतराग ॥४॥ सदा संग बिन पवन सम विचरूं मैं निस्संग। मंत्र जपूँ निज तन्त्र का नष्ट शीघ्र हो अंग ॥५॥ तन मन को तप से तपा स्वर्ण बनँ छविमान। भक्त बनू भगवान को, भजू बनँ भगवान ॥६॥ द्रव्य हेय जड़मय तजें, ध्येय बना निज द्रव्य। कीलित कर निज चित्त को पाऊँ शिव-सुख दिव्य ॥७॥ भद्र बनू बस भद्रता जीवन का श्रृंगार। द्रव्य दृष्टि में निहित है सुख का वह संचार ॥८॥ तामस बस प्रतिलोम हो, मुझ में चिर बस जाय। है यह हार्दिक भावना मोह सभी नश जाय ॥९॥ गुरु स्मृति तरणि ज्ञानसागर गुरो!, तारो मुझे ऋषीश। करुणाकर! करुणा करो, कर से दो आशीष ॥ स्थान एवं समय परिचय भव सागर से भीत हैं सागर के सागार। प्रथम बार पहुँचा यहाँ ससंघ मैं अनगार ॥१॥ द्रव्य-गगन-गति-गंध की वीर जयन्ती आज। पूर्ण किया इस ग्रन्थ को ध्येय! बनूं जिनराज ॥२॥
  17. तव गुण-गण की फैल रही है विमल कीर्ति वह त्रिभुवन में। तभी हो रहे शोभित ऐसे वीर देव बुध जन-जन में ॥ कुन्द पुष्प की शुक्ल कान्ति-सम कान्तिधाम शशि हो भाता। घिरा हुआ हो जिससे उडुदल गीत-गगन में हो गाता ॥१॥ सत युग में था कलियुग में भी तव शासन जयवन्त रहा। भव्यजनों के भव का नाशक मम भव का भी अन्त रहा ॥ दोष चाबु को निरस्त करते पर मत खण्डन करते हैं। निज-प्रतिभा से अतः गणी ये जिनमत मण्डन करते हैं ॥२॥ प्रत्यक्षादिक से ना बाधित अनेकान्त मत तव भाता। स्याद्-वाद सब वाद-विवादों का नाशक मुनिवर! साता ॥ प्रत्यक्षादिक से हैं बाधित स्यावाद से दूर रहे। एकान्ती मत इसीलिए सब दोष धूल से पूर रहे ॥३॥ दुष्ट दुराशय धारक जन से पूजित जिनवर रहे कदा। किन्तु सुजन से सुरासुरों से पूजित वंदित रहे सदा ॥ तीन लोक के चराचरों के परमोत्तम हितकारक हैं। पूर्ण ज्ञान से भासमान शिव को पाया अघहारक हैं ॥४॥ समवसरण थित भव्यजनों को रुचते मन को लोभ रहे। सामुद्रिक औ आत्मिक गुण से हे प्रभुवर अति शोभ रहे ॥ चमचम चमके निजी कान्ति से ललित मनोहर उस शशि को। जीत लिया तब काय कान्ति ने प्रणाम मम हो जिन ऋषि को ॥५॥ मुमुक्षु-जन के मनवांछित फलदायक! नायक! जिन तुम हो। तत्त्व-प्ररूपक तव आगम तो श्रेष्ठ रहा अति उत्तम हो ॥ बाहर-भीतर श्री से युत हो माया को नि:शेष किया। श्रेष्ठ श्रेष्ठतम कठिन कठिनतम यम-दम का उपदेश दिया ॥६॥ मोह-शमन के पथ के रक्षक अदया तज कर सदय हुए। किया जगत में गमन अबाधित सभय सभीजन, अभय हुए ॥ ऐसा लगते तब, गज जैसा मद-धारा, मद बरसाता। बाधक गिरि की गिरा कटिनियाँ अरुक अनाहत बस जाता ॥७॥ एकान्ती मत-मतान्तरों में वचन यदपि श्रुति-मधुर सभी। किन्तु मिले ना सुगुण कभी भी नहीं सकल-गुण प्रचुर कभी॥ तव मत समन्तभद्र देव है सकल गुणों से पूरण है। विविध नयों की भक्ति-भूख को शीघ्र जगाता चूरण है ॥८॥ (दोहा) नीर-निधी से धीर हो वीर बने गंभीर। पूर्ण तैर कर पा लिया भवसागर का तीर ॥१॥ अधीर हूँ मुझ धीर दो सहन करूँ सब पीर। चीर-चीर कर चिर लखें अन्तर की तस्वीर ॥२॥
