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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. दीपक प्रकाश देता है, मशाल भभका देती है, मोमबत्ती जलकर पिघल जाती है। ये सभी लोगों के देखने में, ज्ञान में आता ही है। दीपक प्रकाश दे रहा है। ऊर्ध्वगमन का संकेत दे रहा है। दीपक की लौ के समान अडिग बने रहो। मशाल जलती जरूर है पर प्रकाश नहीं देती है। अपने अंदर से कालिमा किट्टिमा को जरूर उगलती है। मोमबत्ती जलती मगर पिघल जाती है। मानों अपने ही जीवन को समाप्त कर लेती है। लेकिन एक दीपक ऐसा होता है जिसमें से प्रकाश निकलता है तो पहले वह स्वयं प्रकाशमान व्यक्ति प्रकाशित होता है फिर औरों को प्रकाश प्रदान कर प्रकाशित होता है। इसे ही स्व-पर प्रकाशक कहते हैं। प्रज्ञा-प्रदीपवत् ज्ञान से मिथ्याज्ञान को समाप्त कर सम्यग्ज्ञान में परिवर्तित हो जाता है। मानों उस आत्मा में सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हो गई फिर क्या, फिर वह सम्यक्चरित्र से बाह्य और अभ्यन्तर में प्रकाश का पुंज बन जाता है। गुरुदेव की प्रज्ञा छैनी के द्वारा जो भी मूर्तियाँ तराशी जाती हैं, वे निर्दोष चारित्र को धारण कर आगम की प्रज्ञा से परिपूरित होती हैं। अपनी ही प्रज्ञा शिष्यों के अन्दर भरने की कला में एक कुशल शिल्पी की तरह हमें दृश्यमान होते हैं। यह प्रज्ञा ऊर्ध्वगमन स्वभाव की प्राप्ति में सहकारी कारण बनती है, यह आत्म प्रज्ञा ही चेतन समयसार की उपलब्धि का विशेष साधन बनती है। जब साधक लगातार निरीहवृत्ति के साथ ध्यान का आलम्बन लेता है। आत्मा में एक ऐसे प्रकाश का उद्भव होता है जो बाह्य जगत् में आकर भी अन्दर बना रहता है। इन ५० वर्षों में गुरुदेव ने आत्म प्रज्ञा का प्रकाश आगम का ज्ञान इस लोक के लिए प्रदान कर जीवों का परलोक सुधार दिया।
  2. प्राचीन धर्म की धारा में बहते हुए चलना, चतुर्थकालीन चर्या का बीड़ा उठाकर दिगम्बरत्व का पालन करना हीन संहनन के साथ, यह प्रत्येक श्रमण के मन की मन:स्थिति में नहीं आ पाता तो शिथिलाचार का जगत् फैलता हुआ दिखाई देने लगता है। आचार्य श्री कुन्दकुन्ददेव ने अपनी चर्या से शिथिलाचार का खण्डन कर श्रमण परम्परा को प्रवाहमान बनाये रखा। इसी को आगे बढ़ाने वाले श्रमण नायक आचार्य गुरुदेव हैं। उनके पास कोई घोड़ा नहीं, गाड़ी नहीं, चौका नहीं, चूल्हा नहीं, दास नहीं, दासी नहीं, बस इन सबसे मन में उदासी अवश्य है। कूलर नहीं, पंखे का प्रयोग नहीं, हीटर का प्रयोग नहीं, बल्कि चटाई और त्राण का भी त्याग। इनकी साधना का अंग है। केशलोंच करने का आदेश अपने संघ में अपने ही हाथ से करने का बनाये रखा है। नौकर के द्वारा नहीं, अपने हाथ को ही अपना नौकर बना लो और केशलोंच कर लो। दर्पण देखकर केशलोंच नहीं करना, न संघ में कोई मुनिराज टार्च का, मोबाइल, लेपटॉप प्रयोग नहीं करते। यही प्राचीन व्यवस्था बिना बताये आना-जाना करते हैं। बिना तिथि के अतिथि बन नगर, ग्राम में प्रवेश करना, इनकी यह गुण संहिता हुआ करती है। रात में लाइट जलाकर कभी अध्ययन नहीं करते हैं, इसका निषेध करते आये हैं, जनसम्पर्क से दूर रहने वाला साधक ही आचार्य कुन्दकुन्द को मानने वाला हो सकता है। संघ के निजी पाटे, तख्त सिंहासन नहीं होते हैं। यह तो श्रावक संघ की व्यवस्था होती है न कि आचार्य मुनिसंघ की शिथिलाचार से दूर हैं। इसलिए अपने आत्म स्वभाव से भरपूर हैं। दुनियाँ के कामों से परिग्रह से बहुत दूर हैं इसलिए सबके पूज्य हैं। इन ५० वर्षों में परिग्रह से दूर रहकर श्रमण संस्कृति को प्राण प्रदान किये हैं।
  3. निन्दा, आलोचना पर के दोषों पर दृष्टि बनाये रखना, ये सब अवगुण है। इन सब अवगुणों से दूरी बनाये रखना ही आत्मनिष्ठावान साधक के पहचान चिह्न हुआ करते हैं। दूसरे के दोष देखकर मौन होना यह गुण आत्मा में आत्मसात करने वाला दोषों के परिमार्जन के लिए आगम में कथित उपगूहन अंग का प्रयोग करता है। यदि धर्मात्मा अपने पथ से गिर रहा हो, उसे पथ में बनाये रखने के लिए स्थितिकरण अंग का प्रयोग करते हैं। यदि किसी के दोष देखने में आ जाये तो उसे एकान्त में बुलाकर धर्म की समझाइस देना यह धर्म का समझौता करने वाला मार्ग हुआ करता है। गुरुदेव के अन्दर पैशून्य भावों से भी दूरी बनाये रखने का गुण है। वे निन्दा तो करते ही नहीं लेकिन दूसरे की चुगली भी नहीं करते। भले प्रसन्नता करते हुए तो देखा जा सकता है। शिष्यगण दोषों का प्रायश्चित लेने आते हैं तो उन्हें प्रायश्चित देकर उनके दोषों का विसर्जन कर उसे भी अपने मन मस्तिष्क से निकाल