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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. संस्कृति आचरण की आचार संहिता का पालन करते हुए चला करती है। जिस संस्कृति में आचरण की मुख्यता नहीं होती वह कभी भी धूमिल हो सकती है। श्रमणों की संस्कृति हमेशा आचरण की मर्यादा में बँधी रही इसलिए उच्च आसन पर विराजमान बनी रही। अन्य संस्कृतियों में खान-पान, भक्ष्यअभक्ष्य की मर्यादा की हीनता बनी रही। श्रमणों की संस्कृति में पदार्थों की उपयोग करने की विभिन्न ऋतुओं के अनुसार एक सीमित समय निर्धारित है। पानी को छानकर पीना यह जैन संहिता, पानी की जीवाणी या अहिंसा की संहिता ज्यों की त्यों बनी हुई है। श्रमणों में जीवरक्षा की दृष्टि से उबले हुए प्रासुक पानी की नियमितता बनी हुई है। वैष्णव संत परम्परा में ब्रह्मचर्य व्रत की परिपालना के संन्यासी नजर तो आते हैं पर सहज और सरल तरीका उनकी परिपालना में नजर नहीं आता। श्रमण एक ही बार अल्प भोजन-पानी को ग्रहण करते हैं। उपवास की कालावधि में निराहार साधना पद्धति पर विश्वास रखते हैं। अपने ही हाथ से केशों का लौंच करते हैं। शरीर के साज-श्रृंगार की बात ही नहीं। अस्नान व्रत का पालन करते हैं। दाँतों को चमकाने की बात ही नहीं, अदन्तधावन व्रत को धारण करते हैं। हिन्दू संस्कृति में उपवास की परिपालना फलाहार के साथ चलती है। दिन में कितने ही बार, रात में कितने ही बार, खाने-पीने की कोई मर्यादा ही नहीं। जैन संस्कृति में उपवास निराहार रहकर आत्मा की उपासना तक की यात्रा का साधन है और एकासना एक बार भोजन-पानी ग्रहण करके व्रत का पालन किया जाता है। इस प्रकार ५० वर्षों में श्रमण संस्कृति को अपनी चर्या और साधना से ऊँचा बनाये रखा गुरुदेव ने।
  2. आचार्यों का जीवन गुणों के स्वरूपमय हुआ करता है। तप का खजाना, स्व-पर मत के विचारों में कुशल, श्रुत के जहाज में बैठकर श्रुत के समुद्र को पार करने की योग्य क्षमता के धारक स्वयं पार होते हैं और शिष्यों को भी पार लगाते हैं इसलिए आप पारगामी हैं। छत्तीस गुणों से पूर्ण हैं, पंचाचार से संबंधित क्रियाओं का अनुभव करने वाले एवं कराने वाले पाँच प्रकार के आचारों का स्वयं पालन करने वाले तथा शिष्यों को वैसा ही आचरण पालन कराने वाले, शिष्यों पर अनुग्रह करने वाले धर्माचार्य, उठते-बैठते समय भी श्रुत की धारणा के साथ कार्य को गति प्रदान करने वाले, जिनके रग-रग में श्रुत का आठों याम आयाम चलता रहता है। जो प्रतिदिन व्रतरूपी मंत्रों से कर्मों का होम करने में लगे रहते हैं। इस संसार में शिष्यजनों को संसार से पार लगाने के लिये अष्टकर्मों के क्षय का, जन्म-मरण के दुखों से बचने का श्रुत के माध्यम से ज्ञान का, चर्या का, क्रिया का प्रतिपादन करने वाले, षट्आवश्यकों में लगे-लगाये रखने वाले, तप रूपी धन के धनिक, पुण्य कर्मों में सदा लगे रहने वाले, १८ हजार शीलरूपी वस्त्रों को ओढ़ने वाले, ३६ मूलगुण एवं ८४ लाख उत्तरगुणों का पालन करने वाले, मोक्ष के दरवाजे खोलने वाले योद्धा, ज्ञान और दर्शन के नायक, चारित्र रूपी सागर के समान गम्भीर ऐसे श्रुतरूपी पोत में बैठकर संसार में समतारूपी रस का सेवन कर कर्म की परिस्थितियों से समझौता कर श्रुतदेवता की आराधना में मन-वचन-काय की परिणति को समाहित करना। विकथाओं से दूर रहकर शिष्यों को विकथाओं से बचाकर सम्यक् श्रुत में निमग्न कराने वाले पंचमकाल में पंचाचार के द्वारा आत्मा की आत्मपरिणति को यथाविधि, यथायोग्य बनाये रखकर श्रुत की धारा जो गुरुदेव ने ५० वर्षों से अविरल बनाये रखी है, इसलिए आप श्रुतजलधि संज्ञा के धारक, धीर-गंभीर विचारों से युक्त आपका जीवन निष्ठावान बना रहा।