  18. जल वर्षाते घने बादले, काले-काले डोल रहे। झंझा चलती बिजली तड़की घुमड़-घुमड़ कर बोल रहे ॥ पूर्व वैर-वश कमठ देव हो इस विध तुमको कष्ट दिया। किन्तु ध्यान में अविचल प्रभु हो घाति कर्म को नष्ट किया ॥१॥ द्युति-मय बिजली-सम पीला निज फण का मण्डप बना लिया। नाग इन्द्र तव कष्ट मिटाने तुम पर समुचित तना दिया। दृश्य मनोहर तब वह ऐसा विस्मय-कारी एक बना। संध्या में पर्वत को ढकता समेत-बिजली मेघ घना ॥२॥ आत्म ध्यान-मय कर में खरतर खड्ग आपने धार लिया। मोहरूप निज दुर्जय रिपु को पल-भर में बस मार दिया। अचिन्त्य-अद्भुत आर्हत् पद को फलतः पाया अघहारी। तीन लोक में पूजनीय जो अतिशयकारी अतिभारी ॥३॥ मनमाने कुछ तापस ऐसे तप करते थे वनवासी। पाप-रहित तुम को लख, इच्छुक तुम-सम बनने अविनाशी ॥ हम सब का श्रम विफल रहा यो समझ सभी वे विकल हुए। शम-यम-दममय सदुपदेश सुन तव चरणन में सफल हुए ॥४॥ समीचीन विद्या-तप के प्रभु रहे प्रणेता वरदानी। उग्र-वंशमय विशाल नभ के दिव्य सूर्य, पूरण ज्ञानी ॥ कुपथ निराकृत कर भ्रमितों को पथिक सुपथ के बना दिये। पार्श्वनाथ मम पास वास बस, करो, देर अब बिना किये ॥५॥ (दोहा) खास दास की आस बस श्वाँस-श्वाँस पर वास। पाश्र्व करो मत दास को उदासता का दास ॥१॥ ना तो सुर-सुख चाहता शिव-सुख की ना चाह। तव थुति-सरवर में सदा होवे मम अवगाह ॥२॥
  19. ऋद्धि-सिद्धि के धारक, ऋषि हो, प्राप्त किया है निज धन को। शुक्ल-ध्यानमय तेज अनल से जला दिया विधि-ईंधन को ॥ खिले-खुले तव नील कमल-सम, युगल-सुलोचन विकसित हैं। सकल ज्ञान से सकल निरखते भगवन् जग में विलसित हैं ॥१॥ विनय-दमादिक पाप-रहित-पथ के दर्शक तीर्थंकर हो । लोक-तिलक हरिवंश मुकुट हो, संकट के प्रलयंकर हो ॥ हुए शील के अपार सागर, भवसागर से पार हुए। अजरामर हो अरिष्ट नेमी जिनवर! जग में सार हुए ॥२॥ झिलमिल-झिलमिल मणियों से जो जड़ित मुकुट को चढ़ा रहे। तव चरणों में अवनत सुरपति और मंजुता बढ़ा रहे ॥ कोमल-कोमल लाल-लाल तव युगल पाद-तल विमल लसे। तालाबों में खुले-खिले-ज्यों लाल दलों से कमल लसे ॥३॥ शरद-काल के पूर्ण चन्द्र की शुभ्र चाँदनी-सी लसती। पूज्य-पाद की नखावली ये जिनमें जा मम मति बसती ॥ थुति करते नित तव पद में नत प्रभु दर्शन की आस लगी। बुध-ऋषि, जिनको निज आतम सुख की चिर से अतिप्यास लगी ॥४॥ तेज-भानु-सा चक्र-रत्न से जिनके कंधे शोभित हैं। घिरे हुए हैं स्वजन बंधुओं से जो पर में मोहित हैं॥ सघन-मेघ सम-नील वर्ण का जिन का तन जगनामी है। भ्रात चचेरे कृष्ण-राज तव तीन खण्ड के स्वामी हैं ॥५॥ स्वजन-भक्ति से मुदित रहे हैं जन-जन के जो सुखकर हैं। धर्म-रसिक हैं विनय-रसिक हैं इस विध चक्री हलधर हैं ॥ भक्ति-भाव से प्रेरित होकर नेमिनाथ! तव चरणन में। दोनों आकर बार-बार नत होते हर्षित तन-मन में ॥६॥ सौराष्टन में, वृषभ-कंध-सम उन्नत पर्वत अमर रहे। खेचर महिलाओं से सेवित जिसके शोभित शिखर रहें । बादल-दल से जिसके तट भी सदा घिरे ही रहते हैं। जहाँ इन्द्र ने तव गुण लक्षण लिखे, जिन्हें बुध कहते हैं ॥७॥ तव गुण लक्षण धारण करता अतः तीर्थ वह महा बना। ऊर्जयन्त फिर ख्यात हुआ है। पुराण कहते महामना ॥ सुचिर काल से आज अभी भी जिसका वन्दन करते हैं। ऋषि-गण भी अति प्रसन्न होते सफल स्वजीवन करते हैं ॥८॥ बाहर से भी भीतर से भी ना तो साधक बाधक हो। इन्द्रिय गण हो यद्यपि तुममें तदपि मात्र प्रभु ज्ञायक हो ॥ एक साथ जिननाथ, हाथ की रेखा सम सब त्रिभुवन को। जान रहे हो देख रहे हो विगत-अनागत कण-कण को ॥९॥ इसीलिए यति मुनिगण से प्रभु-पद युग-पूजित सुखदाता। अद्भुत से अद्भुत तम आगम-संगत चारित तव साता ॥ इस विध तव अतिशय का चिन्तन करके मन में मुदित हुआ। जिन-पद में अति निरत हुआ हूँ आज भाग्य शुभ उदित हुआ ॥१०॥ (दोहा) नील गगन में अधर हो शोभित निज में लीन। नील कमल आसीन हो नीलम से अति नील ॥१॥ शील-झील में तैरते नेमि जिनेश सलील। शील डोर मुझ बाँध दो डोर करो मत ढील ॥२॥
  20. स्तुत्य रहे या नहीं रहे, फल उसे मिले या नहीं मिले। स्तुति जब करता सज्जन मन में पुण्य-भाव की कली खिले ॥ निजाधीन औ सुलभ मोक्षपथ जग में इस विध बनता हो। पूज्य ईश नमि जिन फिर क्यों ना तव थुति रत बुध जनता हो ॥१॥ परम ब्रह्म रत हो तोड़ा भव-बंधन प्रभु कृत-काम बने। इसीलिए जिन सुधीजनों के बोध-धाम शिव-धाम बने ॥ ज्ञान-ज्योति अति प्रखर किरण ले उदित हुई फलतः तुम में। पर-मत जुगनू सम कुंदित हैं तेज उदित हो रवि नभ में ॥२॥ अस्ति नास्ति औ उभय रूप भी अवक्तव्य भी तत्त्व रहा। अवक्तव्य भी तीन रूप यों सप्त भंगमय तत्त्व रहा ॥ आपस में आपेक्षित बहुविध धर्मों से जो भरित रहा। गौण-मुख्य कर बहुनय-वश वह लोक ईश से कथित रहा ॥३॥ अणु-भर भी यदि षडारम्भ हों वहाँ दया वह नहीं रहे। जीव-दया सो परम ब्रह्म है जग में बुधजन यही कहें ॥ अतः दया की प्राप्ति हेतु प्रभु करुण भाव से पूर रहे। उभय संग तज बने दिगंबर विकृत वेष से दूर रहे ॥४॥ भूषण वसनादिक से रीता नग्न काय तव यों गाता। जीता तुमने काम-बली को जितइन्द्रिय हो, हो धाता॥ तीक्ष्ण शस्त्र बिन निज उर में थित अदय क्रोध का नाश किया। निर्मोही हो अतः शरण दो शान्ति-सदन में वास किया ॥५॥ (दोहा) अनेकान्त का दास हो अनेकान्त की सेव। करूं गहूँ मैं शीघ्र से अनेक गुण स्वयमेव ॥१॥ अनाथ मैं जगनाथ हो नमीनाथ दो साथ। तव पद में दिन-रात हूँ, हाथ जोड़ नत-माथ ॥२॥