देते हैं। उसके प्रति पूर्ववत् ही प्रेम वात्सल्य उनके मन, वचन, काय में बना रहता है। वे दूसरों की शिकायत के अनुसार दण्ड नहीं देते। दोष करने वाला जब तक अपने दोषों को स्वीकार कर निन्दा, आलोचना नहीं करता। बार-बार प्रायश्चित माँगने पर फिर कहीं मिलता है। मंच से या एकान्त में दूसरे साधु की, पर धर्म की निन्दा या दोष की बात उनके मन के स्थल में कभी भी उत्पन्न नहीं होती। दूसरों की निन्दा सुनना उन्हें पसन्द नहीं, जिन पत्र-पत्रिकाओं में निन्दा, आलोचना के समाचार छपते हैं। उन्हें अपनी टेबिल में स्थान नहीं देते। शिष्यों के लिए भी छूने का निषेध करते हैं क्योंकि उससे पाप-वैर द्वेष भाव ही उत्पन्न होने वाला है। इन ५० वर्षों में गुरुदेव की छवि जैन जगत् में जैनेत्तर जगत् में एक सुलझे हुए साधु की श्रेणी में रही है।
  4. जो आत्मा के भेदविज्ञान में मर्मज्ञ होते हैं, वे ही जिनवाणी के रहस्य को जानने वाले सार तत्त्व को प्रकट करने वाले श्रुत के अभ्यासी, वाचना, पृच्छना, आम्नाय, धर्मोपदेश, अनुप्रेक्षा इन पाँचों अंगों को जानने वाले इनके अनुरूप चलने वाले, चलाने वाले, मुहूर्त-मुहूर्त श्रुत का चिन्तन करने वाले चिन्तकाचार, श्रुताचार, शब्दाचार, श्रोताचार, मंत्राचार, श्लोकाचार, टीकाचार दोहाचार, इन शब्दों के खिलाड़ी राख शब्द का खरा है। राही शब्द का हीरा ऐसे आगम मनीषी गुरुदेव जिनवाणी को आत्मा की खुराक बना बैठे हैं। गूढ़ से गूढ़, आगम सूत्र को सहज सुलझाने वाले, शंका का जवाब बिना रुके क्षणमात्र में आगम की युक्तियों से, तर्को से श्रोताओं को, विद्वानों को, शिष्य-शिष्याओं को संतोष प्रदान करने वाले, संतोष धन के दाता, जिनधर्म के विधाता, जैन शास्त्रों के सच्चे प्रहरी, जिनवाणी के अनुरूप अर्थ को प्रदान करने वाले आप अर्थाचार हैं। आपके ऊपर देश के बहुत सारे लोगों ने पी-एच डी० करके डॉक्टर की उपाधि प्राप्त कर आपके चारित्र को जैनेत्तरों तक पहुँचाने का प्रयास किया है। आपकी काव्यकला साहित्यकारों को मनमोहक जान पड़ती है। जो भी पढ़ता है वह जैन जगत् से प्रभावित हो जाता है। आप णमो अरिहंताणं की ध्वनि से पशुओं में सम्यग्ज्ञान प्रदान करने वाले जीव रक्षक संत शिरोमणि के रूप में जाने जाते हैं। जापानी कविता हाइकू लगभग ५०० की तादाद में सत्रह अक्षरों वाली मुनियों की प्रिय कविता बन गई है। गुरु महाराज का अनुकरण करके हाइकू छन्द में कविता लिखने के लिए कटिबद्ध हुए। इस प्रकार ५० वर्षों से जैन साहित्य हिन्दी साहित्य की सेवा करने वाले कन्नड़ भाषी गुरुदेव हिन्दी, बुन्देली बोलने में निष्णात जान पड़ते हैं।
  5. दुनियाँ के अन्दर युग के प्रारम्भ से लेकर आज तक खोज प्रारम्भ है, कोई अणु की, परमाणु की खोज करता रहा, वनस्पति में जीव खोजता रहा, आत्मा को पकड़ने का प्रयास करता रहा। इन सब बातों से यही ज्ञात होता है कि सारे वैज्ञानिक लोग आत्म तत्त्व से अनभिज्ञ रहे। बाह्य जगत् में ही गोते लगाते रहे। पर कुछ लोग ऐसे होते हैं जो बाह्य में नहीं, अन्तरंग में खोजते हैं। वे ही अंतर्यामी अन्दर की बात को जानते हैं। आत्म-दृष्टा बाह्य जगत् को नहीं अपने ही गिरेवान में झाँकने के लिए अभ्यस्त बना रहता है। यही अभ्यस्तता उसका अभ्यास बन जाती है। यह अभ्यास ही जग की नीरसता आत्मा की रसता जैसी स्थिति बन जाती है। रुचि से नहीं खाता- पीता। आत्म साधना करना है। इसलिए यह समझकर शरीर को साधना का माध्यम समझ कर थोड़ा बहुत डालकर फिर अपने में आ जाता है। देह से नहीं विदेह में जाने का पुरुषार्थ बनाये रखता है। भीड़ में रहकर भीड़ से अपरिचित बने रहना, परिचित भी, अपरिचित सा लगने लगे तो समझ में आता है, शरीर से बैठे हुए भी उससे दूर बैठे नजर आते हैं, जिनका दर्शन करने से आत्मा को खोजने वाला क्षणिक अंतर्मुखी बने बिना रहता नहीं है। इनकी वीतरागता की छवि में ही मानों खो जाता है। राग रंग से प्रयोजन नहीं, आत्मा में चेतना की अनुभूति में शुद्ध निश्चय नय के श्रमणों की भाँति दुनियाँ की बात को श्रवण नहीं करते। सुनकर भी अनसुना कर देते हैं। तत्त्वज्ञान की सम्यक् ज्ञान की बातों को कान लगाकर सुनते हैं। इन ५० वर्षों में गुरुदेव ने समाज की नहीं आत्मा की सुनकर समाज के लोगों को शिष्यशिष्याओं को श्रावकों को एक नई दिशा प्रदान करने वाले आत्मबोध साधक के रूप में जाने जाते हैं।