  3. आगम का प्रवाहमान मार्ग सूत्रों की धाराओं के रूप में चला आ रहा है। सूत्रों का ज्ञान गुरु परम्परा से शिष्य को प्राप्त होता है। आचार्यश्री को आचार्य ज्ञानसागरजी से जैन आगम के सूत्र प्राप्त हुए। जो समयसमय पर रहस्यों को उद्घाटित करते रहते हैं। बहुत समय से मंगतराय की बारह भावना का पठन-पाठन समाज एवं साधु संघों में चला आ रहा था। धर्म भावना में शब्दावली की समायोजना उचित नहीं जान पड़ने से गुरुदेव ने उचित शब्दों को वहाँ स्थान प्रदान किया। इसी प्रकार दौलतरामजी छहढाला में छठवीं ढाल में जहाँ मुनियों के धर्म का वर्णन है। षट्आवश्यक के प्रसंग में कुछ कमी इस प्रकार रही श्रुति के स्थान प्रत्याख्यान को गुरुदेव ने स्थान प्रदान किया। इसी प्रकार उमास्वामी द्वारा रचित तत्त्वार्थसूत्र में भाण्ड शब्द कहीं-कहीं पर प्रयोग न देखकर गुरुदेव ने कहा-यह शब्द तो अवश्य ही होना चाहिए क्योंकि ये दस प्रकार के परिग्रह में आते हैं। इसी प्रकार अमितगति आचार्य द्वारा रचित सामायिक पाठ के एक शब्द में कमी देखकर वहाँ उचित शब्द को स्थान देना, धवला, जयधवला की वाचना के समय कई ऐसे प्रसंग आने पर गुरुदेव ने कहा-यह है रहस्य की बात। जैसे गोत्र कर्म का प्रसंग ऊँच-नीच गोत्र को लेकर, इसी प्रकार नरक की व्याख्या को लेकर और भी बहुत से सूत्र पाठों के सही अर्थ को संघ एवं विद्वानों के सामने रखा। यही शब्दों से रहस्यों को निकालकर मिथ्या भ्रम को नष्ट करने की क्षमता के धारक गुरुदेव ५० वर्षों से श्रुत के उन ग्रन्थों को समाज के सामने लाकर रखा, जिन्हें कभी किसी ने देखा नहीं, सुना नहीं, न पढ़ने की योग्यता, इसलिए गुरुदेव ने अपने पात्र तत्त्व का प्रयोग करते हुए जिनवाणी का दान करते हुए षट्खण्डागम, कषायपाहुड, धवल, जयधवल, महाधवला आदि की वाचनाओं के माध्यम से सूत्र ग्रन्थों को स्थान देकर नये अर्थों का दिग्दर्शन कराने वाले रहस्योद्घाटक गुरुदेव जयवंत हों। जयशील हों। जिनवाणी के अनुरूप हों, अपने स्वरूप में हों।
  4. ज्ञान में विशिष्टता का गुण, गुणज्ञ संज्ञा को प्रदान करता है। कर्म के क्षय से क्षयोपशम मॅजता चला जाता है। विशुद्ध भावों से जिनवाणी की आराधना, प्रभु-गुरु की वाणी की अनुपालना से ज्ञान में सिद्धता प्राप्त होती चली जाती है। सूत्र की गहराई में घुसकर अर्थ को खोज निकालना, यह पूर्व का ज्ञान वर्तमान के क्षयोपशम को संयम एवं उनके लब्धिस्थानों को प्राप्त होने से बढ़ाता चला जाता है। ज्ञान के रहस्य का उद्घाटन करने वाले गुरु ज्ञानसागर महाराज को इसका श्रेय जाता है। जो मुनि विद्यासागर ने अपने श्रम एवं लगन से प्राप्त कर श्रुत को एक नया आयाम प्रदान किया। चेतन चन्द्रोदय आपके ज्ञान की विशिष्टता है, जो मिथ्या मान्यता को सम्यक्त्व मान्यता में बदलती है। आगम की टाँग खींचने वालों को चलने की सामर्थ्यता प्रदान करती है। आपकी एक और रचना षट्शती के