  21. मुनि बन मुनि-पथ चलते मुनिपन में दृढ़ हो मुनिनाथ हुए। मुनिसुव्रत प्रभु पाप-रहित हो निज में रत दिन-रात हुए। मुनियों की उस भरी सभा में अनुपम द्युति से शोभ रहे। तारक गण के ठीक बीच ज्यों शोभित शीतल सोम रहे ॥१॥ द्वादश विध खर तप कर तुमने देह-मोह सब भुला दिया। काम रोग को अहंकार को पूर्ण रूप से जला दिया। मोर-कण्ठ-सम सघन नीलिमा फलतः तव तन में फूटी। पूर्णचन्द्र के परितः फैली मण्डल-द्युति पड़ती झूठी ॥२॥ चन्द्र चाँदनी सम धवलित शुचि रुधिर भरा है तव तन में। परम सुगंधित निर्मल तन है ऐसा तन ना त्रिभुवन में ॥ केवल सुख-कर नहीं किन्तु तव तन मन वच की परिणतियाँ। विस्मय जग को सदा करातीं जिन से मिटती चहुँ गतियाँ ॥३॥ युगों-युगों से जड़ चेतन ये जग के पदार्थ सारे हैं। ध्रौव्य-जनन-मय तथा नाशमय लक्षण यथार्थ धारे हैं॥ इस विध तव वाणी यह कहती, सकल विश्व के ज्ञायक हैं। शिव पथ शासन कर्ताओं में कुशल आप ही शासक हैं ॥४॥ निरुपम चौथे शुक्ल ध्यानमय संबल निज में जगा लिया। अष्टकर्म-मल पाप-किट्ट को जला-जला कर मिटा दिया ॥ भवातीत उस मोक्ष-सौख्य का लाभ आपने उठा लिया। करो नाश अब मम भव का भी, मन में तव पद बिठा लिया ॥५॥ (दोहा) मुनि बन मुनिपन में निरत हो मुनि यति बिन स्वार्थ। मुनिव्रत का उपदेश दे हमको किया कृतार्थ ॥१॥ यही भावना मम रही मुनिव्रत पाल यथार्थ। मैं भी मुनिसुव्रत बनू पावन पाय पदार्थ ॥२॥
  22. बने महा ऋषि जब तुम, तुममें सुसुप्त जागृत योग हुआ। लोकालोकालोकित करता अतुलनीय आलोक हुआ ॥ इसीलिए बस सादर आकर अमराकर नर-जगत सभी। जोड़ करों को हुआ प्रणत तव पद में हूँ मुनि जगत अभी ॥१॥ तव तन आभा तप्त स्वर्ण-सी तन की चारों ओर सही। परिमण्डल की रचना करती यह शोभा नहिं और कहीं ॥ वस्तु-तत्त्व को कहने आतुर स्याद्-पद वाली तव वाणी। दोनों मुनिजन को हर्षाती जिनकी शरणा सुखदानी ॥२॥ मनमानी तज प्रतिवादी जन तव सम्मुख हो गतमानी। वाद करे ना कुतर्क करते जब प्रभु पूरण हो ज्ञानी ॥ तथा आपके शुभ दर्शन से हरी भरी हो भी लसती। खिली कमलिनी मृदुतम-सी यह धरा सुन्दरा भी हँसती ॥३॥ शान्त कान्ति से शोभ रहे हैं पूर्ण चन्द्रमा जिनवर हैं। शिष्य-साधु चहुँ ओर घिरे हैं ग्रह-बन गणधर मुनिवर हैं॥ तीर्थ आपका ताप मिटाता अनुपम सुख का हेतु रहा। दुखित भव्य भव-पार कर सके भव-सागर का सेतु रहा ॥४॥ शुक्ल-ध्यानमय तपश्चरण के दीप्त अनल से जला जला। राख किया कटु पाप कर्म को तभी तुम्हें शिव किला मिला ॥ शल्य-रहित कृत-कृत्य बने हो मल्लिनाथ जिनपुंगव हो। चरणों में दो शरण मुझे अब भव-भव पुनि ना संभव हो ॥५॥ (दोहा) मोह मल्ल को मार कर मल्लिनाथ जिनदेव। अक्षय बनकर पा लिए अक्षय सुख स्वयमेव ॥१॥ बाल ब्रह्मचारी विभो बाल समान विराग। किसी वस्तु से राग ना तव पद से मम राग ॥२॥