  6. शिष्यों के निवेदन पर कृपा के वरदान का वरदहस्त सहज ही शिष्य के माथे की शोभा बना देता है। जैसे आचार्य ज्ञानसागरजी ने विद्यासागरजी के ऊपर अनुग्रह कर यही वचन दिया था, संघ को गुरुकुल बना देना। गुरु के अनुग्रह की परम्परा को कायम रखने का क्रम लगातार आचार्य श्री ज्ञानसागरजी के समाधि के बाद से चल रहा है। जब भी शिक्षा-दीक्षा देते हैं, तब यही कहते हैं। मैं कुछ नहीं कर रहा हूँ, सब गुरुदेव करवा रहे हैं। सब कुछ करते हुए भी कर्ता बुद्धि से दूर रहते हैं और कार्य की ओर दृष्टि बनाये रखते हैं। मन्द बुद्धि शिष्य को देखकर भगाते नहीं है उसे भी चरणों में स्थान देकर उसके क्षयोपशम ज्ञान, दर्शन, चारित्र में बढ़ोत्तरी करने का क्रम बनाये रखते हैं। जैसे मैं मन्द बुद्धि उनका शिष्य, उन्हीं की कृपा का पात्र बन रत्नत्रय से शोभित हो, आत्म साधना से जीवन का उपकार करने में लगा हुआ हूँ। शिष्य यदि रूठ जाता है, उसे मनाने में इतने चतुर हैं, जैसे एक माँ अपने रूठे हुए बेटे को मनाकर दूध पिलाकर सुला देती है ऐसे ही गुरुदेव जो लोग संसार से रूठ कर आपके श्रीचरणों में मोक्षलक्ष्मी के प्राप्त करने आये हैं, आप उन्हें जिनवाणी सुनाकर आत्मा के तत्त्व में सुला देते हैं, जिससे भवसागर में रोने की पीड़ा उसकी समाप्त हो जाये। शिष्य की योग्यता के अनुसार ही उसके कार्य के निवारण के लिए उसके कार्य के विभाजन की शैली में आप पारंगत हैं। जो भी आता है संसार की मोह माया को भूल जाता है। आपके धर्म राग में रम जाता है। शिष्यों के संग्रह की चिन्ता से विमुक्त रहते हैं। उसकी योग्यता के अनुसार परीक्षण करके योग्य स्थान में स्थित करने के लिए आपकी प्रज्ञा की छैनी के द्वारा समय आने पर वह वीतराग चारित्र की प्रतिमा बन जाता है। ५० वर्षों में भीड़ नहीं भीड़ से हीरों को निकालकर तराशने के कार्य में श्रेष्ठ शिल्पी साबित हुए।
  7. दुनियाँ के मार्ग में सुख सुविधाओं की सम्पन्नता सहज ही देखने में आ जाती है। लेकिन जैनदर्शन में सुख सुविधा का परित्याग कर साधना करने का संदेश वीर प्रभु के द्वारा प्राप्त है। इसे असिधारा व्रत कहते हैं। यह तलवार की धार पर चलने जैसा कार्य है। शीतकाल हो या ग्रीष्मकाल हो स्थिति भोजन की शर्त है अर्थात् एक जगह खड़े होकर एक ही बार में भोजन व पानी ग्रहण करना वो भी ३२ अन्तराय, ४६ दोषों को टालकर। आचार्य कहते हैं अब नानी तो याद नहीं आ रही है। एक दिन का नहीं यह सारी जिन्दगी भर का व्रत है। इसे ही यावज्जीवन कहते हैं। व्रत यमरूप होता है, नियमरूप नहीं। नियम समय की मर्यादा को लेकर चलता है। यम जब तक घट में श्वास है, तब तक के लिए। चाहे मच्छर हो, मक्खियाँ हों, चींटी हों, शरीर का स्पर्श होने पर पिच्छिका से परिहार तो कर सकते हैं, जो नहीं करते हैं वो इस परीषह को सहन करने वाले होते हैं। नग्नता के मन में लज्जा का भाव नहीं आता है। विषयों में प्रत्येक क्षण अनासक्त भाव बना रहता है। स्त्रियों के हाव-भाव से प्रयोजन रहित विकथाओं से दूरी ही इनका धर्म है। चर्या की कठोरता में कोई समझौता नहीं और सिंहवृत्ति से पालन करना, इसे वीर चर्या संज्ञा प्रदान है। आसन की निश्चलता एक जगह बैठने पर प्रतिमायोग स्थिति कायम हो जाती है। शय्या अर्थात् बैठने, उठने का स्थान इसमें कोई चयन नहीं, जब भी लेटेंगे तो एक पार्श्व से दण्डवत् शयन करना। कटु वचन में समता, मारो काटो फिर भी आत्मा का कुछ नहीं बिगड़ता है, इस भाव में जीना समयसार का भाव है। याचना-माँगने करने की तो बात ही नहीं है। रोग के दिनों में समतारस का पान करना। मार्ग में चलते समय कोई चुभन हो जाये तो चेहरे पर मुस्कान बनी रहती है।मल परीषह, सत्कार, पुरस्कार, ज्ञान-अज्ञान, अदर्शन आदि में ५० वर्षों में साम्य भाव, अहंकार रहितता का दर्शन हुआ है।
  8. वीर प्रभु के कथन के अनुसार इस युग में मुनि धर्म की पालना चल रही है। इसी का अनुकरण करते हुए गुरुदेव अपनी चर्या को शुद्ध-विशुद्ध बनाते हुए चल रहे हैं। जब वे प्रतिक्रमणमय हो जाते हैं, उस समय प्रतिक्रमण से ध्वनि निकलती है। णवण्हंबंभचेरगुत्तीर्ण अर्थ यह हुआ-नव कोटी से ब्रह्मचर्य का पालन करना, मन, वचन, काय, कृत, कारित, अनुमोदना के गुणात्मक रूप में अपने ब्रह्मचर्य व्रत को मनोबल के साथ बढ़ाते चलते हैं। कभी भी इन्द्रियों की चंचलता दृष्टिगत नहीं हो पाती क्योंकि वासना उनके ऊपर प्रहार नहीं करती। वे स्व तत्त्व जिसे ज्ञान, दर्शन से युक्त कहा जाता है जो आत्मा में ही लगा रहता है। उनकी चेतन अनुभूतियाँ आत्मा के अन्दर यों ही खेलती रहती हैं, जिन्हें साधक भी नहीं जान पाता। वे अपने में लगे हैं। इसलिए निरपराधी हैं, सार इसी में है बाकी तो सब सार में बंधे हुए के समान हैं (पशु बाँधने का स्थान) और आगे ऋद्धियों का वर्णन पूर्वाचार्यों