नाम से जानी जाती है जिसमें छह शतक संस्कृत भाषा से सुशोभित होकर श्रुत के मर्म को प्रदर्शित कर रहे हैं। इसी प्रकार हिन्दी साहित्य में मूकमाटी महाकाव्य जो नये-नये, सरल-सरल अर्थों के माध्यम से जैनदर्शन को प्रदर्शित करते हैं। दोहा शतकों के माध्यम से भी नीतियों को कुरीतियों को दिखाने का बताने का प्रयास जारी रखा। ज्ञान की विशिष्टता, क्षयोपशम ज्ञान की बढ़ोत्तरी और आगे होती चली गई तो वह काव्य का रूप धारण करती गई और संक्षेप से हाइकू के माध्यम से दर्शन को बताने वाली समझने वाली, क्षयोपशम ज्ञान से युक्त वास्तव में ज्ञान के सागर विद्या के सागर, ज्ञान के अंगों को परिपुष्ट करने की क्षमता के नायक तात्कालिक प्रश्नों के उत्तर प्रदान करने वाले, मौखिक श्रुत को धारण करने वाले, उसी श्रुत का चिन्तन करने वाले, उसी का लेखन करने वाले, व्याख्यान करने वाले, व्याख्यानाचार्य जान पड़ते हैं। श्रुत को सूत्र में शिष्यों के लिये प्रदान कर दिशाबोध के ज्ञातव्य महापुरुष, इन ५० वर्षों में आपने ब्रह्मचारी, ब्रह्मचारिणियों, आर्यिकायों, मुनियों को श्रुत के अर्थ को एक नये अर्थ में अपनी प्रज्ञा रूप छैनी से प्रदान कर एक नवीन जिनवाणी का निर्माण कर श्रुत को आगे बढ़ाया।
  5. जीवन जीने की सार्थकता तब सिद्ध होती है जब जीव आत्मा व्रतों के सहित होती है बाकी का जीवन तो संसार में घुमाने वाला ही है। हिंसा का त्यागकर, वाणी में सत्य का प्रयोग कर, बिना वस्तु के दिये ग्रहण न कर, आत्मा को वासना से रहित कर ब्रह्म की उपासना में लगा, परिग्रह से दूरियाँ तय करने वाला ही संसार से पार करने की यात्रा पाँच महाव्रतों के साथ तय हो पाती है। ऐसी ही विचारणा के चारित्र के साथ व्रतों से संकल्पित दीक्षा को धारण कर चलने वाले गुरुदेव हैं। वे जब भी चलते हैं, ईर्यासमिति से चार हाथ देखकर, जब भी बोलते हैं। भाषासमिति के साथ, शास्त्र और धर्म के विरुद्ध विवेक रहित निष्ठुर वचन कभी नहीं बोलते। एषणा समिति का पालन करते हुए लोक निंदा से रहित विशुद आहार को सुर्य के आलोक में एक ही बार अल्प आहार ग्रहण करते हैं। निक्षेपण और आदान समिति को वह आँख से देखकर तथा पिच्छिका से शोधकर यत्नपूर्वक अपने उपकरण को उठा रखा करते हैं। प्रतिस्थापना समिति का जन्तु रहित स्थान पर मल-मूत्र का त्याग करके पालन करते हैं। पाँच महाव्रत, पाँच समितियों का पालन करते हुए आगे बढ़ते चल रहे हैं। ‘राग रहितोऽहं' के सूत्र के अनुसार मनोगुप्ति का पालन करते हुए मौन रहकर ही वचन गुप्ति का पालन करते हैं। असत्य अभिप्रायों को मौन के द्वारा रोक देते हैं। ध्यान और चिन्तन की धारा में वचनों के व्यापार को रोककर वचन गुप्ति का पालन करते हैं। काय के द्वारा कायोत्सर्ग की मुद्रा को धारण कर चेष्टा रहित, प्रवृत्ति को रोककर काय गुप्ति में रहना, हिंसा आदि से निवृत्त रहना, शरीर जन्य गुप्ति है। जिसके द्वारा सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र रक्षित होते हैं। आठ प्रवचन मातायें आपकी रक्षा के लिये सदा तत्पर रहती हैं। इन ५० वर्षों में आचार्यश्री ने ऐसा ही लिखा-बोला जो पढ़ने और सुनने लायक रहा। उनके इन तेरह प्रकार के चारित्र के पालन के कारण अब उनकी जीवनी लिखने लखने लायक बन शोभित हो रही है।
