आत्म-परिणाम के प्रशस्त भावों की भंगिमा ही बाह्य में क्रिया रूप में दर्शित होती है। प्रशस्त भाव ही आत्मा की निर्मलता, कर्मों के दहन की पुण्य के बंध की क्रिया की विधि है। जब यही प्रशस्त भाव बाहर से छूटकर अन्दर आत्मध्यान में समाहित होने लगते हैं तो बाहर की प्रशस्तता से बँधा हुआ पुण्य छूटने लगता है। जैसे थोड़े से पुरुषार्थ के द्वारा मूंगफली के दाने से कवच अलग हो जाता है और पुरुषार्थ वृद्धिंगत होता है तो मूंगफली के दाने का छिलका भी अलग हो जाता है। इस प्रकार आत्मा पाप-पुण्य के कर्मों से रहित होकर शुद्ध-चैतन्य रूप में प्रकट हो जाती है। इसी प्रकार परम वीतरागी गुरुदेव अपने भावों की प्रशस्तता के साथ, बाह्य चर्या को भी प्रशस्त बनाकर जैसे-जिनेन्द्र स्तुति करते समय मनोयोग की स्थिरता के साथ भाव-विभोर होकर चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति करते हुए ऐसे जान पड़ते हैं, जैसे साक्षात् समन्तभद्र स्वामी ही स्तुति कर रहे हों। जब भगवान् की वंदना के लिए जिनालय में प्रवेश करते हैं उस समय गद्गद् भावों से भगवान् की वंदना पंचाङ्ग नमस्कार विधि से करते हैं। तब समझ में आता है कि एक भक्त भगवान् के द्वारे भक्ति कर रहा है और वो भक्ति में लीन होकर ऐसे लगते हैं जैसे भगवान् की मुद्रा में समाहित हो गये हैं। यही भक्ति की प्रशस्तता ही निज स्वरूप का भान कराती है। जब गुरुदेव नंदीश्वर भक्ति का पाठ करते हैं, उस समय ऐसे खो जाते हैं जैसे नंदीश्वर की वंदना करने चले गये हों। इसी तरह सामायिक करने के बाद जब सामायिक पाठ आचार्य अमितगति द्वारा रचित पढ़ा करते हैं, तब कोई भक्तजन दर्शन करने आते हैं तो उन्हें ऐसा ही जान पड़ता है, जैसे सी.डी. प्लेयर ही चल रहा हो। यह तन्मयता ही आत्ममय भावों को प्रकट करने वाली क्रिया जान पड़ती है। इसी तरह जब प्रतिक्रमण करते हैं, उस समय द्रव्य प्रतिक्रमण से भाव प्रतिक्रमण की ओर गमन कर जाते हैं। तब समझ में आता है गुरुदेव ५० वर्षों से समग्र क्रियाओं में प्रशस्त भावों से युक्त नजर आते हैं।