ने किया है, जिसे तप ऋद्धि कहते हैं यह तप ऋद्धि उन्हें प्राप्त होती है, जो श्मशान में पहाड़ों की गुफा में घनघोर जंगलों में भीड़ से दूर स्थानों में रहकर अनशन तप, कायक्लेश, आतापन योग, ऊनोदर तप, नीरस आहार, न चटाई आदि का प्रयोग, बिना आरम्भ परिग्रह की साधना में लगे रहते हैं। उन्हें णमो घोरगुणबंभयारीणं यह ऋद्धि प्राप्त हो जाती है, जो गुरुदेव के तप में झलकती है। इसे घोर पराक्रम कहते हैं इसी ऋद्धि के प्रसाद से अखण्ड ब्रह्मचर्य की प्राप्ति होती है जिसे घोर ब्रह्मचारी कहते हैं। ५० वर्षों की अखण्ड साधना बाह्य-अभ्यन्तर जगत् में सफलता को देने वाली सिद्ध हुई है। यही शिक्षा शिष्य-शिष्याओं के लिए प्रदान कर महिलाओं से पुरुषों से बोलने का निषेध कर संदेश हमेशा देते रहते हैं।
  9. जिनधर्म, जिनागम, जिन तीर्थंकर प्रभु की आज्ञा का पालन यही धर्ममार्ग का कर्तव्य पालन है। वास्तव में धर्ममय जीवन जीने की राह है। आज्ञा में मनमर्जी नहीं, तन की अनुकूलता नहीं, धर्म का परिपालन करने के लिए मन, वचन, काय को समाहित करने में कुशल शिल्पी की तरह आगम सूत्रों के अनुरूप परिपालन करने वाले गुरुदेव आचार्य भगवन् बिना शिथिल हुए आगम की वाणी को अपने शिष्यों को घुट्टी बनाकर पिलाते हैं। बेटा, यदि तुम प्रभावना नहीं कर सकते तो अप्रभावना मत करना। उत्तर गुणों की परिपालना तभी करना जब मूलगुण निर्दोष रीति से पल रहे हों। उत्तरगुणों को दिखाने के लिए नहीं आत्मा में लब्धिस्थान, विशुद्धिस्थान बढ़ाने के लिए है। यात्रा वही, भली प्रकार मानी जाती है, जिसमें कोई दुर्घटना न हो। भले देर हो जाये कोई बात नहीं, मोक्ष जब मिलेगा, तब मिलेगा उसके फल की ओर नहीं, अपने कर्तव्य के प्रति सजगता ही आगम दर्पण है। दर्पण लोगों को नहीं देखता, लोग दर्पण में देखते हैं, इसी प्रकार लोग गुणों को नहीं दोषों को जल्दी देख लेते हैं। इसलिए सावधानी से क्रिया करो भले देर हो लेकिन कार्य भला ही हो। आगम में ३२ अन्तरायों के पालने की, ४६ दोषों के टालने की जो आज्ञा है, यह बिना प्रमाद के नित्य चलती रहना, इसमें बुद्धि का आयाम नहीं लगाना। यह आज्ञाविचय धर्मध्यान है। जैसा कहा वैसा पालन करो तो साधना साधक को भगवान् बनाये बिना नहीं रुक सकती है। भक्त तुम्हारी भक्ति तभी तक करता है। जब तक तुम भगवान् की बात मानते हो। गुरुदेव ने इन ५० वर्षों में जिनवाणी के एक-एक सूत्रों को आत्मसात किया है। यही सूत्र शिष्यों और शिष्याओं को दिये हैं। इसी प्रकार अपने भक्त श्रावकों को जैन आज्ञा के लिए प्रेरित करते हुए देखे जाते हैं।
  10. संयम स्वर्ण महोत्सव समापन समारोह 17 जुलाई 2018 कार्यक्रम प्रात 7-30 बजे से 9-30 बजे मंगलाचरण कु. कन्नगी द्वारा चित्र अनावरण दीप प्रज्वलन भैयाजी एवं दीदीजी द्वारा श्रीफल अर्पण प्रतिभास्थली की छात्राओं द्वारा प्रस्तुति पुस्तक विमोचन 1 मूकमाटी-सचित्र 2 अंतर्यात्री संस्कृति शासक 3 भारत में भाषा का मसला- विश्लेषण और समाधान- ब्र. विजयलक्ष्मी दीदी 4 विद्याभारत -कलेंडर पाद प्रक्षालन संगीतमय पूजन- प्रतिभास्थली की छात्राओं और बहनों द्वारा गुरूदेव के आशीर्वचन दोपहर 2-30 बजे से 4 बजे मंगलाचरण चित्र अनावरण दीप प्रज्वलन नेपथ्य के नायकों का सम्मान *वर्ष 2018 के हमारे 9 नक्षत्र (नायक)
  11. आगम ध्वनि बोलती है जो रत्नत्रय से युक्त होने वाले या योग्यता रखने वाले साधकों को पंचाचार के पालन के बिना आचार्य संहिता का निर्वाह नहीं हो सकता। जैसे-दर्शनाचार, ज्ञानाचार, चारित्राचार, तपाचार, वीर्याचार ये संयम के पाँच आधार हैं। जो चारित्र गुण की नींव को परिपक्व करते हैं। गुरुदेव इन पाँचों पंचाचारों में स्नातक हैं। कैसे हैं? जो कि इस प्रकार है- तत्त्व के प्रति प्रमाद रहित रुचि और रुचिकर चूर्ण के समान सेवन करते हैं और भव्यजनों को भी सेवन कराते हैं। २५ दोषों से रहित दर्शनाचार का स्वयं इसी क्रम में आगे बढ़ते हैं, वे इस तत्त्व को ज्ञान के अध्ययन से प्रकाशित करते हैं। शिष्यों में ज्ञान के सूक्ष्म तत्त्वों को आत्मा की गहराई तक छूने के लिए प्रेरित करते हैं और ज्ञान के पाँचों भेदों के परम ज्ञाता हैं। इसलिए इस युग के परमात्मा हैं, यही उनका ज्ञानाचार है। तीसरा क्रम-पाप क्रिया से दूरी बनाकर आत्मा को पुण्य से आच्छादित करते हैं, पुण्य को हेय कहने वाले लोग दुनियाँ में बहुत मिल जायेंगे, बात ऐसी है। कि पाप छूटेगा तो पुण्य आयेगा फिर आत्मा में और गहरे डूबेंगे तो पुण्य तो अपने आप ही छूट जायेगा। यही आत्मानुभूति की क्रिया में घटित होने वाली क्रिया है इस प्रकार गुरुदेव का इन्द्रिय संयम एवं प्राणिसंयम का पालन करना यही चारित्राचार है। अब चतुर्थक्रम में कहते हैं-पर शत्रुओं से युद्ध करना सरल हो सकता है। पर इन्द्रियों से युद्ध कर उनके विजेता बनना कठिन हुआ करता है यही तपाचार है। पाँचवाँ क्रम पाठकगण जाने-नीरस भोजन में रस की परिकल्पना से रूखे-सूखे भोजन को करके अपनी शक्ति को न छिपाकर बिन प्रमाद के बल पूर्वक चुस्त-पुस्त होकर साधना के बल में समझाना यही उनकी वीर चर्या है। इन ५० वर्षों में गुरुदेव ने शिथिलाचार को किनारे कर मूल आराधना मूलाचार की मुख्यता को ध्यान, ध्येय का विषय बनाया।