  6. ज्ञान व्यापक शब्द है। सम्यग्ज्ञान दीपक लेकर खोज करने वाला है। सम्यग्ज्ञान मर्यादाओं और नियमावली से बँधा होता है। यही ज्ञान आत्मा से परमात्मा बना देता है। बड़े-बड़े वैज्ञानिक हुए, बड़ा-बड़ा ज्ञान उनके पास था लेकिन वह सम्यक् न होने से वह आत्मा व परमात्मा के भेद को नहीं समझ पाये। आचार्य गुरुदेव कालाचार के पालक हैं कभी भी सन्धिकाल में स्वाध्याय नहीं करते यही उनकी काल की मर्यादा है। विनयाचार शास्त्र के प्रति उनकी विनय अद्-भुत है, जब भी जिनवाणी भेंट की जाती है, वे तत्काल हाथ जोड़ लेते हैं या संघ में जब अपने स्थान से अन्य स्थान के लिए जाते हैं तो रास्ते में सिद्धान्त ग्रन्थों के दर्शन होते ही पिच्छिका उठाकर विनयाचार का पालन करते हैं। उपमानाचार-सिद्धान्त ग्रन्थों की वाचना के समय उसे त्याग के साथ वाचना को पूर्ण करना यह उनका अपना गुण है। बहुमानाचार-ग्रन्थों का बहुमान सम्मान अपने से जिनवाणी को उच्च आसन प्रदान करना। जब श्रावकों के द्वारा जिनवाणी को सिर पर रखकर लाया जाता है तो उस समय सम्मान भरी दृष्टि से देख नतमस्तक हो जाना। यही उनकी बहुमानता का गुण है। अनिह्नवाचार-आचार्य गुरुदेव अपने गुरु से प्रत्येक क्षण अपने को उपकृत मानते हैं, वे कभी भी गुरु के नाम को नहीं छिपाते और यही कहते हुए पाये जाते हैं, जो कुछ भी ज्ञान है वो सब गुरुदेव का दिया गया ज्ञान है। व्यंजनाचार-पाठ करते समय पढ़ाते समय व्यंजन और मात्रा के उच्चारण का ध्यान रख शुद्ध पाठ ही बोलते हैं। अर्थाचार-कभी भी वे अर्थ का अनर्थ नहीं करते। जहाँ जैसा अर्थ है वैसा ही अर्थ निकालते हैं। उभयाचार-इसी प्रकार व्यंजन, मात्रा, अर्थ दोनों को दृष्टि में रखकर व्याख्यान, वाचना करने वाले उभयाचार हैं। ५० वर्षों से ज्ञान के आठ अंगों से सुशोभित बने रहे।
  7. मुनि दीक्षा के 50 वर्ष पूर्ण होने का पावन प्रकल्प खजुराहो में संयम स्वर्ण महोत्सव
  8. दुनियाँ में दर्शनों की मत-मतान्तरों की सम्प्रदायों की, पंथों की होड़ मची हुई है। इस होड़ में अपने दर्शन को समीचीन बनाये रखना कठिन-सा जान पड़ता है, फिर भी जिसकी दृष्टि समीचीन होती है निर्मल होती है, वह अपने मन को निर्बल होने से बचाये रखता है। कुछ हो या न हो मेरा मन दुर्बल न हो, यह नीति दर्शन की शुद्धता से सहित होती है। समीचीनता बाह्यरूप पर ध्यान रखकर अंतरंग गुणों की ओर भी दृष्टि रखती है। धर्म का मूल गुण होता है, बिना गुणों के दर्शन टिकता नहीं है, वह कभी भी ढह जायेगा, गिर जायेगा टूट जायेगा, छिन्न-भिन्न होकर समाप्त हो जायेगा। गुणों से आच्छादित समीचीन दृष्टि वाला साधक ८ अंगों से सहित होता है। जैसे नि:शंकित अर्थात् जिन वचनों में शंका नहीं रखना, दूसरा नि:कांक्षित अर्थात् कामना से रहित प्रभु के दर्शन करना। तीसरा निर्विचिकित्सा-ग्लानि रहित सेवा के भाव से परिपूरित जीवन जीना, चौथा अमूढदृष्टि-मिथ्या मान्यताओं से गुरुजी का जीवन रीता हुआ है। उपगूहन-दूसरे के दोषों को सुनकर अपने तक सीमित रखने वाले। छठवाँ स्थितिकरण पद से विचलित होने वाले को पद पर स्थित करने वाले, सातवाँ वात्सल्य जैसा गाय बछड़े की प्रीति प्रसिद्ध है, ऐसे ही गुरुदेव धर्मप्रीति के लिए प्रसिद्ध हैं। आठवाँ प्रभावना-लोगों का अज्ञान मिटाकर सम्यक् प्रकाश भरकर सम्यक् प्रभावना करने वाले। इन आठ अंगों से आत्मा के प्रकाश को उजागर करके लोगों को सम्यग्दृष्टि बनाने का प्रयास करने वाले समीचीन दर्शन के पालक आचार्य गुरुदेव इन ५० वर्षों से लगातार कोरे सम्यग्दृष्टियों को यह बता दिया है सम्यग्दृष्टिपना भाषणों से किसी के अन्दर भरा नहीं जा सकता, यह तो गुणात्मक पद्धति का जीवित साधन होता है बाकी तो सब मिथ्या ही जानो।
