विश्व के सभी जीवों के कल्याण हित के बारे में सोचना, दया करना, वात्सल्य, अनुकम्पा, अहिंसा आदि दृष्टि ऐसे भव्य जीवों के अन्तर्मन में पलती रहती है। वे ही महापुरुष भवसागर से पार करने या विशुद्ध पद को इन भावनाओं से सहज प्राप्त कर विश्वकल्याण का उद्देश्य अवश्य ही पूरा कर लेते हैं। चाहे वे पृथ्वीकायिक जीव हों, करुणा, दया, हितैषी की जब भी इन जीवों पर दृष्टि पड़ती है वह यही विचार करता है कि अनन्तकाल से ये जीव एकेन्द्रिय पर्याय में पड़े हुए हैं। अपन भी कभी इन पर्यायों में जन्म लेकर निकल आये, ये कब निकलेंगे और आत्म तत्त्व को पाकर निज का पान कर पायेंगे। कहीं भी धर्म के नाम पर या पेट भरने के नाम पर जीभ के स्वाद के लिये जीवों का वध किया जाता है तो ऐसे विश्व हितैषी पुरुष के मन में तड़पन होने लगती है। दया, करुणा से रोम-रोम रोमांचित हो उठता है वे गंभीरता के सागर में निमग्न हो आत्म स्वरूप के बारे में सोचने लगते हैं। वे ऐसे कोई भी आदेश नहीं देते जिससे किसी भी प्रकार के जीवों की विराधना की सम्भावना हो। स्वहस्त कार्य को सम्पादन करके जीव दया पालन करते हुए यही कामनाभावना में लगे रहते हैं
सुखी रहें सब जीव जगत के, कोई कभी नहीं घबरावे।
वैर पाप अभिमान छोड़ जग, नित्य नये मंगल गावे॥
घर-घर चर्चा रहे धर्म की, दुष्कृत दुष्कर हो जावे।
ज्ञान चरित्र उन्नत कर अपना, मनुज जन्म फल सब पावे॥
गुरुदेव का जीवन ५० वर्षों से अहंकार भाव, क्रोध भाव, ईर्ष्या भाव इन सबसे रिक्त सरल, सत्य व्यवहार के द्वारा जीवों के उपकार और जगत् में मैत्रीभाव, दीन दुखियों पर करुणाभाव, दुर्जन कुमार्गियों पर क्षोभ न रखकर साम्यभाव की परिणति में जीते हुए नजर आ रहे हैं।