  23. किसी पुरुष के अल्प गुणों का बढ़ा-चढ़ा कर यश गाना। जग में बुधजन कविजन कहते स्तुति का वह है बस बाना॥ पूज्य बने हो ईश बने हो अगणित गुण के धाम बने। ऐसी स्थिति में आप कहो फिर कैसे स्तुति का काम बने ॥१॥ यदपि मुनीश्वर की स्तुति करना रवि को दीपक दिखलाना। तदपि भक्ति-वश मचल रहा मन कुछ कहने को अनजाना ॥ तथा अल्प भी जो तव यश का भविक यहाँ गुण-गान करें। शुचितम बनता, क्यों ना हम फिर तव थुति-रस का पान करें ॥२॥ चौदह मनियाँ निधियाँ नव भी चक्री तुम थे तुम्हें मिली। हाथी घोड़े कोटि, नारियाँ कुछ कम लाखों तुम्हें वरी ॥ मुमुक्षुपन की किन्तु किरण जो तुममें जगमग जभी जगी। सार्वभौम पदवी भी तुमको जीरण तृण सम सभी लगी ॥३॥ सविनय द्वय नयनों से तव मुख छवि को जब अनिमेष लखा। किन्तु तृप्त वह हुआ नहीं पर लख-लख कर अमरेश थका ॥ सहस्र लोचन खोल लिये फिर निजी ऋद्धि से काम लिया। चकित हुआ तब अंग-अंग का प्रभु दर्शन अभिराम किया ॥४॥ मोहरूप रिपु-भूप, पाप-का-बाप, ताप का कारक है। कषाय-मय सेना का चालक, चेतन निधि का हारक है॥ समकित-चारित-भेदज्ञानमय कर में खर तर-वार लिया। किया वार निज मोह-शत्रु पर धीर आपने, मार दिया ॥५॥ तीन लोक को अपने बल पर जीत विजेता बना हुआ। काम समझ यों लोक-ईश मैं व्यर्थ गर्व से तना हुआ ॥ धीर वीर जिन किन्तु आप पर प्रभाव उसका नहीं पड़ा। लज्जित होकर शिशु-सा आकर तव चरणों में तभी पड़ा ॥६॥ इस भव में भी पर भव में भी दुस्सह दुख की है जननी। तृष्णा रूपी नदी भयंकर यह नरकों की वैतरणी ॥ इसका पाना पार कठिन है कई तैरते हार गये। वीतराग-मय ज्ञान-नाव में बैठ किन्तु प्रभु पार गये ॥७॥ सदा काल से काल जगत को रुला रहा था सता रहा। जन्म-रोग को मित्र बनाकर जीवन अपना बिता रहा ॥ महाकाल विकराल किन्तु प्रभु काल आपने विकल किया। कुटिल चाल को छोड़ काल ने सरल चाल में बदल दिया ॥८॥ शस्त्रों, वस्त्रों, पुत्र, कलत्रों, आभरणों से रहित रहा। विराग विद्या दया दमन से पूर्ण रूप से सहित रहा ॥ इस विध जो तव रूप मनोहर मौन रूप से बोल रहा। धीर! रहित हो सकल दोष से तव जीवन अनमोल रहा ॥९॥ तव तन की अति प्रखर ज्योतिमा फैल रही चहुँ ओर सही। फलतः बाहर सघन तिमिर सब भगा, हुआ हो भोर कहीं ॥ इसी तरह निज शुद्धातम की परम विभा से नाश किया। मोह-मयी अतिघनी निशा का, निज-घर शिव में वास किया ॥१०॥ सकल विश्व का जानन-हारा तुममें केवलज्ञान हुआ। समवसरण आदिक अनुपम तन अतिशय आविर्मान हुआ। पुण्य-पाकमय इस अतिशय को भविकजनों ने निरखा हो। तव पद में नत क्यों ना होवे दोष गुणन को परखा हो ॥११॥ जिसकी भाषा, उस भाषा में उसको समझाती वाणी। अमृतमयी है जिनवाणी है ज्ञानी कहते कल्याणी ॥ समवसरण में फैल सभी के कर्ण तृप्त भी है करती। सुधा जगत में जिस विध, जन-जन को सुख दे सब दुख हरती ॥१२॥ अनेकान्त तव दृष्टि रही है सत्य तथ्य बुध-मीत रही। तथ्य-हीन एकान्त दृष्टि है औरों की विपरीत रही ॥ एकान्ती का जो कुछ कहना असत्य भी है उचित नहीं। और रहा निज मत का घातक इसीलिए वह मुदित नहीं ॥१३॥ पर मत की कमियों को लखने नेत्र खोलकर जाग रहे। निज-कमियाँ लख भी नहिं लखते जैसे सोते नाग रहे ॥ निज-मत थापित पर-मत बाधित करने में भी निर्बल हैं। तापस वे नहिं समझ सकेंगे तव मत जो अति निर्मल हैं ॥१४॥ एकान्ती जन दोष-बीज ही सदा निरन्तर बोते हैं। निज मत घातक दोष मिटाने सक्षम नहिं वे होते हैं। अनेकान्त तव मत से चिढ़ते आत्महनक हैं बने हुए। अवक्तव्य ही “तत्त्व सर्वथा'' जड़ जन कहते तने हुए ॥१५॥ अवक्तव्य वक्तव्य नित्य या अनित्य ही यह वस्तु रही। सदसत् या है एक रही या अनेक अथवा वस्तु रही ॥ कहें सर्वथा यों नय करते वस्तु तत्त्व को दूषित हैं। पोषित करते, किन्तु आपके स्याद् पद से नय भूषित हैं ॥१६॥ प्रमाण द्वारा ज्ञात विषय की सदा अपेक्षा रखता है। किन्तु ‘‘सर्वथा नियम' रखे बिन वस्तु-भाव को चखता है॥ ऐसा स्याद् पद परमत का नहिं तव मत का शृंगार रहा। अतः सर्वथा पद ही परमत निजमत को संहार रहा ॥१७॥ प्रमाण नय साधन से साधित अनेकान्त-मय तव मत में। अनेकान्त भी अनेकान्त हैं जिसका सेवक अवनत मैं ॥ पूर्ण वस्तु को विषय बनाते प्रमाण-वश नैकान्त बने। वस्तु-धर्म हो एक विवक्षित, नय-वश तब एकान्त तने ॥१८॥ निराबाध औ निरुपम शासन के शासक गुण-धारक हो। सुखद-योग-गुण-पालन का पथ दिखलाते अघ-मारक हो ॥ इन्द्रिय-विजयी धर्म तीर्थ के हे अर जिन तुम नायक हो। तुम बिन, भविजन हितपथ दर्शक, अन्य कौन? सुखदायक हो ॥१९॥ आगम का भी अल्प ज्ञान है पूर्ण ज्ञान वह मिला नहीं। मंद बुद्धि मम, विशद नहीं है भक्ति-भाव भर मिला यहीं ॥ मानस आगम-बल से फिर भी जो कुछ तव गुणगान किया। पाप-शमन का हेतु बनेगा वरद! यही अनुमान लिया ॥२०॥ (दोहा) नाम-मात्र भी नहिं रखो, नाम-काम से काम। ललाम आतम में करो, विराम आठों याम ॥१॥ नाम धरो अर नाम तव, अतः स्मरूँ अविराम। अनाम बन शिव-धाम में, काम बनू कृत-काम ॥२॥