  9. बचपन के विद्याधर अपने स्कूल जीवन में कक्षा नायक बनना चाहते थे। उनकी शारीरिक लम्बाई कम होने के कारण कक्षा नायक के पद पर स्थित नहीं हो पाये। इसी प्रकार एक बार नेहरूजी का चित्र देखकर बड़े बनने के लिए मचल गये। इस प्रकार क्रम चलता ही रहा और कक्षा नायक नहीं बन पाये, राजनेता नहीं बन पाये तो धर्म के नेता, मुनियों के नायक के पद पर स्थित होकर एक बाल ब्रह्मचारी ने बालब्रह्मचारियों की मुनि परम्परा को सूत्रपात किया। इसी प्रकार आर्यिकाओं के लिए। इसके पीछे कारण यही रहा होगा, इनके गुरु आचार्य ज्ञानसागरजी बालब्रह्मचारी आचार्य थे। उसी परम्परा को आगे बढ़ाने वाले गुरुदेव हैं, क्योंकि जो गृहस्थी बसाकर गृहस्थी का त्याग करके श्रमण बनना चाहता है लेकिन आदेश का पूर्णतः पालन करने में सक्षम नहीं हो पाता क्योंकि जिसने अपने जीवन के अधिकतम समय को आदेश देने में बिता दिया हो फिर वह दूसरों के आदेश में रह नहीं पाता। इसलिए ऐसे आवकों के लिए उदासीन आश्रम में भेज देते हैं। बालब्रह्मचारियों को उनकी योग्यता अनुसार संघ में या अन्यत्र स्थान पर भेज देते हैं। अवसर आने पर रत्नत्रय प्रदान कर मुनिधर्म की परम्परा को अक्षुण्ण बनाये रखते हैं, जो मुनिधर्म का पालन करते हैं। उस मुनिपने में ही जीते रहते हैं, मोह को विनष्ट करने वाला ही मुनि होता है और यही मुमुक्षु बनने की योग्यता रखता है। चेतन में समा जाना, आत्मा में रहे आने वाला ही स्वभाव की प्राप्ति करने वाला ही मुमुक्षु होता है। श्रमणों की परम्परा ही मुमुक्षु बनने की योग्यता के पथ का प्रदर्शन करने वाला है।५० वर्ष में बाह्य और अभ्यन्तर से एक श्रमण ने आचार्य गुरुदेव ने मुमुक्षुपने का संदेश देकर नामधारी मुमुक्षुओं को सावधान करके श्रमण परम्परा को बनाये रखा है।
  10. व्यक्ति के जीवन में दो धारायें चला करती हैं, एक शुभ की और एक अशुभ की। जो लोग लाभ-हानि के जानकार होते हैं, वे कभी भी अशुभ तत्त्व का चुनाव नहीं करते। लाभ को चाहने वाला जब भी चयन करेगा या पसन्द करेगा तो शुभ तत्त्व को ही करेगा। शुभ तत्त्व श्रुत का चिन्तन करना, मनन करना, आत्म धारणा में समा लेना, पर्याय बुद्धि को छोड़ आत्म बुद्धि में समा जाना। श्रुत ही संयमी जनों का मोक्षमार्ग के पथ का पाथेय है। कभी आत्मा को खुराक की जरूरत पड़ती है। प्रभु और गुरु के द्वारा प्राप्त श्रुत के तत्त्व को निकालकर शुभ में प्रवर्तमान हो जाते हैं। जब शुभ की आवश्यकता नहीं समझते तो शुद्ध ध्यान का आलम्बन ले स्वभाव में लीन हो चेतना में गुणों से युक्त हो श्रुत का प्रसारण ध्यान की मुद्रा के द्वारा निवृत्तात्मक क्रिया से प्रदान करते हैं। श्रुत का मतलब शास्त्र को लेकर बैठकर स्वाध्याय करने का नाम वही है, जिस श्रुत का दिनभर में स्वाध्याय किया है, उसे विशेषकर रात को निद्रा न लेकर श्रुत के चिन्तन में लीन हो जाना। जैसे पशु दिन में जो भोजन किया