  12. आवश्यक जिन्हें षट् आवश्यक के नाम से आगम ग्रन्थों से जाना जाता है। यह आगम गुरुदेव की चर्या से कोई भी बिना ग्रन्थ के पढ़ सकता है। यदि वे सामायिक समता में चाहे पद्मासन से या कायोत्सर्ग मद्रा में नाशामय दुष्टि करके हाथ पर हाथ रखकर बैठे हो तो यही संदेश उनकी उस मुद्रा से मिलता है कि कुछ करो मत, कुछ देखो मत, कुछ बोलो मत। मा चिट्ठह चेष्टा मत करो। मा जंपह बोलो मत, मा चिंतह सोचो मत, यह पूर्वाचार्य नेमिचन्द्र महाराज ने अपने द्रव्यसंग्रह ग्रन्थ में यह उद्घोषणा ध्यान के स्वरूप बताते हुए की है। ऐसे ही आचार्य समन्तभद्र महाराज के स्वयंभू स्तोत्र का पाठ करते हैं, जिसे चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति के नाम से जाना जाता है। उस समय गुरुदेव की मुख भंगिमा देखते ही बनती है। लयबद्धता मंत्रों के उच्चारण जैसी जान पड़ती है। गद्गद् भाव से जिनेन्द्र स्तुति का आनन्द लेकर मानो आत्म आनन्द में समा गये हों। उन्हीं जिनेन्द्र प्रभु की वंदना के लिए जब देवालय में जाते हैं, केवल वीतराग मुद्रा का दर्शन मात्र यही भाव होता है। न कोई आजू-बाजू के परिकर से प्रयोजन होता है। टकटकी लगाकर प्रभु को निहारते हुए भाव और काया की मृदुता ही दर्शन का निर्दोष आनन्द दे पाती है। यह कार्य नित्य का है। इसी प्रकार प्रत्याख्यान धारण की क्रिया ग्रहण के बाद त्याग चलता है। प्रतिक्रमण बिना आलम्बन के भाव विभोर होकर बाह्य जगत् से दूर रहकर अपनी ही निन्दा आलोचना में समा जाते हैं। कायोत्सर्ग काया से निर्ममत्वपना उनकी दृष्टि में उठते बैठते, खाते-पीते बना ही रहता है। ५० वर्षों में ध्यानसाधना एकान्त-प्रियता निर्दोष-चर्या पालन षट् आवश्यक स्वाश्रित क्रिया को प्रोत्साहित करना, यही शिष्यों को संदेश देते हैं।
  13. दश धर्मों में उत्तम शब्द का प्रयोग का अर्थ यही हो सकता है जिस आत्मा को रत्नत्रय की प्राप्ति हो, उसी के अन्दर उत्तम क्षमा का उद्भव होता है। क्रोध की सत्ता होते हुए उदीरित नहीं हो पाता है क्योंकि भाव हमेशा गलती करने पर भी क्षमा धर्म में होता है। समस्या, क्रोध से नहीं क्षमा से सुलझा देते हैं। इनकी चर्या में कठोरता परिलक्षित होती है, भावों में श्रीफल के गोले जैसी मृदुता यही इनका मार्दव धर्म है। आर्जव का मर्म उनकी चर्या, उनका भाव उनका ध्यान हमेशा आर्त-रौद्र भावों से परहेज करता रहता है। यही सीधापन विद्याधर के जीवन में था। इसलिए ऋजुता का मार्ग ऊर्ध्वगमन का मार्ग श्रेणिक प्राप्त करने का मार्ग रत्नत्रय धर्म होता है जो आत्मगत होता है। बाहर चर्यामय होता है वह अस्नानव्रत का पालक होता है, उसे शरीर शुद्धि से प्रयोजन नहीं होता और श्रावक बिना शरीर शुद्धि के दान देने की पात्रता नहीं रखता। वाणी में सत, काया से विनय यही इनका सत्यधर्म है। प्राणी मात्र की रक्षा, ईर्या समिति से चलना यही संयम की यात्रा का सोपान देखने मिलता है। बिना तप के ध्यान, साधना फलीभूत नहीं होती। तप का उल्टा भी पतन होता है। इसलिए पतन को नहीं और जतन से तपन की अग्नि को अपने अन्दर प्रवेश कराकर निर्ममत्वपने के अनुभव में जीते हैं। त्याग तो पग-पग पर चलता ही रहता है। आकिंचन्य भाव, परिग्रह के प्रति अनासक्ति का भाव यह जीवन का जीवित अंश है। ब्रह्मचर्य शील ये तो गुरु देव के आभूषण हैं, इसलिए सारा संघ बाल ब्रह्मचारी है। ऐसे शुद्ध लोहे का निर्माण कर रहे हैं। कभी भी पारसमणि के सम्पर्क में आने पर पारस अवश्य बनेंगे। ५० वर्षों की साधना का यही प्रतिफल है।
