स्वतत्त्व के जानकार परतत्त्व से निर्मोहता स्व अर्थात् आत्मतत्त्व, पर अर्थात् शरीर के प्रति निर्मोह एवं आत्मा के राग में रंगे रहकर भेदविज्ञान की ओर लगे रहते हैं। शरीर अलग है, आत्मा अलग है। गुरुदेव स्वसमयपरसमय, स्वमत-परमत के जानकार हैं। जैसे जैन आगम के समग्र को जानते हैं और उसके प्रयोग में, उपयोग में चित्त की शुद्धि में, चेतना की अनुभूति में लगे रहते हैं। इसी प्रकार परसमय, परमत का भी ज्ञान रखते हैं। जैसे गीत, वेद, पुराण आदि। एक बार अमरकंटक प्रवास के समय अन्य साधुओं का आना होता था। वहाँ के बाबा कल्याणदास, मौनी बाबा, नारद मुनि, बर्फानी बाबा, सुखदेवानंद, रामकृष्ण आश्रम के बाबा गण आचार्यश्री से आकर धर्म चर्चा किया करते थे। एक दिन एक बाबा ने भगवत् गीता का एक श्लोक बोला तो वह भूल गये, तब आचार्य गुरुदेव ने उनके श्लोक को पूरा कर दिया। तब समझ में आया गुरुदेव परसमय, परमत के भी ज्ञाता हैं। उसी समय एक बाबा ने कहा-हम तो सनातन हैं तो गुरुदेव बोले इसलिए तनातनी मची रहती है। इस प्रकार हँसी-हँसी में भी आत्मबोध करा दिया करते हैं। इसी क्रम में तिलवाराघाट में प्रवास के समय योगगुरु बाबा रामदेव दर्शन करने आये। आचार्य संघ को दिगम्बर रूप में देखकर बाबा गद्गद् होकर नतमस्तक हो गये। चर्चा के दौरान गुरुदेव ने परसमय, परमत के खजाने से निकालकर एक श्लोक अपने मुखारबिंद से बाबा रामदेव के सामने प्रकट किया
नाहं रामो न मे कामः, भोगेषु न च मे मनः।
किन्त्वहं कामये शक्तिं, नित्यमेव जिन यथा॥
न मैं राम हूँ, न मेरे अन्दर कुछ इच्छायें हैं एवं भोगों में भी मेरा मन नहीं है, किन्तु उन भोगों की इच्छा की शांति हो ऐसी कामना नित्य करता हूँ, जिनेन्द्र भगवान् के समान। गुरुदेव से यह श्लोक सुनकर बाबा रामदेव अभिभूत हुए। जैसे स्वसमय, स्वमत की साधना में लगे हुए हैं वैसे ही परसमय, परमत की साधना के ज्ञाता गुरुदेव ने कहा-ये बाबा लोग आते रहते हैं और इनके यहाँ नाम साधना चलती रहती है। जिसमें राम-राम का जाप जपते रहते हैं। ५० वर्षों से स्वमत, स्वसमय, परमत, परसमय के ज्ञाता अपने शिष्यों के लिये भी स्वमत की जानकारी के बाद ही परमत की जानकारी की अनुमति देते हुए स्वपर समयज्ञ संज्ञा को प्राप्त कर दृश्यमान हो रहे हैं।