है, रात को वह खाये हुए भोजन की जुगाली करता है। ठीक इसी प्रकार गुरुदेव दिनभर के प्रश्नों का समाधान रात में सहज ही चिन्तन की धारा के द्वारा प्राप्त कर लेते हैं, वे रात में स्वाध्याय नहीं करते चिन्तन करते हैं इसलिए वे दुनियाँ की नजरों में शुभ चिन्तक दार्शनिक संतों की श्रेणी में गिने जाते हैं। इसलिए शिष्य-शिष्याओं को यही शिक्षा देते हैं, जितना भी स्वाध्याय दिनभर में किया जाता है, उसे खाली समय में चिन्तन का विषय बनाये रखें, यदि लेखन में गति है तो उसे प्रगतिमान बनाये रखें। यह सब उपयोग की शुद्धता के शुभ साधन हैं। उपयोग में अशुद्ध तत्त्व के प्रवेशीकरण को रोकने के लिए शुभ के चिन्तन का ५० वर्षों से आयाम चल रहा है, यही गुरुदेव की जिनवाणी के लिए शुभ के चिन्तन की धारा रही है।
  11. विद्याधर अष्टगे अपने पिता मल्लप्पाजी अष्टगे के द्वितीय पुत्र थे इसलिए अद्वितीय साबित हुए। गृहस्थ मार्ग को छोड़कर मोक्षमार्ग में आचार्य श्री ज्ञानसागरजी के प्रथम शिष्य अद्वितीय प्रभावक होगा। यह कोई न जान पाया था। आज समझ में आ रहा है। आचार्य ज्ञानसागरजी ने पंडित भूरामल की अवस्था से लेकर ब्रह्मचारी भूरामल तक की अवस्था से लेकर मुनि ज्ञानसागरजी की अवस्था तक जो ज्ञान प्राप्त किया, वह सम्पूर्ण ज्ञान आचार्य ज्ञानसागर बनने के बाद ब्रह्मचारी विद्याधर मुनि विद्यासागर को प्राप्त सम्पूर्ण ज्ञान उनके अन्दर भर दिया। इसलिए आज वह अद्वितीय प्रभावक साबित हुए इसलिए जो काम कोई नहीं कर सकता, वो काम गुरुदेव सहज ही कर लेते हैं, जब शिष्यों को बिना कोई पूर्व योजना के सूचना दिये बिना दीक्षा प्रदान करते हैं। तब समझ में आता है, जिनधर्म की प्रभावना किस रूप हो रही है। बड़ा स्थान भी दर्शकों के लिए छोटा पड़ जाता है। पानी भी गिर रहा हो तो दर्शक मूकदर्शक बनकर वैराग्य के दृश्य को टकटकी लगाकर देखता रह जाता है। सुविधा भोगी श्रावक सुविधाओं को छोड़ देता है। अपने आप युवक लोग मुनि महाराजों के सहयोग से रात भर में मयूर पंख से निर्मित पिच्छिका बना देते हैं और कमण्डलु तैयार कर देते हैं, क्योंकि गुरुदेव व्यवस्थाओं के बारे में नहीं सोचते इसलिए तात्कालिक व्यवस्थायें अपने आप बनती चली जाती हैं। उन्हें मंच-माइक से कोई प्रयोजन नहीं होता, उन्होंने मुनि समयसागरजी को जब मुनि दीक्षा प्रदान की द्रोणगिरि की पहाड़ियों पर उस दिन महाराज ने केशलोंच किया था, वो पहाड़ी पर जंगल के लिए आये थे। आचार्य गुरुदेव भी साथ में थे। उसी समय ब्राह्मी आश्रम की संचालिका दर्शन करने आई। पूछा द्रव्य नहीं लाई, इतना सुनते ही द्रव्य पास में रख दिया। उसी द्रव्य से संस्कार कर दिया। ऐसे अद्वितीय प्रभावक ५० वर्षों से ऐसे ही तात्कालिक साधकों का निर्माण कर अद्वितीय प्रभावना कर रहे हैं।
  12. आगम वाणी पूर्वाचार्यों से धर्मोपदेश के रूप में चली आ रही है, यह जिनवाणी कहलाती है, पहले मुनिधर्म का उपदेश प्रदान करें, फिर सामर्थ्य न हो तो उसे श्रावक धर्म का उपदेश दें। मुनि ही मोक्ष की इच्छा रखने वाला पापों से मौन रहने वाला, स्व स्वभाव में रहने वाला, निज तत्त्व को जानने वाला स्वकल्याण में तत्पर रहने वाला, इसे ही ऋषि कहते हैं, जो कर्मों के ऋणों से मुक्त होता है, वहीं वास्तव में ऋषि है। इसे यती भी कहते हैं। यत्नाचारपूर्वक, सावधानी पूर्वक, २८ मूलगुणों का निर्दोष रीति से पालन करना, २२ परीषहों को समता के साथ सहन करना, इसलिए यतिराज कहा जाता है। ऋषिराज कहा जाता है। मुनिराज कहा जाता है। आचार्य उमास्वामी महाराज तत्त्वार्थसूत्र में मंगलाचरण करते हुए कहते हैं मोक्षमार्गस्य नेत्तारं भेत्तारं कर्मभू भृताम्। ज्ञातारं विश्व तत्त्वानां वंदे तद्-गुण लब्ध्ये॥ मोक्षमार्ग का नेता वही होता है, जो कर्म के खण्डन के लिए लगा हो और गुणों की प्राप्ति के लिए लगा हो, वही मोक्षमार्ग का नेता होता है। श्रावक अपनी योग्यता से श्रावक धर्म का पालन करके भी मुनिधर्म को प्राप्त कर मोक्षमार्ग प्रशस्त कर सकता है। बिना मुनि बने मोक्षमार्ग अर्थात् मोक्ष सम्भव नहीं है। वास्तव में मार्ग तो यही है। मोक्षमार्ग का उपदेश देने वाले वक्ता गली-कूचे में मिल जायेंगे। मोक्षमार्ग पर चलने वाले श्रमण दुर्लभ हैं। इस दुर्लभ मोक्षमार्ग का उपदेश अपनी चर्या से लगातार साधनारत रहकर बिना बोले सब कुछ कहने वाले और सब कुछ सहने वाले शीत-उष्ण, वर्षा ऋतु में साम्यभाव बनाये रखने वाले मोक्षमार्ग का ५० वर्षों से सम्यक् उपदेश देने वाले समीचीन चर्या करने वाले गुरुदेव जयवन्त हों।
  13. परम शब्द उनके नाम के आगे लगता है जिनके अन्दर गुणों की बहुलता, तन की सुन्दरता के रूप में प्रकट हुई जान पड़ती है। वे परमपूज्य मन को मोहित करने वाले, मोहिनी विद्या से युक्त जैन हो, अजैन हो सभी उनके सम्मोहन के घेरे में आते चलते हैं। जब वे मुस्कराते हैं, मानों लोगों के मन का हरण कर लिया हो, जब वचन बोलते हैं तब भी यही स्थिति बनती है। उठने का नहीं वचन सुनते रहने का मन बना रहता है। इसलिए गुरु जी प्रवचन दे देते हैं जिससे लोगों का धर्म मन में लगा रहे अन्यत्र न जा पाये। जब वे विहार करते हैं ऐसा लगता है धरती पर महावीर भगवान् आ गये हों। जब वो चर्या पर निकलते हैं तीर्थंकरों का जीता हुआ तीर्थ साक्षात् दृश्यमान होने लगता है जब उनसे कोई श्रावक चर्चा करता है तो ऐसा लगता है चर्चा करने का समय कम हो गया और समय मिलता तो अच्छा होता। यही चुम्बकीय आकर्षण लोगों के लिए मनमोहक बन गया। वास्तव में वे मनमोहक तो हैं ही लेकिन मनोज्ञ भी हैं। क्योंकि मोक्ष की इच्छा करने वाले, मोक्ष की ओर गमन करने की साधना के साधन का प्रयोग करने वाले धर्मी साधक हैं। जो विधर्मी का मनमोह लेते हैं। धर्मियों के मन में समा, मोक्ष का मार्ग प्रशस्त कर देते हैं। इनके रूप को लख इनका कौन नहीं बनना चाहता। जो इनके होते हुए भी इनका नहीं बन पा रहा है, यह उसका दुर्भाग्य जानो और जो इनके हो गये हैं उनके पुण्य का भाव जानो। इनका होने के बाद इन्हें छोड़ने का भाव नहीं आता। यही इनके मन, वचन, काय की प्रवृत्ति से निवृत्ति की स्वभाव की ओर जाने से मनमोहकता बढ़ती चली जा रही है।५० वर्षों में गुरुदेव निज स्वरूप की ओर ही मोहक बने रहे। इसलिए बाहर में मनमोहक, मनोज्ञ पुरुष का रूप धारण कर लोगों के वैचारिक जीर्णोद्धार भाव, परिवर्तन के सिद्ध पुरुष साबित हुए।