  14. आगम में वर्णित गुणों की गुणमाला के मनन-चिंतन में जिनका जीवन बीत रहा है, कर्मों से रीत रहा है, ऐसे पूज्य गुरुदेव आत्मा की रक्षा के लिए मन, वचन, काय से त्रय गुप्ति का पालन करते हैं। प्रवृत्ति में सावधानी बनी रहे, इसके लिए पाँच समितियों का पालन करते हैं। दश धर्मों से ही साधुता पलती है। इसलिए दस धर्मों में लगे रहते हैं। बाईस यातनाओं को कष्टों को परीषहों को समता के साथ, दंशमशक आदि को सहन करते चलते हैं। प्रत्येक पल बारह अनुप्रेक्षा शीत, उष्ण चिन्तन-मनन तीर्थंकरों के मार्ग के अनुसरण की ओर गमन कराने वाली है। बारह तप का पालन जीवन भर चलता रहता है। इसी तरह आलोचना, प्रतिक्रमण आदि नौ प्रकार के प्रायश्चितों के माध्यम से दोषों का परिमार्जन करते रहते हैं, ऐसे ही ज्ञान-दर्शन-चारित्र और व्यावहारिक विनय में २४ घंटे व्यतीत करते हैं, यह दिन को नहीं, कर्म को काटने की पद्धति है। इसी क्रम में आगे बढ़ते हुए दश प्रकार की वैय्यावृत्ति धर्म का पालन कर नये-नये मुनि महाराजों के विशुद्ध परिणामों को सेवा-वात्सल्य के द्वारा बढ़ाते रहते हैं। उन्हीं मुनियों के अन्दर पाँच प्रकार के स्वाध्याय जैसे वाचना करना, शंका का समाधान करना, मौखिक पाठ, धर्मोपदेश से जिनवाणी को उनके अन्दर समाहित करते हैं। गुरुदेव अन्दर बाहर से निर्मोही साधक हैं। इसलिए आगम की आज्ञा का पालन करना, आज्ञा विचय धर्मध्यान को आदि कर दश धर्मध्यान के पालक हैं और श्रुतवाणी को आधार बनाकर ही कभी पृथक् चिन्तन की धारा को बनाकर शुक्लध्यान को प्राप्त करने की भूमिका में लगे हुए हैं। इसी को आधार बनाकर धर्मध्यान की आराधना में लगे रहते हैं। यही उनका १०८ गुणों की आराधना कर क्रम ५० वर्षों से चल रहा है।
  15. आचार्य श्री ज्ञानसागरजी गुरुदेव से कहते थे, नौ तपा से बारह तप बड़े हैं। गुरु के वचनों का परिपालन करते हुए गुरुदेव की समाधि के बाद भी अनशन तप को स्थान देते रहे, ४८ घंटे श्मशान घाट में ध्यान में निमग्न रहे। भूख से कम भोजन नित्य आहारचर्या में आ गया। विशेष विधि से आहार को ग्रहण करना, नहीं मिलने पर बिना संक्लेश के अलाभ धारण कर प्रसन्न वदन बने रहना। रसपरित्याग तो ब्रह्मचारी बनते ही प्रारम्भ हो गया। भोजन में रसों का राजा नमक है। और भजनों में भजन का राजा सामायिक समता ध्यान है। इसे ही आत्म भजन कहते हैं। मीठा नहीं, सब्जी नहीं, फल नहीं, ड्रायफूट नहीं, नीरस में रस का आनन्द लेने वाले, गरुदेव आत्मानंद में नजर आते हैं। एकांतवास तो विद्याधर की अवस्था से प्रिय है। एक बार ब्रह्मचारी अवस्था में एकांत में बैठकर सूत्रजी का पाठ कर रहे थे। महिलाओं का आना प्रारम्भ हो गया। दूसरे दिन से स्थान बदल दिया, वैसा ही ठीक आज तक चल रहा है। कायक्लेश के बारे में क्या कहना, कभी काया की माया में नहीं उलझते। इसलिए श्रावकों को केवल चरणों की ही सेवा मिल पाती है, अन्य प्रकार की वैय्यावृत्ति तो मुनियों को भी दुर्लभ हुआ करती है। स्वयं को दण्ड देने की बात के बारे में क्या कहा जाये, यह दण्ड संहिता उनकी लाजवाब है। जब कोई चौके वाला पड़गाहन के समय भक्ति का अतिरेक कर चौके में ले जाने के लिए खींचातानी करता है तो वे अपने को ही दण्ड देते हैं। एवं अलाभ कर देते हैं। कभी श्रावक पर क्रोध नहीं करते हैं। जब भी बोलते हैं वचन विनय के द्वारा वैय्यावृत्ति रुग्ण साधुओं को अंतराय वालों को अपने से पहले आहार को निकालना स्वाध्याय निष्ठ तो हैं ही इसी प्रकार ५० वर्ष ध्यान, स्वाध्याय में व्यतीत कर शिष्यों को अपने कर्तव्य में व्यस्त रहने का संदेश अपनी चर्या, क्रिया से देते रहते
  16. अभीक्ष्ण अर्थात् निरन्तर जो ध्यान के बाद ज्ञान में तत्पर रहता है। ऐसे अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी गुरुदेव के गुणों का कथन किया जा रहा है। उनके ज्ञान की तत्परता सूक्ष्मता ज्ञान की परत पर परत निकालते चलना, इसके पीछे अन्य कारण इस प्रकार हो सकता है। जैसे अपने ही आत्मदर्शन में विशुद्ध बने रहना, प्रभु दर्शन प्रभु की वाणी के प्रति विनय की सम्पन्नता प्रकट करना। शील की कठोरता नारी से नजर से नजर न मिलाना, यही शीलव्रतेष्वनतिचार यही व्यवहार उन्हें सतत् लगातार ज्ञान की ओर प्रेरित करता है। जब भी गुरुदेव दर्शकों को दर्शन देते हैं, तब भी उनकी नजर जिन ग्रन्थों पर जिनवाणी के शब्दों पर लगी रहती है। मन में जिनवाणी का चिंतन चलता है, वचन से जिनवाणी गुनगुनाते और मंत्र का उच्चारण करते नजर आते हैं। एक ही ग्रन्थ को बार-बार पढ़ने से नये-नये अर्थ की ओर जाने की यात्रा लगातार चलती ही रहती है। पर्वराज दशलक्षण के दिनों में तत्त्वार्थसूत्र पर व्याख्यान के पहले सर्वार्थसिद्धि ग्रन्थ को पढ़ना और व्याख्यान में नया-नया विषय देना। जैसे बाल में से खाल निकाला जा रहा हो कभी भी जिनवाणी पढ़ते समय प्रमाद का दर्शन नहीं होता। बुद्धि की क्षीणता को देखते ही बनता है। वो शब्दों के अर्थ पर अर्थ निकालते चलते हैं और उनकी याददाश्त के बारे में क्या कहें, गुरुदेव कभी भी स्वाध्याय करते वक्त शास्त्रों के पृष्ठों पर कभी क्षेपक नहीं लगाते हैं। पृष्ठ नम्बर याद रखते हैं, दूसरे दिन ग्रन्थ वहीं से खुलता है। बचपन के विद्याधर अपने स्कूली जीवन में जेब में पाठ्यक्रम की चिटें रखकर चलते थे। मौका मिलने पर याद कर लिया करते थे। ब्रह्मचारी अवस्था में रात दो बजे तक ज्ञान का अभ्यास चलता था। यह पूर्व का अभ्यास ही अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग की संज्ञा का प्रदाता बना।
