चारित्र की सुंदरता के तीन साधन-ज्ञान, ध्यान, तप। जिसकी वृद्धि सम्यग्ज्ञान से सहित होती है। तप दृष्टि रखकर तप के साधन से जीवन को पवित्र उज्ज्वल बनाकर अपनी आत्मा में ध्यान की अग्नि उत्पन्न करता है। इसी तरह आचार्य गुरुदेव ज्ञान के माध्यम से अपने को विजी/व्यस्त बनाये रखते हैं। यही योगी का वास्तविक विजनेस/व्यापार हुआ करता है। ज्ञान के माध्यम से तप की ओर सहज आना हो जाता है। योगी जान से मन को रमाते हैं। तप से कर्मों को जलाते हैं। ध्यान से आत्मा की विशुद्ध परिणामों में समा जाते हैं। संसार की ऊब से बचने के लिए योगी के पास कभी ज्ञानमय परिणति से लोगों को सम्यग्ज्ञान में लगा देते हैं। कभी तप की परिणति से लोगों को तपस्या के क्षेत्र में लगा देते हैं। कभी ध्यान की परिणति से साधक को आत्मध्येय की ओर लगा देते हैं। इन ५० वर्षों में गुरुदेव के पास अनेक युवक-युवतियाँ आयीं जो ज्ञान के पिपासु थे, उन्हें गुरुदेव ने उनकी योग्यता के अनुसार ज्ञान का रस पिलाया। जो ज्ञान को नहीं; तप और चारित्र को चाहते थे, उन्हें रत्नत्रय का व्रत प्रदान किया और आत्मध्यान की साधना के सूत्र जीवात्मा के अंदर विकसित किये। ज्ञान एक ऐसा समाधान है जो संसार के विकल्पों से बचाकर आत्म-समाधान की ओर लगा देता है। जो दुनियाँ के विवादों से बचाकर आत्मवाद की ओर अग्रसर कर निर्विवाद परम्परा का उद्घाटन करता है। ध्यान एक ऐसी विशेष ज्योति प्रकाश की ओर ले जाता है, जिसे आत्मप्रकाश कहते हैं। इसी प्रकाश को प्राप्त करने में अपने समय का खर्च गुरुदेव करते हैं। और अपने शिष्यों को भी इसी ओर आने की रहने की नित्य प्रेरणा देते रहते हैं। समाज में उन्हें ज्ञान-ध्यान-तप की मूर्ति के रूप में ५० वर्षों से जाना जा रहा है।