  14. आगम ग्रन्थों के रहस्यों की चर्चा करने वालों की आज कमी नहीं है लेकिन उसके अनुरूप चलने वालों की कमी जरूर है। लोग चर्चा तो कर लेते हैं, चर्या के क्षेत्र में अर्थात् चारित्र में शून्य की ओर ही आ जाते हैं। उनकी चर्चा महत्त्वपूर्ण मानी जाती है, जो चर्या के रूप में देखने मिलती है, इसे ही चारित्र कहते हैं। चारित्रमान पुरुष आगम के एक शब्द को भी लोगों के कान तक पहुँचाने का काम करता है तो उनके मनोभावों में हलचल मच जाती है। विशुद्ध चर्या ही शुद्ध चर्चा से शोभित होती है, इसे मूल आम्नाय आचार्य कुन्दकुन्ददेव स्वामी की धरोहर के रूप में जाना जाता है। बाल हों, वृद्ध हों, रुग्ण हों, किसी भी स्थिति में हों, चर्या जब भी होगी, मूलाचार के परिवेश के साथ ही होगी। यहाँ प्रमाद और छूट की कोई गुंजाइश नहीं। खड़े होकर भोजन तो लेना ही है साथ में करपात्र में किसी पात्र में आहार करता है तो चर्या की शिथिलता है। पैरों में चलने की सामर्थ्य नहीं है, किसी तीर्थक्षेत्र पर रुक जाये, वहाँ रुककर स्वास्थ्य लाभ लो लेकिन शिथिलता नहीं। मुनि बनकर आरम्भ मत करो। लाइट को जलाओ मत, बुझाओ मत अपने हाथ से। इसमें अग्निकायिक, वायुकायिक, जलकायिक जीवों की विराधना होती है। कृत, कारित, अनुमोदना के लिए निषेधवाचक शब्दों का प्रयोग किया गया है। मन, वचन, काय को पापों की सीढ़ी चढ़ने से बचने के लिए प्रतिफल मूलाचार याद रखो। आत्मा में जाने के लिए समयसारमय ध्यान करो। ५० वर्षों में गुरुदेव की चर्या मूलाचार के राही बनकर चली आ रही है और समयसार के ध्यानी आत्मा बनकर लोगों को सम्यग्ज्ञान का संदेश देकर सम्यक्चारित्र की ओर प्रेरित करते हुए देखे जा रहे हैं।
  15. कानून की धारा में भाषा बिन्दुओं से बँधकर चलती है। एक-एक पॉइन्ट महत्त्वपूर्ण होता है। वकील के उस एक बिन्दु पर ही जज अपना निर्णय सुनाता है, जितना प्रश्न महत्त्वपूर्ण होता है उतना ही समाधान। कम शब्दों में अधिक प्रभावपूर्ण शब्दों का प्रयोग करना ही हितकारी, मितकारी माना जाता है। मृदु भाषा नहीं होने वाले कार्य में सफलता का कारण बनती है, लेकिन मृदुता में ध्यान रखें वक्रता न छिपी हो, जिसे माया का भाव या माया कषाय कहते हैं , कषाय से रहित भाषा का प्रयोग आत्महितकारी व्यक्तित्व के द्वारा ही सम्पादित होते हैं। कई बार साधक साधना में लगे होते हैं तो वचन का प्रयोग न करके काय के प्रयोग से अर्थात् इशारे से कार्य का सम्पादन करते हैं। शब्दों के अनर्थदण्ड का ख्याल रखना ही वचन गुप्ति की प्राप्ति में साधक कारण बन सकता है। आज के युग में मोबाइल से शब्दों का अनर्थ ज्यादा हो रहा है। जिसे गुरुदेव ने अपने ब्रह्मचारियों को मोबाइल के प्रयोग के लिए निषेधात्मक भाषा का प्रयोग करते हैं। उनका हितोपदेश संसारी प्राणी के लिए यही होता है, संसार में रहकर निर्वेग और संवेग भाव को प्राप्त हो वैराग्य के पथ की ओर आने पर भाषा मौन हो जाती है क्योंकि आत्मा की भाषा समझने में आने लगती है, जो आत्मा की भाषा को सुनने का अभ्यासी होता है। वह व्यवहार जगत् में आने पर हित-मित-प्रिय भाषा ही बोलता है क्योंकि आदेश लोगों के लिए शत्रुवत् हो सकता है। बार-बार आदेश माँगने पर एक बार हाँ कहना भी मुश्किल-सा जान पड़ता है। शब्दों की कंजूसी यह लोभ कषाय नहीं है, यह आत्म साधना का साधन है। शब्दों के पाप से आत्मा को बचाना। इन ५० वर्षों में गुरुदेव ने सहज रीति से प्रीति के साथ निर्वाह किया है, जिसे जैन जगत् जानता है।
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