आगम की नीतियों से प्रीति की परम्परा पुरातन परम्परा का घोषक है। आगम के वाक्य को अक्षरशः पालन करने की परम्परा ही स्पष्टवादी नीति का निर्धारण करने वाली दिगम्बर आम्नाय की स्वच्छ परम्परा रही जहाँ पर शिथिलता का अनुसरण न कर स्पष्ट साफ सुथरी समीचीन अर्थात् सही रूप को धारण कर कर्म के खण्डन की ओर दृष्टि रखने वाले गुरुदेव जैसी साधना, चर्या, मूलाचार, आचारसार, मूलाराधना, भगवती आराधना, षट्खण्डागम, श्रीधवल, श्री जयधवल इन आद्य ग्रन्थों में जो चर्या व्यवस्था उसी के अनुसार स्पष्ट रूप से चलना और चलाने का कार्य चल रहा है। कभी चर्या के मामले में समझौता नहीं करते उनकी स्पष्ट नीति है। सामायिक के समय सामायिक करो, प्रतिक्रमण के समय प्रतिक्रमण करो। मौन के समय गुप्ति का पालन करो, आहार चर्या के समय आहार करो। केशलोंच के निर्धारित समय के अनुसार अपनी क्षमता के बल के अनुसार उत्तम-मध्यम-जघन्य रीति से करने की नीति से चला करते हैं। यही कार्य की कुशलता कुशलक्षेम का परिचायक बनती है। मोक्षमार्ग अपने सहारे का स्वाश्रित मार्ग है, गुरु तो एक निमित्त मात्र हैं। कर्ता तो साधक ही है जो साधन के अभाव में साधना की मुख्यता को स्थान देता है। उसी में गुरु को प्रीति उत्पन्न होती है यह स्पष्ट तय हो चुका है। आचार्य विद्यासागर साधना के क्षेत्र में कठोरता के परिचायक साधक के रूप में चतुर्थकालीन चर्या के परिपालक आचार्यों की श्रेणी में गिने जाते हैं। रात-दिन के भेद को छोड़ मार्ग की थकान को छोड़ आत्मध्यान की लगन की परिशीलता में जतन के समान कर्मों के पतन की नीति इन ५० वर्षों में संघ और समाज श्रावक-श्राविकायें, मुनि-आर्यिका सबके लिये व्रत की नीति के स्पष्ट पालन के संकेत जारी होते रहे हैं।