  24. चक्री बन शासित नरपों को प्रथम किया यश सुख पाने। तीर्थंकर बन धर्म-चक्र, फिर चला दिया निज-घर जाने ॥ जरा जनन मृति रोग मिटाने सदय स्वजीवन बना लिया। कुन्थु कृमी आदिक जीवों पर, कुन्थु जिनेश्वर दया किया ॥१॥ स्वभाव से ही तृष्णा-ज्वाला सदा धधकती वह जलती। भोग्य वस्तुएँ भले भोग लो तृष्णा बुझती नहिं बढ़ती ॥ विषय-सौख्य तो निमित्त केवल, हर सकते! तन-ताप भले। विमुख हुए हैं अतः विषय से, मुनि बन, शिव-पथ आप चले ॥२॥ कष्ट साध्य बहु बाह्य तपों से तन को मन को जला दिया। आभ्यंतर तप उद्दीपित हो यही प्रयोजन बना लिया ॥ आर्त ध्यान को, रौद्र ध्यान को, पूर्ण ध्यान से हटा दिया। धर्म ध्यान में, शुक्ल ध्यान में, क्रमशः निज को बिठा दिया ॥३॥ रत्नत्रयमय होम-कुण्ड को योग अनल से तेज किया। होमा जिसमें घाति कर्म को यम-पुर रिपु को भेज दिया। अतुल वीर्य पा सकल ज्ञेय के प्रतिपादक आगम-कर्ता। विलस रहे प्रभु मेघ-रहित नभ में जिस विध रवि तम-हर्ता ॥४॥ विद्या-धन का निधान दुर्लभ मुनिवर! तुममें अहा खुला। ब्रह्मा महेश आदिक को पर जिसका कण भी कहाँ मिला ॥ अमित-अमिट हो स्तुत्य बने हो जन्म-रहित जिन देव! तभी। निज हित-इच्छुक अतः सुधी ये तुम्हें भजे स्वयमेव सभी ॥५॥ (दोहा) ध्यान-अग्नि से नष्ट कर, प्रथम पाप परिताप। कुन्थुनाथ पुरुषार्थ से, बने न अपने-आप ॥१॥ ऐसी मुझपे हो कृपा, मम मन मुझमें आय। जिस विध पल में लवण है, जल में घुल मिल जाय ॥२॥
  25. प्रजा सुरक्षित कर रिपुओं से निजी राज्य अविभाज्य किया। सुचिर काल तक प्रतापशाली अजेय राजा राज्य किया। स्वयं आप पुनि मुनि बन वन में पापों का अतिशमन किया। शान्तिनाथ जिन! दया-धाम हो शान्ति-रमा से रमण किया ॥१॥ पुण्य-पुरुष चक्री बन तुमने चक्र दिखा कर डरा दिये। छहों खण्ड के नराधिपों को पूर्ण रूप से हरा दिये ॥ समाधि-मय निज दिव्य चक्र पुनि मोह-शत्रु पे चला दिया। दुर्नय-दुर्जय दुष्ट क्रूर को मिट्टी में बस मिला दिया ॥२॥ राजाओं-के-राजा बन कर राजसभा में राजित थे। लघु राजाओं के सुख-साधन तुम पर ही निर्धारित थे॥ किन्तु पुनः जब निजाधीन हो आर्हत् पद को प्राप्त हुए। अगणित अमरासुर-पतिगण में हुए सुशोभित, आप्त हुए ॥३॥ नरेन्द्र जब थे, नरपति–दल ने तब चरणों में शरण लिया। सदय बने जब मुनिवर तुमको दया-धर्म ने नमन किया ॥ पूज्य बने जिन तव पद युग में सुरदल आ प्रणिपात हुआ। ध्यानी बनते, कर्म विनसता, हाथ जोड़, नत-माथ हुआ ॥४॥ निजी दोष सब पूर्ण मिटा कर, प्रथम प्रशम बन शान्त हुए। शान्ति दिलाते शरणागत को, सुचिर काल से क्लान्त हुए ॥ शान्तिनाथ जिन! शान्ति-विधायक, शान्त मुझे अब आप करो। शरण, चरण में मुझे दिला कर भव-भव का मम ताप हरो ॥५॥ (दोहा) शान्तिनाथ हो शान्त, कर सातासाता सान्त। केवल,केवल-ज्योतिमय,क्लान्ति मिटी सब ध्वान्त ॥ १॥ सकल ज्ञान से सकल को जान रहे जगदीश। विकल रहे जड़ देह से विमल नमूं नत शीश ॥२॥
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