भगवान् की वाणी जब भी खिरती है तब चारों निकाय के देव सुनने के लिए समवसरण में पहुँचने लगते हैं। सभी जाति के तिर्यंच पशु-पक्षी आदि धर्मोपदेश सुनने के लिए पहुँचने लगते हैं। मनुष्य जाति के लोग स्त्री-पुरुष आदि। इसी प्रकार गुरुदेव जब विहार करते हैं तब लोग जात-पात का भेद भूलकर दर्शन और प्रवचन के लिए कतारबद्ध होकर आने लगते हैं और अपनी बुराइयों का विसर्जन कर, चरण छूकर आशीर्वाद पाकर आगे बढ़ते चले जाते हैं। किसी शहर में जब रुकना होता है या चातुर्मास करना होता है तब जैनेतर लोग भी नित्य दर्शन और प्रवचन के लिए अपने घरों से पैदल बिना जूते-चप्पल के चले आते हैं। जैसे भगवान् के आलय में प्रवेश करने की विधि होती है वैसे ही गुरु के आलय में पैर धोकर, मुख शुद्धि करके चमड़े की वस्तु बाहर रखकर, हाथ धोकर गुरु मंदिर में प्रवेश कर चरण छूकर अभयमुद्रा पाकर, मन्द-मन्द मुस्कान का दर्शन कर अपने को कृतकृत मानकर चले जाते हैं। जिस समय गुजरात के विघ्नहरण पारसनाथ महुआ क्षेत्र में चातुर्मास हुआ। उस समय सर्व जीवों के हितार्थ स्कूल में राम, हनुमान, पाण्डव आदि को लेकर रविवारीय प्रवचन होते थे। सबके हित की दृष्टि को रखते हुए सम्मेदशिखर में तीर्थरक्षा कमेटी को करेली के पंचकल्याणक, छिंदवाड़ा के पंचकल्याणक में समाज द्वारा मधुवन के आदिवासियों के हित के लिए जनकल्याणी योजना से लाभ पहुँचे इससे समाज ने राशि प्रदान की। यह गुरुदेव का हितदायक विचार था और भी कोई भूले भटके जैनेतर लोग आ जाते हैं, उन्हें भी समाज के द्वारा सहयोग के लिए प्रेरित करते हैं। इसी का उदाहरण महुआ चातुर्मास में विघ्नहरण पारसनाथ की स्कॉलरशिप योजना बनी। इसी तरह अमरकंटक में सबके लिए शरण मिले इसलिए वहाँ यात्रियों को कम राशि में प्रवास के लिए स्थान प्रदान किया जाता है। गुरुदेव के उपकारों की हितकारी कार्यों की भावों की तुलना करना कठिनतम कार्य रहा जो ५० वर्षों से आत्महित के साथ लोकहित का कुशलता से सम्पादन करते आ रहे हैं।