धर्म का मार्ग, धर्म का पालन सबके लिये योग्यता के अनुसार ही चलता है। गुरुदेव की सामर्थ्य पंचम युग में चतुर्थ युग की चर्या का पालन करते हुए सबका ख्याल रखते हुए चर्या का प्रतिपादन जो रात में चारों प्रकार के आहार का त्याग नहीं कर सकता तो वह तीन प्रकार के आहार के त्याग से भी अपनी चर्या का निर्वाह कर सकता है। जो रात में चारों प्रकार के आहार का त्याग करता है और व्रत प्रतिमारूप लेने की क्षमता नहीं है तो यह भी उसके लिये महत्त्वपूर्ण है। जो व्रत प्रतिमा लेकर अपनी चर्या का पालन करते हैं उनका गुणस्थान बदल जाता है। आगे और चर्या का पालन करता है तो उसके लब्धिस्थान, विशुद्धिस्थान बदलते चले जाते हैं और कुछ नहीं तो होटल आदि का खानपान भी छोड़ देता है तो भी वह पापों से बचता चला जाता है। बच्चे हैं उनके व्रत अलग, बूढ़े हैं उनके व्रत अलग, लेकिन गुरुदेव की चर्या सदा एक सी बनी रही। नियमों की सरलता के कारण लोगों में आहार दान की प्रवृत्ति का विकास हुआ। उनकी नीति है अपना बनाकर त्याग के प्रति रुचि बनाकर त्याग कराओ। इसी को कहते हैं बहुजन हितकर चर्या। सभी को सुख देने वाली, सभी के मन की मुरादें पूरी करने वाली। कोई भी दान से वंचित न रह जाये, कोई व्रतों के नियमों के पालन से वंचित न रह जाये। शुरूआत में नियमों की कठोरता के कारण लोगों के अन्दर धर्म से दूरी बढ़ने लगती है और वह धर्म की चर्या, क्रिया, पूजन पाठ अभिषेक, साधु सेवा, आहारदान ये सब बूढ़ों तक सीमित रह जाता है। युवाओं में, युवतियों में, छोटे बच्चों में गुरुदेव ५० वर्षों से धर्म की हवा भरने का अपनी सहज, सरल बहु हित चर्या से करते हुए नजर आ रहे हैं।