  17. जिन संस्कृति का उद्भव तीर्थंकर प्रभु की देन है। इसके उद्धार का कार्य आचार्य परमेष्ठी की जिम्मेदारी होती है, इसी जिम्मेदारी के निर्वाह को ध्यान में रखते हुए गुरुदेव ने बुन्देलखण्ड की भूमि को इस पात्रता के योग्य समझकर गाँव-गाँव, पाँव-पाँव विहार प्रारम्भ किया। इसी क्रम में तालबेहट ग्राम आना हुआ। यहाँ पर वह दृश्य देखने मिला, एक बालक कुँए से पानी निकाल रहा है। रस्सी और बाल्टी के माध्यम से परात पर गागर रखी हुई है। उसके मुख पर कपड़े का छन्ना लगा हुआ है। तब देखकर समझ में आया, यह सब जीवों की रक्षा के लिए आयाम किया जा रहा है। इस भूमि के लोगों के संस्कारों को मजबूत रखने के लिए दर्शन प्रतिमा, व्रत प्रतिमा देना प्रारम्भ कर दिया, लेकिन यह प्रतिमा उन श्रावकों को प्रदान करते हैं, जो उन जलाशयों के पानी का प्रयोग करता है, जहाँ अहिंसा पद्धति से जीवाणी की जा सके। इसके स्रोत स्थान जैसे कुंआ, बावड़ी, नदी, झरना आदि बहते पानी के स्थान हैं, क्योंकि जो जिस जल के जीव होते हैं वहीं जीने की योग्यता को धारण करते हैं। ५० वर्षों में गुरुदेव ने जिन संस्कृति के उद्धार के लिए भारतीय प्रशिक्षण संस्थान की स्थापना की। जबलपुर पिसनहारी मढ़िया में जिससे समाज में ईमानदार, नैतिकतावादी, प्रशासनिक अधिकारियों का प्रचलन ही जैन संस्कृति का संरक्षण का कारण बनेगा। फिर बाल-गोपालों में जो भक्ष्य-अभक्ष्य का भेद समाप्त हो रहा है। उसके लिए विदेशी कम्पनियों के खाद्य पदार्थ का त्याग कराकर आहार ग्रहण करना, इस आदेश का अनुपालन करने वाले श्रेष्ठ, ज्येष्ठ मुनि श्री योगसागरजी बिना ब्रेड-बिस्कुट के त्याग के आहार नहीं लेते लोगों से। यही गुरुदेव की संस्कृति के उद्धार का उदाहरण है।
  18. णमोकार मंत्र में प्रथम स्थान अरिहंत परमेष्ठी को प्रदान किया गया। अरि अर्थात् कर्म रूपी शत्रुओं को हनन करने वाले, अर्हंत परमात्मा होते हैं। अर्हतों की संस्कृति दिगम्बर आम्नाय वस्त्र रहित निर्विकारमय, पैदल यात्री, करपात्री के रूप में रही, इसी परम्परा का निर्वाह कर बीजारोपण बालक विद्याधर के जीवन में आचार्य शांतिसागरजी के प्रवचन सुन वैराग्य उत्पन्न हुआ, इसका फल आचार्य श्री विद्यासागरजी के रूप में फलित हुआ। शिथिलाचार से दूर मूलाचार से सहित, आगम के अनुरूप चर्या, क्रिया को धारण करने वाले सच्चे उपास्य-उपासक आचार्य गुरुदेव की समझदारी में समाहित हैं। अर्हंतो ने जो उपदेश युग के प्रारम्भ में दिया उसी परम्परा के अनुरूप संस्कृति में नियम-संयम का वितरण कर जैन श्रमण-श्रमणियों को जन्म प्रदान कर एक शुद्ध विशुद्ध परिणामों से युक्त संस्कृति को प्रोत्साहित करना, समय को खोना नहीं, समय पर काम करना, षट् आवश्यकों की वास्तविक उपयोगिता को सिद्ध करना आगम सम्मत विधि के विधाता स्वाश्रित अपने आवश्यकों का पालन करना, अपने सहारे चलने का भगवान् महावीर का मार्ग रहा। पराश्रित क्रिया संक्लेश भावों को जन्म देती है। याचना-वृत्ति को बढ़ावा प्रदान करती है। २२ परीषहों में याचना का निषेध है। आवश्यकता पड़ने पर भी याचना नहीं करना, ये बहुत बड़ी सहनशक्ति को बढ़ाने वाली साधना के दाता अर्हंत वाक्य शास्त्रों के द्वारा प्राप्त गाथाओं के अवलोकन से टीका ग्रन्थों के पठन से सिद्धान्त ग्रन्थों के अवलोकन से गुरुदेव ने श्रमण संघ के लिए इस प्रकार के सूत्र वाक्य निकालकर श्रमण के अन्दर से शिथिलाचार निकालकर महत्त्वपूर्ण कार्य ५० वर्षों में किया।
