अरिहंतों के पथ के अनुशरण से मोक्षमार्ग पनपता है या यूँ कहो मोक्ष द्वार खुलता है। इसी अनुश्रुति को ध्यान में रखते हुए आचार्य गुरुदेव ने कर्म हनन की पद्धति को स्वीकारा जो संसार विच्छेद की परम्परा को बढ़ाने में एक साधन का कार्य कर आत्मा को साधक कार्य में लगाकर मोक्ष की कुंजी प्रदान करने वाली परम्परा तीर्थंकर प्रभु के द्वारा अक्षुण्ण रूप से चली आ रही है। इन्हीं अरिहंतों की स्तुति, वंदना, ध्यान का विषय बनाकर कार्य की वह पद्धति कोई भी न करे, जिसे वह काम करो भाई, अरिहंतों की प्रतिमाओं का ध्यान धरो भाई। अरिहंत स्वरूपी आत्मा निष्कर्मा निकल परमात्मा जिनकी आत्मा में से कर्मों के चिपकन का विच्छेद उनकी ही आत्म साधना के द्वारा सहज होता रहता है। इस अवस्था में शरीर से प्रयोजन छूट जाता है। परीषहों की राह पर चलते हुए भी परीषह का मान न रखकर अरिहंतों का ध्यान ही आत्मध्येय को प्रदान करने वाला आत्मसंतुष्टि का प्रदाता आत्मा से मोह परिणाम छुड़ाकर आत्मा को मोहक, मनोहर पद से विभूषित करने वाला यह अर्हत् पथ अनुगामी परम्परा का मार्ग आचार्य गुरुदेव अपनी गुरु परम्परा आचार्य शांतिसागर से लेकर आचार्य वीरसागर, आचार्य शिवसागर, आचार्य ज्ञानसागर तक उसी निर्वाह से निर्वाण की युक्ति का अनुसरण करते-करवाते हुए नित्य निरंतर चले आ रहे हैं और अंत तक चलने का लक्ष्य निर्धारित कर लोगों में सम्यक्त्व समीचीन देव अरिहंत स्वामी की आराधना-साधना की नीतिपरक स्तुति का प्रचलन गतिमान कर आगम के देवता प्रथम परमेष्ठी अरिहंत परमेष्ठी। अरहंत, अरुहंत यह सब एकार्थवाचक अरिहंत परमात्मा के स्वरूप के घोषक परमात्मा माने जाते हैं। इन ५० वर्षों में गुरुदेव ने संघ से लेकर समाज तक उत्तर से लेकर दक्षिण तक अर्हत् पथानुगामी के नाद की धुनि से झलंकृत किया है।