साधुता का सा समता वाचक, ममता परित्यागी, ममता का त्याग ही, शरीर से निर्ममत्वपना, आत्मा में साम्यभाव, निजचेतना की परख की ललक में तत्पर बना रहता है। दीन-दुखियों के प्रति भी वही करुणा का, दया का, साम्यभाव ही मैत्री का भाव सुख दुख की घड़ियों में निराकुल बनाकर शांत, प्रसन्नचित्त ही एकाग्रता में सहयोगी होता है। समता का भाव ही सामायिक चारित्र कहा जाता है। इसी सामायिक चारित्र की भूमिका में प्रतिपल समता रस का पान करते हुए २८ मूलगुणों का निर्दोष रीति से पालन कर कभी भी अन्य लोगों के द्वारा अशब्द, शब्दों के प्रयोग से साम्यभाव उनका स्थिर बना रहता है। कभी भी उनका मन विचलित नहीं होता क्योंकि साम्यभाव की धारणा ही साधुता की डोर हुआ करती है। समता के बिना साधुता शून्य के घेरे में समाहित हो जाती है। गुरुदेव बड़ी-बड़ी समस्याओं को धैर्य के प्रयोग से समाधान पा लेते हैं। इसलिए वे धीरवान हैं, वीरवान हैं, समता से परिपूरित हैं इसलिए वे समतावान हैं, समता के गुण से संतोष गुण भी आत्मा में समाहित होता चला जाता है यह सुख और शांति का साम्राज्य फैलाती चलती है। ठण्डी, गर्मी, वर्षा इन सब ऋतुओं की प्रतिकूलता समता के अभ्यास से सहन करने की शक्ति एक दुर्बल बल वाले व्यक्ति के अन्दर भी आ जाती है। घर की शांति के लिए भी समता के प्रयोग से अशांति दूर होती है। देश की अशांति भी समता के प्रयोग से शांति में बदल जाती है। फिर अनंतकालीन आत्मा की अशांति समता के प्रयोग से आत्मध्यान की प्राप्ति में कारण बनती है। ध्यान का मूल्य, निज स्वभाव की प्राप्ति का मूल्य, चेतना में निमग्न होने का मूल्य समता का भाव ही होता है। दुनियाँ के सारे झगड़ों की जड़ को ५० वर्षों से गुरुदेव ने अपने निजी समताभाव से विनष्ट कर दिया, नष्ट कर दिया, समाप्त कर दिया।