  19. भारतीय संस्कृति साधा जीवन उच्च विचार की शैली से प्रारम्भ होती है। इसे आचार्यों ने एक गृहस्थ के लिए अणुव्रत संज्ञा प्रदान की है। थोड़े में अपना गुजारा करना। दयाधर्म के पालन के लिए पशुओं का संरक्षण करना, इसी बात को ध्यान में रखते हुए गुरुदेव ने गायों के संरक्षण के लिए गाँव-गाँव, पाँवपाँव चलकर दयोदय केन्द्रों की स्थापना की प्रेरणा प्रदान की। गाय की रक्षा ही भारत के भारतीयों के आचार-विचार की रक्षा है। गाय होगी तो दूध, घी, दही, शुद्ध मर्यादित मिलेगा तो धर्म सहज पलेगा। पैकिट के दूध पर शुद्धता की गारंटी नहीं हो सकती है यह भारतीय संस्कृति पर प्रहार किया जा रहा है। डिब्बा बन्द सामग्री का व्यवहार रोकने के लिए पूरी मैत्री समूह का गठन जबलपुर में हुआ, जहाँ गृहस्थों के लिए शुद्ध सामग्री उपलब्ध होती है। देश की आजादी के बाद खादी का प्रचार व्यवहार कमजोर पड़ता चला गया और वस्त्रों की शुद्धता पर प्रश्नचिह्न खड़ा हो गया। वस्त्रों को बनाने के लिए अहिंसा नहीं, हिंसा पद्धति का प्रयोग प्रारम्भ हो गया। वस्त्रों में मजबूती प्रदान करने के लिए मटन टैलो का प्रयोग होने लगा। इस बात को ध्यान में रखते हुए हथकरघा का जन्म हुआ। गरीब देशवासियों के लिए रोजगार मिले, अहिंसा में विश्वास रखने वालों के लिए शुद्ध वस्त्र मिले, जिससे देश में रोजगार की समस्या का हल होगा। यह भारत देश की सभ्यता को कायम बनाये रखने वाला कदम मुख्यमंत्री से लेकर प्रधानमंत्री तक पसंद का कारण बना। साधु होकर देश की संस्कृति के बारे में विचारमग्न देख कौन प्रभावित नहीं होगा। इन ५० वर्षों में आत्म-साधना के साथ व्यवहार जगत् के कार्यों को भी स्थान मिला।
  20. जैनधर्म अनादि निधन धर्म की कोटि में अपना स्थान बनाये रखा है, इसी भाव को ध्यान में रखते हुए पूर्वाचार्यों ने जिनधर्म की ध्वजा को आगे बढ़ाने का कार्य प्रारम्भ रखा। तीर्थों के उत्थान के माध्यम से, शास्त्रों के लेखन-पठन-पाठन के द्वारा अपनी चर्या साधना के द्वारा इसी परिपाटी को आगे बढ़ाने वाले आचार्य गुरुदेव हैं। उन्होंने जिनधर्म की ध्वजा की रक्षा के लिए युवावस्था में संयम धारण कर आत्म उत्थान का मार्ग प्रदर्शित किया। अपने में रहना ही जिनधर्म को आगे बढ़ाने की कला के धनिक साधक होने के नाते मुनि साधना की चतुर्थकालीन चर्या का परिपालन ही वास्तव में जैन संस्कृति का संवर्धक है। जैसे बिना बताये आना-जाना, पूर्व सूचना के शिष्यों को शिक्षादीक्षा प्रदान करना, भौतिक साधनों से दूर अलौकिकता की ओर बढ़ने बढ़ाने का भाव ही महत्त्वपूर्ण है, जो जैनधर्म और जिनशास्त्र में मुनियों की चर्या है, जैसे भूशयन करना, रात्रियोग धारण करना, अपने धर्म उपदेश में भी आगम में कथित चर्चाओं का ग्रन्थों का ही कथन करना। यह उनकी आध्यात्मिक यात्रा का ही सोपान देखने मिलता है। लौकिकता उनसे बहुत दूर रहती है, क्योंकि वे निज तत्त्व के अभ्यासी बचपन के विद्याधर की अवस्था से लेकर आज तक वहीं संस्कार कायम है, जो जैन संस्कृति के आयाम रहे। यहाँ कोई व्यायाम की जरूरत नहीं है। आत्माराम को याद रखने की बात है, जो आत्मा का दास होता है। वही शरीर से उदास होता है। जो उदास होता है वह जैन जगत् का चहेता होता है। ५० वर्षों में गुरुदेव ने जिनधर्म संरक्षण के लिए अपने समय का समय-समय पर दान कर एक नवीन दिशा प्रदान की |
  21. संस्कृति का संरक्षण सुसंस्कारों के द्वारा ही सम्भव हो सकता है। संस्कारों को सुरक्षित रखने के लिए पूर्वाचार्यों ने त्याग की श्रेणियों का निर्धारण किया। इसी प्रकार आचार्य गुरुदेव ने जैन संस्कृति के संरक्षण के लिए तीर्थ स्थानों पर प्रवास प्रारम्भ किया, फिर चातुर्मास भी किया। शीतकाल भी व्यतीत किया। ग्रीष्मकाल भी व्यतीत किया। साधना की उच्चता निरीहवृत्ति, जनसम्पर्क रहितता आदि के दर्शन करने श्रावकों का क्षेत्रों पर सहज ही आना प्रारम्भ हो गया। और क्षेत्रों की दशा देखकर दान देने का भाव उत्पन्न होने लगा। दान की राशि, सामग्री आने पर क्षेत्रों पर योजना बनने लगी। जीणदार के कार्य प्रारम्भ होने लगे। पुराने तीर्थ नये तीर्थ के रूप में प्रकट होने लगे। यह संस्कार युक्त व्यक्तित्व के प्रभाव से बिना बोले बिना संकेत के जैन संस्कृति ध्वंस होने से सम्भलने लगी। नये तीर्थों का उद्भव भी प्रारम्भ होने लगा। संस्कृति संरक्षण के लिए बाल ब्रह्मचारी बहनों का एक संगठन तैयार हुआ जिसे गुरुदेव ने प्रतिभा मण्डल नाम प्रदान किया। प्रतिभा मण्डल द्वारा लड़कियों का स्कूल, प्रतिभास्थली, सुसंस्कारवान लड़कियों का समाज में एक दर्जा प्राप्त हो, जिससे संस्कारवान बहू आने वाली पीढ़ियों को प्राप्त हो। जब लड़की संस्कारवान होगी, तब वह दूसरे घर जाकर संस्कारवान बहुत बनेगी। दया के क्षेत्र में गायों का संरक्षण यह अहिंसा की संस्कृति है। चिकित्सा के क्षेत्र में भाग्योदय यह सेवा की संस्कृति है। इस प्रकार ५० वर्षों में गुरुदेव ने आत्मा का संरक्षण करते हुए संस्कृति के संरक्षण की ओर लोगों को आकर्षित किया।
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